गैर-बराबरी के मुद्दे पर गुमराह करने में जुटे मोदी

इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धन के पुनर्वितरण की सोच को निशाने पर लिया है। वे तथ्यों का ख्याल कभी नहीं करते और सच पर परदा डाल देने की क्षमता ही उनकी सियासी कामयाबी का राज़ है, इसलिए इस बार भी उन्होंने इस सवाल पर बहस लोगों को गुमराह करते हुए छेड़ी है। इस चर्चा के केंद्र में मुसलमानों को लाकर समाज की मूलभूत पुनर्रचना से जुड़े एक प्रश्न को उन्होंने सांप्रदायिक रंग दे दिया है।

अगर तह में जाकर देखें, तो मोदी एक साथ दो निशाने साधने की कोशिश में नजर आते हैं। मुस्लिम विरोधी भावना को और सुलगाना इसमें एक मकसद है। दूसरा निशाना आर्थिक और सामाजिक न्याय की सोच है।

हमें नहीं मालूम कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जब समाज में आर्थिक ‘मैपिंग’ कराने ((1) Rahul Gandhi on X: “क्या हमने कभी सोचा है कि गरीब कौन हैं? कितने हैं और किस स्थिति में है? क्या इन सभी की गिनती ज़रूरी नहीं? बिहार में हुई जातिगत गिनती से पता चला कि गरीब आबादी के 88% लोग दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक समाज से आते हैं। बिहार से आए आंकड़े देश की असली तस्वीर की एक छोटी सी झलक https://t.co/RGZ1xgBN9U” / X (twitter.com)) और उसका पुनर्वितरण करने की बात कही थी, तब वे कितने गंभीर थे। संभवतः उन्होंने यह बात अगंभीर अंदाज में- चुनावी जुमले के रूप में कही थी। वरना, इसके पीछे सचमुच कांग्रेस पार्टी की कोई सुविचारित समझ होती, तो यह एजेंडा उसके चुनाव घोषणापत्र (जिसे इस बार उसने न्याय पत्र कहा है) में शामिल होता। बहरहाल, अब यह साफ है कि उनके उसी बयान को आधार बनाकर मोदी और उनकी पार्टी ने 2024 के आम चुनाव का अपना प्रमुख नैरेटिव तैयार किया है।   

प्रधानमंत्री ने अपने चुनावी भाषणों में कांग्रेस के धन के पुनर्वितरण के कथित इरादे का उल्लेख करते हुए कहा है कि यह असल में “अर्बन नक्सल”, “माओवादियों” और “कम्युनिस्टों” का एजेंडा है। इसके साथ ही उन्होंने दावा किया है कि अपने इस एजेंडे से कम्युनिस्ट कई देशों को “बर्बाद” कर चुके हैं।

मोदी की पहली बात सच है। दुनिया के एजेंडे पर धन के पुनर्वितरण का सवाल सबसे पहले कम्युनिस्ट/सोशलिस्ट ले आए। मार्क्सवाद ने इस एजेंडे को ठोस वैचारिक आधार प्रदान किया। श्रमिक अधिकारों के लिए संघर्ष से शुरुआत करते हुए कम्युनिस्टों ने विभिन्न देशों में इस मुद्दे को सर्वोपरि सवाल बना दिया। 1917 में रूस में बोल्शेविक क्रांति के बाद तो यह प्रश्न दुनिया भर में अपरिहार्य बन गया।

मगर मोदी का यह दावा विवादास्पद है कि इस एजेंडे के कारण कई देश “बर्बाद” हुए हैं। मोदी के साथ दिक्कत यह है कि वे बहस में शामिल नहीं होते। आम सार्वजनिक बहस तो दूर की बात है, वे संसदीय बहस में भी हिस्सा नहीं लेते। वे प्रेस कांफ्रेंस नहीं करते। ऐसे किसी सभा या सेमीनार में भाग नहीं लेते, जहां लोग उनसे प्रश्न पूछ सकते हों या जहां लोग उनकी राय से अलग अपनी समझ और संबंधित तथ्य उनके सामने रख सकते हों। वे एकालाप और एकतरफा संवाद करते हैं। इसलिए उन्हें यह सुविधा है कि बिना किसी जवाबदेही के वे कुछ भी कह कर निकल जाएं।

वरना, उनके इस दावे पर गंभीरता से बहस की जा सकती है। सवाल है कि वे देश कौन हैं, जो इस एजेंडे के कारण बर्बाद हुए? क्या वह देश चीन है, जो “चीनी प्रकृति के समाजवाद” के कारण 70 वर्षों की छोटी अवधि में दुनिया की महाशक्ति बन गया है? या सोवियत संघ था, जिसकी सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक उपलब्धियां निर्विवाद हैं? वियतनाम से क्यूबा तक सामाजिक-आर्थिक विकास एवं सांस्कृतिक उन्नति की जो मिसालें देखने को मिली हैं, वे मोदी के दावे का सिरे से खंडन करती हैं।

