जलता मणिपुर, उत्तराखंड में फर्जी मुद्दे खड़ा कर मुसलमान विरोधी अभियान, देवभूमि खाली करो पोस्टर तथा गुजरात के जूनागढ़ में दरगाह को तोड़ने के साथ मध्य प्रदेश में सरकार द्वारा मुसलमानों की सम्पत्ति को बुलडोज करने की घटनाएं भारत के लोकतंत्र के उस भविष्य की गवाही दे रही हैं जो 2024 या उसके बाद बनने वाला है।
हिंदू राष्ट्रवाद के नाम पर बहिष्कार और नरसंहार का आह्वान तथा तोड़फोड़ करने वाले अपराधी स्वच्छंद घूम रहे हैं। सीमावर्ती एक राज्य जल रहा है और प्रधानमंत्री मौन धारण कर विदेश भ्रमण पर हैं। जब से मणिपुर में हिंसा भड़की है तब से प्रधानमंत्री चार विदेश यात्राएं कर चुके हैं। पुलिस, सीबीआई और ईडी जैसी सरकारी संस्थाएं विपक्ष के नेताओं पर छोड़ दी गई है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश को धृष्टता पूर्वक नकारते हुए संघात्मक गणतंत्र की अवधारणा पर चोट जारी है। राज्यों के संवैधानिक अधिकारों में कटौती करते हुए उन्हें केंद्र के उपनिवेश में बदलने का षड्यंत्र चल रहा है।
वामपंथी दलों को छोड़कर कोई भी ऐसी विपक्षी पार्टी नहीं है जिसके पीछे जांच एजेंसियों न लगी हो। तर्कवादी प्रगतिशील बुद्धिजीवियों, वामपंथी और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं तथा लोकतांत्रिक व्यक्तियों पर हमले जारी हैं। कुछ सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता बिना मुकदमा चलाए बरसों से जेल में बंद हैं। स्टेन स्वामी जैसे समाजसेवी को सरकार की क्रूरता के चलते जेल में जान गवानी पड़ी। ये घटनाएं संकेतक हैं की फासीवाद का खतरा अब काल्पनिक नहीं रहा। संवैधानिक संस्थाएं एक पार्टी के लिए काम कर रही हैं। विपक्ष हर समय जांच एजेंसियों के निशाने पर है।
मुस्लिमों के खिलाफ मीडिया और सरकारी संस्थाएं घृणा अभियान के साथ शत्रु भाव रखती हैं। दलित पिछड़े महिलाएं तथा छात्र नौजवान कर्मचारी संघ नीति सरकार के दमन के शिकार हैं। ऐसी स्थिति में भारत के लोकतांत्रिक विपक्ष को एकताबद्ध होकर लोकतंत्र और देश की एकता अखंडता के लिए संघर्ष करना समय की मांग है।
9 वर्ष के मोदी राज के विध्वंसक कार्यो से लगता है विपक्षी पार्टियां इस निष्कर्ष पर पहुंच गई है कि भारत में संविधान और संवैधानिक गणतंत्र खतरे में है। अगर इसे बचाया नहीं गया तो हिंदुत्व कारपोरेट गठजोड़ मार्का फासीवाद के जबड़े में कैद संविधान और लोकतंत्र समाप्त हो जायेंगे।
1947 का मंजर पुनः दिखाई दे रहा है। विभाजन के समय लाखों लोग अपना घर कारोबार छोड़कर पलायन के लिए मजबूर हुए थे। मोदी सरकार के संरक्षण में इस समय बड़े पैमाने पर इस तरह की घटनाएं हो रही है। उत्तराखंड में संघ के लंपट गिरोहों ने झूठी खबर को आधार बना कर मुस्लिमों को शहर छोड़ने का फरमान जारी कर दिया। दुकानों पर पोस्टर लगाए गए। धर्मसंसदों के आयोजन द्वारा मुस्लिमों को चेतावनी दी जाने लगी। लेकिन सरकार मौन बनी रही। मुख्यमंत्री लव जिहाद और लैंड जिहाद के खतरे बता देते रहे। मुस्लिम दुकानदारों और परिवारों को पलायन करना पड़ा। बाद में नागरिक समाज की दृढ़ पहल ने संघ गिरोह के हमले को नाकाम किया जा सका।
