‎केवल सात सेकेंड की शक्ति से झूठ-सच के अदल-बदल का खेल खत्म हो ‎सकता है! 

अब 2024 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फिर मजबूत सरकार का मुद्दा बहुत मजबूती से उठाया है। आम नागरिकों के जीवन से जुड़े असली और वास्तविक मुद्दों की बात तो कायदे से तो वे बहुत कम ही मौकों पर करते हैं। जीवन में ‘इकतरफा’ कुछ नहीं होता है। कुछ नहीं, न भक्ति और न भाव ही; न आराधना न साधना, कुछ भी ‎‘इकतरफा’‎ नहीं होता है।

नरेंद्र मोदी को सब कुछ ‎‘इकतरफा’‎ करने में विश्वास है। यह अपने-आप में सामंतवादी मिजाज है। लेकिन, ध्यान देने की बात है कि यदि मतदान का प्रतिशत लोकतंत्र से निकासी का लक्षण (Withdrawal Syndrome)‎ है तो बहुत खतरनाक है!

सामंतवाद हर तरह की तय करने की बातचीत (Negotiation) से परहेज करती है, चाहे वह मजदूरी तय करने के लिए हो या चाहे कुछ भी तय करने के लिए हो। जबकि, की आत्मा की मांग जीवन के सभी प्रसंगों में सब कुछ को बातचीत (Negotiation) से तय करने की होती है। सामंतवाद में यह संभव होता है कि तय करने की बातचीत के बिना वह कुछ भी तय कर ले। ऐसा इसलिए कि जिन लोगों के लिए वह कुछ भी तय करता है उन्हें बहुत निरीह और अपने को बहुत शक्तिशाली मान कर व्यवहार करता है। 

कल्पना के परे है कि लोकतांत्रिक सत्ता अपने औद्धत्य में इतना रम जाये कि कोई प्रेस कांफ्रेंस ही न करे! मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है तो उसके अपने राजनीतिक रुझान भी होते हैं। पत्रकार के भी अपने राजनीतिक रुझान होते हैं। ये रुझान सत्तारूढ़ पक्ष की राजनीति या विपक्ष की राजनीति किसी के प्रति हो सकती है।

संविधान-सम्मत किसी भी राजनीति के प्रति रुझान सरकार के मन में असहमति तो हो सकती है, अस्वीकृति नहीं होनी चाहिए। असहमति के प्रति सम्मान और स्वीकृति लोकतंत्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है। प्रेस कांफ्रेंस में सवाल और तीखे सवाल पूछा जाना स्वाभाविक है। सरकार का जवाब देना सरकार का दायित्व होता है। वर्तमान सत्ता का सवाल से परहेज करना उसके अलोकतांत्रिक आचरण का लक्षण है।

मजदूरों, किसानों या किसी के भी हक का पैसा उसके और उसके परिवार की मुसकान के मुरझाने के पहले उसके हाथ में होना चाहिए। ऐसा नहीं होना ही आर्थिक अन्याय और शोषण है। संविधान और लोकतंत्र के रहते हुए किसी के प्रति किसी भी तरह अन्याय और शोषण सरकार की विफलता है। यह ठीक है कि कोई भी व्यवस्था न तो पूर्ण रूप से न्याय-निष्ठ हो सकती है, पूर्ण रूप से शोषण मुक्त हो सकती है, लेकिन बात अनुपात की है। बढ़ती हुई गैर-बराबरी, अन्याय और शोषण के प्रति उदासीन रुख अपनानेवाली सरकार को क्यों चाहिए मजबूती!  

डबल इंजन, मजबूत सरकार चाहिए। अभी की सरकार तो बहुत मजबूत है। मणिपुर नाम का एक प्रदेश जलता रहा डबल इंजन और मजबूत सरकार ने आग बुझाना तो दूर वहां के लोगों के लिए सांत्वना के दो शब्द मुंह से नहीं निकाला! इंजीनियर, शिक्षा सुधारक और जाने-माने पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांगचुक ‎केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख को पूर्ण राज्य और संविधान की छठी अनुसूची लागू ‎किये जाने की मांग को लेकर ‎ के अनशन पर थे।

