मणिपुर त्रासदी: द्रौपदियों का चीरहरण हो रहा है दुर्योधन अट्टहास कर रहा

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मैं मयूर विहार से प्रेस क्लब के लिए मेट्रो में सफर कर रहा था। दोपहर का समय था। मेरा सहयात्री तीस-पैंतीस साल का रहा होगा, अचानक पूछता है:

यात्री: सर, मैं कुछ पूछ सकता हूं?

मैं: क्यों नहीं। पूछिए।

यात्री: आप किस पार्टी को सपोर्ट करते हैं?

मैं: मैं अस्सी में चल रहा हूं। मेरे समर्थन या विरोध से कोई फ़रक़ नहीं पड़ता है।

यात्री: फिर भी। आपकी कोई पसंद या न पसंद तो होगी ही? जैसा माहौल है, देख ही रहे हैं।

मैं: देख रहा हूं। मैंने अपना जीवन भरपूर जी लिया है। आपको लम्बा सफर तय करना है। आपकी पसंद-नापसंद का महत्व है।

यात्री: देखिये विपक्ष का गठबंधन बन गया है?

मैं: मोदी जी ने भी 38 दलों का गठबंधन बना लिया है। और क्या चाहिए?

यात्री: मोदी जी कैसे लगते हैं?

मैं: हमारे प्रधानमंत्री हैं। शानदार-धमाकेदार वक्ता हैं।

यात्री: आप काफी सुरक्षित ढंग से बोल रहे हैं। कोई स्टैंड नहीं ले रहे हैं। आपके चेहरे से लगता है, आप काफी सुखी और सेफ जीवन जी रहे हैं?

मैं: सच! दुखी लगूं, इसके लिए क्या करना चाहिए?

यात्री: देखिये, मणिपुर जैसी घटनाएं हो रही हैं। इसे रोकने के लिए रेवोलुशन नहीं होना चाहिए?

मैं: मतलब समझा नहीं?

यात्री: अर्थ साफ़ है… यानी क्रांति होनी चाहिए?

मैं: क्रांति कैसे होती है और क्या होता है इससे?

यात्री: बड़ा परिवर्तन होता है। अब भी आप रेवोलुशन के बारे में सोच सकते हैं। ऐज से कोई फ़रक़ नहीं पड़ता।

मेरा स्टेशन करीब आ रहा था। मैंने अपना गूगल निकाला और अपना नाम डाला। यात्री को दिखा दिया। वह मुझे घूरने लगा। उसने भी फटाफट अपने मोबाइल पर मेरा नाम डाल दिया। मैंने नमस्ते की और मेट्रो से उतर गया। मेरे ओझल होने तक उसकी नज़रें पीछे दौड़ती रहीं। देश-विदेश की मेट्रो में घूमता रहा हूं। लेकिन, ऐसा अनुभव पहली दफा हुआ।

बेशक़, यह एकाकी घटना है। युवा यात्री की स्वाभाविक जिज्ञासा हो सकती है या किसी का प्रायोजित सवाल। लेकिन, इसे मासूम सवाल समझ कर एकबारगी में खारिज़ नहीं किया जा सकता। इसकी ज़मीन को समझना चाहिए जिस पर यह सवाल खड़ा है। सवाल हवा में पैदा नहीं होते हैं। ठोस भौतिक स्थितियों की कोख से जन्म लेते हैं सवाल।

तेईस जुलाई के अख़बार नज़रों के सामने हैं। पिछले तीन-चार रोज़ के भी सामने से गुजरे हैं। चैनलों को भी देखा है। संसद के भीतर व बाहर का शोर-बहिष्कार भी सुना-देखा है। ऐसा लगता है, देश के सियासी अखाड़े में मणिपुर के त्रासद सवालों को लेकर ‘चीर हरण’ की कुश्तियां चल रही हैं। अब एक द्रौपदी नहीं है, बेशुमार नाम-गुमनाम द्रौपदियां हैं जिनका सरेआम सड़कों पर चीर हरण किया जा रहा है। चारों ओर घेराव डाले खड़े हैं दुर्योधन, दुशासन और शकुनि। शेष धृतराष्ट्र की काया में ढल चुके हैं। मानव मूल्यों-नैतिकताओं – शौर्य – के प्रतीक का दावा करने वाले भीष्म, युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम जैसी शख्सियतें ‘मूक तमाशबीन’ बनी हुई हैं।

