नशे के कारोबार का राजनीतिक अर्थशास्त्र

नशे और वेश्यावृति का कारोबार दुनिया का सबसे पुराना कारोबार है। मणिपुर में चल रहे आंदोलन के पीछे एक कारण नशे का अवैध कारोबार भी है, जिसके ऊपर बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है। मणिपुर सहित समूचे पूर्वोत्तर भारत में सक्रिय करीब-करीब सभी अतिवादी संगठनों ने बहुत जल्दी पैसा कमाने के लिए नशे के व्यापार का सहारा लिया, इसमें म्यांमार के भी अतिवादी संगठन शामिल हैं। ड्रग्स की तस्करी में मुनाफ़े का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है, कि एक किलोग्राम हेरोइन, जो म्यांमार के उत्पादक इलाकों में 1 हजार रुपये में मिल जाती है, वह मणिपुर के इंफाल पहुंचकर दस हजार रुपये और मुम्बई पहुंचकर 1 लाख रुपये तक हो जाती है तथा अमेरिका पहुंचकर 10 लाख डॉलर तक हो जाती है।

यह आंकड़ा नब्बे के दशक का है। आज इस धंधे में मुनाफ़े का अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। पंजाब में इस समय 75 हजार करोड़ की ड्रग्स की ख़पत हर वर्ष हो रही है, इसमें करीब 1 लाख 23 हजार करोड़ रुपये की केवल हेरोइन की ख़पत है। ड्रग्स पर यहां लोग प्रतिदिन 20 करोड़ रुपये खर्च करते हैं। तक़रीबन हर परिवार में आपको नशे का सेवन करने वाले लोग मिल जाएंगे। आंकड़े तो यह भी बताते हैं, कि हर तीन कॉलेज छात्रों में एक नशे का आदी है और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और बुरी है। हालात ये हैं कि पुलिस ख़ुद अपने कर्मियों के लिए नशामुक्ति कैम्प लगा रही है।

सीमावर्ती राज्य होने के कारण पाकिस्तान तथा अफ़ग़ानिस्तान से ड्रग्स भारी मात्रा में पंजाब आ रही है। अनेक सफ़ेदपोश नौकरशाह, राजनीतिज्ञ, पुलिस अधिकारी और सीमा सुरक्षाबल के जवान भी इस धंधे में शामिल हैं। इस तस्करी को रोकने के लिए संसद में पास एनडीपीएस एक्ट 1985- जिसके अंतर्गत नशीले पदार्थों का प्रसार, तस्करी, रखने और बेचने के ख़िलाफ़ कड़े दंड की व्यवस्था है- पंजाब में इसे कड़ाई से लागू किया गया, लेकिन इस कारोबार की जड़ें वहां इतनी गहराई से फैल चुकी हैं, कि वहां पर यह एक्ट भी निष्प्रभावी हो चुका है।

16 सितंबर 2021 को गुजरात में गौतम अडानी के मुंद्रा पोर्ट पर करीब 3 हज़ार किलो ड्रग्स पकड़ी गई थी। सही-सही अनुमान लगाएं, तो दो कंटेनरों में 2 हज़ार 9 सौ 88 किलो 2 सौ 10 ग्राम हेरोइन थी। इसे भारत क्या दुनिया भर में ड्रग्स की सबसे बड़ी बरामदगी बताया जा रहा है। पहले इसकी कीमत इंटरनेशनल मार्केट में 9 हज़ार करोड़ रुपये बताई गई, लेकिन पता लगा कि इसकी कीमत 21 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा हो सकती है।

बाद में इसकी जांच एनआईए को सौंप दी गई, क्योंकि पोर्ट चलाने की ज़िम्मेदारी देश के बड़े उद्योगपति गौतम अडानी की है, जिनका देश के प्रधानमंत्री से संबंध सर्वविदित है। इस संबंध में दो चार्जशीट भी दाख़िल की गईं, कुछ लोग आरोपी भी बनाए गए, लेकिन असली अपराधियों का पता अभी तक नहीं लगा।

