लोकतंत्र की मूल भावना के निषेध पर निर्मित हुई है संघ-भाजपा की आंतरिक संरचना

स्वतंत्रता दिवस भारत के करोड़ों नागरिकों के बलिदान, संघर्ष, जिजीविषा और गुलामी से मुक्त भारत के सपनों को साकार होने और आजाद भारत के निर्माण के सर्वोच्च आध्यात्मिक आकांक्षा का प्रतीक है। अब तक के ज्ञात भारतीय इतिहास का महानतम संग्राम हमारा स्वतंत्रता संघर्ष है। भारत के सभी धर्मों, वर्गों, विचारों, नस्लों, भाषाओं और क्षेत्रों के नागरिकों के एकजुट संघर्षों के तार्किक प्रतिफल के रूप में हमें आजाद भारत मिला। बनते-उभरते, टेढ़े-मेढ़े उतार-चढ़ाव वाले रास्ते से आगे बढ़ते सार्वभौम धर्मनिरपेक्ष संघात्मक लोकतांत्रिक भारत का प्रतिनिधित्व 15 अगस्त करता है। जो सभी पैमाने से लोकतांत्रिक संस्थाओं-व्यवहारों वाले सशक्त एकताबद्ध राष्ट्र और नागरिक निर्माण के कठिन यात्रा पर आगे बढ़ रहा है। स्वतंत्रता के 75 वें सोपान तक की ‌यह राह सरल सपाट सीधी नहीं थी। इसमें अनेक प्रकार के मोड़ उतार-चढ़ाव और संकट के समय आए हैं। अंधकार भरे दौर से गुजरते हुए हमारी स्वतंत्रता की यात्रा लगातार गतिशील रही है। लेकिन 2014 तक आते-आते लोकतांत्रिक भारत की यात्रा पटरी से उतर गई।

आज हमारे लोकतंत्र और आजादी के समक्ष स्वतंत्र भारत के इतिहास का सबसे कठिन और जटिल संकट आ खड़ा हुआ है। अगस्त 1947 के समय आजादी के पूर्व मुल्क में विभाजन के जख्म और घाव बहुत तेजी से फैलते जा रहे थे और स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान बनी एकता टूट चुकी थी। हमारा विखंडित देश ऐसे दो राहे पर खड़ा था जहां से आजादी के दौर में निर्मित मूल्यों के विलोप की संभावना प्रबल हो उठी थी। हम भौगोलिक ही नहीं सामाजिक विघटन के मुहाने पर खड़े थे।

विभाजन की पृष्ठभूमि में यह सवाल बहुत तेजी से उठा कि भावी भारत को कैसा राष्ट्र होना चाहिए। धर्म आधारित या आधुनिक लोकतांत्रिक देश। वे ताकतें जो अंग्रेजों के साथ खड़ी थीं। वे भारत को धर्म आधारित राष्ट्र बनाना चाहती थीं। स्वतंत्रता आंदोलन से विरत रहने के कारण वे बदनाम होकर हाशिए पर चली गई थी। लेकिन विभाजन ने उनको नया जीवनदान दे दिया। उस समय भारत की सामाजिक जमीन सामंती वर्ण जाति विभाजित चेतना और औपनिवेशिक मूल्यों पर टिकी थी।

उस समय वातावरण नौसेना के विद्रोह, आजाद हिंद फौज के कैदियों पर चल रहे राष्ट्रद्रोह के मुकदमे के खिलाफ फूटे राष्ट्रव्यापी आंदोलन और मजदूरों-किसानों के तूफानी संघर्षों की उठ रही लहरों से तेजी से बदल रहा था। इन सभी संघर्षों की संयुक्त आकांक्षा स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक संप्रभु भारत के निर्माण की चेतना से संचालित थी।

भारत का मेहनतकश वर्ग, आजादी के संघर्ष में शामिल सामाजिक राजनीतिक शक्तियां नये भारतके निर्माण के लिए संघर्षरत और कटिबद्ध थीं। विभाजन के दुखद समय का फायदा उठाते हुए राजशाही सामंती और अंग्रेज परस्त ताकतें वातावरण को जहरीली बनाने में जुटी हुई थी।

