जिन चीजों को मुद्दा वामपंथी-बहुजन नेताओं को बनाना चाहिए, उसे राहुल गांधी बना रहे हैं

इस देश में जितनी धन-दौलत 70 करोड़ लोगों के पास है, उतनी धन-दौलत पर सिर्फ 21 लोगों ने कब्जा जमा लिया है। इस आंकड़े को थोड़ा और आगे बढ़ाएं तो पाते हैं कि 10 प्रतिशत भारतीयों के पास कुल राष्ट्रीय संपदा का 77 प्रतिशत केंद्रित हो गया है। भारत में इस समय करीब 200 बिलनेयर हैं। 2023 में इनकी संख्या 169 थी। सिर्फ 2024 में नए 31 बिलनेयर पैदा हो गए हैं। जिनकी कुल संपदा 954 बिलियन डॉलर है।

पिछले वर्ष (2023) में बिलनेयर लोगों की कुल संपदा 675 डॉलर थी। इसका साफ मतलब है कि सिर्फ एक वर्ष में इनकी संपदा में 41 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है। भारत के सिर्फ एक प्रतिशत लोगों ने देश की 40 प्रतिशत संपदा पर कब्जा जमा लिया है। एक दशक में बिलनेयर लोगों की संपदा में 10 गुने की वृद्धि हुई है। दूसरी तरफ नौकरीपेशा और श्रमिकों की तनख्वाह और मजदूरी में वृद्धि होना बंद हो गया है और बड़ी संख्या में लोग रोजगार से वंचित हैं।

वामपंथ की वर्गीय भाषा में कहें तो तय है कि इन 21 लोगों, 10 प्रतिशत लोगों और 200 बिलनेयर में कोई मजदूर, किसान, छोटा-मझोला कारोबारी व्यापारी, सरकारी-गैर सरकारी वेतन भोगी कर्मचारी-अधिकारी और स्वरोजगार करने वाला नहीं है। एक तरफ 21 लोग और 10 प्रतिशत लोग हैं दूसरी तरफ 70 करोड़ लोग हैं।

इन 70 करोड़ लोगों में अधिकांश मजदूर, किसान, ठेला-खोमचा, रेहड़ी लगाने वाले, छोटे-मोटे दुकानदार और विभिन्न तरह के हाड़तोड़ मेहनत करने वाले लोग हैं। जिसमें गांवों-कस्बों के अधिकांश लोग शामिल हैं। हाड़तोड़ मेहनत करने वाले 70 करोड़ लोग एक तरफ हैं और दूसरी तरफ 21 लोग और 10 प्रतिशत  हैं, जिन्होंने देश के संसाधनों, सरकारी धन, राजनेताओं से साठ-गांठ करके और मेहनतकशों के श्रम का इस्तेमाल करके धन जुटाया है। वामपंथी भाषा में कहें तो एक तरफ सिर्फ 21 लोगों या 10 प्रतिशत लोगों का का शोषक वर्ग है, दूसरी तरफ 70 करोड़ मेहनतकश वर्ग है।

बीच में एक मध्यवर्ग है। 21 लोगों या 10 प्रतिशत लोगों के हाथ में धन-दौलत के इस तरह संग्रहित हो जाने के खिलाफ आवाज उठाने की सबसे पहली घोषित जिम्मेदारी वामपंथी पार्टियों-नेताओं की थी, जो वर्गीय अन्तर्विरोध या वर्गीय शोषण को मुख्य मुद्दा मानते रहे हैं। लेकिन उन्होंने इस बारे में कोई न तो पुरजोर आवाज उठाई और न ही इस धन-संग्रह के खिलाफ कोई जन गोलबंदी और जनांदोलन करने की कोशिश की। ये पार्टियां या नेता सिर्फ इस या उस सरकार को हराने और जिताने की बातों में पूरी तरह मशगूल हैं, बिना इन वर्गीय अंतर और अन्तर्विरोध की कोई मुखर चर्चा किए।

अगर वर्ण-जाति के आधार पर देखें तो इस 21 लोगों में कोई पिछड़ा, दलित और आदिवासी नहीं है, न ही कोई पसमांदा मुस्लिम है। इन 21 लोगों में बहुलांश सवर्ण हिंदू हैं। कुछ एक पारसी-जैन या अन्य हैं। खेती-बारी का बड़ा हिस्सा पहले से सवर्णों के हाथ में रहा है, इन्हीं सवर्णों ने पूंजीवाद के विकास से पैदा हुए धन के भी बहुलांश हिस्से पर कब्जा जमा लिया है, खास कर मोदी के कार्यकाल के पिछले 10 वर्षों में। 77 प्रतिशत राष्ट्रीय संपदा पर कब्जा जमाए 10 प्रतिशत लोगों की वर्ण-जाति पर विचार किया जाए तो शायद ही इसमें कोई आदिवासी, दलित, अति पिछड़ा-पिछड़ा या पसमांदा मुसलमान हो।