पौने 2 महीने से मणिपुर में जल रहा है। कूकी और मैतेई आबादी अपने घर कारोबार छोड़कर एक दूसरे से दूर सुरक्षित इलाकों में पलायन कर रहे है। नार्थ ईस्ट ने इस तरह की त्रासदी कभी न देखी थी। जो डबल इंजन सरकार के दौर में उसे भुगतनी पड़ रही है। 100 से ऊपर लोग मारे गए हैं। 70 हजार से ज्यादा बेघर हैं। मंत्रियों के घर से लेकर के गांव के गांव जलाए जा रहे हैं। भाजपा सरकारें त्रासदी का उत्सव बना रही हैं। यह त्रासद अनुभव विपक्ष सहित सभी लोकतांत्रिक शक्तियों को फासीवाद के खतरे को महसूस करने के लिए मजबूर किया है।
महंगाई बेरोजगारी सरकारी उद्योगों का कौड़ी के भाव मित्र पूंजीपतियों को सौंपने के साथ देश में भुखमरी और गरीबी का भूगोल बढ़ता जा रहा है। आत्महत्या के दायरे में किसान मजदूर छात्र नौजवान छोटे व्यापारी से लेकर उच्च वर्ग के लोग भी खिच आए हैं।
इस पृष्ठभूमि में विपक्षी दल पटना में एक मंच पर आने के लिए मजबूर हुए हैं। जहां तक राजनीतिक दलों की समझ के विकास का सवाल है तो 2014 में मोदी सरकार आने के बाद अकेले भाकपा माले (लिबरेशन) ने यह ऐलान किया था कि “लोकतंत्र दुर्घटनाग्रस्त हो गया है” और भारत फासीवाद के दौर में प्रवेश कर रहा है।
मोदी आने वाले समय में भारत के लोकतंत्र संविधान और सामाजिक ताने-बाने के लिए गंभीर चुनौती बनने जा रहे हैं। लेकिन उस समय कई वाम दलों सहित विपक्षी दल और सामाजिक संगठन इस निष्कर्ष से सहमत नहीं थे। उनका मूल्यांकन था कि मोदी सरकार में एकाधिकार वादी ट्रेंड दिखाई दे रहा है। जिसे भारतीय लोकतंत्र की आंतरिक ताकत से रोक लिया जाएगा। 2014 के चुनाव में कारपोरेट भाजपा गठजोड़ का जो नंगा रुप दिखा था। उसके भाभी खतरे को समझने के लिए निम्न पूंजीवादी विचारधारा वाले दल तैयार नहीं थे।
लेकिन 2019 के बाद तेजी से घटित हो रही घटनाओं ने संकेत दे दिया था कि देश अंधकार की तरफ बढ़ रहा है। अब बहुमत नहीं बहुमत बाद के आधार पर सरकार संविधान और संस्थाओं के साथ मनमानी करने पर आमादा है। धारा 370 को हटाना, एनआरसी सीएए लाना, महामारी की आड़ लेकर मानव विरोधी क्रूर लाक डाउन देश पर थोपना जैसे निरंकुश कदम उठाए गए। इसकी आड़ में लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलते हुए कारपोरेट परस्त कृषि कानून और चार श्रम संहिता लाने के मोदी सरकार के फैसलों ने देश को हिला कर रख दिया। ईडी, सीबीआई और आईटी को असहमत विचारों वाले संगठनों और दलों के पीछे लगा कर हर तरह से उत्पीड़ित करना मोदी सरकार की नीति बन गई।
चुनी सरकारों को सत्ता की ताकत और धन का प्रयोग कर अस्थिर करना, विधायकों की खरीद-फरोख्त डरा-धमका कर सरकारें गिराकर विपक्ष मुक्त भारत बनाना जैसी अहंकारी घोषणा भाजपा के अध्यक्ष तक करते हुए घूमते रहे। इसके साथ ही चुनाव आयोग, न्यायालय, सीएजी जैसी संस्थाओं पर दबाव बढ़ा दिया गया। कुछ की तो स्वयत्तता ही समाप्त कर दी गई। मोदी सरकार के इन कदमों ने नागरिक समाज और राजनीतिक दलों की चेतना में गुणात्मक बदलाव ला दिया।
