फिलिस्तीन में बच्चों की हत्या आधुनिक सभ्यता का सबसे गहरा संकट

फिलिस्तीन-इजराइल संघर्ष का फिलहाल जारी मंजर ब्रेख्त के महाकाव्यात्मक रंगमंच (एपिक थिएटर) की तरह लगता है, जहां दुनिया-भर में फैली जगहों (लोकेशंस) पर मानव-क्रूरता और मानव-करुणा की कशमकश (टसल) मंचित हो रही है। इस महाकाव्यात्मक मंजर में साफ देखा और समझा जा सकता है कि क्रूरता की बड़ी-छोटी मीनारें चौतरफा सिर उठाए खड़ी हैं। लेकिन करुणा के छींटे, छोटे ही सही, भी चौतरफा फैले हैं।

बच्चों की निर्द्वंद्व हत्याएं शायद मानव-क्रूरता का निकृष्टतम रूप है। 7 अक्तूबर को इजराइल के दक्षिणी इलाके में हमास द्वारा और उसके बाद से फिलिस्तीन की गाजा पट्टी में हजारों बेकसूर बच्चों की हत्याएं नेताओं, राजनयिकों, पत्रकारों और सरोकारी नागरिकों के बीच चर्चा/बहस का विषय बनी हुई हैं। लेकिन संघर्ष की एक महीने से ज्यादा अवधि बीत जाने के बावजूद बच्चों की हत्याओं में कोई कसर नहीं हो रही है। 41 किमी लंबे, 6 से 12 किमी चौड़े, कुल 365 वर्ग किमी क्षेत्र में बसे गाजा में एक महीने में करीब 6000 बच्चों के मारे जाने की घटना युद्धों के इतिहास में शायद पहली है। आइए इस मर्मांतक प्रकरण पर थोड़ा विचार करें।  

हमास के इजराइल पर 7 अक्तूबर के हमले के बाद से गाजा पट्टी में करीब 6000 बच्चों की मौत हो चुकी है। बड़ी तादाद में बच्चे मलबे के नीचे दबे बताए जा रहे हैं। इसके पहले हमास के हमले में करीब 30 बच्चों की हत्या हुई, करीब दो दर्जन बच्चे यतीम हुए और करीब 35 बच्चे बंधक बनाए गए। कल लेबनन में भी इजराइली हमले में 3 बच्चों के मारे जाने की खबर है। हमास के हमले में मारे जाने वाले बच्चों पर इजराइल से लेकर अमेरिका-यूरोप तक काफी प्रोपेगण्डा राजनीति हो चुकी है।

उदाहरण के लिए हमास के आतंकियों द्वारा 7 अक्तूबर के हमले में बच्चों का सिर काटने की खबर इजराइली मीडिया में चलाई गई थी। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी उसे दोहराया था। हालांकि, वह खबर झूठी निकली। इजराइल के विदेश मंत्री ने नाटो की बैठक में हमास के हमले में क्रूरतापूर्वक मारे गए बच्चों के विडियो और तस्वीरें दिखाईं। क्रूरता का यह भी एक पहलू है कि बच्चों की हत्याओं पर राजनीति हो रही है ताकि बच्चों की हत्या का औचित्य प्रतिपादित किया जा सके और जनमत को अपने पक्ष में किया जा सके। दूसरी तरफ करुणा से परिचालित लोग यह सब देख कर विचलित हैं।

क्रूरता और करुणा की इस कशमकश में करुणा का पक्ष किस कदर कमजोर है, यह इसीसे से पता चलता है कि अभी तक युद्ध-विराम पर सहमति नहीं बन पाई है। 9 नवंबर को अलबत्ता व्हाइट हाउस के हवाले से खबर आई है कि गाजा में दिन में 4 घंटे का सैन्य विराम (मिलिटरी पॉज़) रहेगा, ताकि उत्तरी इलाके से लोग दक्षिणी इलाके में जा सकें और मानवीय सहायता पहुंचाई जा सके। हालांकि, इस बीच हमास के खिलाफ इजराइली सेना की कार्रवाई जारी रहेगी।   

यूं तो हर जीवन कीमती और सर्वथा सेव्य होता है, लेकिन बच्चों की हत्या सीधे कुदरत के प्रति अपराध है। बच्चे ही आगे चल कर बड़े बनते हैं; और भले-बुरे भी। एक जीवन को फलीभूत होने से पहले ही मिटा देना किसी तर्क से वाजिब नहीं ठहराया जा सकता। न हमास द्वारा की गईं बच्चों की हत्याओं को, न उनके बदले इजराइल द्वारा जारी हत्याओं को। युद्ध को एक महीने से ऊपर हो चुका है। इजराइली सत्ता और सैन्य प्रतिष्ठान बच्चों की हत्याओं को अभी तक सही ठहरा रहे हैं।

