नई दिल्ली बनेगा जी-20 के पराभव का गवाह?

जी-20 शिखर सम्मेलन आरंभ होने के एक दिन पहले तक साझा घोषणापत्र पर सहमति नहीं बन सकी है। तमाम संकेत ऐसे हैं, जिनके मुताबिक अगर कोई चमत्कार नहीं हुआ, तो नई दिल्ली पहला स्थल बनेगा, जहां जी-20 का शिखर सम्मेलन बिना साझा घोषणापत्र जारी किए खत्म हो जाएगा। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन के ना आने से इस शिखर सम्मेलन की चमक पहले ही एक हद तक फीकी पड़ चुकी है।

सम्मेलन के लिए साझा घोषणापत्र पर सहमति ना बन पाने का प्रमुख कारण अमेरिका और जी-7 के सदस्य उसके साथी देशों की यह जिद है कि इसमें ‘यूक्रेन पर हमले के लिए’ रूस की निंदा जरूर शामिल होनी चाहिए। जब रूस खुद जी-20 का सदस्य है, तो जाहिर है कि वह अपनी निंदा पर राजी नहीं होगा। और चूंकि चीन की यूक्रेन मसले पर समझ पश्चिमी देशों की समझ से बिल्कुल अलग है, इसलिए वह भी ऐसे किसी घोषणापत्र पर दस्तखत नहीं करेगा। भारत सहित अनेक विकासशील देशों के लिए भी ऐसी भाषा पर सहमत होना कठिन है, जिन्होंने यूक्रेन मसले पर तटस्थ रुख अपनाए रखा है।

खबरों के मुताबिक 6-7 सितंबर की रात तीन बजे तक मेजबान भारत ऐसी भाषा की तलाश में जुटा रहा, जिस पर दोनों पक्ष सहमत हो सकें। इस बीच भारत ने अपनी तरफ से एक ड्राफ्ट तैयार किया, जिसे अमेरिका और यूरोपियन यूनियन ने नामंजूर कर दिया। ऐसे में रास्ता सिर्फ तभी निकल सकता है, जब भारत रूस और चीन को अपना रुख नरम करने और बाली शिखर सम्मेलन जैसी रियायत बरतने पर राजी करे। लेकिन समस्या यह है कि अब रूस कोई रियायत बरतने को तैयार नहीं है, जबकि चीन के ऊपर भारत का वैसा कूटनीतिक प्रभाव नहीं है, जैसा इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो बनाने में सफल रहे थे।

पिछले साल यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद इंडोनेशिया के बाली में पहली बार जी-20 शिखर सम्मेलन का आयोजन हुआ था। पुतिन वहां भी नहीं गए थे, लेकिन शी जिनपिंग वहां मौजूद थे। रूस का प्रतिनिधित्व वहां भी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने किया था, जैसा कि नई दिल्ली शिखर सम्मेलन में होने जा रहा है। साझा घोषणापत्र का पेच वहां भी फंसा था। लेकिन विडोडो ने घोषणापत्र जारी होने से पहले लावरोव को बाली से चले जाने पर राजी कर लिया। इसके पहले वे रूस और चीन की सहमति इस बात पर हासिल कर चुके थे कि घोषणापत्र में कहा जाएगा कि सम्मेलन के दौरान कई देशों ने ‘यूक्रेन पर हमले के लिए’ रूस की निंदा की, लेकिन रूस और चीन उस पर सहमत नहीं थे।

अब रूस और चीन वही रियायत नई दिल्ली में बरतने को तैयार नहीं हैं। वे इस बात पर अडिग हैं कि जी-20 के मंच पर भू-राजनीतिक मुद्दों की चर्चा नहीं होनी चाहिए। इस समूह को आर्थिक मसलों तक अपने को सीमित रखना चाहिए, जिसके लिए इसका गठन हुआ था। उधर पश्चिमी देश अड़े हुए हैं कि रूस की स्पष्ट निंदा के बिना उन्हें कोई घोषणापत्र मंजूर नहीं होगा। इस तरह शिखर सम्मेलन से एक दिन पहले तक यही सूरत है कि जी-20 में संभवतः पहली बार कोई साझा घोषणापत्र जारी नहीं हो पाएगा। इस सिलसिले में यह अवश्य याद रखना चाहिए कि इस शिखर सम्मेलन से पहले भारत ने जी-20 देशों के विदेश, वित्त एवं विकास मंत्रियों की बैठकें आयोजित की थीं, लेकिन वे तमाम बैठकें बिना कोई साझा बयान जारी किए समाप्त हो गईं।

रूसी मीडिया में छपे विश्लेषणों के मुताबिक पुतिन को यह मालूम था कि शिखर सम्मेलन के दौरान जब वे भाषण देंगे, जब अमेरिका और यूरोपीय देश वाकआउट कर जाएंगे। वे अपना यह अपमान नहीं करवाना चाहते थे। वैसी परिस्थिति में मेजबान भारत के लिए भी असहज स्थिति पैदा होती। इसलिए उन्होंने नई दिल्ली ना आने का फैसला किया।