हम आजादी की जंग तो जीत चुके थे। लेकिन सामाजिक जमीन को लोकतांत्रिक और आधुनिक जीवन मूल्यों के लिए उर्वर बनाने का काम अधूरा था। जिस पर एक सुदृढ़ लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की पुख्ता नींव रखी जा सके।

हालांकि आजादी के संघर्ष में चले तीखे वैचारिक संघर्ष से एक मजबूत लोकतांत्रिक और आधुनिक विचारों वाला नेतृत्व स्वतंत्रता संघर्ष की मुख्यधारा का नेतृत्व कर रहा था। जिस कारण नेहरू जी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों के नेतृत्व में मजदूर, किसान, छात्र-नौजवानों के आंदोलन से हजारों नेता-कार्यकर्ता और करोड़ों की संख्या में ऐसे भारतीय जनगण तैयार हो चुके थे जो समानता स्वतंत्रता और बंधुत्व के आधार पर भारत में लोकतंत्र की रचना करने के लिए कटिबद्ध थे।

इसलिए स्वतंत्रता आंदोलन से अलग रहने वाले और अंग्रेजों की सेवा में भक्ति भाव से तल्लीन उनके सहयोगी राजे-रजवाड़े और हिंदू महासभा जैसे संगठन भारत में संविधान सभा के निर्माण की प्रक्रिया को रोक नहीं सके।

1947-48 के दौरान संघ के मुख पत्र ऑर्गेनाइजर, गीता प्रेस से निकलने वाली पत्रिकाएं और किताबें तथा करपात्री जी जैसे कथित संतों के द्वारा कही गई बातों पर आप गौर करें तो वह संविधान निर्माण के सख्त विरोधी थे। उनका कहना था कि हमारे पास मनुस्मृति जैसा एक महानग्रंथ पहले से ही मौजूद है। इसलिए यूरोपीय जीवन मूल्य पर आधारित लोकतंत्र भारत की सभ्यता संस्कृति और इतिहास की धारावाहिकता को अभिव्यक्त नहीं करेगा। इस आधार पर उस समय उन्होंने संविधान को अस्वीकार कर दिया था।

भारत से अलग हुए पाकिस्तान के साथ बेहतर रिश्ते बनाने के गांधी जी के विचार का प्रबल विरोध करते हुए इन्हीं ताकतों ने गांधी जी की हत्या कर दी। जबकि भारत के विभाजित हो जाने के बावजूद दोनों देशों को आपसी भाईचारे और सहोदर भाई के रूप में शांतिपूर्ण ढंग से रहना भारतीय उपमहाद्वीप के अमन-चैन लोकतंत्र और विकास के लिए आवश्यक शर्त थी।

चूंकि सांप्रदायिक विघटनकारी और साम्राज्यवादी ताकतें भारत और पाकिस्तान के धार्मिक आधार के महाविभाजन पर ही जिंदा रह सकती थी। इसलिए कांग्रेस के अंदर और बाहर के हिंदुत्ववादी और पाकिस्तान की फिरकापरस्त इस्लामिक कट्टरपंथी राजनीतिक ताकतें दोनों मुल्कों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों का कटृर विरोध थी। जिस कारण ऐसा नहीं हो सका।

भारतीय उपमहाद्वीप के देशों में कट्टरपंथी राजनीतिक ताकतों के वजूद की बुनियादी शर्त है कि उपमहाद्वीप में मजहबी महा विभाजन जिंदा रखा जाए। इसलिए उन्होंने हर समय हर तरह से विभाजन की खाईं को चौड़ा करने का प्रयास किया। इन निहित स्वार्थी तत्वों ने एक दूसरे के वजूद को नकारते हुए अपने-अपने मुल्कों में धार्मिक राष्ट्रवाद को मजबूत किया और स्वतंत्रता आंदोलन से उपजी साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद की चेतना को कुंद और प्रदूषित करने का हर संभव प्रयास किया। जिसका दुष्परिणाम भारतीय उपमहाद्वीप के सभी देश भोग रहे हैं।