जमीनी हमले के बाद गाजा में प्रवेश कर चुके उसके सैनिक कह रहे हैं कि यहां (गाजा में) जो भी है, हमारा शत्रु है। (अभी तक मारे जा चुके संयुक्त राष्ट्र के करीब सौ कर्मचारी भी इजराइल के शत्रुओं की श्रेणी में आते हैं।) इजराइल का जो तर्क वयस्क नागरिकों के लिए है, वही बच्चों के लिए भी है-कि बच्चे हमास की “ह्यूमन शील्ड” बने हुए हैं।

हैरत में डालने वाली बात यह है कि इजराइल का यह सब करते हुए कहना है कि “उसकी सेना दुनिया की सर्वाधिक नैतिक सेना है।” साथ ही उसका कहना है कि इस युद्ध में वह “अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के उच्चतम आदर्शों का पालन कर रहा है।” आत्मश्लाघा का यह दंभ उसमें कहां से आता  है, इसकी पड़ताल की जरूरत है? इस लेख में उसका अवसर नहीं है।

इजराइल और अमेरिका के समर्थक देश किंचित किंतु-परंतु के साथ उनके समर्थन में एकजुट हैं। उनमें से कोई विचार-विमर्श की मेज पर मुक्का मार कर नहीं पूछता है कि 6000 बच्चों की हत्या करने वाला सैन्य नीति-शास्त्र और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का उच्चतम आदर्श संयुक्त राष्ट्र के निर्धारित मानदंडों के बाहर इजराइल ने कहां से हासिल किया है?

दुनिया के अपेक्षाकृत तटस्थ और शांतिप्रिय माने जाने वाले देशों का भी बच्चों की लगातार जारी हत्याओं पर निर्णायक स्टेंड नहीं है। गांधी का देश संयुक्त राष्ट्र में यह नहीं कह पाया कि हमास को निपटाने से पहले बच्चों को बचाना जरूरी है! दरअसल, न हमास खत्म होगा न इजराइल; आगे की हमास की आतंकी कार्रवाइयों और इजराइल की सैन्य कार्रवाइयों में खत्म बच्चों समेत निर्दोष नागरिकों को ही होना है।

बड़ी शक्तियों में रूस, चीन, ईरान और टर्की जैसे अमेरिका-विरोधी देश क्रूरता के विरोधी नहीं हैं। बच्चों के प्रति क्रूरता के भी नहीं। उनसे बच्चों की हत्याओं का वास्ता देकर करुणा के पक्ष में अपील करना निरर्थक है। नागरिक अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं को लेकर उनके अपने देशों के रिकार्ड छिपे नहीं हैं। निर्धारित अंतर्राष्ट्रीय नियम-कानूनों को लेकर उनका रवैया भी इजराइल और दूसरे शक्तिशाली देशों जैसा रहता है।        

ध्यान देने की बात है कि क्रूरता का फैलाव केवल इजराइल और उसके समर्थक देशों तक सीमित नहीं हैं। हमास के समर्थक संगठन और देश युद्ध-विराम के लिए गाजा में बच्चों की हत्याओं की दुहाई देते हैं। लेकिन ऐसा वे सच्चे सरोकार के चलते नहीं करते। जैसे इजराइल को फिलिस्तीनी बच्चों को लेकर पीड़ा नहीं होती, वैसे ही हमास समर्थकों को इजराइली बच्चों की हत्याओं पर अफसोस नहीं होता। हमास के समर्थकों में हिजबुल्ला का काफी नाम लिया जाता है। 

हिजबुल्ला के चीफ हसन नसरल्ला करीब एक महीने तक हमास के हमले और इजराइल के युद्ध पर कुछ नहीं बोले। अपने 3 नवंबर के एक घंटा बीस मिनट के बहु-प्रचारित बयान में उन्होंने हमास के 7 अक्तूबर के हमले को “वीरतापूर्ण, महान और शानदार” (हिरोइक, ग्रेट एण्ड ग्रेंड) बताया। हमास के हमले में मारे गए “तथाकथित निर्दोष नागरिकों” (बच्चों समेत) की हत्याओं को उन्होंने “आवेश, पगलपान और भ्रम” (फ्युरी, इनसेनिटी एण्ड कन्फ़्युजन) में कार्रवाई करने वाली इजराइली सेना की करतूत” करार दिया। उन्होंने गाजा में बच्चों की हत्याओं पर कहा कि बच्चे शहादत दे रहे हैं; और उन्हें सीधे जन्नत मिलेगी।

कुल मिला कर उनका संदेश था कि गाजा में बच्चे इस्लाम की बलिवेदी पर शहीद हो रहे हैं; इसलिए विचलित होने का कोई कारण नहीं है। नसरल्ला के स्वर में स्वर मिलते हुए हिजबुल्ला के डिप्टी चीफ नईम कासिम ने एक  बयान में कहा कि गाजा में बच्चों की हत्याएं सभी फिलिस्तीनियों को एकजुट करेंगी। यानि सभी फिलिस्तीनी हमास के पीछे एकजुट होंगे; फिलिस्तीन की स्वतंत्रता के लिए नहीं, इस्लाम की बुलंदी के लिए!

