साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ जंग का एक मैदान है साहित्य

भोपाल। साम्राज्यवाद आज अपने खुद के अंतर्विरोधों की वजह से भी और दुनिया के अनेक हिस्सों में हो रहे साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों की वजह से भी गहरे संकट में आ गया है। इन संकटों से उबरने के लिए साम्राज्यवाद युद्ध की शरण में जाता है। युद्ध से बड़े पैमाने पर मौतें, विस्थापन, भुखमरी आदि समस्याएं पैदा होती हैं। मौजूदा दौर में रूस और यूक्रेन तथा इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच चल रहे युद्धों ने मानवता के सामने एक तरफ एक भीषण संकट खड़ा किया है लेकिन शोषण के खिलाफ और मनुष्य की आत्मसम्मान के साथ जीने की चाह रखने वाले लोगों को यह अवसर भी मुहैया कराया है कि ये साम्राज्यवाद और पूंजीवाद को जड़ से उखाड़ फेंक दें।  

यह बातें प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सचिव श्री विनीत तिवारी ने “साम्राज्यवाद और विस्थापन: साहित्य में उपस्थिति” विषय पर अपने सम्बोधन में कही। वे अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की भोपाल इकाई द्वारा आयोजित स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में व्याख्यान कार्यक्रम में बोल रहे थे। यह कार्यक्रम 14 अप्रैल 2024 को भोपाल स्थित मायाराम सुरजन भवन में कार्यक्रम आयोजित किया गया।

शुरुआत में भोपाल इकाई के सचिव, युवा कवि और पत्रकार संदीप कुमार ने मुख्य वक्ता एवं अन्य अतिथियों और श्रोताओं का स्वागत किया और संचालन के लिए प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य अध्यक्ष मण्डल के सदस्य शैलेन्द्र शैली को आमंत्रित किया।

शैलेंद्र शैली ने विषय प्रवर्तन और मुख्य वक्ता का परिचय देते हुए कहा कि साम्राज्यवाद जहां भी गया, उसके अनिवार्य परिणाम के रूप में विस्थापन की त्रासदी सामने आयी। सामान्य और दलित-पीड़ित जनता का पक्षधर होने के नाते वामपंथ और प्रगतिशील लेखन हमेशा साम्राज्यवाद और उसके द्वारा थोपे गये विस्थापन के विरुद्ध मज़बूती से खड़ा रहा। सत्ता पक्ष की सोच और कार्रवाइयों में हमेशा साम्राज्यवादी सोच हावी रही और प्रगतिशील लेखन हमेशा अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाते हुए प्रतिरोध दर्ज कराता रहा। इजराइल के एकतरफ़ा विध्वंसक य़ुद्ध की शिकार हो रही फिलिस्तीनी जनता के प्रति एकजुटता प्रदर्शित करते हुए उन्होंने इस विषय को

फिलिस्तीनियों के विस्थापन से जोड़कर देखने पर ज़ोर दिया। युवा कवयित्री पूजा सिंह और वरिष्ठ कवयित्री प्रज्ञा रावत ने प्रसिद्ध फिलिस्तीनी कवि मेहमूद दरवेश की कविताओं के हिंदी अनुवाद का पाठ किया।