मीडिया की शक्लों को देख कर लगता है भारत 21वीं सदी में नहीं है, बर्बर युग में सांसे ले रहा है; लोकतंत्र, संविधान, गणतंत्र, कानून-व्यवस्था कोमा की गिरफ्त में होते जा रहे हैं। अंधी सुरंग के मुहाने पर खड़े एक आदमी का अट्टहास सुनाई दे रहा है जोकि बारबार प्रजारूपी नागरिकों का उपहास करते हुए सुरंग में गूंज रहा है। मीडिया की सुर्ख़ियो, चैनलों की बहसों को देख कर और शासक की कर्कश अट्ठाहस को सुनकर लगता है कि औरत की अस्मिता का चीर हरण ‘राजधर्म और समाजधर्म’ बनता जा रहा है। चीरहरण की चीखो-पुकार ने आधुनिक भारत की स्वतंत्रता और नवअर्जित उपलब्धियों को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

सवाल उठने लगें हैं कि आज़ादी का यह कैसा अमृत महोत्सव काल है जिसमें स्त्री अस्मिता व भारतीय राष्ट्र राज्य की अस्मिता की पुंज  ‘भारतमाता’ की छवि तार तार हो रही है। दंभ के साथ शासक विपक्षी प्रदेशों में स्त्रियों के प्रति हो रहे अत्याचारों के आंकड़ों को पञ्चमस्वरों में गुंजायमान कर रहे हैं, लेकिन अपने शासित राज्यों (उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश आदि) के अत्याचारों के आंकड़ों को बड़ी मासूमियत के साथ भुला रहे हैं।

ऐसा लगता है, आंकड़ों के सांचें में औरत की अज़मत को ढाला जा रहा है। समझने के लिए यह कोई तैयार नहीं है कि औरत डेटा नहीं है, आंकड़ा नहीं है, वरन हाड़-मास-रक्त का चलता-फिरता व्यक्ति है, जिसमें सांसें हैं, संवेदनाएं हैं, मां की ममता, बेटी का प्यार और पत्नी या प्रेयषी का प्रेम भी है। सियासी अखाड़े में सियासतदान इन आंकड़ों को ‘नीलामी की तर्ज़’ में उछाल रहे हैं। यह कितना घिनौना कारोबार है देश की ‘पोलिटिकल क्लास’ का।

तीन बरस पहले इसी क्लास के एक बड़-बोले नुमाइंदे ने गुर्राते हुए कहा था, ”गोली मारो गद्दारों को”। आज उस बेलगाम नुमाइंदे की बोली के निशानों को मणिपुर के चीर हरण की घटनाओं में देखा जा सकता है। देखा जा सकता है उन्नाव, हाथरस की घटनाओं में जब बलात्कार की शिकार लड़की को अर्धरात्रि में फूंक दिया जाता है या उत्तराखंड की अंकिता भंडारी हत्याकांड में। जहां यह राजनीतिक सत्ता के दम्भ का प्रदर्शन है, वहीं मर्द सत्ता का चरम जौहर भी है।

एक चेतना सम्पन्न नागरिक के नाते दुःख और आत्मग्लानि इस बात पर है कि उत्तर औपनिवेशिक भारत की पोलिटिकल क्लास ने   अपने दलीय राजनैतिक स्वार्थों को ध्यान में रख कर दो-दो बार औरत को देश के सर्वोच्च पद (राष्ट्रपति: प्रतिभा पाटिल और द्रोपदी मुर्मू) पर आसीन तो कर दिया, लेकिन यह मर्दवादी ज़ेहनियत से आज़ तक खुद और समाज को आज़ादी नहीं दिला सकी है। इतना ही नहीं यह मर्दवादी क्लास संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33% आरक्षण तक दिलाने में विभिन्न तर्कों की खूबसूरती के साथ भी नाकाम रहा है। इस आरक्षण के लिए सभी दलों की महिला सांसद सालों से गुहार लगाती आ रही हैं।

आज़ सवाल लोकतंत्र और औरत की अस्मिता का है। लोकतंत्र व गणतांत्रिक संविधान के युग में भी औरत को पौराणिक व मध्यकालीन दृष्टि से देखा जा रहा है। जब राम सीता की अग्नि परीक्षा के बावज़ूद उसे वनवास भेज देते हैं, द्रौपदी को क्रय-विक्रय की वस्तु समझ कर उसे पांडव दांव पर लगा देते हैं, दोनों ही कालों की धार्मिक व्यवथाओं में औरत को ही पुरुष-व्यवस्था द्वारा निर्मित शुद्धता व मर्यादा की रक्षा के लिए ‘होम’ दिया जाता है।

मध्यकाल में विजेता से राज-पाट की रक्षा के लिए औरत को ही ‘शाही बार्टर-अर्थव्यवस्था’ का माध्यम बनाया जाता है। प्रथम और दूसरे महायुद्धों में भी सैनिकों के आराम के लिए ‘कम्फर्ट्स वीमेन’ की क्लास का जन्म होता है। सभी जानते हैं कि किस प्रकार अमेरिकी, जापानी फ़ौजियों के ‘वासना कुंड’ में कोरिया और अन्य देशों की औरतों को ‘समिधा’ बनाया गया था। अफ़्रीकी देशों (हैती, सोमालिया, कांगो आदि) में तैनात रहीं विभिन्न देशों की सयुंक्त राष्ट्र शांति सेनाओं ने भी स्थानीय औरतों पर कम सेक्स-जुल्म नहीं ढाये हैं। भारतीय सेनाओं पर भी यौन-शोषण के आरोप लग चुके हैं।