नसरल्ला ने सभी अरब मुसलमानों को आगाह किया है कि इजराइल उनके लिए “क्रूर (ब्रूटल) और खूनी (मर्डरस) उपस्थिति है।” उसके अस्तित्व को हमेशा के लिए मिटा देने का अभियान 7 अक्तूबर को शुरू हो चुका है। उनके ये सब कथन जिओनवादी इजराइली नेताओं, सैन्य अधिकारियों और नागरिकों के कथनों से मिलते-जुलते हैं। दोनों पक्षों के लिए धर्म और नस्ल मानव गरिमा और स्वतंत्रता से बड़े हैं। हालांकि, नसरल्ला द्वारा इजराइल के खिलाफ तत्काल युद्ध की घोषणा नहीं करने पर नाराज लोगों ने टीवी पर उनकी तस्वीर पर जूते फेंके। नसरल्ला को फिर बयान देकर इजराइल और अमेरिका को युद्ध की कड़ी धमकी देनी पड़ी।

वेस्ट बैंक में रहने वाले फिलिस्तीनी नेशनल इनिशिएटिव के महासचिव और फिलिस्तीन विधानसभा के सदस्य मुस्तफा बरगुती पेशे से मेडिकल डॉक्टर हैं। वे अहिंसा में विश्वास रखते हैं। मौजूदा प्रकरण पर संभवत: उन्होंने प्रेस को सबसे ज्यादा साक्षात्कार दिए हैं। वे हमास के 7 अक्तूबर के हमले को अकेली और अलग घटना मान कर बात करने को तैयार नहीं होते। उनका आग्रह होता कि 7 अक्तूबर के हमले को इजराइल के 75 सालों से जारी एक से बढ़ कर एक धतकर्मों  की प्रतिक्रिया के रूप में, यानि पूरा संदर्भ ध्यान में रख कर देखा जाना चाहिए।

उनका मानना है कि फिलिस्तीनी इजराइल की तरफ से चलाए जा रहे “नरसंहार, सामूहिक सजा और नस्लीय सफाए” का सामना कर रहे हैं; जब तक फिलिस्तीनियों को दमित और इजराइल को दमनकारी नहीं समझा जाता, तब तक मसले का सही परिप्रेक्ष्य सामने नहीं आ सकता। स्काइ न्यूज चैनल को दिया गया उनका साक्षात्कार मुख्यत: बच्चों की हत्याओं पर केंद्रित है। बरगुती गाजा में जारी बाल-हत्याओं में अमेरिका की मिलीभगत ही नहीं, सीधे भागीदार मानते हैं। इजराइली जिऑनवाद को सारी समस्या की जड़ मानने वाले बरगुती इजराइल और गाजा में होनी वाली बच्चों की हत्याओं में हमास की संलिप्तता को लेकर कुछ नहीं कहते!

कम से कम सत्ता-प्रतिष्ठानों का व्यवहार देख कर यही लगता है कि क्रूरता ने मानव-सभ्यता पर मजबूत कब्जा जमा लिया है। बच्चे मारे जाकर तो क्रूरता का शिकार बनते ही हैं, जीवित रहने पर भी उनका जीवन क्रूरता के हाथों का खिलौना बन कर रह जाता है। आधुनिक सभ्यता का यह शायद सबसे गहरा संकट है। लेकिन करुणा कभी पूरी तरह मनुष्य को छोड़ कर नहीं जाती।

दुनिया के कई देशों में बच्चों की हत्याओं से विचलित सरोकारी नागरिकों के स्वत:स्फूर्त आंदोलन हो रहे हैं। दुनिया-भर के असंख्य नागरिक उनके साथ हैं। ऐसे नागरिक, जो बच्चों की हत्याओं-चाहे वे यूक्रेन में हों, इजराइल में हों, गाजा में हों या दुनिया के किसी अन्य कोने में-को धर्म या नस्ल के चश्मे से नहीं देखते। बल्कि मानव करुणा की दृष्टि से देखते हैं। करुणा-मानवता के लिए करुणा- का यह सच्चा स्रोत है, जिसे हमेशा बने रहना है।

(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं।)

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