तो फिर क्या समाधान है, समझना होगा समाधान है साहस

ऐतिहासिक रामलीला मैदान एक बार फिर भारत के लोकतंत्र की अंगड़ाइयों के इतिहास का साक्षी बनेगा। कहते हैं जो चीज जहां खोती है, उसकी तलाश वहीं करनी चाहिए। कई बार खोनेवाले को पता ही नहीं चलता है कि जो खो गया वह कहां खो गया! कैसे खो गया? खोजनेवाला जगह-जगह खोजता है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) ने इसी ऐतिहासिक रामलीला मैदान में सत्ता के बेहाथ होने का हताश दृश्य देखा था, अब आम चुनाव में विपक्ष का इंडिया-गठबंधन इसी रामलीला मैदान में सत्ता की वापसी का आह्वान कर रहा है।

उम्मीद की कोई किरण आखिरी नहीं होती है। प्रकाश का कोई-न-कोई चिथड़ा अंततः बचा रहता है, जो छल की शिकार बनी जनता को रास्ता दिखाता है। बस एक बात है कि प्रकाश का अपना कोई बोझ नहीं होता, न प्रकाश किसी का कोई बोझ उठा सकता है। रामलीला मैदान से निकलने वाली रोशनी विपक्ष के इंडिया-गठबंधन को ‎किस ओर ले जाती है, इसका इंतजार भारत के लोगों को तो है ही, पूरी दुनिया के लोगों को भी है।

एक तरह से, स्थिति बिल्कुल साफ है। किसी के मन में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए। स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न करवाने के लिए लगी हुई आदर्श आचार संहिता (Model Code of Conduct) ‎अपनी जगह दुरुस्त है। केंद्रीय चुनाव आयोग के माननीय आयुक्तों की कानून तक पहुंच और उस पर मजबूत पकड़ बनी हुई है।

यह मानने किसी को कोई संकोच नहीं है कि केंद्रीय चुनाव आयोग की पहुंच बहुत बड़ी है। हां, आयोग तक पहुंचना सब के बूते की बात अभी नहीं रह गई है। अब नहीं रह गई है, तो नहीं रह गई है। संघर्ष का समान अवसर (Level Playing Field)‎ भी तैयार है। मान लेना होगा यही है, संघर्ष का समान अवसर (Level Playing Field)!‎ फरियाद करने का अधिकार है, सो फरियाद करते रहिए। फरियाद की मियाद पर बहस करने का अभी क्या फायदा! इन बातों पर अभी बात करना, लोकतांत्रिक समय का उपहास करना है।

शांत चित्त से निर्वैर क्रूरता और महिमा मंडित हिंसा का यह समय है। चित्त की अशांति का संबंध अंतरात्मा में उठनेवाले नैतिक सवालों से गहरा होता है। चित्त की शांति के लिए अंतरात्मा को नैतिक सवालों से बिल्कुल अलग, वैसे सही शब्द है विच्छिन्न, कर लेने की साधना करनी पड़ती है। क्रूरता के लिए किसी दुश्मनी की जरूरत नहीं होती है, जैसे मछली को पानी से निकालने में निकालने वाले का मछली के प्रति दुश्मनी का कोई भाव नहीं होता है। हिंसा को ‘दलीय राष्ट्रवाद’, ‘दलीय निष्ठा’, ‘धार्मिक परंपरा’ और अब ‘राजनीतिक जरूरतों’ से हिंसा को महिमा-मंडित किया जाता है। सभ्यता के विकास और राज्य व्यवस्था के लोकतांत्रिक स्वरूप, कानून के राज के वातावरण में मनुष्य के प्रति मनुष्य की हिंसा पर हर तरह से अंकुश लगाने की कोशिश हुई। यह कोशिश कभी भी पूर्ण सफल नहीं हुई, लेकिन इस की सफलता के प्रति राज्य व्यवस्था और नागरिक व्यवस्था, ऊपरी तौर पर ही सही, प्रयत्नशील जरूर रहा करती थी।

इस बार के आम चुनाव में यह साफ-साफ परिलक्षित हो रहा है कि चुनाव नागरिक युद्ध में बदल चुका है। मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन और लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था के बदलाव के अध्याय में रक्तरंजित युद्ध और संघर्ष की आशंकाओं को समाप्त करने के लिए निष्पक्ष लोकतंत्र और स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव के होने और जीवनयापन की प्रक्रियाओं के भी संपन्न होने की प्रविधि विकसित की गई। आज वह प्रविधि शांत चित्त से निर्वैर क्रूरता और महिमा मंडित हिंसा बढ़ाने का कारण बनती जा रही है या बन गई है।  ‎

