इजराइल का वजूद ही उकसावे की जड़ है!

इजराइल पर फिलिस्तीनी गुट हमास के आक्रमण को अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों ने unprovoked (अकारण) आतंकवादी हमला बताया है। यानी उनकी निगाह में इजराइल ने ऐसा कोई भड़काऊ काम नहीं किया, जिसकी वजह से हमास के हमले को जवाबी कार्रवाई माना जाए।

(हमास फिलिस्तीनियों का एक संगठन है, जिसका गाजा पट्टी इलाके में वर्चस्व है, जहां फिलिस्तीनियों की लगभग 20 लाख आबादी रहती है। बाकी लगभग 26 लाख फिलिस्तीनी पश्चिमी किनारे में रहते हैं।)

तो क्या हमास ने सात अक्टूबर को जो हमला किया, वह सचमुच unprovoked यानी अकारण था? अगर ऐसा था, तो यह मानने में किसी को एतराज नहीं होगा कि वह एक आतंकवादी हमला था। आखिर अकारण किसी को किसी पर हमला क्यों करना चाहिए? ऐसा हमला वही व्यक्ति या संगठन कर सकता है, जिसे दूसरों का खून बहाने और समाज में भय फैलाने में मजा आता हो। इसीलिए हमास के हमले को लेकर इस शब्द- अकारण- की पड़ताल जरूरी है।

हालांकि इसकी पड़ताल हम बीते कुछ महीनों की घटनाओं पर नज़र डाल कर भी कर सकते हैं, लेकिन बेहतर समझ बनाने के लिए जरूरी है कि इजराइल के अस्तित्व में आने के पूरे इतिहास पर ध्यान दिया जाए। पर शुरुआत हाल की घटनाओं से करते हैं। हाल में भी इजराइल ने किस तरह फिलिस्तीनियों को provoke किया- उनमें आक्रोश भरा- इससे संबंधित घटनाओं की भी एक लंबी शृंखला है।

बात की शुरुआत इजराइल के प्रगतिशील अखबार हारेट्ज के एक संपादकीय से करते हैं, जो 8 अक्टूबर को प्रकाशित हुआ। इस संपादकीय का शीर्षक हैः इस इजराइल-गाज़ा युद्ध के लिए जिम्मेदार नेतन्याहू हैं।

संपादकीय की आरंभिक पंक्तियों पर गौर कीजिएः “सिमचैट तोराह (यहूदी त्योहार) के अवकाश के दिन इजराइल पर जो विपदा आई, उसकी स्पष्ट जिम्मेदारी एक व्यक्ति पर है- बेंजामिन नेतन्याहू। प्रधानमंत्री सुरक्षा मामलों में अपने विशाल राजनीतिक अनुभव एवं अद्वितीय बुद्धि पर फख्र करते हैं, लेकिन उन खतरों की पहचान करने में वे पूरी तरह नाकाम रहे, जिनकी तरफ वे जानबूझ कर इजराइल को ले जा रहे थे। फिलिस्तीनी इलाकों को इजराइल में मिलाने और फिलिस्तीनियों को उनके अधिकारों से वंचित करने के एजेंडे वाली सरकार का गठन कर उन्होंने इन खतरों को मोल लिया। उन्होंने बेजालेल स्मोट्रिट और इतामार बेन-ग्विअर को अपनी सरकार में प्रमुख पदों पर नियुक्त किया और ऐसी विदेश नीति अपनाई, जिसमें खुल कर फिलिस्तीनियों के अस्तित्व और अधिकारों की उपेक्षा की गई है।”

तो यह इजराइल के एक अखबार ने कहा है। इजराइल में पिछला संसदीय चुनाव नवंबर 2022 में हुआ था। उसमें धुर दक्षिणपंथी और उग्र यहूदीवादी (Zionist) पार्टियों को काफी समर्थन मिला। इजराइल में सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने का रिकॉर्ड कायम कर चुके दक्षिणपंथी नेता बेंजामिन नेतन्याहू ने तब उन धुर दक्षिणपंथी पार्टियों के समर्थन से सरकार बनाई। हारेट्ज ने अपने संपादकीय में जिन दो नेताओं का जिक्र किया है, वे दोनों ऐसी ही पार्टियों के नेता हैं। ये पार्टियां स्वतंत्र फिलिस्तीन के अस्तित्व से इनकार करती हैं। उनके दबाव में नेतन्याहू की सरकार ने एक तरह से ओस्लो समझौते में बनी सहमति से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया।

