जन्मशती वर्ष में पुण्य स्मरण: ऐसे ही नहीं बनते मधु दंडवते

जन्मशती वर्ष में मधु दंडवते (21 जनवरी 1924-12 नवंबर 2005) का स्मरण जहां प्रेरणा देने वाली ऊर्जा से भर देता है वहीं अपने दौर के अनैतिक और बेहद कम पढ़े लिखे नेताओं पर नजर दौड़ाने से एक प्रकार की सिहरन दौड़ उठती है। लगता है कि हमारे लोकतंत्र की नींव तो मजबूत डाली गई लेकिन उस पर जो इमारत खड़ी की गई वह बहुत खराब मैटीरियल से बनी।

आज जब भारतीय लोकतंत्र अपनी राह भटक रहा है तब आपातकाल में बेंगलुरु सेंट्रल जेल और यरवदा जेल के बीच लिखे गए मधु दंडवते और प्रमिला दंडवते के उन दो सौ प्रेम पत्रों का सहज स्मरण होता है जिसमें पूछा गया है कि आजादी के बिना क्या प्रेम संभव है। उन पत्रों में कविता, साहित्य, दर्शन, संगीत और राजनीति के साथ बहुत सारी निजी बातें हैं। साथ ही प्रमिला जी का यह कहकर आपातकाल को दिया गया धन्यवाद भी है कि अगर यह न लगा होता तो शायद तुम मुझे हर सोमवार को पत्र न लिखते और मैं ठीक ठीक यह न कह पाती कि तुम इस समय कहां हो।

मधु दंडवते समाजवादियों की उस पीढ़ी के व्यक्ति थे जो पढ़ने-लिखने सोचने-विचारने और लड़ने-भिड़ने वाली जीवन की भट्ठी से तप कर निकले थे। इसीलिए कई बार बिना बताए घर से निकल जाते थे और पत्नी प्रमिला दंडवते को पता ही नहीं होता कि वे कहां हैं। जब कोई उनसे पूछता था कि मधु जी कहां हैं तो वे हक्का बक्का रह जाती थीं। एक बार यरवदा जेल से प्रमिला जी ने कहा कि तुम मिलने क्यों नहीं आ जाते। मधु दंडवते ने अदालत से इजाजत मांगी और इजाजत मिली भी लेकिन सुरक्षा इंतजाम की अपमानजनक व्यवस्था के कारण उन्होंने उस अनुमति का लाभ उठाने से इंकार कर दिया।

मधु दंडवते के जीवन में स्वाधीनता और समाज सुधार की गंगा जमुनी धारा प्रवाहित होती थी। जिस तरह यह टकराव गांधी और आंबेडकर के विभिन्न अनुयायियों में होता रहा है वैसा मधु दंडवते के चिंतन और जीवन में नहीं था। इसका कारण था उनका अहमदनगर जिले में जन्म और महाराष्ट्र की दोनों धाराओं से सीधा संवाद। अहमदनगर चांद बीवी का शहर है जो अपनी आजादी के लिए मुगलों से भिड़ गई थीं।

इस शहर की जेल में पंडित जवाहर लाल नेहरू, आचार्य नरेंद्र देव, मौलाना अबुल कलाम आजाद और सरदार वल्लभ भाई पटेल का प्रवास विशेष रूप से उसे स्वतंत्रता के दीवानों का तीर्थ बना गया। इसी जेल में नेहरू जी की डिस्कवरी आफ इंडिया, मौलाना अबुल कलाम आजाद की घुबर-ए-खातिर और आचार्य नरेंद्र देव की बौद्ध धर्म दर्शन (लेखन की शुरुआत) जैसी महान रचनाओं का सृजन हुआ। संघर्ष और चिंतन की यह उदात्त परंपरा मधु दंडवते के रक्त में प्रवाहित होती थी।

उनके बाबा साहित्यकार थे जिन्होंने संस्कृत के महान नाटककार भास की रचनाओं का अनुवाद किया था। इसके अलावा उन्होंने कौटिल्य के अर्थशास्त्र और रवींद्र नाथ टैगोर की कविताओं का भी अनुवाद किया था। उनकी बुआ भी कवयित्री थीं। पिता इंजीनियर थे। उनके घर में गांधी, विवेकानंद, गोखले, शेक्सपीयर की किताबें थीं। उन्होंने लिखा है कि मैं गांधी, नेहरू, तिलक, गोखले और साने गुरुजी को भी पढ़ता था। बाद में फुले और आंबेडकर के साथ बुद्ध को भी पढ़ा। इस तरह सामाजिक राजनीतिक चिंतन पर एक प्रकार का संतुलन कायम हुआ।