प्रसंगवश, “मेधा” शब्द पर विचार कर लें, मेधावी छात्र, मानव मेधा का इस्तेमाल ‎पवित्र प्रशंसा के भाव से करते हैं। “मेध” का अर्थ होता है, वध, बलि चढ़ाना जो ‎अश्वमेध आदि में देखा जा सकता है। “मेधा” का अर्थ हत्या वृत्ति (killing instinct) के ‎अलावा क्या हो सकता है? सकारात्मक भाव से “मेधा” का इस्तेमाल भाषा में ‎होता है, तो संस्कृति में इस के अर्थ को समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए। सरसों में भूत का एक डाकघर यह भी है।                  ‎   

कहा जा सकता है, इस समय एक आदिम प्रवृत्ति मनुष्य के स्वभाव में उग्र और व्यग्र हो गई है। कहने का मतलब यह है कि जो आदिम प्रवृत्ति पहले से ही मनुष्य के स्वभाव में सोती-जगती चली आ रही थी वह अब अधिक उग्र और व्यग्र हो गई है। सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य के साथ मनुष्य के व्यवहार के संदर्भ में यह छिप-सी गई थी। यहां हिंसा की बढ़ती प्रवृत्ति पर बात की जा रही है। मांसाहार के लिए जीव हत्या करते समय यह प्रसंग नहीं उठा करता है। मनुष्य के प्रति मनुष्य के व्यवहार के संदर्भ में इस प्रवृत्ति को नियंत्रित करने की बात सदैव रही है।

हालांकि, इस नियंत्रण में ‘अपने- हम’  और ‘पराये–हम की परिधि से बाहर’ का पार्थक्य का अलगावी बोध और विवेक भी हमेशा सक्रिय रहा है। भगवान की, इस अर्थ में शक्ति की मूल प्रतिज्ञा के दो पहलू होते हैं; धर्म अर्थात कर्तव्य की बार-बार स्थापना और कर्तव्य को दूषित करनेवाले दुष्टों (दुष्कृताम) का विनाश। साहित्य और धर्मशास्त्रों में ‘अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च’ और ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ पर व्यापक चर्चा है। मूल बात यह है कि मूल्य-बोध के व्यवहार में अपने और पराये का ख्याल रखना शामिल रहता है।

‘अपने हो या पराये’ सब के लिए न्याय का आश्वासन ‘अपने पराये’ के बोध को संतुलित करता है और संवैधानिक नजरिए को दर्शाता है। सवाल किया जा सकता है कि ‘किस का अपना’, तो उसका सीधा जवाब है, संविधान और राष्ट्र का अपना। संविधान और भारत राष्ट्र अपने यहां रहनेवाले सभी को अपने ‘हम की परिधि’ में रखता है, अर्थात ‘हम भारत के लोग’ को अपना मानता है। इसी ‎‘हम भारत के लोग’ ने भारत के संविधान को ‘आत्मार्पित’ किया है।

संविधान और राष्ट्र की ‎‘हम की परिधि’‎ के बाहर और विरुद्ध जाति-धर्म-लिंग-नस्ल-क्षेत्र-दल-दर्शन आदि में से किसी भी अन्य आधार पर ‎‘हम की इतर परिधि’‎ बनाना संविधान और राष्ट्र के विरुद्ध जाना है। इस में ‎‘दलीय राष्ट्रवाद’‎ की बहुत बड़ी भूमिका होती है। नागरिक जमात को इस बात के प्रति सावधान रहने की जरूरत है कि ‘दलीय निष्ठा’ को ‎‘दलीय राष्ट्रवाद’‎ में बदलने के खतरे को न सिर्फ समझे, महसूस करे, बल्कि इसके खतरों के प्रति दूसरों को भी सावधान करे।  