उधर ‎सोनम वांगचुक अनशन पर पड़े रहे और इधर वन नेशन, वन इलेक्शन का शोर मचता रहा! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस तरह के रुख से ‘वन नेशन’ का कोई आत्म-बोध बनता है? ‘वन इलेक्शन’ के प्रति ऐसा ही आकर्षण बना रहा तो 400 पार होते ही ‘नो इलेक्शन’ का नारा सामने आ जायेगा! ‎ ‎  ‎        

लोकतांत्रिक वातावरण में सामंती मिजाज शक्ति हासिल करने के लिए लोकतांत्रिक पद्धति का उपयोग करता है। शक्ति हासिल होने के बाद लोकतंत्र के हितधारकों को निरीह समझकर ‘निर-हिता’ की स्थिति में डालकर रखता है। जीवन किसी भी प्रसंग में हितधारकों को ‘निर-हिता’ में डालना पूरी तरह से विश्वास के उल्लंघन (Breach of Trust) का मामला होता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सब कुछ ‎‘इकतरफा’‎ करते हुए निश्चित रूप से यही और सिर्फ यही करते आये हैं। जनप्रतिनिधियों के विश्वास को बंधक बनाने और जन-विश्वास की रक्षा करने के फर्क को पूरी तरह भुला देने की मानसिकता नागरिकों को निरीह समझने से बनती है। 

भारत में लागू संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत पांच सालों में एक बार ही सही, हां बस एक बार, आम नागरिकों को मौका मिलता है। मौका कि ‘निर-हिता’ के गड्ढे से बाहर निकलकर हितधारक की तरह लोकतंत्र की ऊंची जमीन पर तनकर खड़ा हो जाये। सोच-समझकर साबित कर दे कि वह ‘निरीह प्रजा’ नहीं, वास्तविक हितधारक है।

जिस दल से जुड़े प्रतिनिधि ने हितनाश के वक्त मुंह नहीं खोला उस दल के उम्मीदवार से मुंह मोड़ लेने के लिए वास्तविक हितधारक के पास यह न चुके जाने लायक मौका होता है। पांच साल में यही एक मौका होता है, जब ‘केवल सात सकेंड’ उसे अपनी शक्ति की छाप वीवीपैट (वोटर वैरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) में दिखती है। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जिस ट्रेलर दिखाने की बात करते हैं उसकी शक्ति वीवीपैट (वोटर वैरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल) की इसी ‘ट्रेल’ में है। लोकतंत्र में सरकार को इस ‎‘ट्रेल’ ‎को ‎‘ट्रेलर’ ‎बनाने तक की ही छूट रहती है। पूरी ‘फिल्म’ बनाने की शक्ति केवल नागरिक के पास होती है। उन की भाषा में कहा जाये तो, हां जी अभी ‘फिल्म’ बाकी है। सच्ची बात तो यह है कि जिंदगी न तो ‘ट्रेलर’ है, न ‘फिल्म’ है। जिंदगी कैमरा और वाणी से नहीं चलती है; कैमरा और वाणी जिंदगी से चलती है।

सच है कि चुनाव ही लोकतंत्र नहीं है, लेकिन बिना न्याय-संगत चुनाव के कोई लोकतंत्र संभव ही नहीं हो सकता है। ‘केवल सात सकेंड’ जी, ‎केवल सात सकेंड की शक्ति से झूठ-सच के अदल-‎बदल का खेल खत्म हो ‎सकता है! ‎सच को सच और झूठ को झूठ साबित करने की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। चीख और ठहाके के वातावरण का रंग-ढंग, व्यवस्था में बदलाव और प्रभुता में परिवर्तन के अधीन होता है। 

बढ़ती हुई गैर-बराबरी, महंगाई और क्रय-क्षमता में बढ़ते असंतुलन को ठीक करने, जनविरोधी रुझानों को दूर करने और विषमता को कम करने का निरंतर उपाय करते रहना, किसी भी लोक-कल्याणकारी राज्य और सरकार का स्वाभाविक लक्ष्य होता है। इस ‘लक्ष्य’ की बात करना वामपंथी हो जाना होता है! बस इतना ही है, वामपंथ! वामपंथ क्या भारत के संविधान में वर्जित या निषिद्ध है? भारतीय जनता पार्टी के लोगों की यही समझ है ‎वामपंथ के बारे में! पता नहीं किस अर्थ में कांग्रेस पर ‘वामपंथ’ के वर्चस्व की बात कर रहे हैं। ‎‘अरबन नक्सल’‎‎ की बात करते हैं! ‎‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’‎ की बात करते हैं।

न्याय और हक की बात करनेवाला, चाहे वह कोई भी हो, उसे सरकारी तौर पर ‎अपरिभाषित ‎‘अरबन नक्सल’‎‎ और ‎‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’‎ से बेहिचक जोड़ देना सरकार ‎की आम प्रवृत्ति हो गई है। कहीं कोई चुनौती नहीं! चुनौती कौन दे सकता है, मीडिया! ‎मीडिया की बात तो रहने ही दिया जाये! कोई तो नहीं है जो इस असंवैधानिक प्रवृत्ति को चुनौती दे सके और रोक सके! किस-किस की बात की जाये!

