फिलिस्तीन इजराइल युद्ध-2: अरबी समाज के नवजागरण का सवाल

फिलिस्तीन के किसानों की जमीन पर इजराइल के लगातार बढ़ते कब्ज़े से 1945 के बाद ही तनाव बढ़ने लगा था। लगभग 450 से ज्यादा बस्तियों में बसे हुए फिलिस्तीनी लोग मूलत: कृषक थे। जिनका जीवन खेती- किसानी और पशुपालन पर निर्भर था। जो अपने में ही संतुष्ट और अंत्मनिर्भार समाज था। जब यूरोप के अलग-अलग भू-भागों से यहूदी उस इलाके में आकर जमीन खरीदकर आबाद होने लगे तो फिलिस्तीनियों में इसे लेकर किसी भी तरह का विरोध और चिंता नहीं थी। बल्कि फिलिस्तीनी समाज ने यहूदियों के आगमन का स्वागत किया और उन्हें गले लगाया।

प्रथम विश्व युद्ध के समय से ही उपनिवेशवादी ताकतें (खास कर ब्रिटेन) यरुशलम के इर्द-गिर्द के इलाके में यहूदियों के होमलैंड की परियोजना लेकर चल रही थी। जिन्होंने यहूदी‌ जायनिस्टो को संरक्षण और सहयोग देकर इजराइल नामक देश के निर्माण की आधारशिला रखी। प्रारंभ में आने वाले यहूदी मूलतः शहरी इलाकों में ही बसे थे। शहरी समाज होने के कारण व्यापार, उद्योग, कारोबार और आर्थिक गतिविधियों पर यहूदियों का कब्जा होता गया। इसलिए यहूदी समृद्ध और ताकतवर बनते गये।

द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद (1945 के बाद) अमेरिका जब विश्व का बादशाह बना तो उसने इजराइली यहूदियों की लंबे समय से लंबित पड़ी स्वतंत्र देश की आकांक्षा को हवा देना शुरू किया। (जबकि यहूदी किसी एक देश या भू-क्षेत्र के निवासी नहीं थे। वे यूरोप से लेकर दुनिया के अलग-अलग इलाकों मैं फैले हुए थे। जिनकी संस्कृति और जीवन प्रणाली एक दूसरे से भिन्न थी।) इसी दौर में अमेरिका और नाटो देशों के सहयोग से यहूदियों ने फिलिस्तीनियों को खदेड़ना शुरू किया।

1945 तक जो यहूदी फिलिस्तीन के 7% भू भाग पर काबिज थे। उन्होंने ही 1948 तक आते-आते फिलिस्तीनियों को खदेडकर उनको अपने ही मातृभूमि पर शरणार्थी शिविरों में रहने के लिए मजबूर कर दिया। जगह-जगह शरणार्थी कैंप दिखाई देने लगे। तभी से लाखों की संख्या में फिलिस्तीन शरणार्थी अलग-अलग देश के शिविरों में नारकीय जीवन गुजार रहे हैं। यही नहीं गाजा और वेस्टलैंड के इलाके में भी शरणार्थी शिविरों में लाखों फिलिस्तीनी परिवार जानवरों की तरह से पिछले 75 वर्षों से रह रहे हैं।

1948 में पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकते खासकर अमेरिका के सहयोग सेइजराइलने जिस तरह का फिलिस्तीनियों का जनसंहार किया। उससे अरब जगत के नागरिकों में भारी आक्रोश पैदा हुआ। यहां से अरब राष्ट्रवाद की एक नई अवधारणा उभरकर सामने आई। शायद हिटलरी यहूदी होलोकास्ट के बाद यह दुनिया की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी थी। जिसमें हजारों फिलिस्तीन मारे गये और लाखों शरणार्थी बना दिए गए थे।