प्रलेस का स्थापना दिवस, जनचौक
प्रलेस के स्थापना दिवस में उपस्थित श्रोतागण

मुख्य वक्तव्य में विनीत तिवारी ने कहा कि साम्राज्य तो सामंतवाद के समय भी होते थे। अनेक साम्राज्य दुनिया में अलग-अलग जगहों पर मौजूद थे लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद से साम्राज्यवाद का दौर शुरू होता है यहां तक कि कार्ल मार्क्स के लेखन में भी साम्राज्य यानि एम्पायर शब्द तो मिलता है लेकिन साम्राज्यवाद यानि इम्पीरियलिज़्म नहीं मिलता। साम्राज्यवाद का सैद्धांतिक विवेचन सबसे पहले लेनिन ने किया और उन्होंने इसे पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था बताया जहां उत्पादक पूंजी और उत्पादक शक्तियां हाशिये पर चली जाती हैं और वित्तीय पूंजी केन्द्र में आ जाती है। उस लिहाज से साम्राज्यवाद को दो पैमानों से पहचाना जा सकता है। पहला यह कि शोषक ताकतें किसी दूसरे देश पर कब्जा करके यानि उसे उपनिवेश बनाकर उस देश के उद्योगों को खत्म कर देती हैं और दूसरा उस देश की उपज और उत्पादन को जबरदस्ती हड़पती जाती हैं। उन्होंने कहा कि आज अनेक सिद्धांतकार कहने लगे हैं कि अब साम्राज्यवाद नाम की कोई चीज अस्तित्व में ही नहीं है। अब जो है वो बाज़ार है और यहां सब बराबर हैं। लेकिन ये सिद्धांतकार साम्राज्यवाद के बदले हुए रूप को नहीं पहचान पाते। उन्होंने प्रभात पटनायक के हवाले से कहा कि बदले हुए दौर में देशों की सेनाएं नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक और विश्वव्यापार संगठन जैसे संस्थान साम्राज्यवाद के शोषण के मुख्य हथियार बने हुए हैं। 

भारत के संदर्भ में उन्होंने कहा कि मध्य काल में दुनिया भर में राजतंत्र का दौर रहा और रियासतों के बीच लड़ाइयां चलती रहीं लेकिन स्थानीय सत्ताओं का अथवा आक्रमणकारियों का भी, शासित प्रजा से कुछ न कुछ सरोकार बना रहता था और आम तौर पर वे प्रजा की जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के प्रयास करते रहते थे। ख़ास तौर पर भारत का सांप्रदायिक तबका मुगलों के शासन को अंग्रेज़ों के शासन की तरह विदेशियों का शासन बताते हुए मुगल शासन को बदतर साबित करने की कोशिशें करता रहा है। यहां तक कि जब पूरा देश अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद होने के लिए संघर्षरत था तो यह तबका मुगल शासन से मुक्ति दिलाने और भारत को तथाकथित रूप से आधुनिक बनाने वाले अंग्रेज़ों को शुक्रिया अदा करते हुए उनके साथ सहयोगी की भूमिका भी निभाता रहा।

लेकिन बंगाल के अकाल जैसे कुछ देशी उदाहरणों से भी स्पष्ट हो जाता है कि साम्राज्यवाद की क्रूरता बेमिसाल थी। बंगाल की भौगोलिक स्थिति इस प्रकार थी कि ज़्यादातर हिस्सों की ज़मीन में पानी की कोई कमी नहीं थी। हर मौसम में हरियाली छायी रहती थी। प्राकृतिक रूप से अकाल पड़ने पर भी इतना अनाज लोगों के पास होता था कि वे भूख से नहीं मरते थे। लेकिन अंग्रेजों का वर्चस्व बंगाल पर हो जाने के बाद भारत के इतिहास के सबसे भीषण अकाल बंगाल में ही पड़ा। और वह भी एक बार नहीं बल्कि बार-बार। बंगाल में पहली बार अकाल पड़ा 1770 में। उस अकाल के कारणों पर ध्यान दें तो ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में प्लासी की घेराबंदी में नवाब सिराज-उद-दौला को हराकर बंगाल पर कब्ज़ा कर लिया था और ज़मीनों पर लगान का हक़ हासिल करके लगान की दरें बेतहाशा बढ़ा दी थीं। ज़्यादा से ज़्यादा लगान वसूल करने वाले अधिकारियों को सम्मानित किया जाता था। लगान के रूप में अनाज लूटा जा रहा था और किसानों के पास ख़ुद के खाने के लिए भी अनाज नहीं बचा था। नतीजे के तौर पर एक करोड़ लोग भूख से मारे गए थे जो बंगाल की आबादी का एक तिहाई हिस्सा थे। दूसरा बड़ा अकाल 1873 में पड़ा जिसमें फिर लाखों लोग मारे गए उसके बाद से तत्कालीन मद्रास, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान आदि अनेक हिस्सों में अकाल पड़ते ही रहे और लोग मारे जाते रहे। इनकी गिनती भी अंग्रेज इतिहासकारों के दस्तावेजों से ही मिलती है। 