वास्तव में नशे के कारोबार का एक राजनीतिक अर्थशास्त्र है, जिसे हम सभी अनदेखा करते हैं। अमेरिका सहित दुनिया के अधिकांश देश भले ‘नशे के कारोबार के ख़िलाफ़ युद्ध’ का दावा करते हों, परन्तु वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के जन्म तथा इसके बने रहने में नशीले पदार्थों के कारोबार का कितना योगदान है, इसकी जानकारी हम चीन में अफ़ीम के कारोबार तथा इससे पूरे देश के नशे के गिरफ़्त से बर्बाद होने के इतिहास से जान सकते हैं-

“ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधीन सभी क्षेत्र में पोस्ते की खेती करने, उससे मादक द्रव्य बनाने तथा निर्यात के लिए नीलामी से पहले उसकी खरीद-फ़रोख़्त करने पर कम्पनी का सख़्त इजारा कायम हो गया है। इस पौधे की खेती करना अनिवार्य है। भारत के उत्तरी व मध्यवर्ती भाग बनारस, बिहार और अन्य क्षेत्रों के बेहतरीन विशाल भूखंड अब पोस्ते के पौधों से लदे हुए हैं। भोजन और वस्त्र उद्योग में काम आने वाली वनस्पतियों को उगाना; जिन्हें सदियों से उगाया जाता था, लगभग बंद कर दिया गया है।”  (चीनी दस्तावेज़ों का संग्रह ग्रन्थ 5; 1837, पृष्ठ-472 : जिसे एस विलियम्स की पुस्तक ‘मध्यवर्तीय राज्य’ न्यूयॉर्क लंदन 1948 से उद्धृत किया गया है।)

“1881 में कम्पनी ने पूरी तैयारी के साथ पहली बार भारी मात्रा में अफ़ीम को चीन भेजा, इसके पहले इस मादक द्रव्य के बारे में चीन के लोगों को कोई जानकारी नहीं थी। इसके बाद यह व्यापार दिन-दूना रात-चौगुना बढ़ता गया और शीघ्र ही ऐसे हालात पैदा हो गए, जिसमें चीन से आयात की जाने वाली चाय, रेशम और अन्य चीज़ों का मूल्य चीन को निर्यात की जाने वाली अफ़ीम का मूल्य चुकाने के लिए काफी नहीं रह गया तथा विनिमय में चीन में आने वाली चांदी देश के अंदर आने के बदले देश के बाहर जाने लगी। 1800 में सम्राट च्यांग चिंग ने अफ़ीम के शारीरिक और आर्थिक दुष्प्रभाव से विक्षुब्ध होकर इस पर प्रतिबंध लगा दिया, लेकिन तब तक बहुत से लोगों को इसकी लत लग चुकी थी तथा अफ़ीम के व्यापार से बहुत से व्यापारी और अफ़सर भ्रष्ट हो चुके थे, इसलिए तस्करी और घूसखोरी ने इस प्रतिबंध को निष्प्रभावी बना डाला।”

“अफ़ीम का वार्षिक आयात; जो 1800 से 2000 पेटियों (एक पेटी 140 से 150 पौंड की होती थी) के बराबर हो गया था। 1838 में बढ़कर यह निर्यात 40,000 पेटियों के बराबर हो गया। यहां पर यह भी उल्लेखनीय है, कि इस घृणित व्यापार में अमेरिकी जलयान काफ़ी पहले ही शामिल हो चुके थे। वे भारतीय अफ़ीम की कमी को पूरा करने के लिए तुर्की की अफ़ीम लाते थे। इस प्रकार उन्होंने भी इस व्यापार में बेशुमार मुनाफ़ा कमाया, जो बाद में अमेरिका के पूंजीवाद के विकास का आधार बना।” (अफ़ीम युद्ध से मुक्ति तक, लेखक-इज़रायल एक्सटाइन, प्रकाशक-विदेशी भाषा प्रकाशन गृह, पेइचिंग प्रथम हिन्दी संस्करण-1948)

