एकमात्र भाषा जिसे इजराइल समझता है

मेरे इस लेख का शीर्षक, भले ही उत्तेजनापूर्ण प्रतीत हो, नाथन थ्रॉल की इस विषय पर एक शानदार पुस्तक का शीर्षक यही है : ‘द ओनली लैंग्वेज दे अंडरस्टैंड’

अपनी किताब में थ्रॉल ने दिखाया है कि अतीत में भी हमेशा कूटनीतिक और सैन्य दबाव से मजबूर होकर ही इजराइल बातचीत के लिए तैयार होता रहा है। हलांकि इसके बावजूद इन सभी वार्ताओं में फ़िलिस्तीनियों को नुकसान ही उठाना पड़ा है। उन्हें सदैव धोखे, पराजय और निराशा का सामना करना पड़ा है।

फ़िलिस्तीनियों के प्रतिरोध का ताज़ा उभार और कुछ नहीं बल्कि इस दबे हुए गुस्से का ही प्रतिबिंब है। मैं प्रतिरोध शब्द पर इसलिए जोर देता हूं क्योंकि मुख्यधारा की भारतीय मीडिया की यह गुस्ताखी है, कि वह इसे ‘आतंकवाद’ कहती रहती है।

दरअसल आतंकवाद की वैश्विक स्तर पर कोई स्वीकृत परिभाषा नहीं है। अक्सर ‘एक व्यक्ति का आतंकवादी दूसरे व्यक्ति का क्रांतिकारी होता है।’ फिलहाल हम आतंकवाद और इसकी आधुनिक अभिव्यक्ति के बारे में प्रोफेसर बेन्नो टेस्के की समझ का अनुसरण कर सकते हैं।

टेस्के का तर्क है कि एक घटना के रूप में आधुनिक आतंकवाद अनौपचारिक साम्राज्यों के दौर की परिघटना है। वे लिखते हैं, “आतंकवाद साम्राज्य-विरोधी संघर्ष का सबसे प्रभावी रूप बन जाता है। एक ऐसे ताक़तवर दुश्मन के खिलाफ रणनीतिक-सामरिक रचनात्मकता का एक नया रूप, जिसकी सत्ता की नसों में पूंजी प्रवाहित होती है, और जो लंबी दूरी की सैन्य-तकनीकी निगरानी और नियंत्रण में सक्षम होता है। अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित क्षेत्र में साम्राज्यवादी सत्ता की भौतिक अनुपस्थिति को देखते हुए, आतंकवादियों को उसके असैनिक ठिकानों को निशाना बनाना पड़ता है।”

प्रत्यक्ष साम्राज्यों के दौर में, सशस्त्र विरोध की कार्रवाई ‘गुरिल्ला युद्ध’ का एक रूप होता है। जहां दुश्मन भौतिक रूप से भूमि पर कब्जा करता है, उसके खिलाफ लड़ाई छोटे-छोटे हमलों और गुरिल्ला युद्ध के अन्य तरीक़े अपना कर की जाती है। उदाहरण के लिए, ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एचएसआरए) जैसे भारतीय सशस्त्र क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ जो किया वह ‘गुरिल्ला युद्ध’ का ही एक रूप था।

इसी तरह, फ़िलिस्तीनियों द्वारा छेड़ी गई स्वतंत्र और आत्मनिर्भर फ़िलिस्तीन की लड़ाई आतंकवाद नहीं है बल्कि ‘अपनी आबादी की बस्तियां बसाते जाने वाले एक औपनिवेशिक राज्य’ के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध का एक रूप है। एक ऐसा राज्य जो एक ‘रंगभेदी’ राज्य में बदल गया है। उदार पश्चिम में कई लोग इस बात से सहमत नहीं होंगे कि इज़राइल एक रंगभेदी राज्य है। इसलिए, उस समय को याद करना बेहतर होगा जब ओबामा के दूसरे कार्यकाल के दौरान अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने इस दलदल में प्रवेश करने और दो-राज्य वाले समाधान के माध्यम से इजराइल-फिलिस्तीन विवाद को हमेशा के लिए निपटाने का फैसला किया था।

उन्होंने यहूदी बस्तियों के विस्तार को देख कर कहा था, कि “जल्द ही इज़राइल को तय करना होगा कि क्या उसे दोयम दर्जे के नागरिकों के साथ एक रंगभेदी राज्य बनना स्वीकार है? अन्यथा दो-राज्य वाले समाधान का विकल्प समाप्त हो जाएगा और इज़राइल के एक अलग यहूदी राज्य बनने की संभावना समाप्त हो जाएगी..।”

