सरकने लगी है नकाब

आगामी लोकसभा चुनावों की सुगबुगाहट मीडिया में जोर शोर से है लेकिन हवा में अजीब सी ठंडक है। थोड़ा सा कुरेदना पड़ता है मिट्टी की एक दो परतों के नीचे के ताप का एहसास लेने को। पूरे देश की हवा में एक जैसी धार संभव नहीं है लेकिन एक प्रदेश में घटित होने जा रहे उतार-चढ़ाव के कुछ सूत्र साझे भी हो सकते हैं।

चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले हरियाणा राज्य में सन 2019 में हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों का एक मूल्यांकन इसलिए आवश्यक लगता है कि उसके सबक मौजूदा चुनावी सरसराहट में प्रासंगिक दिखाई देते हैं।

सन 2019 के मई महीने में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा को रिकॉर्ड 58% वोट मिले थे और पांच महीने में ही विधानसभा चुनाव में भाजपा के वोट का आंकड़ा 22% की रिकॉर्ड फिसलन के साथ 36% पर आकर टिक पाया। इस बड़ी फिसलन के निष्पक्ष आकलन से हमें कुछ ऐसे महत्वपूर्ण सूत्र मिल सकते हैं जिनके सहारे आज की स्थिति का जायज़ा लेना सुगम हो सकता है। तो आइए एक दृष्टि डाली जाए उस बड़ी फिसलन पर।

1. मोहभंग: मई 2019 के आम चुनावों में सफलतापूर्वक एक सुनियोजित गुबार एग्रेसिव देशभक्ति के नाम पर खड़ा किया गया था और उस गुबार में एक महामानव की आकृति समस्त कष्टों से मुक्ति दिलवाने वाले तारणहार के रूप में हमारी आंखों को चुंधिया रही थी। लेकिन पांच महीनों में ही यह गुबार इतना छंट गया कि लोग महामानव की करिश्माई आकृति के जादू से बाहर आने लग गए।

2. मानकपत्रों की छपाई वाली मशीन का बंद हो जाना: सन 2014 में ईमानदारी और सुशासन के मानकपत्रों को थोक में छापने वाली मशीन समय के साथ साथ पुरानी पड़ गई और जनमानस के दिलों में स्वत: ही उसकी छपाई वाले मानकपत्रों का द्रुतगति से अवमूल्यन होना शुरू हो गया।

3. कलेजे से उठने वाली कटर कटर की आवाज़ बंद हो गई: ठेठ हरियाणवी लहजे में किसी के लिए उमड़ते हुए प्यार को कलेजे में कटर कटर की आवाज के मुहावरे में अभिव्यक्त किया जाता है। पांच महीनों में ही इस आवाज़ का एहसास नदारद हो गया।

4. वोट की चाल बदल गई: माना जाता है कि हम अपने पसंद के प्रत्याशियों को जिताने के लिए उनके हक में मतदान करते हैं और यह काम मई 2019 के आम चुनावों में जोर-शोर से हुआ। लेकिन, पांच महीनों में ही उसी वोट ने अपनी चाल ऐसी बदली कि एक मंत्री को छोड़कर (विपक्ष की गलती की वजह से) तमाम मंत्रियों को जनता ने खड्डे लाइन लगा दिया।

उपरोक्त मुख्य कारकों के अलावा अनेक अन्य कारकों पर विस्तृत चर्चा को फ़िलहाल दरकिनार करते हुए उस मुकाम का ज़िक्र किया जाए कि मई 2019 की जोरदार लहर अक्तूबर 2019 तक इतनी कमजोर पड़ गई कि भाजपा के लिए ’अबकी बार जमना पार’ की बुलंद आवाज से नारा लगाने वाली पार्टी के सहारे एक लंगड़ी सरकार बनाने की मजबूरी आन खड़ी हो गई। ’अबकी बार 75 पार’ के ढोल नगाड़े को जनता ने धत्ता करते हुए 40 के आंकड़े पर ला बिठाया।

सन 2019 के बाद पिछले पांच वर्षों में जमुना में बहुत पानी बह चुका है। और, पानी में तो ना जाने क्या क्या बह जाता है। इस अंतराल में धारा 370, नागरिकता कानून, किसान आंदोलन, मणिपुर, भारत जोड़ो यात्रा, इलेक्टोरल बॉन्ड आदि अनेक भूचाल आए जिनका करेंट या अंडरकरेंट किसी ना किसी रूप में बरकरार है। बहरहाल, हम हरियाणा के पिछले लोकसभा और विधानसभा नतीजों को एक सैंपल मानते हुए, उनसे सबक लेते हुए मुख्य सूत्रों पर विमर्श को समेटने का प्रयास करें।