फिलहाल, हम मुख्य- यानी धन के पुनर्वितरण के सवाल पर लौटते हैं। धन के पुनर्वितरण का अर्थ है- समाज में मौजूद और उत्पन्न होने वाले धन का विभिन्न तबकों के बीच बंटवारा। इस बंटवारे के प्रगतिशील और प्रतिगामी दोनों रूप हो सकते हैं। प्रगतिशील रूप का मतलब है साधन-विहीन और गरीब तबकों को अधिक धन का हकदार बनाना। मार्क्सवादी व्यवस्थाओं में इसके लिए पूरे आर्थिक ढांचे की पुनर्रचना की गई।

जबकि पूंजीवादी लोकतांत्रिक देशों में इसके लिए ऐसी कर व्यवस्थाएं लागू की गई हैं, जिनसे धनी और अधिक आमदनी वाले लोगों को राजकोष में अधिक योगदान करना पड़ा है। वहां उससे इकट्ठे धन के जरिए समाज या जन कल्याण की योजनाएं लागू की गई हैं।

धन के पुनर्वितरण के प्रतिगामी रूप का मतलब है कि ऐसी नीतियों पर अमल, जिससे अधिक से अधिक धन पहले से ही धनी लोगों की जेब में जाए। नरेंद्र मोदी के शासनकाल में भारत में कर व्यवस्था को यह रूप दिया गया है। इस दौर में प्रत्यक्ष करों के भीतर व्यक्तिगत इनकम टैक्स से राजकोष को कॉरपोरेट टैक्स की तुलना में अधिक आय हो रही है। इसके अलावा नोटबंदी, जीएसटी और पेट्रोलियम पर उत्पाद शुल्क, आदि को जिस रूप में लागू किया गया, उनके जरिए भी धन के प्रतिगामी पुनर्वितरण को बढ़ावा मिला है।   

यह एक गलतफहमी है कि प्रगतिशील कर व्यवस्था के जरिए धन का पुनर्वितरण मार्क्सवादी/कम्युनिस्ट एजेंडा है। मार्क्सवादी एजेंडा उत्पादन के तमाम संसाधन पर सार्वजनिक स्वामित्व (public ownership on means of production) कायम करना रहा है। मार्क्सवादी व्यवस्थाओं में कम-से-कम ऐसे प्रावधान तो जरूर रहे हैं, जिनसे उत्पादन और वितरण की पूरी व्यवस्था सार्वजनिक योजना (public/state planning) के तहत अमल में लाई जाती है। अगर वहां उत्पादन के कुछ संसाधानों पर निजी स्वामित्व होता भी है, तो उसकी इजाजत राज्य द्वारा दी जाती है। वहां भी उत्पादन एवं वितरण को तय सार्वजनिक उद्देश्यों के मुताबिक स्वरूप देना होता है।

दूसरी तरफ प्रगतिशील कर व्यवस्था के जरिए धन का पुनर्वितरण एक सोशल-डेमोक्रेटिक एजेंडा रहा है। यह दीगर तथ्य है कि इस एजेंडे का विकास मार्क्सवादी क्रांतियों से प्रभावित हुआ है। बेशक सोशल-डेमोक्रेसी की अवधारणा का उदय सोवियत संघ में बोल्शेविक क्रांति के बाद पूंजीवादी देशों पर बने दबाव की पृष्ठभूमि में हुआ। तब उन देशों ने अपनी पूंजीवादी व्यवस्था को मानवीय और न्याय-प्रिय चेहरा देने के प्रयास में अपनी उदार लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में ‘सोशल’ एजेंडा जोड़ा था। इस एजेंडे के तहत ही धन के पुनर्वितरण की सोच अस्तित्व में आई।

पिछले सौ-सवा सौ साल का इतिहास यह है कि धन के पुनर्वितरण के लिए पूंजीवादी देशों में संवैधानिक एजेंडे पर आंशिक अमल ही हुआ। विभिन्न पूंजीवादी देशों में इस उद्देश्य के लिए आय कर, कंपनी कर, धन कर और उत्तराधिकार कर की व्यवस्थाएं की गईं। ये सभी टैक्स एक सीमा से अधिक आमदनी वाले व्यक्तियों या धन के मालिकों पर लगे। इन माध्यमों से सरकारों ने अपने लिए संसाधन जुटाए, जिनके आधार पर कल्याणकारी व्यवस्थाओं को लागू किया गया। इनके तहत मुफ्त (प्राथमिक या संपूर्ण) शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और उच्च दर्जे के इंफ्रास्ट्रक्चर के इंतजाम किए गए, जिनके आधार पर उन देशों को आज विकसित या खुशहाल माना जाता है।

