पीएलएफएस रिपोर्ट: सच्चाई छिप नहीं सकती, बनावट के उसूलों से!

आम जन की बढ़ती आर्थिक बदहाली के बीच भी कैसे आंकड़ों के हेरफेर से सुखबोध पैदा करने की कोशिश की जा सकती है, उसका एक बेहतरीन और ताजा उदाहरण पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) रिपोर्ट है। पीएलएफएस यानी आवधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण रिपोर्ट हर वर्ष भारत सरकार तैयार करती है। इसे देश में रोजगार और श्रम बाजार की स्थिति का सबसे आधिकारिक दस्तावेज माना जाता है- या कहा जाए कि माना जाता था।

इस रिपोर्ट की साख पिछली केंद्र सरकारों के दौर में बनी थी, जब उसके जरिए सच्चाई के विपरीत सकारात्मक सुर्खियां बनाने की कोशिश नहीं की जाती थी। लेकिन अब सूरत बदल गई है। बहरहाल, जैसा कि कहा जाता है, सच से ध्यान भटकाया तो जा सकता है, लेकिन सच को हमेशा के लिए छिपाया नहीं जा सकता। यह बात यहां भी लागू होती है। हकीकत यह है कि आंकड़ों के हेरफेर से खुशहाली की तस्वीर सिर्फ सुर्खियों में पेश की जा सकती है- जबकि आंकड़ों के बारीक विश्लेषण में अगर जाया जाए, तो पोल खुल जाती है।

कहानी यह है कि देश में रोजगार की सूरत बेहतर हो रही है। ताजा पीएलएफएस रिपोर्ट में अप्रिय आंकड़ों को चमकदार बना कर इसी रूप में पेश किया गया है। राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान की तरफ से जारी इस रिपोर्ट के आधार पर अखबारों ने सुर्खियां बनाईं कि इस वर्ष जून और जुलाई में देश में बेरोजगारी की दर गिरी। साथ ही श्रम बाजार में भागीदारी (एलएफपीआर) दर में वृद्धि हुई है। अखबारी सुर्खियों के मुताबिक,

  • शहरी और ग्रामीण इलाकों में जून-जुलाई 2023 में बेरोजगारी दर क्रमशः 5.4 और 2.4 प्रतिशत रही, जबकि उसके पहले के दो महीनों में ये दर 6.3 और 3.2 प्रतिशत थी।
  • रिपोर्ट में बताया गया है कि 2022-23 में एलएफपीआर बढ़ कर 57.9 प्रतिशत तक पहुंच गई, जबकि 2021-22 में यह दर 55.2 प्रतिशत थी। (एलएफपीआर यानी श्रम शक्ति में भागीदारी का अर्थ उन लोगों से होता है, जो या तो नौकरी में हों, या नौकरी की तलाश में हों। इसमें उन लोगों को शामिल नहीं किया जाता, जिन्हें नौकरी की जरूरत ना हो, या जिन्होंने नौकरी मिलने की संभावना से निराश होकर इसे ढूंढना ही छोड़ दिया हो।)

जाहिर है, ये आंकड़े एक सकारात्मक तस्वीर पेश करते हैं। लेकिन अब जरा इसी रिपोर्ट से सामने आए इस विवरण पर गौर कीजिए कि भारत में जिन लोगों को रोजगार में माना जा रहा है, उन्हें दरअसल किस तरह का रोजगार हासिल है।

  • सरकार ने जो आंकड़े दिए हैं, उसके मुताबिक कुल रोजगार प्राप्त लोगों में 57.3 प्रतिशत स्वरोजगार श्रेणी में आते हैं। 2018-19 में (यानी कोरोना महामारी के ठीक पहले वाले वर्ष में) ये संख्या 52.1 प्रतिशत थी।
  • अब नियमित वेतन मिलने वाले रोजगार वाली श्रेणी में 20.9 प्रतिशत लोग हैं। 2018-19 में यह संख्या 22.8 प्रतिशत थी।
  • बाकी लोग कैजुअल यानी अनियमित रोजगार की श्रेणी में हैं।

इन आंकड़ों के आधार पर उठा प्रासंगिक प्रश्न यह है कि महामारी के दौरान स्वरोजगार की संख्या क्यों बढ़ी और नियमित वेतन वाले रोजगार की संख्या क्यों घटी? और इस अनुपात का आज भी उसी रूप में बने रहना क्या बताता है?