इस स्थिति में यूएनओ की पहल (जो मूलतः अमेरिकी साजिश का परिणाम था) पर 1948 में फिलिस्तीन और इजराइल के बीच समझौता हुआ था। इस समझौते में फिलिस्तीन को 43% और 57% जमीन इजराइल को दी गई। लेकिन जायनिस्टों की विस्तारवादी नीतियों और चरित्र के कारण फिलिस्तीनियों पर आक्रमण जारी रहा। इसराइल ने संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों और समझौते को आज तक कभी भी स्वीकार नहीं किया है। जैसा हम आज भी देख रहे हैं। यूएनओ जनरल सेक्रेटरी के द्वारा मानवीय दृष्टि से दिए गए बयान पर नेतन्याहू ने क्या-क्या नहीं कहा है। परिणाम स्वरुप नस्लवादी जायनिस्टों ने फिलिस्तीनियों को खदेड़ते-मारते हुए बहुत छोटे से इलाके में सीमित कर दिया है। जिसे आज गाजा और वेस्टलैंड कहा जाता हैं।

सदियों से स्वतंत्र खुशहाल जिंदगी जीने वाले फिलिस्तीनी किसान पशुपालक धीरे-धीरे खानाबदोश शरणार्थी में बदलते गए। साथ ही हजारों फिलिस्तीनियों की हत्याएं की गई। महिलाओं और बच्चों तक को मारा गया। ऐसा लगता था कि जीवोनवादी यहूदियों को फिलिस्तीनियों के जनसंहार से मानसिक शांति मिल रही हो और वे नरसंहार का जश्न मना रहे हों। जबकि इतिहास में मुस्लिमों द्वारा यहूदियों के साथ किसी भी तरह के अत्याचार का कोई उदाहरण नहीं मिलता है।

इस घटना ने अरबी नागरिकों में आक्रोश और घृणा के साथ संगठित होने की चेतना को जन्म दिया। उस समय विश्व में घट रही समाजवादी क्रांतियों के प्रभाव से विश्व भर में आजादी की आकांक्षा के साथ प्रगतिशील वैचारिक चेतना का माहौल तेजी बन रहा था। रुसी समाजवादी क्रांति का आकर्षण दुनिया के उपनिवेशों और पिछड़े मुल्कों की जनता में पहले से ही था। लेकिन 1949 में संपन्न हुई चीनी क्रांति ने विश्व जन-गण में आजादी और आधुनिक विचारधारा के प्रसार में उत्प्रेरक का भूमिका निभाई। विश्व व्यापी क्रांतिकारी वाम आवेग के प्रभाव से अरब जगत के बुद्धिजीवी नागरिक और युवा आकर्षित होने लगे।

हालांकि 19वीं सदी के आखिर में ही अरब राष्ट्रवाद के बीज पड़ गये थे। लेकिन इसराइलियों द्वारा फिलिस्तीनियों के नरसंहार ने अरब राष्ट्रवाद के प्रगतिशील चरित्र के विकास में क्रांतिकारी भूमिका निभाई। जिसका केंद्र लेबनान की राजधानी बेरुत बना। साथ ही दमिश्क काहिरा होते हुए तेहरान और काबुल तक नए वैचारिक आवेग का विस्तार होता गया।

जिस कारण से अरब के शेख सुल्तानों के साथ अमेरिकी सरकार चिंतित हो उठी और इसको रोकने के लिए उसने हर संभव तैयारी शुरू की। इसी दौर में अरब देशों में सैकड़ों अमेरिकी सैनिक अड्डे, एयरवेस और अमेरिका के साथ इन मुल्कों की सैनिक संधियां हुईं। अरब देश जैसे-जैसे तेल शक्ति बनते गए वैसे-वैसे अमेरिका की जकड़न भी इन देशों पर बढ़ती गई। अमेरिकी तेल और हथियार कंपनियों के लिए अरब देश मुनाफे देने वाली मुर्गियां बन गई। जिसका परिणाम हुआ कि अरब देश के शासक एक-एक कर अमेरिका के पिछलग्गू एजेंट बनते गये।