इस प्रकार हम देखते हैं कि अमेरिकी विकास की प्रारंभिक पूंजी अफ़ीम जैसे घृणित व्यापार से आई, जिसने चीन जैसे प्राचीन तथा व्यापारिक रूप से विकसित राष्ट्र को पूरी तरह तबाह कर दिया तथा बहुसंख्यक आबादी को नशेड़ी बना दिया। 60 से 70 के दशक में वियतनाम युद्ध और अमेरिका में फैली व्यापक मंदी, हताशा, निराशा और बेरोज़गारी ने ड्रग्स के व्यापार को नया जीवन दिया। 17 से 36 वर्ष की एक पूरी अमेरिकन पीढ़ी भारत में बनारस-गोवा, नेपाल में काठमांडू तथा थाईलैंड के बैंकाक में विभिन्न तरह के नशे (जिसमें हेरोइन तथा सुई से लगाने वाले नशे शामिल हैं) में मदहोश होकर घूमती हुई देखी जा सकती थी।

नब्बे के दशक में अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ने के लिए अफ़ग़ानी मुज़ाहिदों को भारी पैमाने पर हथियार दिए गए और अफ़ग़ानिस्तान तथा पाकिस्तान के क़बीलाई इलाकों में भारी पैमाने पर अफ़ीम की खेती की छूट दे दी गई। यह अफ़ीम तथा उससे बनी ड्रग्स भारी पैमाने पर पाकिस्तान-भारत से होते हुए अमेरिका तक पहुंचने लगी। बाद में अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के बाद अफ़ीम और अन्य नशीले पदार्थों की तस्करी के बल पर ही संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक नाकाबंदी के बावजूद तालिबान का शासन लम्बे समय तक चलता रहा। आज अफ़ग़ानिस्तान नशीले पदार्थों के व्यापार का सबसे बड़ा गढ़ बना हुआ है। 

नशीले पदार्थों का यह व्यापार किस तरह वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को संचालित करने का आधार बन गया है तथा इस पर निर्भर अन्य व्यवसाय चलने लगे हैं, इसका विस्तृत वर्णन अमेरिकी वामपंथी लेखक सोल यूरिक ने मंथली रिव्यू पत्रिका दिसंबर 1970 में प्रकाशित अपने लेख में किया है, उसके कुछ अंश यहां उद्धृत कर रहा हूं, जो हमारी आंखें खोल देता है-

“हम यह भी भूल जाते हैं कि अफ़ीम के नियंत्रण के चलते ही चीन में पश्चिमी देशों के लिए रास्ता खुला, जिसके लिए अनेक छोटे-बड़े युद्ध भी लड़े गए, जबकि अमेरिका तथा ब्रिटेन की कम्पनियां पीपोटीज कबोट और डेलेना ने अफ़ीम के व्यापार से अकूत धन कमाया। हमें यह बात याद रखनी चाहिए कि चयाॅग काई शेक जैसे विश्वस्तरीय नेता ने शुरुआती दौर में दूसरे कामों के साथ-साथ शंघाई के अपराध जगत का सदस्य बनकर अफ़ीम का धंधा किया था। हमें अमेरिका की ‘सीआईए की हवाई संस्था’ को भी नहीं भूलना चाहिए, जिसने अफ़ीम को हवाई रास्ते से लाओस से बाहर निकालने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बहुत से अमेरिकन होंगे, जो सीआईए को एक ड्रग्स विक्रेता के रूप में देखने या हिन्द-चीन के बारे में अमेरिकी नीति का संबंध हेरोइन से होने की बात का बिलकुल यक़ीन नहीं करेंगे, लेकिन सच्चाई तो यही है।”