बीसवीं सदी के आरंभिक देशों में कुछ देशों में धनी तबकों की संपत्ति की सीमा तय करने की कोशिश भी हुई। लेकिन ऐसे प्रयास सफल नहीं हुए। अवरोध एवं नियंत्रण (चेक एंड बैलेंस) की वहां मौजूद संवैधानिक व्यवस्थाओं ने ऐसी कोशिशों पर लगाम लगा दिया। इस बात का एक बेहतरीन उदाहरण जर्मनी है।

प्रथम विश्व युद्ध में शासक परिवार- होहेनजोलर्न्स की पराजय के बाद 1919 में वाइमर रिपब्लिक की स्थापना हुई थी। 1924 में वहां के वामपंथी दलों ने पूर्व शासक परिवार की संपत्ति लेकर संपत्ति-विहीन लोगों में बांटनी की मुहिम छेड़ी। लेकिन समाज का पूरा अभिजात्य तबका तब पूर्व शासक परिवार के पक्ष में खड़ा हो गया। अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने लिखा है- ‘यह घटना इस बात की मिसाल है कि प्रभु वर्ग कैसे अपने विशेषाधिकारों को जारी रखने के लिए कानून की शब्दावली का इस्तेमाल करता है। उसकी संपत्ति चाहे कितनी भी ज्यादा हो और उस धन की सामूहिक जरूरत चाहे जितनी अधिक हो, वह ऐसे तरीके अपनाता ही है।’ (When the German left was expropriating princes – Le blog de Thomas Piketty (lemonde.fr))

उस घटना का जिक्र करते हुए पिकेटी ने लिखा है- ‘कम्युनिस्टों ने, जिनका बाद में अनुकरण सोशल डेमोक्रेट्स ने भी किया, पूर्व राजपरिवार की संपत्ति जब्त कर गरीबों को लाभ पहुंचाने के मकसद से बिल पेश किया। 1925 में उन्होंने इसके पक्ष में एक करोड़ 20 लाख हस्ताक्षर जमा किए, जो जर्मन इतिहास में आज तक का सबसे बड़ा हस्ताक्षर अभियान है। ये कानून पारित होने ही वाला था, लेकिन संविधान में मुआवजा संबंधी शब्दों की अस्पष्टता की वजह से राष्ट्रपति हिंडनबर्ग को यह कहने का मौका मिल गया, इस बिल को लाने के पहले संविधान में संशोधन करना होगा। जून 1926 में इसके लिए जनमत संग्रह कराया गया, जिसमें 90 फीसदी (एक करोड़ 60 लाख) लोगों ने संपत्ति जब्ती का समर्थन किया। लेकिन चूंकि जनमत संग्रह में 50 प्रतिशत से कम मतदान हुआ, इसलिए उसके नतीजे को स्वीकार नहीं किया गया। संविधान संशोधन के लिए जनमत संग्रह में 50 प्रतिशत से अधिक मतदान की शर्त तब मौजूद थी।’

यहां इस संदर्भ का उल्लेख करने का मकसद इस बात पर जोर डालना है कि धन के पुनर्वितरण की सोच के तहत किसी की निजी संपत्ति को छीन कर दूसरों में बांटी गई हो, इसका किसी पूंजीवादी व्यवस्था में कोई उदाहरण नहीं है। इन व्यवस्थाओं में धन के पुनर्वितरण का सीमित अर्थ कर व्यवस्था को प्रगतिशील बनाना रहा है। कुछ हाथों में धन का अति संकेद्रण और कंपनियों की मोनोपॉली रोकना खुद पूंजीवाद की अपनी सेहत के जरूरी समझा जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था में प्रतिस्पर्धा और आविष्कार के लिए आवश्यक परिस्थितियां कायम रहें, इसके लिए धन कर, उत्तराधिकार कर और मोनोपॉली नियंत्रण जैसे वैधानिक उपाय वहां किए जाते रहे हैं। भारत में भी बात कभी इससे आगे नहीं बढ़ी है- उस दौर में भी नहीं जब भारतीय संविधान की कथित समाजवादी व्याख्या का दौर था।  