1948 के फिलिस्तीनी जनसंहार और अरब देशों पर अमेरिकी कब्जे के स्वाभाविक परिणाम स्वरुप अरब राष्ट्रवाद के दूसरे दौर की शुरूआत हुई। जिसका केंद्र लेबनान की राजधानी बेरुत था। बेरुत के अमेरिकन यूनिवर्सिटी के एक प्रोफेसर जार्ज हबास ने अपने कुछ साथियों, छात्रों, बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर “पान अरब” विचारधारा पर आधारित संगठन की शुरूआत की। यानी संपूर्ण अरब एक राष्ट्र है और इसे एकताबध्द होकर फिलिस्तीनियों के अधिकारों के साथ अरब जगत की स्वतंत्रता और आजादी का संघर्ष आगे बढ़ना चाहिए। उन्होंने हकात अल क्यामुयीन अल अरब अर्गनाईजेशन (जिसे लोकप्रिय भाषा में अरब राष्ट्रवादी आंदोलन कहा जाता है) की नींव रखी। इस ऑर्गेनाइजेशन ने अरब देशों के साथ पूरी दुनिया को प्रभावित किया। जो मूलतः धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादी और प्रगतिशील आंदोलन था।

जिसके संस्थापकों में जॉर्ज हवास, हनी अल हिंदी, बदी हदाद अहमद, मोहम्मद अल खाटिब, हमीद अल जुबेरी आदि थे। इस संगठन ने दुनिया के नागरिकों सहित अरब देशों को प्रभावित किया। 1951 में स्थापना से लेकर 1967 मैं भंग होने तक अरब जगत में नई विचारधारा को तेजी से प्रचारित प्रसारित करने में कामयाबी मिली। संगठन का मुख्य आधार बुद्धिजीवियों, छात्रों, विश्वविद्यालयों में तेजी के साथ फैला था। जो बेरुत के बाहर काहिरा, तेहरान, बगदाद, दमिश्क जैसे शहरों के अलावा कई देशों कुवैत, जॉर्डन, सऊदी अरब, इराक, बहरीन, सीरिया और लीबिया तक पहुंच गया था। बाद में इन्हें भारी दमन झेलना पड़ा और बदलती हुई विश्व परिस्थिति में 1967 तक आते-आते इस आंदोलन की ऊर्जा चुक गई। और इसे भंग कर दिया गया।

1967 में फिलिस्तीन के जादुई नेता याशिर अराफात के नेतृत्व में फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन (पीएलएओ) नामक संगठन खड़ा हुआ। जो मूलत: आधुनिक लोकतांत्रिक प्रगतिशील विचारों वाला क्रांतिकारी संगठन था। यासिर अराफात और पीएलओ को पूरी दुनिया में फिलिस्तीन के एकमात्र नेता और संगठन के बतौर मान्यता हासिल हुई। भारत चीन सोवियत संघ जैसे देशों ने अराफात और पीएलओ को फिलिस्तीन के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी। अराफात के मित्रों में फीडेल कास्त्रो और इंदिरा गांधी सहित कई क्रांतिकारी और वामपंथी नेता हुआ करते थे।

पीएलओ और यासिर अराफ़ात के वाम क्रांतिकारी दृष्टिकोण ने अरब जगत में अमेरिका और उसके संरक्षित इस्लामिक रूलरों के समक्ष बहुत बड़ी चुनौती खड़ी कर दी। यासिर अराफ़ात क्रांतिकारी विचारों के होने के बावजूद यथार्थवादी दृष्टिकोण वाले व्यक्ति थे। जो बदलती हुई वैश्विक स्थिति में साम्राज्यवादी प्रभुत्व के विस्तार को होते हुए देख रहे थे। जिन्होंने दुनिया की वास्तविकता को समझते हुए फिलिस्तीनियों के लिए एक सम्मानजनक सम्प्रभु देश पाने की हर संभव कोशिश की। लेकिन अरब जगत की इस्लामी ग्रंथि और अमेरिकी चुनौती ने उनके सपनों के फिलिस्तीन के निर्माण में बाधा पहुंचाई।

