व्याख्या का ही अंत हो चुका है, जरूरत है अव्याख्येय नूतन पाठ की

3 फरवरी के ‘टेलिग्राफ’ में सुनंदा के दत्ता राय का एक दिलचस्प लेख पढ़ रहा था- ‘अब भारतवर्ष की रक्षा में राम खड़े हैं।’

इस लेख में दत्ता राय हिंदुत्व की विचारधारा से जुड़ी ऐसी तमाम मूर्खताओं का उल्लेख करते हैं जिनमें देश का प्रधानमंत्री तक मानता हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी का ज्ञान मौजूद था इसीलिए मानव शरीर पर हाथी का सर लगाना संभव हुआ था। इसी प्रकार लेख में पुष्पक विमान आदि की तरह की सारी बातें भी गिनाई गई हैं।

दत्ता राय के लेख का निचोड़ है कि अब मोदी और आरएसएस कंपनी देशवासियों को निश्चिंत हो जाने का पाठ पढ़ा रहे हैं, क्योंकि अब इस देश की रक्षा का दायित्व खुद राम ने ले लिया है। “होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥”

इस प्रकार राजनीति में भक्ति भाव के एक मूलभूत सूत्र की स्थापना हुई है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है अब किसी के प्रति किसी की कोई जवाबदेही नहीं होगी और न किसी में कोई असंतोष का औचित्य होगा। यही सामाजिक नैतिकता होगी कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’।

इस प्रकार, ज़ाहिर है कि राम मंदिर के ज़रिये मोदी भारत में राजनीति की जो नई परंपरा शुरू करना चाहते हैं, उसमें शासक राजा के सामने प्रजा पूर्ण रूप से समर्पित होगी। अद्वैत दर्शन का यही राजनीतिक निहितार्थ है- राजा ही ईश्वर है!

सचमुच, मनुष्यों के चिंतन का यह एक ख़ास आदिम रास्ता है। आध्यात्मिक, धार्मिक रास्ता जिसमें हर अर्थ का आदिम स्रोत किसी के लिए ईश्वर, किसी के लिए अल्लाह, तो किसी के लिए राम होता है। अर्थात् उसकी परम आस्था का कोई भी किसी अन्य प्रतीक।

जब हम इस विषय पर सोचते हैं तो यह साफ़ नज़र आता है कि जब भी धर्म हमारी सोच का अभिन्न अंग होगा और हमारा धार्मिक दिमाग़ सूक्ष्मतर चिंतन की जितनी कोशिश करेगा, उसी अनुपात में वह मनुष्यता से दूर हटता हुआ ईश्वर तत्व के सामने समर्पित होता जायेगा। हम मानने लगेंगे कि ईश्वरीय न्याय ही अंतिम न्याय है और राजा का होना एक ईश्वरीय विधान है। हमारे आदि कवि का राजा राम ही उसका भगवान भी होता है।

दुनिया में दर्शन शास्त्र का इतिहास सभ्यता के लंबे काल तक परम तत्व से जुड़ी इसी नियति का शिकार रहा है। उसने राजा की ईश्वरीय सत्ता को ही औचित्य प्रदान किया है।

पर इसके विपरीत, सभ्यता की विकास यात्रा में जनतंत्र के पदार्पण ने ही दर्शन-विरोधी चिंतन की एक नई ज़मीन तैयार की। जनतंत्र अपने मूल अर्थ में राजा की ईश्वरीय सत्ता का अंत कर सत्ता के केंद्र में मनुष्यों को स्थापित करता है। इस अर्थ में जनतंत्र एक पूर्णतः धर्म-निरपेक्ष परिघटना है। इसी प्रकार जनता की मांग पर राज्य की जनकल्याणकारी भूमिका भी। तत्वतः जनतंत्र और धर्म का विधान, दोनों साथ-साथ कभी चल ही नहीं सकते हैं।

इस दृष्टि से कह सकते हैं कि भारत की वर्तमान राजनीति के केंद्र में राम मंदिर के प्रवेश ने एक प्रकार से धर्म और धर्म-निरपेक्षता के द्वंद्व को नग्न रूप में सामने ला कर राजशाही (फासीवाद) और जनतंत्र के बीच के द्वंद्व को प्रमुख बना दिया है। फासीवाद उत्पादन के आधुनिक काल में राजशाही की वापसी का ही दूसरा नाम है।

अभी मोदी 2024 का चुनाव राम मंदिर के बल पर लड़ना चाहते हैं। उन्होंने धर्म-निरपेक्षता से जुड़े जन-कल्याण और सामाजिक न्याय के सारे मुद्दों को पृष्ठभूमि में डाल देने का फैसला किया है। इसके दूसरी ओर ‘इंडिया गठबंधन’ सामाजिक न्याय, जाति जनगणना, लोक कल्याण की तरह के तमाम धर्म -निरपेक्ष मुद्दों को आधार बनाकर इस लड़ाई में उतर रहा है। मोदी राजशाही अर्थात् फासीवाद की स्थापना की लड़ाई लड़ रहे हैं और ‘इंडिया’ पूरी तरह से जनतंत्र की लड़ाई लड़ रहा है।