स्पष्टतः यह बताता है कि उच्च आर्थिक वृद्धि दर के तमाम आंकड़ों के बावजूद रोजगार के बाजार में कोई सुधार नहीं हुआ है। बल्कि इसमें गिरावट आई है। दरअसल, भारत में स्वरोजगार से तात्पर्य बेरोजगारी को छिपाना और अर्ध-रोजगार की स्थिति से होता है। आखिर मजबूरी में भी हर व्यक्ति कुछ ना कुछ तो करता ही है। जबकि अगर विकल्प मौजूद हों, तो स्वरोजगार वाले लोगों में से ज्यादातर नियमित वेतन के रोजगार को अपना लेंगे।

इस सर्वे रिपोर्ट में सच्चाई पर परदा डालने की कोशिश कैसे की गई है, इसे श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी के आंकड़े से बेहतर समझा जा सकता है। इस सर्वे से यह चौंकाने वाला- और संभवतः आहत करने वाला भी- आंकड़ा सामने आता है कि नियमित वेतन वाली नौकरियों के दायरे में भारत के श्रम बाजार में अब सिर्फ 15.9 महिलाएं मौजूद हैं। चार साल पहले यानी 2018-19 में भारत में श्रम शक्ति में वेतनभोगी महिलाओं की भागीदारी 21.9 प्रतिशत थी।

सरकारी रिपोर्ट में बताया गया है कि 15 वर्ष से ऊपर उम्र की महिलाओं की श्रम शक्ति में भागीदारी अब 31.6 प्रतिशत हो गई है, जो 2018-19 में 21.1 प्रतिशत थी। यानी चार साल में दस प्रतिशत से भी ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। मगर पेच वही है। इसमें घरेलू काम में योगदान करने वाली और कथित स्वरोजगार में लगीं महिलाओं को भी रोजगार प्राप्त महिला की श्रेणी में रखा गया है। जबकि अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड ने जब इन तमाम आंकड़ों का विश्लेषण किया, तो सामने आया कि वेतन वाली नौकरियों में काम कर रही महिलाओं की संख्या में इस अवधि में छह प्रतिशत की गिरावट आई है।  

पीएलएफएस के ही आंकड़ों पर गौर कीजिए। इसके मुताबिक देश के कुल कामकाजी लोगों में 57.3 प्रतिशत लोग स्वरोजगार में हैं, लेकिन महिलाओं के बीच यह संख्या 65.3 फीसदी है। आखिर क्यों? जाहिर है, इसलिए कि महिलाएं असल रोजगार बाजार से अधिक संख्या में बाहर हुई हैं। अब वे परिवार चलाने या समय काटने के लिए पास-पड़ोस में किसी तरह का काम करती हैं, जिन्हें सरकार ने रोजगार मान लिया है। यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच साल पहले पकौड़ा तलने को रोजगार मानने की जो सोच सामने रखी थी, उसे अब सरकारी स्तर पर अपना लिया गया है। 

बहरहाल, सरकारी दावे के मुताबिक यह मान लिया जाए कि स्वरोजगार भी रोजगार है, तो यह देखना दिलचस्प होगा कि स्वरोजगार वाले लोगों की औसत आय क्या है। खुद पीएलएफएस बताता है कि 2022-23 में स्वरोजगार वाले व्यक्तियों की औसत मासिक आय 13,347 रुपये थी। प्रश्न है कि इतनी रकम पर जिंदगी गुजारने वाला परिवार आखिर किस आर्थिक वर्ग में आएगा और उसके उपभोग का स्तर क्या होगा?