 ‘बहुसंख्यक के राजनीतिक दुष्टिकरण’ के लिए ‘अल्प-संख्यक तुष्टिकरण’ का हल्ला ‎मचाना, बहुपरिचित दक्षिण पंथी रुझान है। कहां है केंद्रीय चुनाव आयोग (ECI)! कांग्रेस के न्यायपत्र या घोषणापत्र में कोई असंवैधानिक बात है तो, तुरंत इस का संज्ञान लेकर चुनाव आयोग को समुचित कार्रवाई करनी चाहिए। यदि कांग्रेस के न्यायपत्र में ऐसी कोई बात नहीं है तो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कांग्रेस पार्टी के न्यायपत्र के हवाला से प्रचारित की जा रही धर्म-आधारित नफरती बातों को संज्ञान में लेकर समुचित कार्रवाई का ‘साहस’ दिखलाये। इस मुद्दा पर केंद्रीय चुनाव आयोग (ECI) की खामोशी भारत राष्ट्र के लिए खतरनाक ‎हो सकती है।

‎चुनाव आयोग से या अन्य सक्षम संस्थाओं से मतदाताओं की यह अपेक्षा नाजायज है! पता नहीं! इतना जरूर पता है कि ‎‘बहुसंख्यक के राजनीतिक दुष्टिकरण’ के लिए ‘अल्प-संख्यक तुष्टिकरण’ के झूठ का हल्ला ‎मचाना, नफरती माहौल बनाना, बहुपरिचित और अब तक चुनौतीहीन बनी हुई दक्षिण पंथी रुझान है। 

लोकतांत्रिक हक की बात करनेवाला हर कोई जो वह असल में होता है, इन के लिए उस असल के अलावा ही कुछ-न-कुछ हो जाता है। इन के लिए सच के अलावा, सब कुछ सच होता है! लोग अब इन के कहने में आने से रहे। लोग सोच रहे हैं कि मजबूत सरकार चाहिए या मजबूत लोकतंत्र चाहिए? मिलनसार होना बहुत बड़ा गुण होता है। मिलनसार होने के लिए जरूरी होता है अपने विरुद्ध किये जानेवाले सही सवालों ‎‎से बिंध जाने का साहस। विरुद्धों के बीच सामंजस्य की उच्च नैतिक संबुद्धि! मिलनसार होना भारतीयता के सार का सांस्कृतिक हुनर है। मिलनसार ‎‎स्वभाव के बिना भारत-बोध को हासिल नहीं किया जा सकता है।

भारत-नायक का पहला और ‎आखिरी गुण होता है न्याय के प्रति ‎आग्रहशील स्वभाव। न्याय-‎विमुख व्यक्ति तात्कालिक रूप से ‎चाहे ‎जितना शक्तिशाली हो जाये मिलनसारी संस्कृति से ‎संपन्न भारत का ‎नायक नहीं हो सकता ‎है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 400 पार की शक्ति क्यों चाहिए! स्वस्थ और न्याय-संगत‎ मिलनसारिता के लिए चाहिए या बीमार और नफरत भरे न्याय-विमुख राजनीतिक एजेंडा के लिए चाहिए! किस लिए चाहिए?