जनतंत्र के लिए संघर्ष के विश्व-व्यापी लंबे इतिहास का ही नतीजा है कि आज के युग में यदि धर्म मनुष्यों के अवचेतन में अवशिष्ट है, तो धर्म-निरपेक्षता का हिस्सा किसी मायने में उससे कम नहीं है, बल्कि ज़्यादा ही है। समाज के सामूहिक अवचेतन में धर्म और धर्म निरपेक्षता से जुड़े मूल्य ही उसे तानाशाही और लोकतंत्र के बीच द्वंद्व की रणभूमि बनाए हुए हैं।

इन स्थितियों में जब विश्लेषक के तौर पर हमें आज के मनुष्यों को संबोधित करना हो, तानाशाही के प्रभाव से निकाल कर जनतंत्र के मूल्यों से प्रेरित करने के लिए उनका विश्लेषण करना हो, तब यह ज़रूरी हो जाता है कि हम भी अपने को धर्म से अलग कर धर्म-निरपेक्ष आधार से उन्हें संबोधित करें। इसमें ऐसी व्याख्याओं का दो कौड़ी का मोल नहीं होता है जो धर्म की धारावाहिकता में धर्म-निरपेक्षता की बात करती हैं।

इसमें शक नहीं है कि जो तानाशाही की राजनीति की सेवा करना चाहते हैं, वे ही अपने को धार्मिक आधार पर टिकाये रखते हैं। मनोविश्लेषक जॉक लकान का कहना था कि अवचेतन की व्याख्या हमेशा अवचेतन को पुष्ट करती है, उसका विश्लेषण नहीं करती।

आज गोदी मीडिया के घटिया प्रचार और अन्य सोशल मीडिया की उबाऊ बहसों को देखते हुए यह निश्चय के साथ कहा जा सकता है कि राजनीतिक घटनाक्रमों की कोरी व्याख्याओं का कोई मायने नहीं रह गया है।

हम तो यहां तक कहेंगे कि आज हम जिस युग में जी रहे हैं, उसमें किसी भी पाठ की वैसी व्याख्या लगभग मर चुकी है या जिसका कोई दाम नहीं बचा है जो महज़ वाक्य में अर्थ के विस्तार में सहयोगी विराम चिन्हों की भूमिका अदा किया करती है।

हम जितना जल्दी इस बात को समझेंगे कि समाजवाद के अवसान के बाद ही विमर्शों के जगत में एक बिल्कुल नए उत्तर-व्याख्या युग का श्रीगणेश हो चुका है, उतना ही जल्दी हम अपनी शक्ति को अनेक प्रकार की अर्थहीन बौद्धिक उलझनों और क़वायदों में ज़ाया करने से बच सकेंगे; उतनी ही जल्दी हम प्रासंगिक और अर्थपूर्ण चिंतन की एक नई भाषा हासिल कर सकेंगे।

जब हम विमर्श के उत्तर-व्याख्या युग की बात करते हैं तो इसका अर्थ है विश्लेषण की ऐसी पद्धति के चलन का युग जिसमें व्याख्या वाक्य के अर्थ की धारावाहिकता को बनाये रखने वाले विराम चिन्हों की भूमिका न निभाए। मनोविश्लेषण की शब्दावली में, व्याख्या प्रमाता के अवचेतन की ही अभिव्यक्ति न करे। बल्कि, इसके विपरीत उसकी भूमिका विषय को उसकी पारंपरिक धारा से, उसकी ज़मीन से काटने की भूमिका हो, वह दृढ़ता के साथ प्रमाता के अवचेतन के विरुद्ध खड़ी हो।

अभी के लगभग स्थिर से समय में अगर किसी विमर्श का कोई मूल्य हो सकता है तो उसे सिर्फ़ एक मूलगामी, विषय के बिल्कुल भिन्न और विरोधी छोर से जुड़ा विश्लेषणात्मक विमर्श होना होगा।

धर्म-निरपेक्ष विमर्श को किसी भी प्रकार से धार्मिक विमर्श की धारावाहिकता में उठाने का कोई तुक नहीं है। बल्कि धर्म-निरपेक्ष विचार के क्रम में अगर कहीं भी धर्म सिर उठाता दिखाई दें, तो उसे फ़ौरन रंदा मार कर समतल करके ही अपने विमर्श के सौन्दर्य को बचाया जा सकता है। जनतंत्र के लिए ही यह ज़रूरी है कि हम अपने वक्त के ऐसे नए पाठों को तैयार करें जिन पर पुरातनपंथी धार्मिक भ्रमों की कोई छाया भी न पड़ी हो।

