प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान हुई मुलाकात ने इस बात पर नए सिरे से रोशनी डाली है कि भारत और चीन के बीच अविश्वास की खाई कितनी चौड़ी हो चुकी है। उपलब्ध तथ्यों के आधार पर यह बेशक कहा जा सकता है कि इस वार्ता से खाई को पाटने की दिशा में कोई प्रगति नहीं हुई। अगर यही बात विवाद का मुद्दा बन जाए कि मुलाकात किसकी पहल पर हुई, तो समझा जा सकता है कि असल मुद्दों पर मतभेद का दायरा कितना चौड़ा है।
वैसे भी पहले दोनों पक्षों की तरफ से बातचीत के बारे में जो ब्योरा दिया गया, उसमें कोई एकरूपता नहीं थी। इस बात को समझने के लिए बेहतर होगा कि किस पक्ष ने क्या बताया, उस पर ध्यान दिया जाए।
नरेंद्र मोदी- शी जिनपिंग वार्ता के बारे में सबसे पहले खबर भारत के विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा ने सार्वजनिक की। क्वात्रा ने ये जानकारियां दीः
- शी से बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री ने भारत-चीन सीमा के पश्चिमी सेक्टर में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर के “अनसुलझे मुद्दों” पर ध्यान खींचा।
- मोदी ने सीमाई इलाकों में शांति कायम रखने और एलएसी का सम्मान करने पर जोर दिया और कहा कि भारत-चीन संबंधों के सामान्य होने के लिए यह अनिवार्य है।
- दोनों नेता अपने संबंधित अधिकारियों को यह निर्देश देने पर सहमत हुए कि वे (एलएसी पर) सैनिकों के आमना-सामना की स्थिति और तनाव को खत्म करने के लिए अपने प्रयासों में तेजी लाएं। (disengagement और de-escalation के लिए कोशिश तेज करें)
क्वात्रा ने यह नहीं बताया कि दोनों नेताओं के बीच मुलाकात कब और किस फॉर्मेट में हुई। इस कारण ये कयास लगाए कि संभवतः 24 अगस्त को ब्रिक्स घोषणापत्र जारी होने से पहले साथ-साथ चलते हुए दोनों नेताओं ने बातचीत की। लेकिन मीडिया रिपोर्टों में बताया गया कि यह बातचीत 23 अगस्त को हुई थी।
चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने 25 अगस्त को प्रेस कांफ्रेंस में इस बारे में पूछे गए सवाल पर चीन का पक्ष रखा। उसने जो ब्योरा दिया, उसमें disengagement और de-escalation शब्दों का कोई उल्लेख नहीं था। प्रवक्ता ने कहाः
- शी जिनपिंग ने ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके अनुरोध पर बातचीत की।
- दोनों नेताओं ने साझा हित के मुद्दों पर दो टूक और गहराई से अपने विचार रखे।
- राष्ट्रपति शी ने कहा कि भारत और चीन के रिश्तों में सुधार दोनों देशों की जनता के साझा हित में है। साथ ही इससे इस क्षेत्र एवं दुनिया में शांति स्थिरता एवं विकास के अनुकूल माहौल बनेगा।
- शी ने कहा कि दोनों पक्षों को द्विपक्षीय संबंधों और सीमा विवाद को ठीक से संभालने के महत्त्व को ध्यान में रखना चाहिए, ताकि वे मिल कर सीमाई क्षेत्र में शांति की रक्षा कर सकें।
चूंकि चीन के इस स्पष्ट दावे पर कि यह मुलाकात भारत के अनुरोध पर हुई, भारतीय विदेश मंत्रालय के “सूत्र” ने मीडियाकर्मियों को अनौपचारिक ब्रीफिंग के जरिए स्पष्टीकरण दिया। यह गौरतलब है कि जहां चीन की तरफ वह दावा औपचारिक प्रेस कांफ्रेंस में चीन के आधिकारिक प्रवक्ता ने किया, वहीं भारत की तरफ से स्पष्टीकरण एक अनाम सूत्र दिया। सूत्र ने कहा- “द्विपक्षीय वार्ता के लिए चीन का अनुरोध पेंडिंग था। दोनों नेताओं ने ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान लाउंज में अनौपचारिक वार्ता की।” बहरहाल, यह अपेक्षा बनी हुई है कि यह बात भारत के आधिकारिक प्रवक्ता की तरफ से- औपचारिक रूप से कही जाए।
