मोदी जी की तपस्या का खुलासा: कॉर्पोरेट को मालामाल करने के लिए NRI के ड्राफ्ट पर बने थे कृषि कानून

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ चले किसान आंदोलन के दौरान किसानों का दृढ‌ मत था कि मोदी सरकार “अडानी की, अडानी द्वारा और अडानी के लिए” समर्पित है। इसलिए किसानों ने अडानी-अंबानी के माल के बहिष्कार करने का आह्वान किया था। जिससे जिओ को पोर्ट करने की होड़ लग गई थी। कृषि कानूनों की चीड़-फाड़ से यह बात स्पष्ट हो गई थी कि ये कानून कृषि के कॉरपोरेटीकरण के लिए लाए गये थे। कानूनों का उद्देश्य किसानों को खुशहाल बनाना नहीं बल्कि कृषि उपज के व्यापार और कृषि भूमि को कॉर्पोरेट के हाथ में देना था।

पृष्ठभूमि

2016 में उत्तर प्रदेश में किसानों की एक रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने किसानों के समक्ष प्रतिज्ञा की थी कि 2022 तक उनकी सरकार किसानों की आय दुगनी करने के लिए संकल्पित है। इसके लिए सरकार की सोची समझी तैयारी चल रही थी। अब ‘रिपोर्टर कलेक्टिव’ ने इस तैयारी का खुलासा कर दिया है। ‘रिपोर्टर कलेक्टिव’ की रिपोर्ट ने किसानों की आशंका को सही प्रमाणित करते हुए मोदी सरकार की मंशा, उद्देश्य और चरित्र को उजागर किया है।

13 महीने तक चले किसान आंदोलन पर सरकार और संघ परिवार के संगठन तथा गोदी मीडिया ने तरह-तरह के लांछन लगाए थे। खालिस्तानी, नक्सली, माओवादी और देशद्रोही तक की उपाधियों से विभूषित किया गया। आन्दोलन को सरकार के खिलाफ देसी-विदेशी षड्यंत्र बताकर किसानों और किसान आंदोलन के समर्थकों का दमन किया गया था (कर्नाटक की पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि की गिरफ्तारी और ग्रेटा थनबर्ग का किसानों को समर्थन)। लेकिन किसान इन सभी हमलों का मुकाबला करते हुए अंत तक मोर्चे पर डटे रहे।

कानून वापसी की घोषणा

आखिर 19 नवंबर 2021 को गुरु नानक जयंती के दिन प्रधानमंत्री जी टेलीविजन पर प्रकट हुए और कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की। प्रधानमंत्री ने देश से क्षमा मांगते हुए कहा कि हमारी तपस्या में कुछ कमी रह गई थी। शुद्ध मन और पवित्र हृदय से दिन के उजाले में जलते हुए दिए के प्रकाश की तरह ये कृषि कानून लाये गये थे। लेकिन हम किसानों को समझा (या समझ) पाने में सफल नहीं हुए।। इसलिए हम कानून वापस ले रहे हैं।

संघ-भाजपा की शब्दावली

प्रधानमंत्री और संघ प्रमुख के मुखारविंद से कुछ शब्द हर घटना के बाद निकालते हैं। जैसे तपस्या, शुद्ध मन, पवित्र हृदय, साधना, समर्पण, सामर्थ, शक्ति, पराक्रम और पवित्र लक्ष्य आदि। वे यह कहना चाहते थे कि कानून किसानों के हित में लाए गए हैं। ‘रिपोर्टर कलेक्टिव’ की रिपोर्ट इसी पाखंड का भंडाफोड़ करती है। जो हिंदुत्व की ताकतों द्वारा किसानों के विरुद्ध रचे गए भ्रमजाल, षड्यंत्र और कॉरपोरेट परस्ती को बेनकाब करती है।