अवचेतन की व्याख्याओं का यह मूलभूत भेद ही व्याख्या के प्रभावों को भी अंततः तय करता है। उसी से प्रमाता के विचारों, आदर्शों और भ्रमों को, उसके समग्र मूल्य बोध को बल मिलता है। इस अर्थ में व्याख्याओं के उस युग का अंत हो गया है, जो वाक्य में प्रयुक्त विराम चिन्हों की तरह विषय के तमाम आयामों के बीच एक प्रकार की धारावाहिकता को बनाए रखते हैं। धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण धर्म की धारावाहिकता से नहीं, बल्कि धर्म को ख़ारिज करके ही क्रियाशील हो सकता है।

जनतंत्र राजशाही के अंत से पैदा होता है। उसकी विकास यात्रा में राजशाही, तानाशाही, फासीवाद आदि के लिए स्वीकार का कोई स्थान नहीं हो सकता है। जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है जो जनतंत्र के इस नये पाठ में शामिल नहीं होता है। इसकी वैसी ही अंतहीन व्याख्याएं की जा सकती हैं, जिसमें लगे लोगों को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर स्तर तक बढ़ते हुए किसी और दिशा में झांकने की भी ज़रूरत नहीं है।

एक सच्चे विचारक के लिए ज़रूरी होता है कि जिन मिथकीय मुक़ामों से भाषा आपको निरर्थकता की ओर खींच सकती है, उन बिंदुओं के पीछे का रास्ता ही काट दिया जाए। जॉक लकान ने अंग्रेज़ी के प्रमुख कवि जेम्स जॉयस की प्रसिद्ध रचना Finnegans Wake के विश्लेषण से लेखक के ऐसे ही जुनून की अनोखी नज़ीर पेश की थी।

जेम्स जॉयस ने भाषा, उसकी लिखावट और ध्वनियों के माध्यम से एक ऐसे मौलिक पाठ का सृजन किया था जिसकी व्याख्या के किसी भी सूत्र को परंपरा से नहीं पाया जा सकता है। तथापि उस पाठ की भाषा में व्यक्त-अव्यक्त का वह पूरा स्वरूप मौजूद था जिसे लकान ने लेलैंग (lalangue) कहा था, जो सिर्फ़ व्यक्त को ही नहीं, अव्यक्त को भी भाषा का अभिन्न अंग बनाता है।

लकान ने उसके ज़रिये दर्शाया था कि जेम्स जॉयस की वह रचना हमेशा के लिए एक अव्याख्येय पाठ बन कर रह गई, तथापि साहित्य में वह सबसे सम्मानित स्थान पर क़ायम है। यह इसलिए संभव हुआ है क्योंकि इसमें शब्दों के पूर्व-निर्धारित संकेतों की ओर बढ़ने की बाध्यता को कुंद कर दिया गया है।

कहना न होगा, ऐसी रचना भी एक प्रमाण है कि व्याख्या के युग का अंत हो चुका है।

बहरहाल, टेलिग्राफ में प्रकाशित सुनंदा के दत्ताराय के धर्म-आधारित ‘राम राज्य’ संबंधी आलेख से शुरू हुई हमारी इस ‘व्याख्या के अंत’ संबंधी समूची चर्चा का तात्पर्य सिर्फ़ इतना ही है कि पारंपरिक व्याख्यामूलक विमर्शों का कोई मूल्य नहीं रह गया है।

अगर हमें अपनी बातों में कोई वजन पैदा करना है तो हमें दृढ़ता के साथ एक मूलगामी धर्म निरपेक्ष क्रांतिकारी वैकल्पिक दृष्टिकोण से आज की राजनीति के नए पाठों पर केंद्रित रहना होगा। इसके अभाव में ही आज हमें सत्य हिंदी जैसे चैनल के आशुतोष, मुकेश कुमार जैसे कई लोग मोदी के प्रचारकों से अलग नहीं लगते हैं, तो पुण्य प्रसून और अजित अंजुम बुरी तरह से उलझे हुए नज़र आते हैं।

हिंदी चैनलों में रवीश कुमार अकेले ऐसे मौलिक पाठ की रचना कर रहे हैं, जिस पर मोदी कंपनी के आख्यानों की कोई छाया नहीं होती। अभी के मीडिया की भाषा से उनकी व्याख्या संभव नहीं है। जो रवीश आज टीवी पत्रकारिता का सबसे जीवंत रूप है, वही यदि अव्याख्येय है, तो इससे भी यही नतीजा निकलता है कि व्याख्या का ही अंत हो चुका है।

(अरुण माहेश्वरी, वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार हैं।)

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