राजनीतिक दलों सहित कांग्रेस को भी यह सोचने के लिए मजबूर किया कि भाजपा से लड़ाई सिर्फ अकेले और लोकतांत्रिक मंच पर लड़ना संभव नहीं है। यह सड़क और संसद के संघर्षों के समन्वय के साथ ही आगे बढ़ाई जा सकती है। इसी समझ ने संघी फासीवाद के खिलाफ एकताबद्ध कार्रवाई के लिए भौतिक परिस्थिति और परिवेश का निर्माण किया है। जो पटना के दो सम्मेलनों में दिखाई दिया।
पहला सम्मेलन-18 फरवरी 2023 को भाकपा माले ने पार्टी के महाधिवेशन के बीच लीक से हटकर “संविधान बचाओ लोकतंत्र बचाओ” के उद्देश्य से विपक्षी दलों का एक सत्र आयोजित किया। जिसमें जनता दल यू राजद कांग्रेस झामुमो और कुछ अन्य छोटी पार्टियों शरीक हुईं। सम्मेलन में राजनीतिक दलों ने प्रबल इच्छा शक्ति जाहिर की कि हमें एकताबद्ध कार्रवाई में आना चाहिए। इस बात पर सर्व सहमति दिखाई दी कि भारत में संविधान लोकतंत्र और संघात्मक गणतंत्र खतरे में है। मोदी सरकार ने लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला कर दिया है। इसलिए सभी लोकतांत्रिक संगठनों और दलों को एक मंच पर संगठित होना समय की जरूरत है।
इस सत्र से पहले वामदलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का एक सत्र आयोजित किया गया था। जिसमें सहमति बनी थी कि मोदी मार्का फासीवाद के खिलाफ सभी जनवादी दलों और संगठनों को एकजुट करने की जरूरत है। अरुंधति राय सहित सभी का यह मूल्यांकन था कि हम फासीवाद के दौर में जी रहे हैं। इसलिए सभी को मिलकर लोकतंत्र और संविधान बचाने के लिए लड़ना होगा। साथ ही प्रतिष्ठित बुद्धिजीवियों और पत्रकारों को आमंत्रित किया गया था। सभी लोगों की एक ही राय थी कि हमारे देश में संविधान और लोकतंत्र गंभीर खतरे में है।
इस सम्मेलन के निष्कर्षों को लेकर राष्ट्रीय अखबारों और राजनीतिक हलकों में चर्चाएं शुरू हुई। इससे जो वातावरण बना उसने पटना के दूसरे सम्मेलन की आधारशिला रख दी। इसके अलावा बिहार में नीतीश कुमार के भाजपा का साथ छोड़ने के बाद बने महागठबंधन से भाजपा के सरकार गिराओ अभियान को भारी धक्का लगा और भाजपा विरोधी गठजोड़ का नया मॉडल उभरकर सामने आया।
पटना बैठक-इस परिवेश में पटना में 23 जून को 15 दलों की बैठक हुई। बैठक की खासियत थी कि एक दूसरे से गंभीर मतभेदों के बाद भी 15 राजनीतिक दल इकट्ठा हुए। बंगाल केरल दिल्ली पंजाब जैसे राज्यों के मुख्यमंत्रियों और नेताओं का आना इस बात का संकेत है की सभी दल फासीवाद के हमले को गंभीरता से ले रहे हैं। बैठक में वैचारिक भिन्नताएं और कार्यनीतियों भी खुल कर रखी गई। यह स्वागत योग्य है। आपसी मतभेदों को स्वीकारते हुए लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए शपथ लेना अपने आप में भारतीय राजनीति में गुणात्मक बदलाव है। यहां दलों के बीच के वैचारिक मतभेद और सामाजिक आधारों को लेकर बातचीत की जरूरत नहीं है। वह तो है ही। लेकिन जो उत्साह बर्द्धक है वह एक दूसरे के अतीत के कामों को नजरअंदाज करते हुए वर्तमान और भविष्य को केंद्रित किया जाना।