मधु दंडवते के विचारों पर ईसा पूर्व के चीनी दार्शनिक कुआन चंग की इन बातों का गहरा असर पड़ा था कि अगर आप एक साल की योजना बनाते हैं तो बीज बोएं, दस साल की योजना बनाते हैं तो पेड़ लगाएं, सौ साल के लिए योजना बनाते हैं तो लोगों को शिक्षित कीजिए। क्योंकि बीज बोने से आप एक फसल काटते हैं और जब आप लोगों को शिक्षित करेंगे तो सैकड़ों फसल काटेंगे।

अपनी पुस्तक डॉयलाग विथ लाइफ में मधु दंडवते लिखते हैं कि वे अच्युत पटवर्धन और उनके भाई राव साहब पटवर्धन को जानते थे। वे नेशनलिस्ट स्कूल बोर्ड में पढ़ाते थे। मधु जी एमजी रानाडे के स्कूल में पढ़े थे। राव साहब पटवर्धन, अच्युत पटवर्धन और सेनापति बापट भी उसी स्कूल में थे। ‘मेरी कविता में रुचि थी। मैं कविता लिखता रहता था। पिता जी चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूं। लेकिन मैंने बी.एससी. और एम.एससी. किया फिजिक्स से। मैंने यह पढ़ाई रायल इंस्टीट्यूट आफ साइंस से की।’ इस तरह उनकी इंजीनियर की बजाय प्रोफेसर बनने की राह खुल गई।

इसी के साथ उन्होंने बंबई के सिद्धार्थ कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया। इस कालेज की स्थापना बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने 1945 में की थी जिसे पीपुल्स एजूकेशन सोसायटी चलाती थी। मधु दंडवते के मन में एक ओर आजादी की तरंगे हिलोरें मार रही थीं तो दूसरी ओर सामाजिक न्याय का विवेक भी अपनी जड़ें गहरी कर रहा था।

वे लिखते हैं कि प्राइमरी में जब उन्हें रामायण और महाभारत की संक्षिप्त पुस्तिकाएं पढ़ने को दी गईं तो उन्होनें उसे पढ़ डाला। जब शिक्षक ने उनसे पूछा कि रामायण का नायक कौन है तो उन्होंने बेशाख्ता कहा सीता। उनके इस उत्तर को सुनकर शिक्षक चौंक गए। आज के वातावरण में तो इस उत्तर के बारे में सोचना भी कठिन है। लेकिन सीता का संघर्ष, अग्निपरीक्षा और फिर वनवास यह सब किसी को भी करुणा से भर देता है। वे सोचते थे कि सीता का चरित्र कितना नैतिक और संघर्ष भरा था। इसी तरह महाभारत के पात्र एकलव्य के प्रति भी मधु दंडवते के मन में काफी सहानुभूति थी। एकलव्य के साथ हुए भेदभाव को देखकर उनके मन में यह विचार पनपा था कि ज्ञान के क्षेत्र में भेदभाव कितना अनुचित है।

मधु दंडवते एक ओर तो गांधी के प्रभाव में आकर 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय हो गए तो दूसरी ओर पीपुल्स एजूकेशन सोसायटी के कालेज में पढ़ाते हुए डॉ. भीमराव आंबेडकर से मिलकर सामाजिक न्याय के दर्शन की ओर भी आकर्षित हुए। स्वाधीनता और सामाजिक न्याय का जो संतुलन स्वाधीनता संग्राम ही नहीं आज के भी राजनेताओं और बौद्धिकों में बड़ी मुश्किल से पैदा होता है उसे मधु दंडवते ने सहज ही पा लिया था।

उन्होंने 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया तो वे महात्मा गांधी की अपील से प्रभावित थे। तब उनकी उम्र 18 साल की थी। वे भूमिगत गतिविधियों में सक्रिय थे। एक रात को वे और उनके साथियों ने शहर के बाहरी हिस्से में स्थित मजिस्ट्रेट के कोर्ट में आग लगा थी।