भारत में आखिरी बड़ा अकाल बंगाल में 1943 में पड़ा। सन 1943 के अकाल की पृष्ठभूमि यह थी कि द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बर्मा (म्यांमार) होते हुए भारत पर जापानी आक्रमण को रोकने के लिए तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के आदेश पर बंगाल की जनता के पास मौजूद हजारों नावें तोड़ दी गई थीं ताकि जापानी सेना नदियों को पार न कर सके। ये नावें लाखों लोगों की आजीविका का एकमात्र सहारा थीं। जापानी सेना की रसद आपूर्ति न हो सके, इसके लिए करोड़ों लोगों के घरों से लूटकर सारे अनाज सरकारी गोदामों में भर लिए गए थे। ब्रिटिश सरकार ने भुखमरी की इस असली वजह को छिपाकर सूखे और अकाल का बहाना बनाया और चर्चिल ने निहायत बेशर्मी से दुनिया को बताया कि हमने बहुत अच्छा प्रबंध किया जिसके कारण मरने वालों की संख्या तीस लाख तक सीमित रह सकी हालांकि सत्यजीत रे एवं अन्य अनेक इतिहासकारों ने मरने वालों का आंकड़ा कम से कम 50 लाख बताया। विनीत ने इस विषय पर सत्यजित रे की बनायी फिल्मों और बंकिमचंद्र के ऐतिहासिक उपन्यास आनंद मठ का भी ज़िक्र किया।

दक्षिण अमेरिका में साम्राज्यवाद ने जो बेतहाशा लूटपाट की, उस संदर्भ में एडुआर्डो गेलियानों की कृति “ओपन वीन्स ऑफ़ लैटिन अमेरिका” तथा अफ्रीकी महाद्वीप में साम्राज्यवाद के तांडव का विहंगावलोकन करते हुए विनीत ने कहा कि साम्राज्यवाद चाहे ब्रिटेन का हो, या फ्रांस, स्पेन आदि अन्य यूरोपीय देशों का, या अमेरिका का, सबका शोषणकारी चरित्र एक ही तरह का रहा है।

मौजूदा अमेरिका और आस्ट्रेलिया के शासकों ने वहां रह रहे रेड इंडियंस सहित सैकड़ों आदिवासियों की प्रजातियों को समूल नष्ट कर दिया। जिन्हें मारा नहीं गया उन्हें दास बनाकर जानवरों से बदतर हालत में रखा गया। ज़मीनों का ख़तरनाक तरीके से दोहन करके बंजर बना दिया गया। प्रकृति और वनों को नष्ट कर दिया गया। तमाम देशों में पिट्ठू सरकारें बनाकर स्थानीय तानाशाहों के नाम पर जनता पर बर्बर तरीके से शासन किया गया, उन्हें लूटकर संपत्तियों का देशांतरण किया गया। इस असली चेहरे को छिपाकर हर बार और हर जगह साम्राज्यवाद ख़ुद को उदार रूप में पेश करता रहा है। लुटे-पिटे लोगों को सभ्य और आधुनिक बनाने का दावा करता रहा है। जबकि हक़ीक़त ये है कि साम्राज्यवाद की निगाह जहां भी पड़ जाती है, उसके कहर से स्थानीय जनता की बड़ी संख्या कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने लगती है, और कुछ संख्या भागने के चक्कर में विस्थापित हो जाती है।

आज फिलिस्तीनियों के साथ भी यही हो रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद और आज के वैश्विक परिदृश्य में यूरोप की तरह इजराइल भी असल में अमेरिकी साम्राज्यवाद का ही एक हिस्सा है। यहूदियों पर हिटलर के अत्याचारों को बुनियाद बताकर यहूदीवादी (ज़ायोनिस्ट) लोग ख़ुद को पीड़ित दिखाकर इजराइल देश बनाकर पिछले 75 सालों में बार-बार फिलिस्तीनियों को खदेड़कर उनकी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करते जा रहे हैं और अपनी देश की हदें बढ़ाते जा रहे हैं। हर बार हज़ारों फिलिस्तीनी अपने ही देश से विस्थापित होते गये हैं। अब तो हालात ऐसे हो गये हैं, कि पड़ोसी देशों – जार्डन, मिस्र, सीरिया, लेबनान ने अपनी सीमाएं सील कर दी हैं, अब एक भी फिलिस्तीनी शरणार्थी को स्वीकार करने से साफ़ मना कर रहे हैं। अब बमबारी में मरने से बचने की इच्छा रखने वाले फिलिस्तीनियों के लिए दो ही रास्ते बचे हैं, या तो वे समंदर में आत्म समाधि ले लें या अपनी आजादी की जंग लड़ते हुए मारे जाएं।