कश्मीर की पार्टियों का रुख बहुत ही सकारात्मक था। जिन्होंने अपनी पीड़ा को साझा करते हुए कहा कि हमें खुशी है कि हमारी जो अनुभूति है। हमारे प्रदेश में धारा 370 हटा कर लोकतंत्र और राज्य का अस्तित्व खत्म किया गया है। उसे आज भारत महसूस कर रहा है। इस सम्मेलन की खासियत थी कि समानता के आधार पर सभी राजनीतिक दलों को देखा गया। बड़े छोटे संगठन के विभेद” जिसे आमतौर पर अखबार और गोदी मीडिया चलाने की कोशिश कर रहा था “उसे पूर्णतया नजर अंदाज कर दिया गया ।
सम्मेलन की मुख्य उपलब्धियां- पहली उपलब्धि तो यही है की विभिन्न विचारों मतभेदों वाले राजनीतिक दल एक साथ बैठे। एक दूसरों के साथ विचार साझा किए और सकारात्मक सोच से एक साथ चलने के रास्ते ढूंढने की कोशिश की।
दूसरी उपलब्धि है की सभी ने संविधान लोकतंत्र पर हो रहे हमले को गम्भीरता से लिया और संकल्प लिया कि हमें लोकतंत्र साझा संस्कृति और देश को बचाना है। सांप्रदायिक हमलों का मुकाबला करना है। भाजपा की विभाजन कारी नीतियों का पुरजोर विरोध करते हुए देश बचाना है।
तीसरी उपलब्धि अगली बैठक की घोषणा का होना है। जिसमें आगे की रणनीति और योजनाएं तथा चुनाव से लेकर आंदोलन तक के मुद्दों पर चर्चाएं होंगी। जिसमें अधिकतम एकता के बिंदु तलाशे जाएंगे। पटना बैठक बिहार के आंदोलनकारी और परिवर्तनकारी इतिहास का संकेत भर नहीं है। इसमें स्वतंत्रता आंदोलन की चार मुख्य धाराओं के लोग एक साथ मंच पर आए।
एक- कांग्रेस विचारधारा, दो -कम्युनिस्ट आंदोलन की धारा, तीसरा- सामाजिक न्याय की सोशलिस्ट धारा। चार -दक्षिण भारत में सामाजिक सुधार और वैज्ञानिक चेतना से निकली हुई ब्राह्मणवाद विरोधी द्रमुक की धारा।
साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद, समाजवादी समतामूलक ब्राह्मणवाद विरोधी राजनीति का यह संगम ही भारत में लोकतंत्र और संविधान को बचाने का सबसे सशक्त मंच होगा। हालांकि भारतीय मार्का फासीवाद की अपनी कुछ खासियत है। उस खासियत को नजरअंदाज करके फासीवाद से लड़ना संभव नहीं होगा।
भारत में फासीवाद कारपोरेट हिंदुत्व गठजोड़ पर टिका है। वहीं इसकी जड़ें जाति विभाजित समाज में गहराई में धसीं हैं। इसलिए पटना सम्मेलन से निकले भविष्य के संकेत को इन सवालों पर केंद्रित करते हुए भारत में एक बड़े सामाजिक राजनीतिक वैचारिक आंदोलन को खड़ा करके फासीवाद विरोधी संघर्ष को मंजिल तक पहुंचाया जा सकता है। उम्मीद है पटना की बैठक में बीज रूप में मौजूद ये संदेश आने वाले समय हिंदुत्व कारपोरेट गठजोड़ की तानाशाही को जड़ मूल से उखाड़ कर भारत के धर्मनिरपेक्ष गण तांत्रिक लोकतंत्र की रक्षा में कामयाब होगा।
(जयप्रकाश नारायण किसान नेता व सीपीआई (एमएल) यूपी की कोर कमेटी के सदस्य हैं)