भारत के लोकतंत्र के इतिहास में 18 जुलाई, 23 का दिन ‘विपक्ष की महा एकता और सत्तापक्ष की आत्मरक्षात्मक किलेबंदी’ के रूप में दर्ज़ होगा। एक तरफ कांग्रेस शासित कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में देश के उत्तर+दक्षिण+पश्चिम के प्रभावशाली 26 विपक्षी दलों के शिखर नेताओं का जुटान और अगले वर्ष आम चुनाव में लोकतंत्र, गणतंत्र व संविधान के लिए अस्तित्व-संकट पैदा करने वाली सत्तासीन ताक़तों के निर्णायक प्रतिरोध की रणनीति की पटकथा का सूत्रपात हुआ।
विपक्षी एकता-यात्रा का अगला पड़ाव महाराष्ट्र में होगा। संभवतः मुंबई में। निश्चित ही देश के वरिष्ठतम मराठा नेता शरद पवार और शिवसेना नेता व पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की मेहमाननवाज़ी में इस पड़ाव में एकता का नया आयाम भी जुड़ेगा। इससे भाजपा शासित महाराष्ट्र की शिंदे सरकार के सामने नई चुनौती भी रहेगी। संभव है प्रदेश के वर्तमान सत्ता समीकरण बदलने लगें। बेंगलुरु बैठक में ही संयुक्त 11 सदस्यीय समिति के गठन का भी निर्णय लिया गया है। इसके अध्यक्ष या संयोजक और सदस्य कौन रहेंगे, इसकी घोषणा बाद में की जायेगी।
दूसरी तरफ उसी समय राजधानी दिल्ली में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के ध्वज तले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के 36 से अधिक सत्तापक्षीय घटकों का जमावड़ा भी हुआ। इस जमावड़े ने लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राजसत्ता की किलेबंदी और विपक्ष के महागठबंधन के विरुद्ध मोर्चाबंदी की रणनीति की क़वायद की। बेंगलुरु-पड़ाव का रोमांचकारी उद्घोषणा यह रही कि विपक्षी महाजुटान के मंच से ‘INDIA’ का नारा गूंजा। पांच अक्षरों के इस शब्द को नए अर्थ में पिरोया गया: indian national developmental inclusive alliance (भारतीय राष्ट्रीय विकासशील साझा गठबंधन)।
इसका निचोड़ यह हुआ कि अब चुनावों में ‘इंडिया बनाम एनडीए’ के बीच जंग होगी। बेंगलुरु मंच से मोदी-शाह दुर्ग पर एक ऐसे बहुअर्थी राकेट का प्रक्षेपण हुआ है जिसका एनडीए के पास फिलहाल कोई तोड़ नहीं है। वजह साफ़ है। इंडिया के नारे से ‘भारत जोड़ो’ की नई पटकथा का आगाज़ हुआ है। इसमें ‘इंक्लूसिव’ शब्द को जोड़कर एक मिली-जुली संस्कृति या गंगा-जमुनी तहज़ीब या साझा-चूल्हा का सन्देश देने की कोशिश की गई है। ‘भारत का विचार’ या ‘आइडिया ऑफ़ इंडिया’ की तस्वीर में फिर से मूल रंग भरने का प्रयास किया गया है। पिछले एक दशक में इस तस्वीर को बदरंग करने की कोशिशें हुईं हैं। अब इसे इंडिया के फ्रेम में फिर से सजाने की पहल हो रही है। इसी का अक़्स इंडियन के नारे में चमकता है।
यही वजह थी कि राहुल गांधी ने अपने सम्बोधन में इंडिया और एनडीए के बीच विचारधारा के संघर्ष को ही अधिक रेखांकित किया है।उनका इस बात पर आग्रह कम था कि इंडिया और भाजपा या एनडीए के मध्य लड़ाई सत्ता की है, बल्कि विचारधाराओं के टकराव को लेकर है। भाजपा भारत को तोड़ना चाहती है, हम इसे जोड़ना चाहते हैं। राहुल गांधी का यह स्टैण्ड नया नहीं है। पिछले वर्ष जब उन्होंने कन्याकुमारी से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ शुरू की थी तब से ही वे इसे विचारधारा का संघर्ष बतलाते आ रहे हैं। वे अब भी इस पर क़ायम हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की यह घोषणा भी गौरतलब है कि उनकी पार्टी की दिलचस्पी प्रधानमंत्री पद या सत्ता में नहीं है। कांग्रेस का संकल्प है कि लोकतंत्र, संविधान, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय की रक्षा की जाए। इसका निहितार्थ यह भी है कि कांग्रेस प्रधानमंत्री का पद किसी गैर-गांधी परिवार को देने के पक्ष में है। इसके दावेदार खड़गे, नीतीश कुमार जैसे नेता भी हो सकते हैं। यदि ऐसा होता है तो यह सही क़दम रहेगा। कांग्रेस पर भाजपा का वंशवाद का आरोप भी स्वतः ही धुल जाएगा।