इस बारे में स्पष्टता इसलिए जरूरी है, क्योंकि दोनों देशों में बातचीत को लेकर एक तरह भ्रम की स्थिति बनी रही है। पिछले साल नवंबर में इंडोनेशिया के बाली में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान मोदी और शी के बीच बातचीत हुई थी, यह भारत के लोगों को लगभग आठ महीने बाद जाकर मालूम हो पाई- वह भी तब जबकि चीन के विदेश मंत्रालय ने एक बयान में इसका जिक्र कर दिया। उस बयान के सार्वजनिक होने के दो दिन बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने बाली में हुई मुलाकात की पुष्टि की थी।
प्रधानमंत्री मोदी चीन के राष्ट्रपति से मिलें और उनकी वार्ताओं में मतभेद बने रहें, तो इसमें कोई असामान्य बात नहीं होगी। कूटनीति में कहा जाता है कि वार्ता की जरूरत उस समय अधिक होती है, जब संबंध ठीक ना हों। हर वार्ता में प्रगति होना भी आवश्यक नहीं होता है। दरअसल, खराब संबंधों के दौर में बातचीत का जारी रहना अपने-आप में एक प्रगति माना जाता है। यह निर्विवाद है कि भारत और चीन के संबंध इस समय ठीक नहीं हैं। इसलिए प्रधानमंत्री का चीन के राष्ट्रपति से मिलना सही दिशा में एक प्रयास माना जाएगा। लेकिन समस्या ऐसी मुलाकातों पर परदादारी से आती है। इससे इन आरोपों को बल मिलता है कि वर्तमान सरकार के तहत विदेश नीति में प्राथमिकता देश के हितों का संरक्षण नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री की “मर्दाना” छवि को बरकरार रखना है।
विपक्ष और अनेक रक्षा विशेषज्ञों की राय रही है कि इस छवि की रक्षा के लिए ही 2020 में एलएसी पर भारतीय क्षेत्र में चीनी फौज की हुई घुसपैठ को आज तक भारत सरकार ने स्वीकार नहीं किया है। 15 जून, 2020 को गलवान घाटी में हुई दुर्भाग्यपूर्ण झड़प (जिसमें 20 भारतीय सैनिकों की जान गई थी) के बाद 19 जून, 2020 को प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक में कहा था कि ‘ना कोई घुसा है, ना कोई घुसा हुआ है और ना ही किसी भारतीय चौकी पर किसी ने कब्जा किया है।’ तब से भारत सरकार का यही आधिकारिक रुख रहा है कि उसके शासनकाल में भारत की एक इंच जमीन पर भी किसी ने कब्जा नहीं किया है।
तो फिर मुद्दा क्या है? केंद्रीय मंत्रियों के बयानों से संकेत लें, तो भारत सरकार की राय में मुद्दा बस इतना है कि चीन ने अपनी तरफ सेना का बड़ा जमाव कर रखा है और वहां स्थायी निर्माण किए हैं, जिससे तनाव बढ़ा है। भारत चाहता है कि वहां disengagement और de-escalation हो। भारत की नजर में इसी मकसद से दोनों सेनाओं के कोर कमांडरों के बीच 19 दौर की वार्ता हुई है और हाल में एलएसी पर आपसी विश्वास बढ़ाने के लिए मेजर जनरल स्तर पर लगातार तीन या चार दिन बातचीत हुई।