‘रिपोर्टर कलेक्टिव’ के खुलासे के बाद यह बात स्पष्ट हो गई है कि प्रधानमंत्री का हृदय कानून लाते समय न शुद्ध था और न कानून वापस लेते समय वे ईमानदार थे। उनकी कार्यशैली और चिंतन प्रक्रिया मिथ्या आचरण, षड्यंत्र, पाखंड और धोखाधड़ी की बुनियाद पर खड़ी प्रतीत होती है।

अनाड़ी के हाथ में उस्तरा

‘रिपोर्टर कलेक्टिव’ ने कानून बनाने की प्रक्रिया पर दस्तावेजी सबूत जुटाये हैं। उसके अनुसार कानून बनाने में कृषि विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री, किसान संगठनों या सामाजिक संस्थाओं को भनक तक नहीं लगने दी गई। पीएमओ के 27 सदस्यीय सलाहकार समिति की भूमिका भी कानून निर्माण में कहीं नहीं थी। पीएमओ की सलाहकार समिति की वैधानिक जिम्मेदारी होती है। इसलिए उसे भी इस प्रक्रिया से बाहर रखा गया।

कानून लाने का सुझाव शरद मराठे नामक एक एनआरआई ने दिया था। जो न कृषि विशेषज्ञ हैं, न अर्थशास्त्री। लिंकिंग वेबसाइट पर उनका परिचय दिया है। जिसमें लिखा है कि वह भारत सरकार के आयुष मंत्रालय के स्पेशल टास्क फोर्स के अध्यक्ष हैं।

कृषि कानून निर्माण की तैयारी

प्रधानमंत्री मोदी 2016 में उत्तर प्रदेश की एक जनसभा में 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने की घोषणा करते हैं। शायद इसके पहले उनके दिमाग और मित्र मंडली में कृषि क्षेत्र को लेकर कोई योजना चल रही थी। हम यह मानते हैं कि प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा हुआ जिम्मेदार व्यक्ति जिसके हाथ में देश की बागडोर हो। वह कोई भी घोषणा बिना पूर्व तैयारी के नहीं करेगा।

‘रिपोर्टर कलेक्टिव’ इसी बात की खोज करता है कि कृषि कानून के निर्माण की प्रक्रिया कहां से शुरू हुई? अटल बिहारी सरकार के समय से ही महाराष्ट्र मूल के अमेरिकी नागरिक शरद मराठे भाजपा के समर्थक रहे हैं। शरद मराठे एमबीए में मास्टर डिग्री धारी हैं और अमेरिका में एक सॉफ्टवेयर कंपनी चलाते हैं। वे फ्रेंड ऑफ ओवरसीज बीजेपी के अध्यक्ष हैं।

मराठे प्रधानमंत्री मोदी के विदेशी दौरों में इवेंट मैनेजर की भूमिका निभाते रहे हैं। पर्दे के पीछे रहते हुए अमेरिका सहित विदेशों में मोदी की सभाओं के लिए भीड़ जुटाने, मोदी का महिमामंडन करने और सच्ची-झूठी खबरों को राष्ट्रवाद की चाशनी में लपेटकर भारत तक पहुंचाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

इनकी टीम के परिश्रम का ही परिणाम है कि भारत के नागरिकों के एक वर्ग में यह धारणा बन गई है कि मोदी विश्व नेता हैं। पूरी दुनिया उनकी बात मानती है। भारत विश्व महाशक्ति और विश्व गुरु बनने वाला है। स्वाभाविक है जो व्यक्ति प्रधानमंत्री मोदी और उनके कार्यकाल की चमकदार छवि गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका में रहा हो उसकी पकड़ और धाक पीएमओ तक होगी ही।