बाद में डॉक्टर राममनोहर लोहिया और मार्क्सवादी लेनिनवादी नेता कामरेड विनोद मिश्र ने भारतीय उपमहाद्वीप में नफरत और सांप्रदायिकता के जहर को समाप्त करने, आपसी शत्रुता को खत्म कर साझा हितों के साथ विकास यात्रा को आगे बढ़ाने के लिए और भारतीय उप महाद्वीप में शांति कायम करने के लिए यहां के सभी देशों का “महासंघ” बनाने का आह्वान किया था। खैर इस सवाल को यहीं छोड़ते हैं।

1946, 47, 48 के विनाशकारी दौर का दबाव भारतीय नेताओं पर था कि भारत को धर्म आधारित राष्ट्र बना दिया जाना चाहिए। लेकिन आजादी के संघर्ष से भारतीय नागरिकों में आधुनिकता बोध और वैज्ञानिक चेतना ने जगह बना ली थी और साम्राज्यवाद विरोधी चेतना इतनी प्रबल थी कि भारत ने धर्म आधारित राष्ट्र होने से इनकार कर दिया। यही कारण है कि तत्कालीन स्वतंत्रता संघर्ष के नायकों को इस संकट पर विजय पाने में सफलता मिली। उन्होंने संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष संघात्मक गणतांत्रिक भारत के रूप में यात्रा शुरू करने का फैसला लिया।

उस समय आधुनिक विचारों, लोकतांत्रिक मूल्यों तथा समाजवादी क्रांतियां के उठते झंझावातों के वैश्विक परिवेश के कारण भारत में दकियानूसी पिछड़े विचारों वाली ताकतें कुछ समय के लिए पीछे हट गईं। भारत संविधान सभा का चुनाव कर संविधान बनाने में सफल हो गया। जो 26 जनवरी, 1950 को लागू हो गया। जिस कारण हिंदुत्ववादियों को लंबे समय तक इंतजार करना पड़ा।

1990 के बाद बदले हुए वैश्विक परिस्थितियों में वह फिर आक्रामक हो गई। अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में संचालित उदारीकरण वैश्वीकरण और निजी करण की आर्थिक नीतियों में इन शक्तियों को पुनर्जीवित होने का अवसर प्रदान किया। उन्होंने धर्म जाति के विभाजन को तेज करके नरसंहार और विध्वंस के रास्ते भारत की सत्ता पर कब्जा कर लिया।

चूंकि संघ और भाजपा की आंतरिक संरचना लोकतंत्र की मूल भावना के निषेध पर निर्मित हुई है। इसलिए जहां मोदी सरकार ने पिछले वर्षों से स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर घर-घर तिरंगा लगने का इवेंट खडा किया। वहीं मोदी ने 14 अगस्त को भारत विभाजन विभीषिका दिवस मानते हुए विभाजन की लकीर को और चौड़ा करने का अभियान शुरू किया है। यानी उन्माद इवेंट और पाखंड के सम्मिश्रण से भारत के स्वतंत्रता आंदोलन और 15 अगस्त की बुनियादी उपलब्धियां को दरकिनार करते हुए पड़ोसी मुल्कों के साथ नफरत और युद्धोन्माद का वातावरण बनाने का प्रयास किया गया।

इस पाखंड का लक्ष्य सीमा के बाहर की तुलना में आंतरिक तौर पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ केंद्रित है। इतिहास और अतीत के जख्मों को कुरेदते हुए यह सरकार वर्तमान में भारतीय लोकतंत्र और आजादी के लिए पैदा किए गए खतरों से जनता का ध्यान भटकाना चाहती है। यह एक ऐसा‌ षड्यंत्र है जो वर्तमान में लोकतांत्रिक संस्थाओं, आजादी और नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर हो रहे हमले से पैदा हुई गंभीर चुनौती से हमारे मस्तिष्क जगत को दूर ले जाता है। इसलिए 2023 में स्वतंत्र भारत की एकता के समक्ष खड़े कुछ जटिल सवालों पर चर्चा करना जरूरी हो जाता है।

लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर मड़राता संकट-भारत ही नहीं दुनिया भर में यह सवाल उठ रहा है कि भारत में लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर की जा रही हैं। उन पर हमले जारी हैं। चुनावी तानाशाही एक तरफ भारत बढ़ रहा है। नागरिकों के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार हो रहा है। धार्मिक अल्पसंख्यकों पर राज्य प्रायोजित लंपट गिरोहों के हमले हो रहे हैं। बीजेपी सरकारें इन लंपट तत्वों को सुरक्षा देने में लगी हैं।