देश में आम उपभोग किस तरह निरंतर गति से घटता जा रहा है, इस बात की पुष्टि एफएमसीजी कंपनियों की रिपोर्ट से लगभग हर महीने होती है। एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक आम उपभोग की चीजें बनाने वाली इन कंपनियों की बिक्री में इस वर्ष जुलाई से सितंबर की तिमाही में 2.3 प्रतिशत की गिरावट आई। यह सूरत तब रही, जब सितंबर में उनकी बिक्री बढ़ी, क्योंकि किराना दुकानदारों ने त्योहारों के सीजन का पूर्वानुमान लगाकर अपना भंडार बढ़ाया।

एमएमसीजी कंपनियों का कारोबार लोगों की वास्तविक आय पर निर्भर करता है। महंगाई और रोजगार की खराब स्थितियों के कारण आम जन की औसत वास्तविक आय में पिछले छह वर्षों में लगातार गिरावट आई है। इस बात की पुष्टि भारत कार बाजार के आंकड़ों से भी होती है। कार बाजार का हाल यह है कि सबसे महंगी कारों की मांग बढ़ती चली गई है, जबकि एंट्री-लेवल की कारों के खरीदार बमुश्किल मिल रहे हैं।

सोसायटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैनुफैक्चरर्स (सियाम) की नई रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2023-24 की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) में छोटी कारों की बिक्री में पिछले वर्ष की इसी तिमाही की तुलना में 54.5 प्रतिशत की कमी आई। अगर 2018-19 की दूसरी तिमाही से तुलना करें, तो इन कारों की बिक्री 75 प्रतिशत गिर चुकी है। दूसरी तरफ इस दौरान एसयूवी और मर्सिडीज एवं ऑडी जैसी महंगी कारों की बिक्री तेजी से बढ़ी है।

आखिर ऐसा कैसे हो रहा है? इसका राज़ देश में बढ़ती गैर-बराबरी में छिपा है। हाल में जारी हुरुन इंडिया रिच लिस्ट के मुताबिक भारत में 2022 में एक हजार करोड़ रुपये से अधिक धन वाले व्यक्तियों की संख्या 216 बढ़ गई। 2023 में भारत में इतनी कीमत वाले व्यक्तियों की संख्या 1,319 तक पहुंच गई है। उसके पहले यह संख्या 1,103 थी। 2021 में पहली बार खरबपतियों की संख्या ने 1000 का आंकड़ा पार किया था। ताजा हुरुन रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि भारत में खरबपतियों की संख्या स्थिर गति से बढ़ रही है।

गैर-बराबरी बढ़ने का यह सिलसिला यूं तो तीन दशक पहले नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था को अपनाने के साथ ही शुरू हो गया था, लेकिन हाल के वर्षों- खासकर कोरोना महामारी के समय से इसमें काफी तेजी आई है। अब इस बात की पुष्टि केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) ने भी कर दी है कि 2020-21 में जब कोरोना महामारी के कारण पूरी अर्थव्यवस्था पाताल में चली गई थी, तब बड़ी कंपनियों का मुनाफा ना सिर्फ जारी रहा, बल्कि उसमें 30 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। यानी बड़ी कंपनियों के मुनाफे की दर और बढ़ गई।

यह कोई नई जानकारी नहीं है, लेकिन चूंकि अब सरकारी आंकड़ों से भी इसकी पुष्टि हुई है, इसलिए कहा जा सकता है कि इस जानकारी पर अब मुहर लग गई है। किसी सामान्य व्यक्ति को यह बात रहस्यमय महसूस होगी कि जब पूरी अर्थव्यवस्था बंद या बाधित थी, तब बड़ी कंपनियों के मुनाफे की दर कैसे बढ़ गई? लेकिन इसमें कोई हैरत की बात नहीं है। वित्तीय पूंजीवाद का यही सच है। इस दौर में मुनाफे की प्राप्ति या धन का संग्रहण मुख्य रूप से शेयर बाजार, ऋण बाजार, बॉन्ड मार्केट आदि में निवेश से होता है। इसलिए धन बढ़ने का यह अनिवार्य अर्थ नहीं होता कि उसका निवेश वास्तविक अर्थव्यवस्था में हो।