देश की राष्ट्रीय संपदा पर 21 सवर्णों-द्विजों या 10 प्रतिशत सवर्णों-द्विजों के राष्ट्रीय संपदा के 70 प्रतिशत या 77 प्रतिशत पर सवाल उठाने की मुख्य जिम्मेदारी बहुजन-दलित पार्टियों और उनके नेताओं की है, क्योंकि उनका मुख्य मुद्दा ही 85 प्रतिशत बहुजनों ( पिछड़ा, दलित और आदिवासी) पर 15 प्रतिशत सवर्णों के वर्चस्व को चुनौती देना और उसे तोड़ना रहा है।

आर्थिक संसाधनों पर सवर्णों-द्विजों के कब्जे को चुनौती देना छोड़ दीजिए दलित-बहुजन पार्टियां सिर्फ राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सरकारी नौकरियों और सरकारी शिक्षा संस्थानों में आरक्षण तक खुद को सीमित किए हुए हैं। आर्थिक संसाधनों पर सवर्णों के एकतरफा कब्जे या आर्थिक असमानता, उनके लिए कोई मुद्दा ही नहीं है, जबकि आंबेडकर ने साफ शब्दों में संविधान प्रस्तुत करते हुए कहा था कि यदि आर्थिक असमानता बढ़ती जाती है, उसे कम या खत्म नहीं किया जाता है तो राजनीतिक समता या राजनीतिक लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा। जो कि इस समय पड़ गया है।

क्या वामपंथी और बहुजन-दलित पार्टियां और उनके यह नेता यह भूल चुके हैं कि जिसका आर्थिक संसाधनों पर कब्जा होता है, वही राजनीति को संचालित और नियंत्रित करता है। राहुल गांधी ठीक कहते हैं कि इस देश को इस समय सिर्फ दो-तीन कार्पोरेट चला रहे हैं, इस तो तीन में उन 21 लोगों का शामिल किया जा सकता है, जो देश के 70 प्रतिशत राष्ट्रीय संपदा पर कब्जा किए हुए हैं या इसे उन 200 विलनेयर लोगों तक आगे बढ़ाया जा सकता है, जिनके पास 954 बिलियन डॉलर की संपदा है या थोड़ा और विस्तारित करते हुए 10 प्रतिशत उन लोगों तक ले जाया जा सकता है, जो देश की राष्ट्रीय संपदा के 77 प्रतिशत पर कब्जा कर चुके हैं। 

पिछले 10 सालों में यह साफ दिख रहा है कि हो सकता है कि बहुसंख्यक दलित वोटरों के दबाव में या उनकी चाहत पूरा करने के लिए दलित-बहुजनों को समाज में पैदा हुए किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के नाम पर प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मंत्री और मुख्यमंत्री बना दिया जाए, लेकिन उनकी पूरी बागड़ोर उन कार्पोरेट के हाथ में होती है, जो सामाजिक तौर पर द्विज-सवर्ण हैं। ये पद पाए लोग सिर्फ कठपुतली होते हैं। 

जैसे नरेंद्र मोदी, रामकोविंद या द्रौपदी मुर्मु या कोई अन्य मंत्री या मुख्यमंत्री। इन सबकी बागडोर या पूरी सरकार की सारी बागडोर कार्पोरेट और आरएसएस के हाथ में है। वे सिर्फ इन दोनों की कठपुतली हैं। खुद आएसएस की बागड़ोर भी कमोबेश अब कार्पोरेट के हाथ में चली गई है, क्योंकि उनके लिए अकूत धन वही उपलब्ध करा रहे हैं और उनकी चेरी पार्टी को जिता रहे हैं।

देश की राष्ट्रीय संपदा के 70 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा जमाए ये 21 लोग या 77 प्रतिशत पर कब्जा जमाए 10 प्रतिशत लोग पहले तो जायज और नाजायज तरीके से घूस या चंदा देकर राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को खरीद लेते हैं, खासकर सत्ताधारी दल या अपने मनोनुकूल (उनके हितों के प्रति पूरी तरह समर्पित) पार्टी को, जैसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को। उस पार्टी को न केवल चुनाव लड़ने और जीतने के लिए पैसा देते हैं, बल्कि सांसद-विधायक या नेता खरीदने के लिए भी पैसा देते हैं, अपने पैसे से बनी-बनाई सरकारों को गिराते हैं या बनाते हैं। उस हद तक ही धन देते हैं जितना पार्टी या नेता को जरूरत हो।

यह सब कुछ हम पिछले 10 वर्षों में नरेंद्र मोदी और भाजपा की कारगुजारियों में देख रहे हैं। बदले में नरेंद्र मोदी और भाजपा इन 21 लोगों या 200 बिलनेयर या 10 प्रतिशत लोगों के लिए वह सब कुछ कर रहे हैं, जो वे चाहते हैं। इसका प्रमाण यह है कि सिर्फ एक साल (2023 से 2024 के बीच) उनकी संपत्ति 41 गुना बढ़ गई है। बिलनेयर संख्या सिर्फ एक साल में 169 से 200 हो गई।