प्रेस की स्वतंत्रता लगभग खत्म हो चुकी है। राष्ट्रीय मीडिया सरकार और संघ प्रायोजित नफरती एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगा है। स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारों पर हमले जारी हैं। उनको नौकरियों से निकालने से लेकर राष्ट्रद्रोह तक के अभियोग से गुजरना पड़ रहा हैं। भाजपा और संघ से असहमत विचारों वाले नागरिकों का तरह-तरह से लंपट गिरोहों और सत्ता द्वारा उत्पीड़न किया जा रहा है।

जांच एजेंसियों सीबीआई, ईडी, आईटी, पुलिस जैसी संस्थाओं को विपक्षियों को परेशान करने उत्पीड़ित करने के लिए लगा दिया गया है। इनका इस्तेमाल कर विपक्ष की सरकार गिराने, सांसदों विधायकों की खरीद फरोख्त करने और विपक्ष को तोड़ने का काम किया जा रहा हैं। हिंदुत्व और मोदी के प्रति प्रतिबद्ध नौकरशाही का काकस खड़ा कर दिया गया है। जो सरकार के सभी गैरकानूनी कामों को व्यावहारिक धरातल पर उतरने में सभी संवैधानिक और कानूनी मान्यताओं को ताक पर रखकर काम कर रही है। इसी संदर्भ में हम बुलडोजर जैसी गैर कानूनी कार्रवाई को महिमा मंडित करते हुए देख सकते हैं।

महिलाओं, कमजोर वर्गों और अल्पसंख्यकों की जिंदगी असुरक्षित है। अब तो उच्च वर्गीय महिलाएं जैसे महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न का दर्द कोई सुनने वाला नहीं है और उन्हें सत्ता का दमन झेलना पड़ रहा है।

सड़क पर समानांतर सत्ता विहिप और बजरंग दल प्रशिक्षित लंपट गिरोह ने कायम कर ली है। जो नाजी युग की याद दिला रही है। हिंदू धर्म के देवी-देवताओं महापुरुषों के जन्मदिवस को शक्ति प्रदर्शन और दंगाई अभियान में बदल दिया गया है। धार्मिक आयोजनों के नाम पर इन लंपट गिरोहों के कारनामों को सरकार द्वारा खुली छूट मिली हुई है।

मणिपुर की घटना-एक बार फिर 1947 का मंजर दिखाई देने लगा है। जब भारत का विभाजन हुआ था। मोदी सरकार ने 9 वर्ष में भारत की एकता अखंडता और नागरिकों के बीच में विभाजन की जो खाई पैदा की है। वह अपने सबसे भयानक चेहरे के साथ मणिपुर में दिखाई दे रही है। पूरा राज्य पहाड़ी और घाटी के बीच में विभाजित हो गया है। ऐसा लगता है कि हम 1947 के भारत विभाजन के अंधकार युग के दरवाजे पर खड़े हैं। महाराष्ट्र, गुजरात, बिहार, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश के बाद अब हरियाणा का मेवात (नूंह, गोहाना, गुरुग्राम, फरीदाबाद आदि) इसका गवाह है।

लोकसभा का मानसून सत्र -21 दिन चले लोकसभा के मानसून सत्र में 31 नए विधेयक लाए गए। कई विधेयक कानून बन गये हैं। इस मानसून सत्र को भारत के कार्पोरेटीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं के विध्वंस के लिए जाना जाएगा। वन संरक्षण विधेयक, चुनाव आयुक्तों के चुनाव की प्रक्रिया से सुप्रीम कोर्ट को बाहर करना, न्यायालय के फैसले को पलटकर दिल्ली राज्य के अस्तित्व को समाप्त करना एक बानगी भर है।

शब्दों की बाजीगरी और जनता को न्याय सुलभ कराने और ब्रिटिश कालीन औपनिवेशिक अवशेषों को खत्म करने के नाम पर सीआरपीसी, आईपीसी और भारतीय साक्ष्य अधिनियम में हुए बदलाव न्यायिक प्रक्रिया में सरकार और पुलिस के हस्तक्षेप को मजबूत करेगा। जनता को सरल निष्पक्ष न्याय और नागरिक के लोकतांत्रिक अधिकारों को ये संशोधन ध्वस्त करने की तरफ ले गया है।