जीवन में शक्ति का बहुत महत्व होता है। स्वस्थ और न्याय-संगत‎ मिलनसारिता के लिए ‎जीवन में भी और लोकतंत्र में भी शक्ति की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता है। क्या है शक्ति? कांग्रेस नेता, न्याय योद्धा राहुल गांधी ने शक्ति की बात कही थी। राहुल गांधी के कहने का आशय न्याय-संगत‎ शक्ति का साथ देने और न्याय-विमुख शक्ति का विरोध करने से था।

राहुल गांधी की बात को मूल संदर्भ से काटकर नारी-शक्ति के अपमान किये जाने से जोड़ दिया गया। खुद को मातृ-शक्ति का पूजक बताते हुए उल्लसित नरेंद्र मोदी बहुत सारी बातें हवा में उछालने लगे थे! क्या हुआ उन बातों का? वे बातें शक्तिहीन होकर फुस्स क्यों हो गई! क्या होती है शक्ति! आखिर क्यों जरूरी होती है शक्ति! समझने की कोशिश करते हैं।    ‎

जीवन में क्रिया का बहुत महत्व होता है। क्रिया और प्रतिक्रिया कभी नहीं रुकती है। क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों को इंतजार रहता है परिणाम का। क्रिया,  प्रतिक्रिया के साथ चलती रहती है परिणाम प्राप्ति की प्रक्रिया और जारी रहता अटूट इंतजार। क्रिया-प्रतिक्रिया कभी नहीं रुकती है क्योंकि कोई भी परिणाम अंतिम नहीं होता है, बस एक पड़ाव होता है, ठहराव होता है। चूंकि क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं रुकती है इसलिए प्रक्रिया भी नहीं रुकती है और परिणाम का इंतजार भी नहीं रुकता है! क्रिया-प्रतिक्रिया को शुरू करने और प्रक्रिया को परिणाम तक पहुंचाने में गति की बड़ी भूमिका होती है। 

गति के लिए जरूरत होती है, शक्ति की। शक्ति ही वह मूल तत्व है, जो क्रिया-प्रतिक्रिया के साथ प्रक्रिया और परिणाम को भी नियंत्रित करती है। शक्ति ही वह चाभी है जिस से इच्छित परिणाम का ताला खुलता है। जीवन के सभी प्रसंगों के मूल में शक्ति को हासिल करने के लिए ‘युद्ध और संघर्ष का खेल’ सतत चलता रहता है। कहा जा सकता है कि ‘जीवन संग्राम’ शक्ति के लिए, शक्ति के द्वारा जारी रहता है। जीवन को समझना, जीवन में निहित शक्ति-प्रसंग को समझना है। 

आम नागरिकों ने भारतीय जनता पार्टी पर पूरा भरोसा किया था 2014 और 2019 में। बहुत विश्वास के साथ शक्ति और सत्ता की चाभी कांग्रेस के नेतृत्व में संगठित संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) के हाथ से लेकर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की हथेली पर रख दी थी। दस साल में नतीजा देख लिया। जन-विश्वास को धत्ता बताकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शक्ति की सख्ती के साथ जनप्रतिनिधियों को ‘अपना प्रतिनिधि’ बना लिया। दस साल में जिस प्रकार से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘शक्ति की सख्ती’ ‎का रवैया रूढ़ि-ग्रस्त होता गया है, उसे देखते हुए अब और भरोसा किया जाना निरापद नहीं हो सकता है।  

नरेंद्र मोदी की मानें तो, उन्हें गंगा मैया ने बुलाया था। गंगा मैया की जय करते हुए भारत के लोग बेहतर जानते हैं कि गंगा में भी ग्राह बसता है। गंगा मैया के प्रति श्रद्धा में ग्राह का प्रतिरोधहीन ग्रास बन जाने की कोई प्रेरणा नहीं होती है। सारी परिस्थितियां राष्ट्र के हितधारकों के सामने है।

अब आम नागरिकों के लिए सब से बड़ा मुद्दा है, अपने-अपने हित को ठीक से पहचानना। मुद्दा है, वीवीपैट पर झलकनेवाली ‘केवल सात सकेंड’ बस, ‘केवल सात सकेंड’ की अपनी शक्ति को पहचानना। मुद्दा है, अपनी शक्ति को अपने हित से जोड़कर अपनी शक्ति का बेहतर इस्तेमाल करना। उम्मीद तो है, लेकिन फिर कहें कि वास्तविक मतदान के प्रतिशत की गिरावट यदि मतदाताओं के लोकतंत्र से निकासी का लक्षण (Withdrawal Syndrome)‎ है तो संकेत बहुत खतरनाक है। उम्मीद पर दुनिया टिकी है, इसलिए उम्मीद है मतदान प्रतिशत में सकारात्मक सुधार से सकारात्मक परिणाम निकलेगा। जीवन में उम्मीद और इंतजार कभी खत्म नहीं होता। इसलिए उम्मीद भी है, इंतजार भी है। 

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं) 

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