ये 21 लोग या 200 लोग सिर्फ चंदा नहीं देते हैं, बल्कि मीडिया को बहुलांश हिस्से को अपने मनोनुकूल नेता या पार्टी के लिए दिन-रात प्रचार करने में लगा देते हैं, सीधे मीडिया घरानों के मालिक बनकर या उन्हें बड़े पैमाने पर विज्ञापन देकर। वे गोदी मीडिया खड़ी कर देते हैं या बहुलांश मीडिया और पत्रकारों को गोदी मीडिया या गोदी पत्रकार बना देते हैं। जैसा कि उन्होंने नरेंद्र मोदी के गोदी मीडिया या गोदी पत्रकार खड़ा कर दिया है।

धन-दौलत के 21 लोगों, 200 लोगों या 10 प्रतिशत लोगों के हाथों में केंद्रित होते और उस धन के आधार पर लोकतंत्र पर कब्जा जमा लेने के इस स्थिति पर सवाल उठाने की घोषित तौर पर मुख्य जिम्मेदारी वामपंथी पार्टियों और बहुजन-दलित पार्टियों की थी लेकिन उन्होंने करीब-करीब इन सवालों से मुंह मोड़ लिया है और उम्मीद कर रहे हैं कि मेहनतकशों या बहुजनों-दलितों के हितों को रक्षा इन सवालों पर चुप्पी साध कर की जा सकती है या ब्राह्मणवादी-कार्पोरेट हिंदू फासीवाद को सिर्फ राजनीतिक जोड़-तोड़ या कुछ सतही नारों से हराया जा सकता है। 

इसके उलट जिस पार्टी या नेता को इन बुनियादी असर डालने वाले सवालों पर चुप्पी लगाए रखना चाहिए था, इस देश के धन-दौलत पर कब्जा जमाए लोगों का विश्वास हासिल कर उनके सहयोग ( विशेषकर आर्थिक और मीडिया सहयोग) से सत्ता पाने की कोशिश करनी चाहिए थी। किसी भी सूरत में इन 21 या 200 या 10 प्रतिशत लोगों को नाराज नहीं करना चाहिए था, बल्कि उनको आश्वस्त करना चाहिए था कि मेरी सरकार आने पर आपकी धन-दौलत और बढ़ेगी, आप मेरा सहयोग करें। वह पार्टी या विशेषकर उसके नेता राहुल गांधी इस आर्थिक असमानता को बार-बार रेखांकित कर रहे हैं, इस पर सवाल उठा रहे हैं, इनकी सब कुछ को नियंत्रित करने की ताकत पर सवाल उठा रहे हैं।

यह सब कुछ वे बहुजन-दलित राजनीति की भाषा में कर रहे हैं, जाति जनगणना और सामाजिक-आर्थिक सर्वे की बात कर रहे हैं। इस सर्वे के आधार पर संसाधनों पर किस सामाजिक समूह का कितना कब्जा है, इसका पता लगाने की बात कर रहे हैं। इस बात को अपनी पार्टी के घोषणा-पत्र में पुरजोर तरीके से जगह दे रहे हैं। इसके साथ भी आरक्षण की सीमा बढ़ाने, आबादी के अनुपात में आरक्षण और निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात को बार-बार दुहरा रहे हैं।

ऐसा करके वे न केवल धन-दौलत के मालिकों को अपने खिलाफ बना रहे हैं, बल्कि आबादी के अनुपात में आरक्षण, निजी क्षेत्र में आरक्षण और जाति जनगणना के आधार पर संसाधनों पर किस सामाजिक समूह ( वर्ण-जाति) का कितना कब्जा है, इसका भी पता लगाने की बात कर रहे हैं। पता लगाने का भी तो कोई उद्देश्य है।

इस प्रक्रिया में वे इस देश के सबसे ताकतवर सामाजिक समूह द्विजों-सवर्णों को नाराज कर चुके हैं, अपने खिलाफ बना चुके हैं। जो इस देश में क्या होगा या नहीं होगा उसको प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में तय करता है। इतना ही नहीं उनके ऐसा करने से उनकी पार्टी का सबसे ताकतवर हिस्सा उनसे नाराज होकर पार्टी छोड़ रहा है, भीतर रहकर राहुल गांधी को कमजोर करने में लगा है। उनकी पार्टी का सांगठनिक ढांचा भी उनके विचारों के साथ नहीं खड़ा है।

राहुल गांधी आर्थिक असमानता, धन-दौलत पर मुट्ठी भर लोगों के कब्जे और जाति जनगणना के आधार पर संसाधनों के बंटवारे की बात कर या उसकी ओर इशारा उस बुनियादी मुद्दे को उठा रहे हैं, जिससे देश में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में समता और लोकतंत्र स्थापित किया जा सकता है। ऐसा करके राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी को सत्ता में ला पाएंगे या नहीं, वे या उनकी पार्टी का कोई प्रधानमंत्री बन पायेगा या नहीं, यह दीगर सवाल है, लेकिन राहुल गांधी इस देश के इतिहास में खुद को एक बड़े नायक बनाने की ओर बढ़ रहे हैं, यदि वे अपने इन बुनियादी मुद्दों पर कायम रहते हैं।

(डॉ. सिद्धार्थ लेखक और पत्रकार हैं।)

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