हम संघनीत मोदी सरकार के अमृत काल के पाखंड के समय भारत के लोकतांत्रिक संस्थाओं, नागरिक अधिकारों को कमजोर करने वाले कानूनों के संसद में पारित होते हुए देख रहे हैं। यह सब आजादी के 76 वें वर्ष में हो रहा हैं। संविधान की लोक कल्याणकारी आत्मा की हत्या की जा चुकी है।

आने वाले लंबे समय तक लोकसभा के मानसून सत्र 2023 में हुए कानूनी बदलाव पर बहसें होगी और उसके दूरगामी प्रभाव भारतीय लोकतंत्र को झेलना पड़ेगा। संविधानविदों से लेकर मानवाधिकार संगठनों, जल जंगल जमीन और पर्यावरण की रक्षा के लिए काम करने वाली संस्थाओं ने मानसून सत्र के दौरान पारित कानूनों को लेकर गंभीर चिंताएं व्यक्त की हैं।

संवैधानिक गणतंत्र का आखरी काल- नई संसद में जब सिंगोल राज दंड को स्थापित किया गया था। तभी यह संदेश दे दिया गया था कि भारत का लोकतंत्र किस दिशा में जा रहा है। 76 वें स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री के संबोधन की बदली हुई भाषा पर अवश्य गौर करना चाहिए। प्रधानमंत्री ने इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से भारत के नागरिकों को संबोधित नहीं किया।

लोकतंत्र की बुनियादी इकाई नागरिक होते हैं। नागरिक की जगह उन्होंने अपने परिवारजनों को संबोधित किया। राजा ही अपनी प्रजा को अपना परिवार कहता रहा है। यह सामंती राजशाही व्यवस्था की भाषा है। जहां पहुंच कर बराबरी, समानता और बंधुत्व की विचारधारा खत्म हो जाती है। प्रधानमंत्री ने स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष को (जिसे वे अमृत काल कहते हैं) चुनावी तानाशाही में बदलने के लिए इस्तेमाल किया।

प्रधानमंत्री ने लाल किले से घोषणा की कि अमृत काल कर्तव्य काल है। इसलिए लोकतांत्रिक अधिकार और उसकी गारंटी देने वाली संस्थाओं की जरूरत नहीं है। वह अतीत की वस्तु बन चुकी है। भारत में लोकतंत्र के खत्म होने की अप्रत्यक्ष घोषणा कर दी गई है। इसलिए अमृत काल के दरमियान ही लोकतंत्र की लड़ाई नई मंजिल में प्रवेश कर गई है। लोकसभा के मानसून सत्र से शुरू हुआ खतरनाक खेल लाल किले की प्राचीर तक पहुंचते-पहुंचते भारत के लोकतंत्र के खात्मे की आखिरी इबारत लिख गया।

अंत में 1947 के सबसे कठिन दौर में भारत के जन गण और भारतीय राष्ट्र राज्य के समक्ष जितने सवाल थे, जितनी चिंताएं थी, जितने खतरे थे और जो जिम्मेदारी थी। वे मोदी राज में सबसे खतरनाक रूप में वापस लौट आए हैं। राष्ट्र की एकता सामाजिक टकराव विघटन लोकतांत्रिक संस्थाओं का अप्रासंगिक होते जाना और नागरिक अधिकारों के खात्मे के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले से भारत के लोकतंत्र के भविष्य की घोषणा कर दी है। अब गेंद भारत के जनगण के पाले में है। यह उन पर निर्भर करता है कि स्वतंत्रता संघर्ष की अपनी गौरवशाली परंपराओं को पुनर्जीवित करने के साथ भारत की दूसरी आजादी की लड़ाई और भारत निर्माण की चुनौती वे कैसे स्वीकार करते है।

भारतीय का जन गण जिस तरह से इन घटनाओं में तेजी से शिक्षित हो रहा है। संगठित हो रहा है और सरकार के खिलाफ प्रतिरोध में सड़कों पर उतर रहा है। उसी में उम्मीद बाकी है।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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