चूंकि भारत सरकार ने यह स्वीकार ही नहीं किया है कि चीन ने अप्रैल, 2020 के बाद से हमारी जमीन पर कोई कब्जा किया है, इसलिए भारत ने यथास्थिति (status-quo ante) बहाल करने की आधिकारिक मांग नहीं उठाई है। जबकि जो रक्षा विशेषज्ञ यह मानते हैं कि चीन ने भारतीय सीमा में घुसपैठ की है, उनकी राय में चीन के सामने यही भारत की प्रमुख मांग होनी चाहिए। इन विशेषज्ञों की राय की पुष्टि इस वर्ष जनवरी में पुलिस महानिदेशकों के सम्मेलन में पेश एक रिपोर्ट से भी हुई थी। उस रिपोर्ट में कहा गया था कि पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में मौजूद जिन 65 चौकियों तक भारतीय बल पहले पेट्रोलिंग करते थे, उनमें से 26 चौकियों पर चीनी कब्जे के कारण अब ऐसा करना संभव नहीं रह गया है।
रक्षा विशेषज्ञ और फोर्स मैग्जीन के पूर्व संपादक प्रवीण साहनी की राय है कि भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और चीन के विदेश मंत्री वांग यी के बीच मास्को में हुई वार्ता के बाद 10 सितंबर 2020 को जारी साझा बयान ने स्थिति को और उलझा दिया था। इस बयान में यथास्थिति की बहाली की बात तो नहीं ही की गई, एलएसी के बदले सीमा (बॉर्डर) शब्द का उल्लेख किया गया। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि भारत ने उस तारीख तक जिसका जहां कब्जा था, उसे स्थायी सीमा मान लिया है। उसके बाद चीन से बातचीत में भारत की सौदेबाजी की क्षमता सीमित हो गई है।
साहनी का विश्लेषण यह है कि एलएसी पर पैदा हुए हालात की जड़ें भारत सरकार के 5 अगस्त, 2020 के उस कदम में हैं, जिसके तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को खत्म कर दिया गया था, लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था और उसके बाद भारत ने अपना एक नया राजनीतिक नक्शा जारी कर दिया था। चूंकि लद्दाख क्षेत्र को चीन विवादास्पद मानता है, इसलिए तब चीनी प्रवक्ता ने भारत के इस कदम को cartographic attack (मानचित्रीय हमला) बताया था।
साहनी के मुताबिक इस कदम का जवाब चीन ने वास्तविक हमला करके दिया। उनकी राय में चूंकि अंदरूनी राजनीति के दबाव के कारण भारत 2020 का नक्शा वापस नहीं ले सकता, इसलिए चीन अपने हमले से बदली गई स्थिति को बनाए रखने पर आमादा है। विवाद के कई स्थलों पर वह disengagement और de-escalation के लिए राजी हुआ है, जिसके तहत वहां बफर जोन बनाए गए (आरोप है कि ये सारे बफर जोन भारतीय क्षेत्र में बने हैं), लेकिन देपसांग और डेमचोक पर वह ऐसा करने को तैयार नहीं है, क्योंकि ये स्थल गिलगिट-बालटिस्तान मार्ग तक पहुंचने के रास्ते में पड़ते हैं, जिसका संबंध चीन-पाकिस्तान इकॉनमिक कॉरिडोर (सी-पैक) से है। सी-पैक चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना का हिस्सा है।
इस विवरण से स्पष्ट है कि भारत और चीन का विवाद बहुत पेचीदा और गंभीर स्थिति में पहुंचा हुआ है। बेशक, दोनों देशों का हित इसी में है कि इस स्थिति का समाधान बातचीत से निकाला जाए। लेकिन इस बातचीत को लेकर भारत में आम सहमति नहीं है और इस संबंध में विपक्ष की तरफ से अक्सर गंभीर सवाल उठाए जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण दोनों पक्षों में संवादहीनता है। अगर सरकार अपनी और प्रधानमंत्री की छवि की चिंता छोड़ कर देश से इस मुद्दे पर खुला संवाद बनाए, जो सच है उसे दो टूक कहे, तो वैसी आम सहमति बन सकती है, जिससे उसके लिए चीन से बातचीत करना आसान हो जाएगा। वरना, हर बातचीत के बाद इसी तरह के तुच्छ मुद्दे उठ खड़े होते रहेंगे कि वह मुलाकात किसकी पहल पर हुई!
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)