साम्राज्यवाद आज वैश्विक पूंजीवाद के रूप में हमारे सामने है। आज यह पहले से इसलिए ज़्यादा ख़तरनाक हो गया है कि अब इसका कोई निश्चित ठिकाना नहीं है। ज़रूरत के हिसाब से आज पूंजी को सेकेंडों में एक देश से दूसरे देश में या दुनिया के दूसरे कोने में स्थानांतरित किया जा सकता है। आज पूंजीवाद का चेहरा अमेरिका बना हुआ है लेकिन कई वजहों से यह संभावना जतायी जा रही है कि अब अमेरिका कमज़ोर पड़ रहा है, तो सुरक्षा और स्थायित्व की दृष्टि से पूंजीवाद अपना चेहरा बदलने की फिराक में है। कई देश पूंजीवाद का नया चेहरा बनने की होड़ में शामिल हो भी चुके हैं। एक तरह से देखें तो आज का पूंजीवाद सर्वव्यापी और अदृश्य है। इसीलिए अपराजेय भी प्रतीत हो रहा है। इसीलिए इससे बचने, और आम लोगों को बचाने के लिए इससे लड़ना भी आज पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरी है। और लड़ाई केवल युद्धस्थल में आमने-सामने ही नहीं लड़ी जाती। कोई भी व्यक्ति जो साम्राज्यवाद या पूंजीवाद के असली चेहरे को पहचानकर उसे उजागर करने का हौसला रखता है, उससे पूंजीवाद भय खाता है।

हमारे देश में यह धर्म और संप्रदायवाद का चेहरा ओढ़कर सत्ता पर काबिज़ है। आज अगर हम इजराइल की फिलिस्तीन पर एकतरफ़ा बर्बरतापूर्ण कार्रवाइयों का विरोध करते हैं तो फासीवादी सरकार उसे अपने विरोध के रूप में देखती है। हम अपने शब्दों से, अपने विचारों से उनके अदृश्य गठजोड़ पर चोट करते हैं तो वे बिलबिला उठते हैं। भोली जनता को धोखा देने के लिए ओढ़े गये उनके उदारवाद के मुखौटों को हमारे अनेक लेखक-कवि साथियों ने जब-जब अपनी धारदार रचनाओं से नोचने की कोशिशें की हैं, वे अपने असली रूप में आकर उन पर हमले करने, उनकी आवाज़ों को चुप कराने के लिए मजबूर हुए हैं। ये घटनाएं सबूत हैं इस बात का, कि हमारे शब्दों के हथियार आज भी उतने ही कारगर हैं। प्रगतिशील साहित्य चाहे जिस भी देश में, जिस भी विधा में लिखा गया हो, या अभी लिखा जा रहा हो, उसमें प्रतिरोध की ज्वाला भभक रही है। लोगों में जिजीविषा को बनाये रखने, ताकतवर दिखने वाले दुश्मन से हार न मानने, संघर्षशीलता बनाये रखने, और आने वाली पीढ़ियों के सुनहरे भविष्य के स्वप्न देखते रहने के लिए प्रगतिशील साहित्य हमेशा प्रासंगिक और ज़रूरी बना रहेगा। सच्चा साहित्य लिखने वाला कभी भगोड़ा नहीं हो सकता। गंभीर लेखक या कवि के लिए साहित्य भी जंग का मैदान है जहां वह लिखने में डटा हुआ है।  इस संदर्भ में उन्होंने दुनिया के प्रसिद्ध विद्वान एडवर्ड सईद और ऐजाज़ अहमद के साथ ही फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के नेता यासेर अराफ़ात के प्रसंग भी सुनाये।