शरद मराठे का प्रकाश में आना

शरद मराठे ने नीति आयोग को एक पत्र लिखा। जिसमें उन्होंने सुझाव दिया की नई कृषि नीति बनाने का समय आ गया है। जो कृषि क्षेत्र में कॉरपोरेट की भूमिका और भागीदारी का विस्तार करे और एग्री बिजनेस को बढ़ावा दे। उनका सुझाव था कि कृषि में बाजार की भूमिका बढ़ाना बहुत जरूरी है।

यह चिट्ठी मिलते ही नीति आयोग सक्रिय हो गया। आयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार (इस समय चुनाव आयुक्त) ने आनन-फानन में 11 सदस्यीय हाई पावर टास्क फोर्स का गठन किया। जिसमें अडानी ग्रुप, पतंजली, महिंद्रा एंड महिंद्रा, बिग बास्केट और आईटीसी के प्रतिनिधि के साथ ही शरद मराठे और अशोक दलवई सदस्य बनाये गये। टास्क फोर्स ने तेजी से काम शुरू किया। ध्यान देने की बात है कि टास्क फोर्स में अर्थशास्त्री, कृषि विशेषज्ञ और किसानों के प्रतिनिधि नहीं थे।

क्या अब भी आप प्रधानमंत्री के कृषि कानूनों को वापस लेते समय कही गई “शुद्ध हृदय और पवित्र मन की” बात पर यकीन कर सकते हैं?

कानून निर्माण के पीछे का सच

ट्रास्क फोर्स में शरद मराठे ने एक प्रस्ताव पेश किया कि कृषि में निजी क्षेत्र की भागीदारी की जरूरत है। तभी कृषि को हम आगे ले जा सकते हैं और किसानों की आय दोगुनी हो सकती है। इस उद्देश्य को बढ़ाने में दो कानून बाधक हैं, उन्हें हटाया जाना चाहिए। पहला कानून था- भूमि अधिग्रहण और सुरक्षा अधिनियम 2013 और दूसरा कानून था- एपीएमसी एक्ट। चटपट इन कानूनों को बदलने पर काम शुरू हो गया।

अडानी ग्रुप 2018 से ही ‘आवश्यक वस्तु अधिनियम-1955’ को खत्म करने के लिए सरकार में लाबीइंग कर रहा था। अडानी के साइलो 2018 से बनने लगे थे और वे जमीन खरीदने में जुट गए थे।

नीति आयोग ने दो कमेटियां बनाई थीं। जिसमें एक मल्टी मिनिस्ट्रियल टास्क फोर्स भी थी। इस कमेटी ने दो सुझाव दिये थे कि कानून बनाते समय एमएसपी और फसल बीमा को कानूनों में जगह दी जाए।

लेकिन नीति आयोग द्वारा बनाई गई स्पेशल टास्क फोर्स में इन मुद्दों पर चर्चा तक नहीं हुई।

आप खुद सोचिए की सरकार किस तरह से किसानों की आय दोगुनी करने के लिए कठिन तपस्या में लीन थी। 2019 का चुनाव निकट था। इसलिए इन कानून को पब्लिक डोमिनियन में नहीं लाया गया। लेकिन कॉर्पोरेट घराने किसानों से भूमि लीज पर लेने का समझौता पहले ही शुरू कर चुके थे और कई राज्यों में मंडी के बाहर खरीदारी भी शुरू हो चुकी थी।

आपदा में अवसर

कोविड-19 में देश के ऊपर क्रूर लॉक डाउन थोपा गया। जिस कारण से सम्पूर्ण मुल्क अपने घरों में कैद पड़ा था। महामारी और प्रशासन के आतंक से नागरिकों की सार्वजनिक गतिविधियां ठप्प हो गई थीं। लेकिन एक महीना बीतते-बीतते प्रवासी मजदूरों का धैर्य समाप्त हो गया और वे मई तक आते-आते लाखों की तादाद में अपने ठिकानों से बाहर निकलकर गांवों की ओर चल पड़े। यह विश्व इतिहास की सबसे कठिन मानव यात्रा थी। लेकिन इस कठिन समय में सरकार अनुपस्थिति रही। लंबे समय बाद प्रधानमंत्री चुप्पी तोड़े और मशहूर सिद्धांत लेकर आए। ‘आपदा में अवसर’।