यही वह समय है जब अरब देशों में प्रगतिशील राष्ट्रवादी ताकतों को भारी दमन झेलना पड़ा। लेकिन इसी समय में अरबी अवाम द्वारा प्रतिरोध की नई-नई ईबारत लिखी गई। 1967 तक आते-आते जार्ज हमास और उनके संगठन अरब नेशनलिस्ट आंदोलन की परिकल्पना वाले अरब राष्ट्रवाद की अवधारणा को भारी धक्का लग चुका था और पैन अरब राष्ट्रवाद ने लगभग दम तोड़ दिया।

1967 में दुनिया के सबसे बड़े मुस्लिम देश इंडोनेशिया में बनी कम्युनिस्ट सरकार के ऊपर हुए फासिस्ट हमले में लाखों वामपंथी कार्यकर्ताओं की हत्या के बाद बनी सैनिक तानाशाही ने इस्लामिक देशों में नए तरह के दक्षिणपंथी दमनकारी उभार को बल मिला था। इसका असर इराक लेबनान मिस जॉर्डन आदि देशों पर भी पड़ा। जहां कई देशों में तो कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव तक मारे गए। हजारों वामपंथी प्रगतिशील लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों की हत्याएं हुई। हमें इस दौर में फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश और तुर्की के महान कवि नाजिम हिकमत को अवश्य याद रखना चाहिए। जो इस दौर की क्रूर हकीकत से कलम और विचारों के द्वारा लड़ रहे थे।

बाद में अफगानिस्तान में हुई घटनाओं को केंद्र करके इस्लामिक उग्रवादी संगठनों की एक पूरी फेहरिस्त ही अमेरिका के संरक्षण में तैयार की गई। जिसमें पाकिस्तानी सीमा पर ऊभरे तालिबानी और सऊदी अरब में अलकायदा से लेकर बोको हरम आईएस आईएस सहित लंबी सूची है। 70 के दशक के अंत में हुई इरानी इस्लामी क्रांति ने अरब जगत में विचार विमर्श की दिशा ही बदल दी।

हालांकि घटनाक्रमों के विकास के एक दौर में ईरान को अमेरिका के साथ टकरा जाना पड़ा। लेकिन तब तक अरब जगत एक दूसरी दिशा में मुड़ चुका था और प्रगतिशील राष्ट्रवाद की अवधारणा को भारी धक्का लग चुका था। यासिर अराफ़ात भी कमजोर होते गए तथा इजरायल अमेरिका के अदृश्य सहयोग से हमास का नामक संगठन भी फिलिस्तीनियों के बीच में खड़ा किया गया। उसके बाद से अरब देशों में षडयंत्रों हत्याओं अमेरिकी बर्बरता और साम्राज्यवादी लूट का जो घिनौना खेल शुरू हुआ। वह आज तक बदस्तूर जारी है। एक बात यहां याद रखा जाना चाहिए किकिसी संगठन को किसी षड्यंत्र के तहत निर्मित तो किया जा सकता है। लेकिन सामाजिक गतिविधियों हर समय सत्ताधारियों के नियंत्रण में संचालित नहीं होती। उसकी अपनी स्वतंत्र गति होती है। जैसा हमने अलकायदा ईरानी क्रांति और हमास के विकास में देखा है।

अब 7 अक्टूबर 2023 में हमास और उसके इस्लामिक गठबंधन द्वारा इजरायल पर हुए हमले के बाद शुरू हुए संघर्ष ने फिर से अरब देशों में नए जागरण की आधारशिला रख दी है। आने वाले समय में फिलिस्तीनी नागरिकों के बह रहे खून से जो नई दुनिया जन्म लेगी। वह निश्चय ही ज्यादा आधुनिक लोकतांत्रिक और प्रगतिशील राष्ट्रवाद के परचम तले संगठित की जाएगी। आज के समय में अरब देशों में घटित हो रहे घटनाक्रम इस बात का स्पष्ट संकेत दे रहे हैं। सभी अरब देशों में अवाम द्वारा इस्लाम के नाम पर कायम तानाशाही शाहंशाहियों के दमन को नकारते हुए सड़कों पर फिलिस्तीनियों के समर्थन में उतरे जन सैलाब से भला और क्या अर्थ निकाला जा सकता है।

(जयप्रकाश नारायण स्वतंत्र पत्रकार और किसान नेता हैं।)

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