इस साल अगस्त में, इज़राइली सेना के उत्तरी कमान के पूर्व प्रमुख अमीरम लेविन ने कहा था कि “पिछले 57 वर्षों से वहां लोकतंत्र नहीं है, वहां पूरी तरह से रंगभेद हो रहा है” और इज़राइली सेना “वेस्ट बैंक में वही सब कर रही है जो नाजी जर्मनी में हो रहा था। वह युद्ध अपराधों में लिप्त है।”

दोनों पक्षों के साथ शपथ लेते हुए, केरी ने फ़िलिस्तीनियों को 1967 से पहले की सीमाओं वाले राज्य का वादा किया था, और इज़राइल को कैदियों की अदला-बदली के समझौते के साथ 1967 के बाद की सीमाओं वाले राज्य के साथ ही वेस्ट बैंक में 4 अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश का वादा किया था। कैदियों के अंतिम बैच को रिहा करते समय इज़राइल के छल-कपट के कारण यह सौदा विफल हो गया।

किसी को ओबामा प्रशासन के शांति प्रयासों पर बहुत भरोसा नहीं करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी प्रतिनिधि सुसान राइस ने इजराइल द्वारा बस्तियां बसाने की कार्रवाई की निंदा करने वाले प्रस्ताव को वीटो कर दिया था। ओबामा अक्सर अन्य तरीकों से भी इजराइली सरकार का पक्ष लेते रहे। अमेरिका ने इजराइल के लिए सैन्य सहायता बढ़ा दी है, खासकर ‘आयरन डोम एंटी मिसाइल सिस्टम’ के लिए।

2012 और 2014 में हमास के साथ प्रमुख इजराइली झड़पों के दौरान, अमेरिका ने अपने बयानों से इजराइल के, अपनी रक्षा के अधिकार का समर्थन किया। संयुक्त राष्ट्र में, अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने फिलिस्तीन को “गैर-सदस्य पर्यवेक्षक राज्य” का दर्जा देने के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र महासभा में मतदान किया।

डोनाल्ड ट्रम्प के आगमन और अमेरिकी दूतावास को तेल अवीव से यरूशलेम में स्थानांतरित करने के उनके फैसले के साथ-साथ सदियों पुरानी इस राजनीतिक समस्या के स्पष्ट समाधान से पहले आर्थिक विकास पर जोर देने से नेतन्याहू के नेतृत्व वाले दक्षिणपंथियों का हौसला और बढ़ गया।

ट्रम्प द्वारा, अपने निजी रियल एस्टेट और दिवालियापन के मामले देखने वाले दो वकीलों, डेविड फ्रीडमैन और जेसन ग्रीनब्लाट को क्रमशः इज़राइल में अमेरिकी राजदूत और इज़राइल-फिलिस्तीन वार्ता के लिए दूत के रूप में नियुक्त करने से ही पता चल गया कि ट्रम्प के लिए इस मसले की अहमियत ‘फटाफट हथिया लेने वाले एक व्यापारिक सौदे’ से ज्यादा कुछ नहीं थी।

सबसे बुरी बात यह है कि ट्रम्प ने समस्या को हल करने के लिए रियल एस्टेट के बड़े कारोबारी, अपने दामाद जेरेड कुशनर को नियुक्त किया, जिनके पास मध्य पूर्व की कूटनीति या राजनीति का कोई अनुभव नहीं था। कुशनर की ढिठाई का स्तर यह था कि उन्होंने इजराइलियों और फिलिस्तीनियों से साफ-साफ कह दिया कि ‘मुझसे इतिहास के बारे में बात न करें।’ यह भी पता चला कि जेरेड के पिता चार्ल्स कुशनर इजराइल समर्थक थे और यहूदीवादी ‘यहूदी राष्ट्र अभियान’ के लिए भारी चंदा देते थे।

केरी के थोड़े विचारशील रुख से हटते हुए, ग्रीनब्लाट ने घोषणा की कि वेस्ट बैंक में बसायी जा रही यहूदी बस्तियां ‘शांति में बाधा नहीं’ थीं। फ्रीडमैन ने एक कदम आगे बढ़कर अमेरिकी विदेश विभाग से ‘कब्जा’ शब्द हटाने की मांग की।