सवाल यह है कि लोकतांत्रिक चेतना के बावज़ूद क्यों पुरुष स्त्री के प्रति अपनी प्रभुत्ववादी सोच को बदल नहीं सका है? यह सवाल शासकों के चरित्र से अधिक सम्बंधित है। लोकतांत्रिक-गणतांत्रिक राज के पुरुष शासकों में मध्ययुगीन मानसिकता नहीं रही होती तो  वे निश्चित औरत को वासना और इज़्ज़त की वस्तु नहीं बनने देते। यह कितना त्रासद है कि पुरुष द्वारा धर्म-मज़हब-नस्ल और जाति  का नज़ला या सितम स्त्री पर ही उतरता है। यदि ऐसा नहीं होता तो क्या मैतेई समाज कुकी समाज की औरतों को नंगा घुमाता? क्या  कतिपय सवर्ण दलित औरतों के साथ अत्याचार करते?

1947 के भारत-विभाजन के समय औरतों पर कम अत्याचार नहीं हुए हैं। यहां सवाल यह नहीं है कि भाजपा शासित और गैर-भाजपा शासित प्रदेशों में औरतों पर अत्याचार के मामले में कौन पहले स्थान पर है, कौन दूसरे स्थान पर है? मूल मुद्दा यह है कि औरत की अस्मिता के प्रति राज्य के संचालकों की नीति व नीयत कैसी रहती है? यही सवाल बुद्धिजीवियों पर भी लागू  होता है। मुझे याद है, शाहीन बाग़ आंदोलन के दौरान हिंदी के एक विख्यात कथाकार ने तंज कसा था कि इन औरतों को आंदोलन करने के बजाए अपने घरों में स्वेटर बुनने चाहिए। क्या औरतें रोटी पोने, स्वेटर बुनने और बच्चा जनने के लिए ही हैं? क्या औरत को सिर्फ घूंघटधारी, पर्दानशीं, हिज़ाबधारी और खानदान की मान-मर्यादा की रक्षक होनी चाहिए? क्या उसे सिर्फ सती-सावित्री होनी चाहिए?

लोकतंत्र में पुरुष राज्य-नियंताओं की यह सोच उन्हें सीधे मध्य सामंतीकाल के साथ नत्थी कर देती है। इसी सोच की परिणति को मणिपुर के शर्मनाक वीडियो में देखा जा सकता है। यदि मुख्यधारा का समाज लोकतांत्रिक रहा होता तो कुकी स्त्री की अस्मिता पर आंच नहीं आती। मैतेई और कुकी, दोनों ही समाज अपनी औरतों का सम्मान करते। लेकिन जब जेल से बाहर आने पर देश की मुख्यधारा के प्रदेश (गुजरात) में हत्या और बलात्कार के अपराधियों को फूलों से स्वागत किया जाता है, मिठाइयां बांटी जाती हैं तो इससे किस संस्कृति की रक्षा होती है और कौन सी नई संस्कृति की रचना की जाती है?

पीड़िता बिलकिस बानो का सिर्फ अपराध यही था कि वह हिन्दू नहीं थी, मुस्लिम थी। इसलिए 2002 के दंगों में उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया। यदि कुकी समाज की औरतें मैतेई समाज की रही होतीं तो क्या यही अपने समाज की औरतों को नग्न घुमाता? यदि गर्भवती बिलकिस बानू हिन्दू रही होती, तब क्या हिन्दू कट्टरपंथी उसके साथ ऐसा अमानवीय सुलूक करते? यही बात मुसलमान, कुकी या अन्य समाज पर भी समान रूप से लागू होती है। क्या यह मर्दवादी समाज अभी तक महिला पहलवानों इन्साफ दिला सका है?  

