हिन्दुत्ववादी फासीवादी सांस्कृतिक हमला सीधे जनता की चेतना पर हमला है

मशहूर ब्लैक फिल्ममेकर हेली गरिमा (Haile Gerima) ने एक बार महिलाओं पर हो रहे साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के बारे में कहा था कि महिलाएं, विशेषकर युवा महिलाएं अपने जीवन में अनगिनत ‘सांस्कृतिक बूबी ट्रैप’ (सुन्दरता का साम्राज्यवादी पैमाना) से होकर गुजरती हैं और इस प्रक्रिया में उनके व्यक्तित्व के परखच्चे उड़ते रहते हैं और उन्हें इसका पता भी नहीं चलता।

पिछले कुछ दशकों से साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण के साथ मिलकर हिन्दुत्ववादी फासीवादी सांस्कृतिक आक्रमण ने भारतीय जनता के पैरों के नीचे जो ‘बूबी ट्रैप’ बिछाया है, उसने जनता की चेतना को जख्मी करने के साथ ही समाज के ताने बाने को भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त किया है।

कुनाल पुरोहित ने हाल ही में प्रकाशित अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘H-POP’ (The secretive world of hindutva pop stars) में इस ‘बूबी ट्रैप’ की एक झलक ‘कैप्चर’ की है।

पिछले कुछ दशकों से विशेषकर 2014 के बाद से ‘हिंदुत्व पॉप म्यूजिक’ के नाम से सुदूर गांवों और कस्बों में मुस्लिम-विरोधी गीतों/कविताओं के कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है, जहां खुले आम

 “हर घर भगवा लहराएगा…’’।

“दुश्मन घर में बैठे हैं, तुम कोसते रहो पड़ोसी को 

जो छुरी बगल में रखते हैं, तुम मार न दो उस दोषी को…।”

“अगर छुआ मंदिर तो तुझे दिखा देंगे

तुझको तेरी औकात बता देंगे…।”

जैसे गीत / कवितायें हजारों नौजवानों/किशोरों के बीच गाये जा रहे हैं। उद्धरित इन गीतों के अलावा बहुत से गीत मुस्लिमों के प्रति इतने आक्रामक और घृणा से भरे हुए हैं कि उन्हें यहां लिखा नहीं जा सकता। इन गीतों/कविताओं का बच्चों, किशोरों और नौजवानों पर बहुत ही खतरनाक और जहरीला असर पढ़ रहा है। कक्षा-8 की इतिहास के एक ‘ऑनलाइन’ लेक्चर के दौरान मुस्लिमों का जिक्र आने पर कक्षा के एक विद्यार्थी ने कहा कि वह मुस्लिमों से नफ़रत करता है। हरियाणा के एक कस्बे में निम्न-मध्यवर्गीय परिवार से आने वाले उस लड़के से बहस के दौरान पता चला कि वह अभी तक किसी मुस्लिम के संपर्क में नहीं आया है, लेकिन इस तरह के गीतों/कविताओं के संपर्क में आने से उसके अन्दर यह खतरनाक परिवर्तन आया है।

इन जहरीले गीतों/कविताओं के ‘यूट्यूब’ पर हजारों/लाखों सबस्क्राइबर हैं। आश्चर्य की बात है कि इस खतरनाक सांस्कृतिक प्रदूषण से यूट्यूब की किसी भी गाईड लाइन का उलंघन नहीं होता।

अब तक ज्यादातर लिबरल/प्रगतिशील लोग इस तरह के ‘क्रूड’ सांस्कृतिक हमले की तरफ से आँख मूंदे रहते थे और इसे कुछ सिरफिरे लोगों की फितरत करार देते रहे हैं। लेकिन सुदूर गांवों/कस्बों में इनका जो असर हो रहा है, वह भयानक है और हमें इस फासीवादी सांस्कृतिक हमले को बहुत ही गंभीरता से लेने की जरूरत है। कुनाल पुरोहित अपनी उपरोक्त किताब में गंभीर चेतावनी के रूप में कहते हैं- “1990 में रवांडा में हूती बहुसंख्यकों द्वारा तुत्सी अल्पसंख्यकों का जो कत्लेआम किया गया (जिसके परिणामस्वरूप 8 लाख से ज्यादा लोग मरे गए), उसमे हूतियों द्वारा नियंत्रित ‘रेडियो रवांडा’ और’ रेडियो टेलीविजन’ (Libre des Milles Collines) की महत्वपूर्ण भूमिका थी, जहां से ऐसे गाने प्रसारित किये जा रहे थे, जो बेहद भड़काऊ और ध्रुवीकरण करने वाले थे और जिसमें तुत्सियों को बेहद बुरे रूप में पेश किया जा रहा था।” (p-9, ‘H-POP’)