संयोग से उनके पिता शहर के चीफ इंजीनियर थे और दमकल वाली गाड़ी उन्हीं की अनुमति से कहीं जाती थी। कोर्ट शहर से दूर था और जब तक दमकल पहुंचे तब तक अदालत स्वाहा हो गई थी। उन्होंने यह कांड किया था यह बात प्रशासन को पता नहीं चल पाई। सिर्फ उनकी बुआ और फूफा जी इसे जानते थे। उनके पिता को भी कानोंकान खबर नहीं थी। उन्होंने सेना मुख्यालय की टेलीफोन लाइनें तोड़ने और रेलवे की फिशप्लेट भी उखाड़ने का प्रयास भी किया।

मधु दंडवते लिखते हैं कि वे 9 अगस्त 1942 को गवालिया टैंक मैदान में थे क्योंकि वहां तिरंगा फहराया जाना था। उससे पहले 7-8 अगस्त को वहां अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति का अधिवेशन हुआ था जिसमें महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो और करिए या मरिए का एलान किया था। गांधी के एलान का उनके व्यक्तित्व पर गहरा असर पड़ा था। वे भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गोपनीय तरीके से अच्युत पटवर्धन की पत्रिका नौ अगस्त और शाने गुरुजी की पत्रिका क्रांतिकारी बांटते थे।

मधु दंडवते 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में ही नहीं 1946 के रायल इंडियन नेवी के विद्रोह में भी सैनिकों के समर्थन में सक्रिय थे। वे लिखते हैं कि जिस मार्ग से अंग्रेजी सेना विद्रोह का दमन करने जा रही थी वह मार्ग संकरा था। उनके दोस्तों ने मार्ग में पत्थर की दीवार खड़ी कर दी और उस पर पीठ टिका कर खड़े हो गए। सेना ने लोगों को हटाने के लिए गोलियां चलाईं जिसमें उनके एक साथी की मौत हो गई। संयोग से वे बच गए।

सिद्धार्थ कालेज में पढ़ाते हुए उन्हें डॉ. आंबेडकर से भी मिलने का सौभाग्य मिला। उन्होंने बाबा साहेब से पूछा कि अपने जीवन से कोई दो प्रेरक प्रसंग बताएं। डॉ आंबेडकर ने उन्हें बताया कि किस प्रकार उन्होंने कुलाबा जिले में चावदार झील के किनारे महाड़ सत्याग्रह चलाया। उन्होंने अपने साथियों से कहा था कि सवर्ण लोग हमलावर होंगे लेकिन उन्हें अहिंसक रहना है। इस तरह सत्याग्रहियों ने हमला झेला लेकिन आखिर में विजय हासिल की और चावदार झील के पानी पर उनका भी सवर्णों की तरह से अधिकार कायम हुआ।

आंबेडकर ने अपने जीवन का दूसरा प्रसंग सुनाया जहां वे हार गए थे। आंबेडकर ने बताया कि किस तरह से वे हिंदू कोड बिल के लिए लड़े और उसे न पास करा पाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। यह बिल महिलाओं को संपत्ति में उत्तराधिकार दिलाने वाला था। उनके इस प्रयास का न सिर्फ कट्टरपंथियों ने विरोध किया बल्कि दलित समाज के लोगों ने भी विरोध किया। दलित समाज के लोगों ने कहा कि इससे उनके समाज को क्या मिलेगा।

उनके पास संपत्ति तो होती नहीं और व्यर्थ का उत्तराधिकार का विवाद खड़ा हो जाएगा। इस पर दुखी होकर आंबेडकर ने कहा कि भारतीय समाज में विधवा महिलाओं की कितनी बुरी स्थिति है। इसीलिए वे सभी महिलाओं को समाज का दमित वर्ग मानते थे और उनके लिए लड़ना चाहते थे।