उधर चीन की निगाह में जी-20 की प्रासंगिकता लगातार क्षीण हो रही है। शिखर सम्मेलन में ना आकर शी जिनपिंग ने यही संदेश दिया है। चीनी विश्लेषकों के मुताबिक शी को यह अंदेशा भी था कि चीन से खराब संबंधों के कारण मेजबान भारत अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और पश्चिमी नेताओं के प्रति अधिक उत्साह दिखा कर उन्हें नजरअंदाज करने की कोशिश करेगा। पिछले साल यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद चीन के विदेश मंत्री वांग यी जब भारत आए थे, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें मिलने का समय नहीं दिया था। संभवतः शी ने जी-20 शिखर सम्मेलन में ना आने का फैसला लेते वक्त उस पहलू को भी याद किया होगा।

वैसे भी रूस और चीन की समझ है कि सोवियत संघ के विखंडन के बाद बना दुनिया का एकध्रुवीय ढांचा अब गुजरे वक्त की बात हो चुका है। रूस और चीन ने यह इरादा जताने में कोई कोताही नहीं बरती है कि वे पश्चिमी वर्चस्व वाली दुनिया के समानांतर एक नया भू-राजनीतिक ढांचा खड़ा कर रहे हैं। ब्रिक्स, शंघाई सहयोग संगठन, और यूरेशियन इकॉनमिक यूनियन इस नए उभरते ढांचे के स्तंभ हैं, जिन्हें जोड़ने वाली कड़ी चीन की महत्त्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) है। चीन में इस बीआरआई की दसवीं सालगिरह उत्साह से मनाई जा रही है। अगले महीने चीन तीसरे बेल्ट एंड रोड फोरम का आयोजन करने जा रहा है, जिसमें इस परियोजना से जुड़े दर्जनों देशों के नेता भाग लेंगे।

यह सर्वज्ञात है कि जी-20 का गठन एकध्रुवीय वैश्विक ढांचे के तहत थोपे गए भूमंडलीकरण (globalization) के प्रबंधन में उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों की भागीदारी हासिल करने के लिए किया गया था। लेकिन पिछले दो दशक में चीन के अभूतपूर्व उदय ने दुनिया के सारे समीकरण बदल दिए हैं। अब पश्चिमी देशों की चिंता भूमंडलीकरण का संचालन नहीं, बल्कि चीन के उदय को रोकना और दुनिया पर अपने आर्थिक वर्चस्व की रक्षा करना है। इसी बीच उन्होंने रूस के खिलाफ भी दबाव बनाए रखा, जिसका परिणाम यूक्रेन युद्ध के रूप में सामने आया। इस युद्ध ने दुनिया के दो खेमों में बंटने की धीरे-धीरे चल रही प्रक्रिया की गति को नाटकीय अंदाज में बढ़ा दिया।

चूंकि इस घटनाक्रम ने भूमंडलीकरण की परिघटना की दिशा पलट दी है (जिसे de-globalization के रूप में जाना जा रहा है), इसलिए भूमंडलीकरण को संभालने के लिए बने मंच की प्रासंगिकता सिरे से सवालों के घेरे में आ गई है। इस नई परिस्थिति की पहली झलक जी-20 के बाली शिखर सम्मेलन में देखने को मिली थी। नई दिल्ली में संभवतः उस ट्रेलर की पूरी कहानी का एक पूरा नजारा देखने को मिलेगा। अगर साझा घोषणापत्र पर रविवार शाम तक भी वही सूरत बनी रही, जो शुक्रवार सुबह तक थी, तो उसका साफ मतलब यह होगा कि नई दिल्ली जी-20 के पराभव या उसके अप्रासंगिक होने के पहले दृश्य का गवाह बनेगा।

चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए इस आयोजन के अंतरराष्ट्रीय संदर्भ से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण घरेलू राजनीति में इसका उपयोग है, इसलिए भारत के नियंत्रित मीडिया से इस समूह और उसके घटी अहमियत का विमर्श गायब बना हुआ है। इसलिए अफ्रीकन यूनियन (एयू) को मिल रही जी-20 की सदस्यता को इसकी सफलता का संकेत बताया जा रहा है। लेकिन जिस समय अफ्रीका वैश्विक ताकतों के टकराव का प्रमुख स्थल बना हुआ है, उस समय एयू की सदस्यता से विरोध किसे है? पश्चिमी देशों से लेकर चीन तक ने इसे अपना पूरा समर्थन दिया है। मगर प्रश्न यह है कि जिस मंच के संदर्भ पर सवाल गहरा गए हैं और जिसकी प्रासंगिकता संदिग्ध हो गई है, उसकी सदस्यता किसी देश या समूह के लिए कितनी महत्त्वपूर्ण रह गई है?

नई हकीकत यह है कि धनी देशों ने अपने समूह जी-7 में फिर से जान फूंक दी है, जिसमें शामिल होने वाले देशों के बीच पूरी आपसी सहमति दिखती है। दूसरी तरफ एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देशों में ब्रिक्स, एससीओ और ईएईयू के साथ जुड़ने की ललक तेजी से बढ़ी है- क्यों इन देशों की राय में ये तीनों वो समूह हैं, जो नए विश्व ढांचे की जमीन तैयार कर रहे हैं।   

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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