चुनाव नैरेटिव का खेल है। प्रत्येक राजनैतिक पार्टी का ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में करीब-करीब एक निश्चित सा हार्डकोर सपोर्ट वाला मतदाता होता है। लेकिन चुनाव में हार जीत का फैसला फ्लोटिंग वोटर के सहारे ही होता है। ऐसे मतदाता का रुझान दो बातों से निर्धारित होता है। पहला कारक एक राष्ट्रव्यापी लहर के रूप में आम मतदाता को भावनात्मक रूप में जोड़ने वाला होता है। इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद, सन 2014, सन 2019 वाले आम चुनाव इसके सटीक उदाहरण हैं।

दूसरा बड़ा कारक आम जनता की रोजमर्रा से जुड़ी जिंदगी से होती है। रोजगार, महंगाई, कानून व्यवस्था, पानी, सड़क, खेती–बाड़ी, जातिगत समीकरण आदि आदि इसके उदाहरण हैं। जब भी पहला कारक मद्धम पड़ जाता है यानी किसी भावनात्मक लहर के अभाव में दूसरी श्रेणी के कारक मुख्य भूमिका अदा करना शुरू कर देते हैं जैसा कि हरियाणा के पिछले विधानसभा चुनावों में देखने को मिला है। ध्यान रहे कि दोनों श्रेणी के कारकों को बांटने वाली कोई स्पष्ट रेखा नहीं होती है। कम या ज्यादा अनुपात में दोनों का मिश्रण क्रियाशील रहता है।

एक नज़र मौजूदा स्थिति पर:

कुछ लहरें पैदा करने के प्रयास सत्तासीन पार्टी द्वारा बार-बार किए गए। राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के माध्यम से पूरी ताकत लगाई गई लेकिन किसान आंदोलन, इलेक्टोरल बॉन्ड, भारत जोड़ो न्याय यात्रा और केजरीवाल की गिरफ्तारी आदि ने उस योजना की चमक को फीका कर दिया। सीएए के मुद्दे को हवा में उछालने का प्रयास भी आम जनता की मेच्योरिटी के सामने धवस्त हो गया।

एक ही रास्ता बचा है: किसी ना किसी प्रकार से मुक्तिदाता के रूप में अवतारपुरुष की महिमा को जनमानस के दिलों में स्थापित करने के लिए पार्टी को नहीं, काम को नहीं बल्कि सोलह कलाओं से अलंकृत एक चमत्कारिक पुरुष को वोट दिया जाए। इससे यह विमर्श मजबूत होता है कि मोदी नहीं तो कौन? ऐसे में पूरे चुनाव को व्यक्ति केंद्रित बनाए जाने का एक लाभ यह होता है कि जमीनी मुद्दों को बैकग्राउंड में ले जाने में सफ़लता मिलती है। भाजपा द्वारा अभी तक घोषणापत्र जारी ना करने के प्रसंग को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। वोट काम पर नहीं, वोट मुद्दों पर नहीं बल्कि वोट मोदी और मोदी की गारंटी पर दिया जाए।

हो क्या रहा है?: भावनात्मक लहर पैदा करने की भी समयावधि होती है। काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। जादू की भी पोल खुलती है। आखिरी अस्त्र सांप्रदायिक ज़हर घोलने का ही बचा है। और, जब इस अस्त्र का प्रयोग खुलेआम शुरू हो जाए तो समझिएगा बौखलाहट चरम सीमा पर है।

निष्कर्ष: बड़ी लहर भाजपा की और छोटी छोटी लहरे आम जनता की। सौ सौ जतन भी काम ना आए बड़ी लहर पैदा करने को। अवतारपुरुष की महिमा दांव पर है। छोटी लहरें स्थानीय हवा पानी जमीन से उपजती है। बड़ी लहर के अभाव में छोटी लहरें स्थान घेरती हैं। ऐसे में विपक्षी पार्टी नहीं बल्कि जनता खुदमुख्त्यार होना शुरू कर देती है। उन्हें पांच किलो अन्नाज का बंधन बांधे रख सकता है, जातिगत समीकरण मुख्य अदाकार हो सकते हैं, सड़क, बिजली, पानी आदि का विकास या अन्यथा उनकी सोच के दायरे को प्रभावित कर सकते हैं।

किसान आंदोलन, इलेक्ट्रोल बॉन्ड, केजरीवाल, राम मंदिर आदि प्रसंग से मिश्रित उनकी सोच पर मेनस्ट्रीम मीडिया की निरंतर जारी श्रृंगार रस की कविताएं नीरस लगने लगती हैं। विपक्षी पार्टियां सांगठनिक कमजोरियों से ग्रस्त हैं। उनके लिए उम्मीदवार के कार्यकर्ता ही संगठन का पर्याय हैं। बड़ी लहर गायब है, खाली स्थान को भरने का उचित अवसर है। आम वोटर की आकांक्षाओं को सीमित दायरों से निकालकर बड़े दायरों में हस्तांतरित करने का विशेष मौका है। वे ऐसा कर पाती हैं तो बेहतर रहेगा वरना जनता स्वयं चुनाव लड़ना शुरू कर देगी सन 2019 के हरियाणा विधानसभा चुनावों के माफिक। 

(सुरिंदर पाल सिंह लेखक और टिप्पणीकार हैं।)

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