मधु दंडवते ने मार्क्स, एंगिल्स, प्लेखनोव और लेनिन को भी पढ़ा था इसीलिए उन्होंने मार्क्स और गांधी जैसा ग्रंथ भी लिखा। लेकिन मार्क्स के प्रति आरंभिक आकर्षण के बाद भारत छोड़ो आंदोलन में कम्युनिस्टों की भूमिका देखते हुए उधर दूर तक नहीं गए। पर उनके चिंतन से न तो मार्क्सवाद अनुपस्थित था और न ही उस समय की वैश्विक राजनीति। जय प्रकाश नारायण पर लिखी पुस्तक `जयप्रकाश नारायण, स्ट्रगल विथ वैल्यूजः अ सेंचुरी ट्रिब्यूट’ में उन्होंने जेपी पर मार्क्सवाद के प्रभाव को प्रभावशाली ढंग से याद किया है। वे लिखते हैं कि जेपी की सोच बदलती रही लेकिन जेपी जेपी ही रहे। उन्होंने कुछ मूल्यों को पकड़ रखा था और उन्हें कभी नहीं छोड़ा।

जेपी के जीवन में विभिन्न युगों की कई परतें समाई हुई थीं। उनका दिमाग एक बेशकीमती संग्रहालय था। जेपी की मूल्यों में पूर्ण आस्था थी और उनका जीवन नैरंतर्य के साथ होने वाला परिवर्तन था। उन्हें इस बात की गहरी पीड़ा थी कि आपातकाल के बाद जब जनता पार्टी बनी तो जेपी ने एक फार्म पर सभी सदस्यों से दस्तखत कराए कि दोहरी सदस्यता नहीं होगी। यानी जो व्यक्ति जनता पार्टी का सदस्य रहेगा वह आरएसएस में नहीं रहेगा। जनसंघ के लोगों ने उस पर दस्तखत किया और बाद में मुकर गए।

उनके द्वारा लिखी गई अन्य पुस्तकों के नाम हैः-यूसुफ मेहरअलीःक्वेस्ट फार न्यू हारिजोन, जयप्रकाश नारायणः द मैन एंड हिज आइडियाज, एज द माइंड अनफोल्ड्सःइस्यूज एंड पर्सनालिटीज, इकोज इन द पार्लियामेंट । इसके अलावा उनकी मराठी में भी कई पुस्तकें हैं जिनका हिंदी अनुवाद भी किया गया है।

वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य थे या नहीं यह सवाल मधु जी से अक्सर पूछा जाता था। इसका उन्होंने अच्छी तरह से जवाब दिया है। उनका कहना था कि सीएसपी की सदस्यता कम्युनिस्ट पार्टी जैसी कठिन नहीं थी लेकिन बहुत आसान नहीं थी। पहले छह महीने प्रोबेशन का दौर रहता था उसके बाद स्थायी सदस्यता दी जाती थी। वे इस प्रक्रिया से गुजर कर सीएसपी की बंबई इकाई के सचिव बने थे। इसी दौरान अशोक मेहता, जयप्रकाश नारायण और डा लोहिया से मुलाकातें हुईं। वे लिखते हैं कि भूमिगत रेडियो चलाने का विचार सबसे पहले डा लोहिया ने दिया था। फिर एक धुनी युवती की तरह ऊषा मेहता उस काम में लग गईं। उन्होंने विट्ठलभाई कांताभाई झावेरी और नानक मोतवाने की मदद से रेडियो स्टेशन कायम कर दिया।

गोवा मुक्ति आंदोलन में अगर मधु लिमए के मार दिए जाने की गलत खबर फैल थी तो मधु दंडवते ने भी अपने कूल्हे की हड्डी तुड़वाई थी। उसके बाद उनके शरीर में स्टील की दो प्लेटें और लोहे की दो छड़ें डाली गई थीं। तभी मधु दंडवते कहते थे कि `आइ ऐम नाट वनली मैन आफ स्टील बट ए मैन आफ स्टीलनेस स्टील।’ गोवा मुक्ति के लिए जो गोवा विमोचन सहायक समिति बनी मधु जी उसके बंबई के सचिव थे।

वे 13 अगस्त 1955 को 1200 लोगों को लेकर विस्टोरिया टर्मिनस से बेलग्राम की ओर चले। गोवा की सीमा पर पहुंचने पर उन्हें रोक लिया गया। सीमा के गांव नेत्रदा पर 93 लोगों ने सत्याग्रह का फैसला किया। वहां प्रमिला जी भी पहुंच गईं और कहा कि मैं भी सत्याग्रह करूंगी। समिति के लोगों ने उन्हें रोका और कहा कि पुर्तगाल की पुलिस बहुत क्रूर है इसलिए इस आंदोलन में महिलाएं में न आएं। लेकिन वे नहीं मानीं। उन्होंने कहा कि मर जाऊंगी तो क्या हुआ रहूंगी आंदोलनकारियों के साथ ही। इंदुमति केलकर भी वहां पहुंची थीं।