इसके अलावा www.kapot.in जैसी हिन्दुत्ववादी ई-कॉमर्स साईट पर ‘इस्लाम के दो चहरे’, ‘गोडसे की आवाज सुनो’, ‘गांधी के महिला मित्र’….जैसी नफरती किताबों को बेहद सस्ती दर पर लाखों की संख्या में लोगों को उपलब्ध कराया जा रहा है। मजेदार बात यह है कि kapot.in के मालिक संदीप देव ने मोदी के आत्मनिर्भर भारत के नारे से प्रभावित होकर इस ई-कॉमर्स वेबसाइट का गठन किया है। और सिर्फ इसी वेबसाइट से अपने प्रकाशन की किताबें बेचते हैं। संदीप देव अमेज़न और फ्लिप्कार्ट के बहिष्कार का नारा भी देते हैं।

इससे पहले भी यहां के लिबरल/प्रगतिशील लोगों ने ‘गीता प्रेस’ के साहित्य को नज़रअंदाज किया, जिसने लाखों-करोड़ों की संख्या में स्त्री-विरोधी, दलित विरोधी और मुस्लिम विरोधी साहित्य से समाज को कम से कम हिंदी समाज को पाट दिया। संसदीय वाम और तमाम कम्युनिस्ट ‘ग्रुपों’ से जुड़े बुद्धिजीवियों ने साम्राज्यवादी सांस्कृतिक आक्रमण को तो पहचाना लेकिन प्रतिक्रियावादी हिंदुत्व (ब्राहमणवादी) सांस्कृतिक हमले की तरफ से कमोवेश आंख मूंदे रहे। उत्तर-आधुनिक/सबाल्टर्न विचारकों (रंजीत गुहा, ज्ञान प्रकाश, पर्था चटर्जी, गायत्री स्पिवाक, होमी भाभा, आशीष नंदी आदि) ने तो ‘सांस्कृतिक सापेक्षतावाद’ (Cultural Relativism) के नाम पर प्रतिक्रियावादी हिन्दुत्ववादी संस्कृति की अपनी उलटबासी वाली भाषा में वकालत तक की है।

यही कारण है कि एडवर्ड शिल्स (Edward Shils) ने भारत के ‘मुख्यधारा’ के बुद्धिजिवियों में ‘इंटेलेक्चुअल सिजोफ्रेनिया’ को चिन्हित करते हुए लिखा है- ‘’Indian intellectuals were quite deeply rooted in the dominant Hindu worldview and traditions, including its more irrational and authoritarian elements like astrology, arranged marriages, and caste prejudices।” (Prophets Facing Backward by Meera Nanda, p-25)

आज भाजपा और आरएसएस के चौतरफा प्रसार के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण यह भी हैं। 

पूंजीवाद ने ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’ के लिए प्रेस और मास मीडिया के आने के पहले ही चित्रों (spectacle) का बखूबी इस्तेमाल किया है। जिसे फ्रेंच फिल्मकार और विचारक Guy Debord ने “a social relation between people that is mediated by images” की संज्ञा दी है। भारत में पिछले 10 सालों में टीवी, अखबार, सोशल मीडिया, और बड़ी बड़ी होर्डिंग्स के माध्यम से हिन्दू प्रतीकों का जिस बड़े पैमाने पर प्रसार हुआ है, उसने जनता के मानस पटल पर प्रतिक्रियावादी हिन्दुत्ववादी सांस्कृतिक हमले को और भी भयानक बना दिया है।