इस सबने इजराइल को बस्तियां बसाते जाने की अपनी नापाक गतिविधि को और तेजी देने के लिए प्रोत्साहित किया। 2017 में, बस्तियां बसाने वाले अभियान के नेता याकोव काट्ज़ ने ट्रम्प को धन्यवाद दिया और स्वीकार किया कि उनके राष्ट्रपति पद के दौरान यह अभियान इज़राइल की आबादी की दर की तुलना में लगभग दोगुनी दर से बढ़ा।

2020 में, ट्रम्प के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट माइक पोम्पिओ ने वेस्ट बैंक में बसायी जा रही एक कॉलोनी की आधिकारिक यात्रा की। इसके साथ ही, स्टेट डिपार्टमेंट के कानूनी सलाहकार हर्बर्ट हेन्सेल की 1978 की उस चेतावनी को आधिकारिक तौर पर बेअसर कर दिया गया, जिसके अनुसार 1949 के युद्धविराम की सीमाओं से परे इजराइली बस्तियों को अवैध माना गया था।

1967 से 2017 तक, वेस्ट बैंक (पूर्वी येरुशलम सहित) में 200 से अधिक इज़राइली बस्तियां स्थापित की गयीं। ‘इजराइली मानवाधिकार सूचना केंद्र’ की  रिपोर्ट के अनुसार क़ब्जाये गये इलाक़ों में उनकी वर्तमान जनसंख्या लगभग 620,000 है।

जून 2023 में, बाइडेन प्रशासन ने यह घोषणा करके इज़राइल को किंचित नाउम्मीद किया कि वह वेस्ट बैंक में उसके अनुसंधान संस्थानों और तकनीकी परियोजनाओं के लिए कोई धन हस्तांतरित नहीं करेगा। हलांकि, जब पूछा गया कि क्या ट्रम्प की बस्तियों को प्रोत्साहित करने की नीति उलट दी गयी है, तो विदेश विभाग ने पुष्टि की कि “हमने ऐसा कदम नहीं उठाया है।”

नेतन्याहू का वर्तमान शासन और उनके धुर दक्षिणपंथी सहयोगी, जैसे इतामार बेन-ग्विर और बेज़ेल स्मोट्रिच अमेरिका द्वारा परोसे गये तुष्टिकरण के ऐसे स्वादिष्ट व्यंजनों की दावत बड़े मजे से उड़ाते रहते हैं। बेन-ग्विर और स्मोट्रिच स्वतंत्र फ़िलिस्तीनी राज्य के विचार के बिल्कुल ख़िलाफ़ हैं। ये दोनों नेतन्याहू के मंत्रिमंडल में क्रमशः वित्त और राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्रालयों के प्रमुख हैं।

दोनों ऐसे उत्तेजक राजनीतिक प्राणी हैं जो फ़िलिस्तीनियों के लिए कोई जगह नहीं देना चाहते हैं। जब से उन्होंने सत्ता की कैंडी चाटी है, उन्होंने फिलिस्तीनियों के बीच बेचैनी और आक्रोश पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अगस्त में, बेन-ग्विर ने घोषणा की थी कि जूडिया और सामरिया (कब्जे वाले क्षेत्र के लिए बाइबिल में दिया गया शब्द) के इलाक़ों में उनके परिवार की टहलने-घूमने की स्वतंत्रता अरबों की आवाजाही की स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है।

यह दिखाने की भरपूर कोशिश की जा रही है कि इजराइल के खिलाफ फिलिस्तीनियों के प्रतिरोध का पसंदीदा तरीक़ा हमेशा से हिंसात्मक रहा है। इस आख्यान को ऐसे परोसा जाता है, ताकि यही ध्वनित हो कि, ‘इस्लाम और उसे मानने वालों का रुझान अनिवार्यतः हिंसा की ओर होता है।’

फ़िलिस्तीनी सिविल सोसाइटी का इज़राइल के ‘बहिष्कार, पर्दाफाश और प्रतिबंध’ (बीडीएस) का आह्वान एक शांतिपूर्ण आंदोलन था। यह प्रतिरोध के गांधीवादी तरीकों जैसा लगता था। इसकी प्रारंभिक विश्वव्यापी सफलता को देखते हुए, अमेरिका और नाटो ने चिंताजनक प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्होंने पूरे यूरोप और उत्तरी अमेरिका में इस आंदोलन को आपराधिक जैसा पेश करना शुरू कर दिया। यहूदीवादी लॉबी समूहों की मदद से दावा किया गया कि इज़राइल का बहिष्कार एक ‘यहूदी-विरोधी’ कृत्य था।