आज के समाज में विकल्पों की कमी के चलते युवा वर्ग में असंतोष है। यही ऐसा वर्ग है, जो विद्रोह कर सकता है, इसीलिए युवाओं को लक्ष्य बनाकर इस ज़हर को परोसा जा रहा है। नशेड़ी एक-दूसरे के साथ समूह में नहीं बंधते, इसलिए उनमें राजनीतिक पिछड़ापन होता है। नशेड़ियों की इस दुनिया में सभी एक-दूसरे के ख़िलाफ़ युद्धरत रहते हैं। आज इस तरह की लत छोटे बच्चों तक में फैल रही है।

इन नशेड़ियों से वितरकों, सेल्समैनों और ग्राहकों का ऐसा साम्राज्य खड़ा हुआ है, जिसमें इसके बाज़ार में आने वाली सभी चुनौतियों का गैर राजनीतिकरण करके उन्हें ख़त्म कर दिया गया, क्योंकि एक राजनीतिक लड़ाई आने वाले समय में सम्पूर्ण व्यवस्था के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। इसलिए अपने राजनीतिक-आर्थिक स्वार्थ के लिए युवाओं को नशेड़ी और ड्रग्स विक्रेता में बदला दिया गया। ड्रग्स के नशेड़ियों की पीठ पर एक विशाल आर्थिक इमारत खड़ी कर दी गई है, जो बहुत सी आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं को हल कर देती है।

मेडिकल और दवा बनाने की कम्पनियों का विकास भी हेरोइन से जुड़ा हुआ है। डॉक्टर इनसे संबंधित तरह-तरह की बीमारियों के इलाज़ के लिए आवाज़ उठाते रहे हैं। प्रतिस्पर्धा के चलते अनेक दवा कम्पनियां प्रतिस्पर्धी दवाओं को बनाने के लिए अनेक प्रकार की नशीली दवाएं बना रही हैं। मैथाडोन का उत्पादन तेज़ी से बढ़ा है, जो हेरोइन से लड़ने के लिए उपयोगी है। नशेड़ियों का कहना है कि यह एक उच्चस्तरीय नशीला पदार्थ है। इसके अलावा ड्रग्स के व्यापार को तथ्यत: सही साबित करने के लिए ड्रग्स के शिकार लोगों को अनिद्रा का रोगी बनाकर प्रस्तुत किया जाता है, ताकि उनकी आदतों का सहारा लेकर इस व्यापार को आगे बढ़ाया जा सके।

ड्रग्स के व्यापार और हथियारों की तस्करी के बीच गहरे अंतर्संबंध हैं। इसके नेटवर्क का प्रयोग करके अनेक देशों में युद्ध और आतंकवाद से ग्रस्त इलाकों में अत्याधुनिक हथियारों की सप्लाई आसानी से की जा रही है। यह हम भारत, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान जैसे आतंकवाद तथा अफ्रीका और लैटिन अमेरिका जैसे गृहयुद्ध से ग्रस्त देशों में आसानी देख सकते हैं।

अमेरिका तथा सारी दुनिया में ड्रग्स के ख़िलाफ़ जंग की इन वास्तविकताओं से यह आसानी से समझा जा सकता है कि वास्तव में ड्रग्स का व्यवसाय पूंजीवादी साम्राज्यवाद को नया जीवन दे रहा है। अनेक लैटिन अमेरिकी देशों जैसे- कोलंबिया, मैक्सिको, पनामा, चिली तथा अनेक एशियाई और अफ़ीकी देशों में ड्रग्स माफियाओं ने एक समानांतर सत्ता और सैनिक तंत्र विकसित कर लिया है। कुछ ऐसे गिरोहों का बजट देश के सकल घरेलू उत्पादन से भी कई गुना ज़्यादा है। ये ड्रग्स माफ़िया बहुत सुविधाजनक स्थिति में सारे देशों में नशीले पदार्थों का निर्यात कर रहे हैं। आख़िर इस तरह का अवैध व्यापार भी वर्तमान व्यवस्था की चालक शक्ति जो है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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