प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री की गंगा में डुबकी लगाते और मंदिरों में आरती करते हुए चित्रों का जब बच्चो-किशोरों के मष्तिष्क पर बड़े पैमाने पर हमला होता है तो वह हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा को संवैधानिक राष्ट्र के विरोध में नहीं देख पाता बल्कि उसे बेहद सहज और प्राकृतिक रूप में देखता है।

सार्वजानिक जीवन के चित्रों (spectacle) से मुस्लिम, दलित, गरीब को गायब करने का परिणाम यह हो रहा है कि हम एक ऐसे भारत को अपने अंदर आकार दे रहे हैं जो वास्तव में है ही नहीं। वह महज चित्रों और चलचित्रों में है। मुस्लिमों के अन्यीकरण (otherization) की प्रक्रिया का एक बड़ा कारण यह भी है। इस तरह Guy Debord से शब्द उधार लेकर कहें तो हिन्दुओं का मुस्लिमों के साथ रिश्ता अपनी स्वतंत्र पहलकदमी से नहीं बल्कि उपरोक्त चित्रों/चलचित्रों की मध्यस्थता में बन रहा है।

इसलिए मोदी/योगी व अन्य राजनीतिक व्यक्तित्वों को लगातार हिन्दू प्रतीकों के साथ दिखाना महज टीवी चैनलों की चाटुकारिता नहीं है, बल्कि बड़े पैमाने पर हिंदुत्व प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक हमले का एक सुनियोजित हिस्सा है। आगामी 22 जनवरी को जब अयोध्या में ‘राम की प्राण प्रतिष्ठा’ की जाएगी तो यह सांस्कृतिक हमला कई गुना और बढ़ जायेगा।

इसके साथ ही स्कूली पाठ्यक्रम में तेजी के साथ परिवर्तन करके इस सांस्कृतिक हमले को और भी पैना किया जा रहा है। इन पाठ्यक्रमों में टीपू सुल्तान और अकबर जैसी धर्मनिरपेक्ष व महान शख्सियतों के योगदान को नाकारा जा रहा है और उन्हें एक धर्मांध मुस्लिम शासक के रूप में चित्रित किया जा रहा है। हरियाणा बोर्ड की कक्षा 9 की सामाजिक विज्ञान की किताब में हेडगेवार/सावरकर को पढ़ाया जा रहा है और हेडगेवार/सावरकर को महान क्रांतिकारी साबित किया जा रहा है। इसके अलावा विद्यालय परिसर में सांस्कृतिक आयोजनों के नाम पर जिस तरह हिंदुत्व प्रतिक्रियावादी संस्कृति को बढ़ावा दिया जा रहा है, उसके प्रभाव में ये बच्चे बड़े होकर क्या बनेंगे, यह आसानी से समझा जा सकता है।

यहां इस बात को भी रेखांकित करने की जरूरत है कि प्रतिक्रियावादी फासीवादी संस्कृति अपने मूल में घोर पितृसत्तात्मकता होती है। इसलिए यह सांस्कृतिक हमला देश की महिलाओं को भी अपना निशाना बना रहा है। ‘लव-जेहाद’ जैसे कानून स्त्री की स्वतंत्र एजेंसी को कुचलने के लिए ही लाये गए हैं।

इस फ़ासीवादी दौर में भारतीय संस्कृति के नाम पर परिवार और मातृत्व का महिमागान किया जाता है। यह महज संयोग नहीं है कि हिटलर ने भी ऐलान किया था-“मेरे राज्य में माताएं सबसे महत्वपूर्ण नागरिक हैं।”

‘आरएसएस’ की शाखाओं में औरतें क्यों नहीं जाती है? इसका जवाब देते हुए आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता ने ‘इकोनामिक टाइम्स’ अखबार को बताया –“शाखा का समय ऐसा है कि यह औरतों को सूट नहीं करता।” इस पंक्ति को डिकोड करना मुश्किल नहीं है। सुबह के समय औरतें पूरे दिन की भारी गाड़ी को ठेलने के लिए कमर कस रही होती हैं। ऐसे में उनके पास सुबह 6 बजे शाखा जाने का समय कहां होगा। यानी अगर वे सुबह-सुबह शाखा में जाती हैं तो घरेलू काम कौन करेगा। शाखा में औरतों को न बुलाने का दूसरा जो कारण उन्होंने बताया वह यह था कि शाखा में जिस तरह कि शारीरिक मेहनत करवाई जाती है, औरतें उसके योग्य नहीं है। यानी औरतें स्वाभाविक रूप से कमज़ोर होती हैं। इससे औरतों के प्रति इन फ़ासीवादियों और साम्प्रदायिक लोगों के रुख का पता चलता है।