नेत्रदा गांव पर मोर्चा लगाए सत्याग्रहियों का नारा था-नहीं नहीं कभी नहीं, भारत गोवा अलग नहीं। लाठी गोली खाएंगे फिर भी गोवा जाएंगे। इसी आंदोलन के दौरान जब वे तिरंगा लेकर गोवा में घुसने लगे तो पुलिस ने उन्हें पीट-पीट कर अचेत कर दिया। उनकी कूल्हे की हड्डी तोड़ डाली। मधु दंडवते मानते थे कि इस आंदोलन के कारण नेहरू सरकार ने आखिरकार सेना भेजने का निर्णय लिया और गोवा में किसी प्रकार का विरोध नहीं हुआ।

मधु दंडवते ने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन में भी हिस्सा लिया और प्रमिला जी और अपने भाई के साथ कई बार जेल गए। वे संयुक्त महाराष्ट्र समिति के सचिव थे। इस आंदोलन के मुख्य नेता थे एसएम जोशी, सेनापति बापट और पीके अत्रे। मराठी भाषा को लेकर छिड़े इस आंदोलन में गुजरातियों के प्रति एक प्रकार का अलगाव था लेकिन मधु दंडवते ने हमेशा इस बात ध्यान रखा कि आंदोलन में किसी प्रकार की हिंसा न हो और गुजरातियों पर किसी तरह का हमला न हो। एक बार पीएसपी आफिस के बाहर एक गुजराती भाई के स्टूडियो पर हमला करने कुछ मराठी आ गए लेकिन मधु दंडवते ने जाकर खुद मोर्चा संभाला और कहा कि आप ऐसा नहीं कर सकते।

इसी समाजवादी सोच और आंदोलन की पृष्ठभूमि का असर था कि मधु दंडवते जब 1977 में मोरारजी सरकार में रेल मंत्री बने तो उन्होंने सेकेंड क्लास स्लीपर में भी बर्थ पर दो इंच का गद्दा डलवाया। उससे पहले गद्दे सिर्फ फर्स्ट क्लास में ही होते थे। उन्हें रेलवे के कम्प्यूटरीकरण का श्रेय भी जाता है।

मधु दंडवते हमें भारतीय चिंतन की समन्वयवादी धारा का स्मरण दिलाते हैं। जहां गांधी, आंबेडकर और मार्क्स से एक साथ लेने के लिए बहुत कुछ है। बिना झगड़ा और दुराव किए हुए। मधु लिमए हमें इस बात का स्मरण दिलाते हैं कि कैसे नैतिक रहते हुए लोकसभा का चुनाव पांच बार जीता जा सकता है। कैसे राजनीतिक व्यस्तता के बावजूद पढ़ाई लिखाई की जा सकती है और समाज को शिक्षित करते हुए श्रेष्ठ पीढ़ियों की कई फसल काटी जा सकती है।

फिजिक्स का यह प्रोफेसर हिंदी में विज्ञान पढ़ाने का संकल्प लेता था और कहता था कि वे लोग गलत हैं जो यह कहते हैं कि विज्ञान की कठिन शब्दावली हिंदी या भारतीय भाषाओं में नहीं गढ़ी जा सकती। वे कहते थे कि मैं पूरी न्यूक्लियर फिजिक्स हिंदी और मराठी में पढ़ा सकता हूं। लेकिन मधु दंडवते का पुण्य स्मरण करते हुए यह कहे बिना नहीं रहा जा सकता कि ऐसे नहीं होते मधु दंडवते। उसके लिए पढ़ना पड़ता है, क्रांतिकारियों का साथ करना पड़ता है, आजादी और सामाजिक न्याय का अंतर मिटाना पड़ता है, आजीवन अन्याय से लड़ना पड़ता है और आखिर तक नैतिक बने रहना पड़ता है।

(अरुण कुमार त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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