वैसे 2004 में भी यह आरोप भाजपा पर उल्टा पड़ा था। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने पहले ही रोज़ प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया था। उन्होंने अपने बजाए अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने की सिफारिश की थी। वे पूरे एक दशक तक औपचारिक सत्ता से बाहर भी रहीं। यदि अगले साल इंडिया को बहुमत मिलता है और प्रधानमंत्री पद के लिए व्यक्ति के चयन की स्थिति पैदा भी होती है तो राहुल गांधी इससे दूर रह सकते हैं। इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अलबत्ता, औपचारिक सत्ता से बाहर रहने के बावजूद उनका ‘प्रभा मंडल’ बना रहेगा। खैर! यह सब कुछ चुनाव परिणामों पर निर्भर करता है।
शाम को एनडीए की बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का समापन भाषण जहां विपक्ष पर हमलावर था वहीं घटक दलों के प्रति बेहद विनम्र भाव भी था। मोदी जी घटक नेताओं से विनती के लहजे में कह रहे थे कि वे उनके नेतृत्व में विश्वास रखें। पिछले नौ सालों में कुछ भूलें भी हुई होंगी, उन्हें नज़रंदाज करें। सार तत्व यह है कि उनका भाषण आक्रामकता के साथ डगमगाते आत्मविश्वास और अनुनय से लबालब था। बेशक, हमेशा की भांति उनकी भाषण शैली मोहक थी। निश्चित ही मोदी जी ने अपनी कमजोरियों को आंकड़ों, विदेशी आदर-सम्मान और विपक्ष पर हमलों की बौछार की ओट में प्रभावशाली ढंग से छिपाया भी और भाजपा समेत घटक दल के नेताओं से 2024 का चुनावी रण जीतने का आह्वान भी किया।
मोदी जी का जवाबी राकेट का हमला था कि बेंगलुरु में कट्टर भ्रष्टाचारी और ज़मानती नेता एक जुट हुए हैं। लेकिन, वे भूल रहे थे कि ऐसा कहते हुए वे स्वयं भी अपने हमलों से घिरते जा रहे हैं। क्या वे अपने ही शब्दों को इतनी आसानी से भूल जाते हैं? उन्होंने महाराष्ट्र के जिन विपक्षी नेताओं पर हज़ारों करोड़ के भ्रष्टाचार के आरोप जड़े थे। सिर्फ तीन रोज़ बाद उन्हें ही महाराष्ट्र की भाजपा नेतृत्व की सरकार में मंत्री बना दिया जाता है। भाजपा में विभिन्न दलों के ऐसे अनेक नेता शामिल हैं जो कि करप्शन में लिप्त रहे हैं। पार्टी में शामिल होने से पहले भाजपा उन पर तीखे हमले करती रही है। इसकी ज्वलंत मिसाल हैं असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा।
हेमंत बिस्वा सरमा जब कांग्रेस में हुआ करते थे तब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा उन्हें घेरा करती थी। लेकिन भाजपा में शामिल होने और मुख्यमंत्री बनने के बाद हमले ग़ायब हो गए। शायद इसीलिए इस पार्टी ने ‘वाशिंग मशीन’ तमगा की ख्याति अर्जित की है। क्या मोदी जी इस सच्चाई को सुविधापूर्वक भूल जाते हैं? इससे उनकी ही छवि मैली होती है। वे अविश्वसनीय दिखने लगते हैं। कम-से-कम स्वयं को न झुठलायें और लोगों की नज़रों में अपने शब्दों-वाक्यों को भरोसे लायक़ रहने दें। लेकिन उनकी फितरत ऐसी नहीं है। उनके कथन हैरतअंगेज़ कारनामे करते रहेंगे।
शायद यह पहला अवसर है जब विपक्ष ने राजनीति का नया नैरेटिव सामने रखा है। चुनावों से पहले अपना एजेंडा देश के सामने रखा है। कोने में सिकुड़ी दिखाई दे रही है भाजपा। क्या यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि एनडीए सुस्त पड़ा था। भाजपा ‘एकला चलो’ के दंभ पर सवार थी और घटकों के प्रति उदासीन थी। लेकिन जब विपक्ष की महा एकता का एजेंडा सामने आया तब उसने ताबड़तोड़ पुराने घटकों और नए घटकों की खबर लेना शुरू कर दिया। जब भाजपा विपक्ष पर गठबंधन को ‘भानुमती का कुनबा’ बतला कर फब्तियां कस रही है, तब वह स्वयं के गिरेबां पर भी नज़र डाल लेती।