अपने-अपने मत, धर्म, आस्था आदि के अनुसार अपने-अपने  संगठन का अधिकार तो है, लेकिन यह अधिकार संगठन के बाहर के व्यक्ति या संगठन के प्रति ‘अन्य’ सरीखे व्यवहार की इजाजत नहीं देता है। कोई किसी को भी संवैधानिक प्रावधानों के बाहर के किसी मूल्य-बोध के प्रति निष्ठावान होने का आग्रह नहीं कर सकता है। ऐसे किसी मूल्य-बोध के प्रति जबरदस्ती के लिए किसी तरह की शक्ति का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। भारत में यही सब हो रहा है, दुखद है कि संवैधानिक शक्तियों और संस्थाओं तक का इस में इस्तेमाल हो रहा है, सिर्फ धन उगाही में ही नहीं सहमति (consent) के शिकार में भी।

संवैधानिक और राष्ट्रीय ‘हम की परिधि’ के बाहर अपने-पराये की कई-कई परिधियां बनाई जा चुकी हैं, बनाई जा रही हैं। ऐसा करने से चुनाव की राजनीति में वोटों के ध्रुवीकरण का फायदा मिलता है। इस प्रवृत्ति के चलते संविधान और राष्ट्र को गहरा आघात लगता है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों या संस्थाओं का ऐसे किसी आचरण को राष्ट्रीय और संवैधानिक अपराध माना जाना चाहिए। जी, माना जाना चाहिए। लेकिन किस से उम्मीद की जा सकती है! मकतूल की आत्मा कातिल से जिरह करे! बकरा कसाई से अहिंसा पर विमर्श करे! कैसी विडंबना है कि जिस लोकतंत्र को जीवन में शांति के लिए जरूरी और उपयोगी ‎माना गया है, वही लोकतंत्र विकृत होकर सभ्य और बेहतर जीवन एवं नैतिक जीवनयापन के ‎लिए बहुत बड़ा खतरा बन गया है। घर के चिराग से घर में आग लगना, इस को नहीं ‎तो किस को कहते हैं? ‎

जनता संघर्ष का समान अवसर (Level Playing Field)‎ भी समझती है और स्वतंत्र निष्पक्ष निर्भय एवं दबाव से मुक्त वातावरण में चुनाव संपन्न होने की बात भी खूब समझती है। ऐतिहासिक रामलीला मैदान में विपक्षी इंडी-गठबंधन की रैली कैसी होती है या कैसे होने दी जाती है और उस के प्रभाव आदि का पता बाद में चलता रहेगा, इतिहास दर्ज करता रहेगा। फिलहाल भारत के लोकतंत्र की शक्ति के प्रति भरोसे को जिलाये रखना जरूरी है।

राजनीतिक आपातकाल के बाद हुए चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को सत्ता से बेदखल करके जनता पार्टी को सत्ता सौंप दिया और जनता पार्टी के बिखर जाने के बाद फिर से इंदिरा गांधी को सत्ता सौंप दिया, इस तरह से लोकतंत्र को बचाने के राजनीतिक साहस एवं चुनावी सूझ-बूझ की परीक्षा में ‎‘हम भारत के लोग’ ‎सफल रहे हैं। एक बार फिर वैसी ही परीक्षा भारत के ‎‘हम भारत के लोग’ के सामने है। फिलहाल तो यह है कि भारत के लोकतंत्र के चाल-चरित्र-चेहरा की चमक का सारा दारोमदार आम मतदाताओं पर है।

लोकतंत्र का सारा बोझ आम नागरिकों पर है। कोई संस्था, राजनीतिक दल या कोई ‎दल, नेता या व्यक्ति इस मुगालते में न रहे कि वह भारत के लोकतंत्र को कंधा देगा। ‎लोकतंत्र का ‎दारोमदार जनता पर है, जी जनता पर ही है। ‎ आगे बड़ी लड़ाई है, तो फिर क्या समाधान है, समझना होगा ‎समाधान है साहस। मतदाता यह हिसाब न लगाये कि कौन उन के पास आया या कौन नहीं आया। सब बिसारकर बस इतना सोचें ‎कि स्वयं लोकतंत्र अपनी रक्षा और ‎‘हम भारत के लोग’ ‎की परीक्षा के ‎लिए द्वार पर खड़ा है। ‎बस इतना समझ लीजिए भारत के लोकतंत्र को ‘शक्ति वाण’ लगा है और संजीवनी जनता के दुखों के पहाड़ पर ‎है। ‎    

(प्रफुल्ल कोलख्यान स्वतंत्र लेखक और टिप्पणीकार हैं)

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