शायद इस अवसर को ही भांपते हुए 11 मई 2021 को अमिताभ कांत ने टाइम्स ऑफ इंडिया में एक लेख लिखा। जिसका शीर्षक था। ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’। इससे स्पष्ट हो गया कि सरकार महामारी के कठिन समय को अवसर (कॉरपोरेट के लिए) में बदलने के लिए तपस्या रत थी।

‘रिपोर्टर कलेक्टिव’ की रिपोर्ट को देखने से लगता है कि सरकार आपदा में जनता के साथ नहीं थी। देश की जनता को उसके हालात पर छोड़ दिया गया था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सरकार अपना काम नहीं कर रही थी। इसी समय वह 5 श्रम संहिता और तीन कृषि कानूनों को आखरी शक्ल देने में शुद्ध मन और समर्पण के साथ काम कर रही थी।

महामारी का वेग थोड़ा कम होते ही जून के पहले सप्ताह में ही चार श्रमकोड और तीन कृषि कानून अध्यादेश द्वारा लाए गए। तेजी से कदम उठाते हुए मानसून सत्र में आनन-फानन में बलपूर्वक कृषि कानून को संसद से पास करा लिया गया और लागू कर दिया गया।

आश्चर्य है कि अध्यादेश के कानून बनने के बीच के समय में भारत की राजनीतिक पार्टियां, अर्थशास्त्री, कृषि विशेषज्ञ और समाजशास्त्री कानूनों के किसान विरोधी और कॉरपोरेट हितैषी चरित्र और दूरगामी प्रभावों को समझने में असफल रहे। लेकिन किसान अपने सहज बुद्धि से तुरंत समझ गए कि ये कानून उनके हाथ से जमीन और मंडियों को छीनने के लिए बनाये गये हैं।

किसान उसी दिन से विरोध करने लगे। जबकि मोदी सरकार की समझ थी कि किसान असंगठित हैं। उन्हें जाति और धर्म के खांचे में बांट दिया गया है। किसानों में कई तरह के वर्ग हैं। इस कारण वह कभी एक साथ नहीं आ सकते। इसलिए मोदी मंचों पर दहाड़ते हुए कानून वापस नहीं लेने की घोषणा करते रहे।

हम जानते हैं कि दुनिया में जहां भी कृषि में कॉरपोरेट ने प्रवेश किया है। वहां किसानों की हालत दयनीय होती गई। वे खेती से बाहर होकर धीरे-धीरे खत्म होते गए। या उजड़ती मजदूर बनकर शहरों के झुग्गी झोपड़ियों में समाते गए। अगर विकसित मुल्कों में अभी तक छोटी संख्या में किसान और कृषि जीवित भी हैं तो वह भारी सब्सिडी के बल पर जिंदा हैं। अपने पैरों पर खड़ा होने की क्षमता उनके अंदर नहीं बची है।

कानूनों का क्या था उद्देश्य

कृषि कानून बनाने की प्रक्रिया से ही स्पष्ट है कि खेती की जमीन, कृषि उत्पादन के बाजार और भंडारण पर दीर्घकाल से कॉर्पोरेट की निगाह लगी थी। भारत जैसे 140 करोड़ आबादी वाले विशाल देश में खाद्यान्न बाजार दुनिया का सबसे बड़ा मुनाफे का कारोबार है। कृषि विशेषज्ञ ‘देवेंद्र शर्मा’ के अनुसार भारत का कृषि बाजार 12 हजार अरब डॉलर से ज्यादा का है। इसलिए मोदी जी ने अपनी कॉर्पोरेट भक्ति और समर्पण के चलते इतने खतरनाक कानून को पवित्र मन और शुद्ध हृदय से लाने के लिए सम्पूर्ण शक्ति और सामर्थ लगा दी थी।