इसलिए प्रधानमंत्री धन के पुनर्वितरण को लेकर जो भय फैला रहे हैं, उसका कोई ठोस आधार नहीं है। यह वर्तमान चुनाव अभियान से जुड़ी बहसों को गुमराह करने की एक कोशिश भर है। वैसे भी भारत में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर किसी दल ने वेल्थ टैक्स और उत्तराधिकार कर को लागू करने का वादा अपने चुनाव घोषणापत्र में नहीं किया है। इसके बावजूद अगर मोदी इस मुद्दे को चर्चा के केंद्र में ले आए हैं, तो उसके पीछे एक कारण अपने मन का अपराध-बोध भी हो सकता है। आखिर उनकी सरकार के कार्यकाल में भारत में आर्थिक गैर-बराबरी में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है। ((Economic inequality in India: the “Billionaire Raj” is now more unequal than the British colonial Raj – WID – World Inequality Database)

मोदी के शासनकाल में भारत के आर्थिक उदय की हकीकत भी अब बेनकाब होती जा रही है। उसके वास्तविक चरित्र पर अब अधिक से अधिक रोशनी पड़ रही है। (India: Modi and the rise of the billionaire Raj – Michael Roberts Blog (wordpress.com))  इसके बावजूद कि चीन से अपनी बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण पश्चिमी देशों में अभी ट्रेंड भारत की सफलता को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने और आंकड़ा संबंधी तमाम विसंगतियों को नजरअंदाज करने का है। इसके पीछे मकसद संभवतः यह धारणा बनाना है कि चीन ने राज्य निर्देशित- योजनाबद्ध विकास के जरिए जो सफलताएं हासिल की हैं, भारत वैसा पूंजीवाद के नव-उदारवादी संस्करण के साथ कर रहा है। लेकिन बढ़ती गैर-बराबरी और विकराल बेरोजगारी (India Employment Report 2024: Youth education, employment and skills (ilo.org)) इस कहानी को पंक्चर कर रहे हैं।

इसके बीच प्रधानमंत्री यह संदेश देना चाह रहे हैं कि गैर-बराबरी और बेरोजगारी खत्म करने की बातें अर्थव्यवस्था को नष्ट करने वाली हैं। देश के प्रभु वर्ग और उसके नियंत्रित मेनस्ट्रीम मीडिया ने इस कहानी को हाथों-हाथ लिया है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि विपक्ष- खासकर कांग्रेस पार्टी भी अपने वर्ग चरित्र के कारण इस मुद्दे पर मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने के प्रयास के बजाय सफाई देने में जुट गई है। ((1) Jairam Ramesh on X: “Congress President Mallikarjun @kharge ji has just written to the PM saying that he would be happy to meet him to explain the reality of the #CongressNyayPatra which Mr. Modi may have missed in his persistent efforts to distort and defame it. Here is the letter. https://t.co/ESxIUc0dKr” / X (twitter.com))

बहरहाल, यह स्पष्ट कर लिया जाना चाहिए कि गैर-बराबरी की बात या टैक्स सिस्टम से इस पर नियंत्रण पाने की सोच कम्युनिस्ट एजेंडा नहीं है। बल्कि मार्क्सवादी नजरिए से देखें, तो यह बीमारी के बजाय लक्षण का इलाज करने का प्रयास है। मार्क्सवाद में पूंजीवाद को समझने का बुनियादी नजरिया Labour theory  of value (मूल्य का श्रम सिद्धांत) पर आधारित है। यह सिद्धांत ऐडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और जेम्स मिल जैसे क्लासिकल अर्थशास्त्रियों ने विकसित किया था। कार्ल मार्क्स ने इसमें surplus value की ऐतिहासिक समझ जोड़ी। इस रूप में विषमता की मार्क्सवादी समझ गैर-बराबरी के बुनियादी कारणों तक जाती है। उसका समाधान करने की राजनीति उसने दुनिया को दी है।

मार्क्सवाद का मूलभूत दर्शन द्वंद्वात्मक भौतिकवाद (dialectical materialism) है। अगर इसके नजरिए से देखें, तो ताजा प्रकरण का सकारात्मक पक्ष यह है कि आज वस्तुगत परिस्थितियां उस मुकाम पर पहुंच गई हैं, जब आर्थिक गैर-बराबरी का सवाल स्वतः राजनीतिक बहस के केंद्र में पहुंचने लगा है। यह सिर्फ विडंबना ही नहीं है कि अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य में धुर दक्षिणपंथी गवर्नर रॉन डी सैंटिस ने जिस समय स्कूल से यूनिवर्सिटी तक कम्युनिज्म (कम्युनिस्ट अत्याचार) का इतिहास पढ़ाने का प्रावधान किया है (DeSantis OKs communism history lessons for Florida students (usatoday.com)), उसी समय भारत में धुर दक्षिणपंथी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कथित कम्युनिस्ट एजेंडे पर निशाना साधा है। लेकिन इसका एक परिणाम यह भी है कि यह विचारधारा चर्चा के केंद्र में आने लगी है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

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