इस लेख में मुद्दा यह है कि औरत किसी भी जाति-नस्ल-समाज की रहे, उसे प्रतिशोध का निशाना क्यों बनाया जाता है? ऐसे प्रतिशोध के चरित्र का सीधा रिश्ता पितृसत्ता और मर्दवादी सत्ता से रहता है। इसका रिश्ता लोकतांत्रिक मानस से तो कतई नहीं है। जब कोई पुरुष या समाज औरत को अपनी हिंसक हवस और अत्याचार का शिकार बना रहा होता है तब वह लोकतांत्रिक नहीं रह जाता है। वह अराजक, स्वयंभू  तानाशाह, चरम मर्दवादी बन जाता है।

उसमें सर्वसत्तावाद या प्रभुता-सम्पन्न पुरुष अंगड़ाई लेने लगता है। यदि राज्य का समर्थन उसके साथ है तो वह औरत को उसकी औकात दिखाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। साम्प्रदायिक और नस्ली दंगों में ऐसा ही होता आया है। जहां औरत के साथ बलात्कार हो रहा होता है, वहीं लोकतंत्र व संविधान के साथ भी समानांतर बलात्कार चल रहा होता है। ऐसा ही मंज़र मणिपुर में दिखाई दे रहा है।

उत्तर पूर्व समाज के सम्बन्ध में एक तथ्य को ज़रूर ध्यान में रखा जाना चाहिए। जब हम मुख्यधारा के समाज की जीवन दृष्टि को  उत्तर पूर्व के समाजों पर थोपने की कोशिश करेंगे तो अव्यवस्था का फैलना लाज़मी है। सभी जानते हैं, मुख्यभूमि का समाज शिखर से अंत तक विषमताग्रस्त है; बहुदेव-देवी और जाति प्रथाओं में विभाजित है। एक प्रकार से, सवर्णवादी मूल्य व्यवस्था से नियंत्रित व संचालित है। तुलनात्मक दृष्टि से मुख्यभूमि के समाजों से अधिक समतावादी हैं, विषमताएं कम हैं। लेकिन, पिछले एक अर्से से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इन समाजों में काफी सक्रिय है। मणिपुर का मैतई समाज संघ-प्रभाव के गिरफ्त में धंस चुका है।

बेशक़, अंग्रेजी शासन काल से मिशनरी इस क्षेत्र में सक्रिय रहे हैं। शिक्षा का ज़बरदस्त प्रचार हुआ है। ईसाई धर्म फैला है। लेकिन,  कम-अधिक जातीय भाईचारा बना रहा है। लेकिन, अब सामान्य मनमुटाव भी जातीय शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों में बदल गए हैं। मुख्यभूमि के प्रभावों के संपर्क में आने के कारण मर्दवादी सोच का विस्तार ही हुआ है। स्त्री को दोयम दर्ज़े का समझा जाने लगा है। इसी प्रवृत्ति के चरम अभिव्यक्ति को विजातीय स्त्री (कुकी समाज) की नग्न परेड में देखा जा सकता है।

केंद्रीय भारत के आदिवासियों में भी ‘घरवापसी’ के नाम पर हिंदुत्वकरण का अभियान चल रहा है। छत्तीसगढ़ के जशपुर ज़िले में स्थित संघ का वनवासी कल्याण आश्रम पूरी तरह से सक्रिय है। बस्तर के दंतेवाड़ा ज़िले के भीतरी क्षेत्र- नकुलनार में महाराणा प्रताप व अश्व चेतक की मूर्ति को स्थापित किया गया है। दिलचस्प यह है कि इतिहास में मेवाड़ के प्रताप का इस क्षेत्र के आदिवासियों के साथ कोई नाता नहीं रहा है। मेवाड़ सामंती राजा के स्थान पर झारखण्ड के आदिवासी जन नायक बिरसा मुंडा की मूर्ति को स्थापित किया जा सकता था।

इसी प्रकार दंतेवाड़ा में ही आदिवासियों की प्रसिद्ध देवी दंतेश्वरी माई के मंदिर के सामने हनुमानजी की भव्य मूर्ति को खड़ा किया गया है। यह सब भाजपा शासन (2004-18) के दौरान हुआ। ज़ाहिर है, सवर्णवादी मूल्य संस्कृति से सरल आदिवासी समाजों का अनुकूलन करना है। इससे प्रकांतर से इन समाजों की परम्परागत व्यवस्था छिन्न-भिन्न होगी और तनावपूर्ण अंतर्विरोध उभरेंगे। मर्दसत्ता की आक्रमकता का विस्फोट होगा। इसलिए, मणिपुर की घटनाओं को एकांगी दृष्टिकोण से नहीं समझा जा सकता। इसे हिंदुत्व- प्रोजेक्ट के व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। अतः मणिपुर- संत्रास से देश की मुख्यभूमि की विषमतामूलक सवर्ण संस्कृति की गंध  उठती-सी लग रही है।

मेट्रो पर लौटते हैं। सहयात्री ने क्रांति की बात कही थी। क्रांति के कई रूप होते हैं। सहयात्री स्पष्ट नहीं था। लेकिन उसके शब्द इस बात का एहसास शिद्दत के साथ करा रहे थे कि देश में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है। यह गंभीर शासकीय-प्रशासकीय व्याधियों का शिकार हो चुका है। और ये व्याधियां कभी मणिपुर में फूटती हैं तो कभी उत्तराखण्ड में, और कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘शर्मसार’ शब्द में।

(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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