कोरोना काल में सरकार ने मौद्रिक उपलब्धता बढ़ाने की नीति अपनाई। नतीजतन, कंपनियों ने सस्ता कर्ज लिया और उसका निवेश शेयर बाजार में किया। इस दौरान शेयर बाइबैक जैसी आपत्तिजनक प्रवृत्तियां भी बढ़ीं, जिनसे बिना कुछ किए कंपनियों का मुनाफा बढ़ा। जब उनका मुनाफा बढ़ा, तो उनके बड़े अधिकारियों की तनख्वाह भी बढ़ी। नतीजतन, महंगी कारों और अन्य महंगी चीजों का बाजार चमक उठा। जबकि उसी दौर में बड़ी संख्या में आम कर्मचारियों की नौकरी गई, उनकी तनख्वाह में कटौती हुई और आम श्रमिक वर्ग की वास्तविक आय गिरी। नतीजा यह हुआ कि एफएमसीजी कंपनियों से लेकर एंट्री लेवल की कारों तक बाजार सिकुड़ गया।

रोजगार तब बढ़ता है, जब निवेश वास्तविक अर्थव्यवस्था में होता है। चूंकि ऐसा नहीं हो रहा है, तो बेरोजगारी बढ़ रही है, जिसे छिपाने के लिए सरकार आंकड़ों में हेरफेर का सहारा ले रही है।

वास्तविक अर्थव्यवस्था में निवेश संबंधी आंकड़े पिछले हफ्ते सामने आए थे। उनके मुताबिक जुलाई से सितंबर की तिमाही में भारत में नए निवेश की घोषणा में इस वित्त वर्ष कि पहली तिमाही की तुलना में 13 प्रतिशत और पिछले वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितंबर) की तुलना में 21.5 प्रतिशत की गिरावट आई। इसके पहले इस वर्ष पहली तिमाही (मार्च से जून तक) में उसके पहले वाली तिमाही की तुलना में नए निवेश की घोषणाओं में 45.8 प्रतिशत की बड़ी गिरावट दर्ज की गई थी।

आंकड़ों के ऐसे अंतर्विरोधों से भारतीय अर्थव्यवस्था आज भरी-पड़ी है। मसलन, इस वर्ष अगस्त के बारे में बताया गया कि औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में 9.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। मगर बाद में एक बिजनेस अखबार ने बताया कि इस सकल बढ़ोतरी के अंदर मैनुफैक्चरिंग सेक्टर के एक तिहाई हिस्से का हाल यह रहा कि उसमें वृद्धि दर आधार वर्ष यानी 2011-12 के अगस्त में दर्ज हुई वृद्धि दर से भी नीचे चली गई। इस सेक्टर में वस्त्र, चमड़ा, लकड़ी, कागज, तंबाकू, कृत्रिम धातु, प्रिंटिंग आदि शामिल हैं। जाहिर है, इन सेक्टरों में काम करने वाली कंपनियों के साथ-साथ उनके कर्मचारियों की वास्तविक आय भी गिरी होगी।

इस बीच यह जरूर है कि शेयर मार्केट ऊंचाइयां छूता गया है। उधर भारत के जीडीपी में इस वर्ष भी छह प्रतिशत से अधिक वृद्धि दर दर्ज होने का अंदाजा लगातार बना हुआ है। जब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने हाल में यह अनुमान व्यक्त किया, तो प्रधानमंत्री ने उस सूचना को ट्विट किया और इसे भारतीय अर्थव्यवस्था की मजबूती का सूचक बताया। उन्होंने इस ओर ध्यान खींचा कि इस वर्ष भी भारत सबसे ऊंची वृद्धि दर करने वाला देश बना रहेगा रहेगा।

मगर सवाल है कि ऐसे जीडीपी ग्रोथ से मेहनतकश वर्ग को क्या हासिल हो रहा है? उसकी हालत तो बिगड़ती जा रही है। चूंकि आर्थिक विकास के फायदे कुछ हाथों में सिमटते जा रहे हैं, तो बाकी तबकों को बहलाने के लिए सरकार को उनकी खुशहाली की निराधार कहानियां गढ़नी पड़ रही हैं। पीएलएफएस रिपोर्ट भी वैसी ही कहानी गढ़ने का एक उदाहरण है।

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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