भाजपा अपने एनडीए को करीब 36-38 दलों के गठबंधन का दावा कर रही है। पार्टी का वर्तमान नेतृत्व इस सच्चाई को भी सुविधा पूर्वक भूल गया है कि 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में करीब 24 दलों का गठबंधन बना था। उसे भी लोग भानुमती का महाकुनबा कहा करते थे। इस तरह से भाजपा अपने इतिहास को दोहरा रही है। प्रधानमंत्री मोदी जी, इस तथ्य को भी याद रखें लेकिन, वे नहीं रखेंगे। उन्हें ‘विपक्ष और प्रतिरोध मुक्त इंडिया‘ चाहिए। तभी भारत मज़बूत होगा। तभी तो उन्होंने कल अपने भाषण में कहा था- एनडीए मज़बूरी नहीं है, मज़बूती है।
बेंगलुरु-मंथन से बहुत कुछ निकल कर आया है; 1. हम एक हैं का सन्देश; 2. विपक्ष की नई पहचान- इंडिया यानी साझी पहचान-साझा मंच; 3. दलों का 17 से 26 तक विस्तार; 4. एकता और संघर्ष की भावी रणनीति की रूपरेखा का बनना; 5. अगले पड़ाव की घोषणा; 6. इंडिया बनाम एनडीए का नारा; 7. विपक्ष के वोटों के बिखराव को रोकने और भाजपा के विरुद्ध विपक्ष का सर्वसम्मत प्रत्याशी खड़ा करने की दिशा में चिंतन; 8. प्रादेशिक स्तरों पर विभिन्न दलों के बीच व्याप्त मतभेदों के हल के लिए कोशिशें; 9. विपक्ष की कप्तानी पर मंथन और सोनिया गांधी, नीतीश कुमार जैसे नामों की चर्चा; 9. एक ही मंच पर सोनिया गांधी, ममता बनर्जी, शरद पवार, नीतीश कुमार, मल्लिकार्जुन खड़गे, राहुल गांधी, सीताराम येचुरी, दीपंकर भट्टाचार्य, उमर अब्दुल्लाह, मेहबूबा मुफ़्ती, अरविन्द केजरीवाल, स्टालिन, लालू यादव, उद्धव ठाकरे, अखिलेश, शिबू सोरेन जैसे नेताओं की उपस्थिति; 10. ममता बनर्जी द्वारा’ इंडिया’ का नाम देना।
विपक्ष की सुदृढ़ एकता के लिए इस लेखक ने अपने 15 जुलाई के लेख में 11 सूत्र (बीच बहस में) सामने रखे थे। उनमें से अधिकांश सटीक रहे हैं। मिलान करके देख सकते हैं।
हमें याद रखना चाहिए कि विचारधारा और स्थानीय चुनावी हितों-अहितों की दृष्टि से विभाजित दलों के नेताओं ने कम-से-कम परस्पर मुख़ातिब होने की पहल तो की है। यह स्वयं में एक ठोस राजनीतिक उपलब्धि है। बेंगलुरु में सभी समस्याओं का हल हो गया है, जेनुइन एकता क़ायम हो गई है, ‘24 के आम चुनावों में इंडिया एनडीए को निर्णायक शिकस्त दे ही देगा, ऐसा निष्कर्ष निकालना अदूरदर्शिता होगी। अभी आठ-नौ महीनों का समय है। एकता को मज़बूत करने के लिए कई बैठकें होंगी। यह भी आशंका रहेगी कि कुछ घटक छिटक भी सकते हैं, और नए शामिल भी हो सकते हैं। यही सिलसिला भाजपा नेतृत्व की एनडीए में भी चलता रहेगा।
हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में चुनाव-परिणामों से स्थिति अधिक साफ़ होगी; राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणाम एकता की ज़मीनी कामयाबी या असफलता की कसौटी बनेंगे। तेलंगाना भी लड़खड़ा रहा है। इस राज्य के चुनावों में कर्नाटक की पुनरावृति संभव है। यदि ऐसा होता है और कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष सत्ता में आता है तो भाजपा के लिए चौबीस के परिणाम ‘सुखद’ नहीं होंगे। बेंगलुरु पड़ाव का मुख्य परिणाम यह है कि ‘इंडिया के अवतार’ में विपक्ष ने एजेंडा सेटिंग की रणनीति पर चलना शुरू कर दिया है। बेशक, इससे भाजपा और मोदी-शाह जोड़ी की सत्ता अचम्भित और भयभीत है।
(रामशरण जोशी वरिष्ठ पत्रकार हैं।)