कुल मिलाकर फ़िलिस्तीनियों का जीवन दयनीय है। 2007 में गाजा की नाकेबंदी के बाद से, गाजा के पांच में से चार बच्चे अवसाद, दुःख और मानसिक आघात से पीड़ित हैं। उनमें से आधे से अधिक बच्चे आत्महत्या के बारे में सोचते हैं, और हर पांच में से तीन बच्चे आत्मक्षति बारे में सोचते हैं।

गाजा में लगभग 90-95 फीसदी जल आपूर्ति दूषित और मानव उपभोग के लिए अनुपयुक्त है। इजराइलियों द्वारा पानी की खपत कब्जे वाले क्षेत्रों में रहने वाले फिलिस्तीनियों की तुलना में कम से कम चार गुना है। फ़िलिस्तीनी प्रति व्यक्ति औसतन 73 लीटर पानी प्रति दिन उपभोग करते हैं जबकि एक इज़राइली व्यक्ति औसतन 300 लीटर पानी उपभोग करता है। पिछले साल तक, गाजा में बेरोजगारी दर आश्चर्यजनक रूप से 46 फीसदी थी।

फ़िलिस्तीनियों का प्रतिरोध उनके साथ किये गये सारे अन्यायों की घनीभूत अभिव्यक्ति है। नेतन्याहू और उनके फासीवादी सहयोगियों को अब फिलिस्तीनियों के सफाये के फरमान पर दस्तखत करने में कोई हिचकिचाहट या झिझक नहीं होगी। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य यह है कि दुनिया के प्रभावशाली देशों ने इजराइल के साथ खड़े होने का फैसला कर लिया है।

उन्हें इजराइल पर हालिया हमला समस्या पैदा करने वाला, ‘अमानवीय’ और ‘आतंकवादी’ प्रतीत हो रहा है। सात दशकों से भी ज्यादा समय से फ़िलिस्तीनियों की रोजमर्रा की यातनाएं और परेशानियां उनके लिए कोई मायने नहीं रखतीं। उदारवादी दुनिया में ‘फैशनेबल’ और ‘अनफैशनेबल’ पीड़ितों का एक समूह है। चीन के हाथों उइगर और तिब्बतियों की पीड़ा (वास्तविक और भीषण) वैश्विक चिंता का विषय है। दुर्भाग्य से, फ़िलिस्तीनी इस श्रेणी में फिट नहीं बैठते। वे ‘अनफैशनेबल’ पीड़ित हैं।

जैसा कि अपेक्षित था, भारत में मोदी शासन ने इज़राइल के साथ मजबूती से खड़े होने का फैसला किया है। हिंदुत्व की ताकतें हिंदू धर्म को हिंदुत्व बनाने का काम तेजी से पूरा कर रही हैं। उसी तरह, जैसे यहूदीवादी विश्व स्तर पर यहूदी धर्म को यहूदीवाद के बराबर साबित करने में सफल हुए हैं। लेकिन यहां विडंबना यह है कि जब यहूदियों को हिटलर के हाथों निर्मम नरसंहार का शिकार होना पड़ रहा था, उस समय भारत में हिंदू दक्षिणपंथ के (अ) गौरवशाली धुरंधरों में से एक, एमएस गोलवलकर उर्फ ​​गुरुजी, जो आद्य-फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे प्रमुख थे, उन्होंने अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’  (1939 में प्रकाशित) में लिखा:

“जर्मन नस्ल-गौरव आज के दौर का ज्वलंत विषय बन गया है। नस्ल और उसकी संस्कृति की शुद्धता बनाये रखने के लिए, जर्मनी ने अपने देश को सामी नस्लों -यहूदियों- से मुक्त करके दुनिया को चौंका दिया है। नस्लीय गौरव अपने उच्चतम स्तर पर यहां प्रकट हुआ है। जर्मनी ने यह भी दिखाया है कि जिन नस्लों और संस्कृतियों के बीच जड़ तक मतभेद हैं, उनका एकजुट होकर, मिलजुल कर रहना कितना असंभव है, यह हिंदुस्तान में हमारे लिए सीखने और लाभ उठाने के लिए एक अच्छा सबक है।” (पृष्ठ 87-88)

किसी को यह पुस्तक बीबी (नेतन्याहू) और उनके सहयोगियों को अवश्य भेजनी चाहिए। बहरहाल, फिलिस्तीन जिंदाबाद! प्रतिरोध जिंदाबाद!

(शुभम शर्मा अमेरिका के कनेक्टिकट विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में एक शोध विद्वान हैं। लेख ‘न्यूजक्लिक’ से साभार; अनुवाद: शैलेश)

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