जर्मनी में नाजीवादियों का नारा था-”जमीन भोजन प्रदान करती है, औरतें जनसंख्या प्रदान करती हैं और मर्द कार्यवाही करते हैं।” भारतीय फासीवादी भी अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तहत यही स्थापित करते है।

भाजपा तमाम सरकारी संस्थाओं की स्वायत्तता को नष्ट करके उसे अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के एजेंडा के लिए इस्तेमाल कर रही है। भारत सरकार के शिक्षा/संस्कृति मंत्रालय के तहत आने वाली सभी संस्थाए भाजपा के एजेंडा पर काम करते हुए निरंतर ‘Hitler’s professors’ (Max Weinreich) पैदा कर रही हैं, जो इस सांस्कृतिक हमले को और भी पैना बना रही हैं। प्रोफेसर संगीत कुमार रागी, डॉ बद्रीनारायण, डॉ विक्रम संपथ (Dr Vikram Sampath) जैसे लोग ऐसे ही ‘प्रोफेसर्स’ हैं।

भाजपा /आरएसएस अपने राष्ट्रवाद को ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ कहती है। और तथाकथिक संस्कृति की इस आड़ में वह ‘ब्राहमणवादी सवर्ण वर्चस्व’ को स्थापित करने का प्रयास करती है। यह समझने की जरूरत है कि भाजपा/आरएसएस का भारतीय जनता पर यह सांस्कृतिक हमला साम्राज्यवादी संस्कृति के विरोध में नहीं बल्कि उसका साथ लेकर किया जा रहा है। बजरंग दल, श्री राम सेना जैसे आरएसएस के अनुषांगिक संगठन साम्राज्यवादी संस्कृति का तथाकथित विरोध उस ‘स्पेस’ पर कब्ज़ा करने के लिए करते हैं, जिस पर पहले कुछ हद तक लिबरल और प्रगतिशीलों का ‘कब्ज़ा’ था। यानी प्रतिक्रियावादी हिंदुत्व सांस्कृतिक हमले को साम्राज्यवादी सांस्कृतिक हमले से अलग करके देखना खतरनाक है। आज हम जिस सांस्कृतिक हमले का शिकार हो रहे हैं, वह इन दोनों का खतरनाक और जहरीला कॉकटेल है जो जनता की प्रतिरोधी चेतना को निरंतर कुंद करने का प्रयास कर रहा है।

भारत में इस वक़्त जो साम्राज्यवादी/हिन्दुत्ववादी प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक हमला हो रहा है वह समाज में पूर्वाग्रह, अमानवीकरण और हिंसा को बड़े पैमाने पर बढ़ा रहा है और इस प्रक्रिया में देश की सम्पदा और श्रम की साम्राज्यवादी लूट को और भी आसान बना रहा है।

लेकिन इतिहास की सीख यही है कि हर परिघटना अपने अंदर अपने विपरीत की संभावना लिए होती है। उपरोक्त परिघटना भी इसका अपवाद नहीं है। पिछले सालों में किसान आन्दोलन और CAA / NRC विरोधी आन्दोलनों ने दिखा दिया है कि इस प्रतिक्रियावादी सांस्कृतिक हमले का जवाब कैसे दिया जा सकता है। इसके अलावा माओवाद प्रभावित क्षेत्रों में नवजनवादी/समाजवादी संस्कृति के निर्माण द्वारा लगातार इसका माकूल जवाब दिया जा रहा है। यहां से भी हम बहुत कुछ सीख सकते हैं और इस साम्राज्यवादी/ हिन्दुत्ववादी सांस्कृतिक हमले का मुंहतोड़ जवाब दे सकते है।

(मनीष आजाद स्वतंत्र पत्रकार हैं।) 

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Sushil sharma
Sushil sharma
Guest
2 months ago

बहुत ही महत्वपूर्ण आलेख l
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