कानून का किसान लगातार विरोध करते रहे। इसी क्रम में 26 नवंबर संविधान दिवस पर किसानों ने दिल्ली में 2 दिन के धरने का ऐलान किया। लेकिन केंद्र सरकार के दमन और हठधर्मिता के कारण यह धरना दिल्ली के चारों सीमाओं पर अनिश्चितकालीन किसान पड़ाव में बदल गया। दिल्ली के चारों तरफ एक साल तक चले घेराव में किसानों की हो रही शहादत के बाद भी किसान पीछे हटने के लिए तैयार नहीं थे। इस दौरान संघ परिवार के संगठन, कॉर्पोरेट नियंत्रित मीडिया और सरकार की एजेंसियां किसानों के खिलाफ दुर्भावना पूर्ण अभियान, दमन और षडयंत्र रचने में लगी रहीं।

भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास इस बात का गवाह है कि जब किसान, मजदूर, आदिवासी स्वतंत्रता संघर्ष के दायरे में खिच     आए। तभी जाकर स्वतंत्रता आंदोलन साम्राज्यवाद विरोधी और गुलामी से मुक्ति की अदम्य चेतना के साथ जुझारू संघर्ष में बदल गया। किसानों ने संघर्ष की सारी सीमा रेखाओं को तोड़ते हुए ब्रिटिश हुकूमत को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था।

अगर आप गहराई से व्याख्या करें तो स्वतंत्रता संघर्ष और उसके बाद आजाद भारत में सभी क्रांतिकारी संघर्षों की अगुवाई किसानों ने की है। जब स्वतंत्रता की आकांक्षा गांवों में किसानों के बीच पहुंची तो किसान आंदोलन ने ब्रिटिश सत्ता के आतंक को हवा में उड़ाते हुए कई इलाकों में मुक्ति का ऐलान कर दिया था। (पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया, गाजीपुर और महाराष्ट्र में कोल्हापुर क्षेत्र आजाद हो गए थे।)

इसलिए मोदी सरकार द्वारा बनाए गए कृषि कानूनों के खिलाफ भारत के किसानों के आंदोलन को विश्व ने इतिहास के सबसे नायाब किसान आंदोलन के बतौर मान्यता दी। जिसकी अमेरिका तक के किसानों ने प्रशंसा करते हुए कहा कि जो काम हम नहीं कर सके वह भारत के किसानों ने कर दिखाया।

खुलासा साहसिक प्रयास

‘रिपोर्टर कलेक्टिव’ की एक छोटी सी टीम ने वह कर दिखाया जो कॉर्पोरेट नियंत्रित मीडिया नहीं कर सका। इस टीम के संयोजक गिरीश जलिहाल ने बताया कि “हमारी टीम ने परिश्रम पूर्वक उन दस्तावेजों, पत्रों और बैठकों के रिकॉर्ड को खंगाल डाला। जो लगभग 4 साल तक कानून को बनाने की प्रक्रिया के दौरान तैयार हुए थे। हमने यह देखा कि कानून को बनाने के लिए एक अनाड़ी के पत्र को नीति आयोग में आधार बनाया। जिस पत्र में सीधे-सीधे कहा गया कि कृषि के निजीकरण (कॉरपोरेटीकरण) और एग्री बिजनेस के लिए कृषि कानूनों में बदलाव की जरूरत है। भारत सरकार ने वैसा ही किया। जो भारत के किसानों के साथ छल के अलावा और कुछ नहीं था”।

किसानों ने तो पहले ही समझ लिया था कि मोदी जी चाहे जितना भी शुद्ध मन, पवित्र ह्रदय की बात करें। वस्तुतः कॉरपोरेट हितों की सेवा के अलावा उनकी अंतरात्मा कहीं और सुख-शांति नहीं पाती है।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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