विनीत ने अपने वक्तव्य के बीच-बीच में फिलिस्तीन से जुड़े कई क़िस्से सुनाये, जिनमें से एक को यहां हूबहू बयान कर देने को जी कर रहा है। यह दरअसल फ़िलिस्तीन के ही नहीं समूचे अरब जगत के लेखक-कहानीकार ग़ासान कनाफ़ानी का अपने एक दोस्त के नाम लिखा हुआ एक खत था जिसमें लेखक अपने उस दोस्त को खत लिख रहा है जो फिलिस्तीन से अमेरिका पहुंच गया है और अपने दोस्त कनाफ़ानी को फ़िलिस्तीन की वाहियात ज़िंदगी से पीछा छुड़ाकर अमेरिका बुला रहा है। उसकी चिट्ठी आती है कि वहां उसका अच्छा कारोबार जम गया है, और वहां तो उसे स्वर्ग में होने जैसा महसूस हो रहा है। लेखक सारी तैयारी करके बैग जमाकर घर से निकलने को तैयार है कि उसके घर में ही रह रही उसके बड़े भाई की बेवा, उसकी भाभी उसे कहती है कि तुम्हारी भतीजी अस्पताल में भर्ती है, जाने से पहले एक बार उसे मिल लो। वो अस्पताल जाकर देखता है कि भतीजी अपने छोटे भाई-बहनों को बम विस्फोट से बचाने के लिए उन पर लेट गई थी जिस वजह से वो घायल हुई और उसका एक पैर जांघ के ऊपरी सिरे से काट दिया गया है। अपनी छोटी उम्र की भतीजी के इस जज्बे को देखकर बीस बरस का नौजवान कनाफ़ानी भी अमेरिका जाने का विचार त्याग देता है। यही नहीं, वो अपने दोस्त को चिट्ठी लिखकर उसे भी वापस लौटने की सलाह देता है, कि अपना वतन यही है, जहां उसके अपने लोग, चाहे जिस हाल में हैं, लड़ रहे हैं। कनाफ़ानी की महज 36 वर्ष की उम्र में 1972 में बम धमाके में उनकी भतीजी सहित हत्या कर दी गई थी। इसके साथ ही उन्होंने अन्य फ़िलिस्तीनी लेखकों, कवियों, कथाकारों और चित्रकारों के भी संदर्भ दिए।

अपने वक्तव्य का समापन करते हुए विनीत तिवारी ने कहा कि भले फ़िलिस्तीनी लोगों के पास दवाएं नहीं हैं, हथियार नहीं हैं लेकिन वे अपने हौसले और आत्मसम्मान के साथ जीने की चाह के साथ ये जंग लड़ रहे हैं और फ़िलिस्तीनी मामलों के विद्वान अलान पाप्पे और सईद नक़्वी जैसे लोगों का ये मानना है कि ये जंग इज़राइल के अंत की शुरुआत है। उन्होंने कहा कि इस जंग ने पश्चिम एशियाई देशों के अंतर्विरोधों को हाशिये पर खिसका दिया है और फ़िलिस्तीन के मसले पर ईरान, लेबनान, जॉर्डन, सीरिया और दुनिया के बहुत से देश अमेरिका और इज़राएल के ख़िलाफ़ हैं। उन्होंने अंत में यह भी याद दिलाया कि 14 अप्रैल कॉमरेड पी सी जोशी का जन्मदिन भी है, जिन्होंने भारतीय वामपंथी आंदोलन को एक नया आयाम दिया था और उसे अब तक के सबसे ऊंचे शिखर तक पहुंचाया था।  

अंत में कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार श्री राकेश दीक्षित ने कहा कि साम्राज्य और विस्थापन कोई नयी प्रक्रिया नहीं है और प्रारंभ से ही मानव सभ्यता के इतिहास के हर चरण में साम्राज्य और विस्थापन किसी न किसी रूप में विद्यमान रहा है। उन्होंने ऋग्वेद के प्राचीन काल से लेकर मध्य काल तक सभी सभ्यताओं में होने वाले वर्चस्ववादी संघर्षों के उदाहरण देते हुए हर दौर में साम्राज्यवादी सोच के प्रारंभिक स्वरूप की मौजूदगी को रेखांकित किया। भोपाल इकाई के अध्यक्ष श्री अनिल करमेले ने नयी और ताजी जानकारियों से भरपूर वक्तव्य के लिए इंदौर से आये मुख्य अतिथि वक्ता श्री विनीत तिवारी को, तथा उत्साहवर्धक एवं सार्थक उपस्थिति के लिए अन्य सभी अतिथियों एवं उपस्थित श्रोताओं को धन्यवाद ज्ञापित किया।

(भोपाल से सुधीर कुमार की रिपोर्ट)

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