साल 1993 में हुए ओस्लो समझौते में दो राज्य सिद्धांत का स्पष्ट प्रावधान था। इसमें कहा गया था कि इजराइल के साथ-साथ एक अलग और स्वतंत्र फिलिस्तीन की स्थापना होगी। इसके लिए इजराइल उन इलाकों को खाली कर देगा, जिन पर उसने 1967 में हुए युद्ध में कब्जा कर लिया था। लेकिन उन इलाकों को खाली करने की बात तो दूर रही, बीते तीन दशक में इजराइल नए फिलिस्तीनी इलाकों पर भी कब्जा करता चला गया है। कब्जे वाले इलाकों में वह अपनी नई बस्तियां बसाते गया है। और नवंबर 2022 के बाद हालात ऐसे बने कि नेतन्याहू सरकार स्वतंत्र फिलिस्तीन के अस्तित्व से ही इनकार करने लगी। खुद बतौर प्रधानमंत्री नेतन्याहू ऐसे नक्शे प्रदर्शित करने लगे, जिनमें बचे-खुचे फिलिस्तीनी इलाकों को भी इजराइल का हिस्सा बताया गया।

इस बीच फिलिस्तीनियों को बेदखल करने की मुहिम में नई आक्रामकता दिखी। यहां तक कि यरुशलम में स्थित और फिलिस्तीनियों की नजर में अत्यंत्र पवित्र अक्सा मस्जिद को अपवित्र करने की घटनाएं खुलेआम हुईं और उन घटनाओं के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल किए गए।

एक तरफ यह हो रहा था, वहीं दूसरी तरफ अमेरिका ने विभिन्न अरब देशों के इजराइल के साथ सामान्य संबंध बनवाने की मुहिम तेज कर दी। मोरक्को, बहरीन और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने तो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के कार्यकाल में ही तथाकथित अब्राहम समझौते के तहत इजराइल से रिश्ता बना लिया। मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडेन ने इजराइल और सऊदी अरब में संबंध बनवाने की कोशिश में अपनी ताकत हाल के महीनों में झोंक रखी थी। ऐसा करते हुए फिलिस्तीनियों की पीड़ा, उनकी चिंता और उनके मुद्दों की पूरी तरह अनदेखी की जा रही थी।

उपरोक्त स्थितियों में आखिर फिलिस्तीनी मानस कैसा बन रहा रहा होगा, क्या यह पहलू मौजूदा युद्ध के सिलसिले में विचारणीय नहीं होना चाहिए? उपरोक्त तथ्यों को अगर ध्यान में रखें, तो क्या फिर भी यह कहा जाएगा कि हमास का हमला अकारण था?

गाजा पर गुजरे 15 वर्षों के दौरान कई बार इजराइल ने नाकेबंदी की है। इस अवधि में इजराइल के हमलों में लगभग डेढ़ लाख फिलिस्तीनी मारे गए। गाजा इलाके को लगातार एक जेल जैसा बनाए रखा गया है। वहां गरीबी और बेकारी की कथनीय पीड़ा है। वहां हुए अत्याचारों का विस्तार से वर्णन करते हुए हारेट्ज अखबार में उसके स्तंभकार गिडियॉन लेवी ने सोमवार को एक टिप्पणी में लिखा- ‘गाजावासी फिलिस्तीनी एक क्षण की आजादी के लिए भी कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं। क्या इजराइल इससे सबक लेगा?’ लेवी का उत्तर है- नहीं। 

बहरहाल, यह तो हालिया कहानी है। इजराइल बनने के पूरे इतिहास पर अगर एक नजर डालें, तो फिर कितने provocation इजराइल ने किए हैं, उनकी गिनती करना मुश्किल हो सकता है। तो आइए, इस कथा पर एक संक्षिप्त और सरसरी निगाह डाले-

  • जहां आज इजराइल, गाजा और पश्चिमी किनारे (वेस्ट बैंक) हैं, दूसरे विश्व युद्ध के बाद तक वो पूरी जगह फिलिस्तीन की थे। फिलिस्तीन के एक हिस्से पर 1948 में इजराइल बनाया गया। उस क्षेत्र में कभी यहूदी रहते थे। लेकिन ईस्वी सन 70 में उन्हें रोमन साम्राज्य से जुड़े लोगों ने वहां से खदेड़ दिया था। तब से यहूदी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में बसे रहे।
  • जिस समय इजराइल की स्थापना का आंदोलन शुरू किया गया, तब फिलिस्तीन का वह पूरा इलाका ओटोमन साम्राज्य के तहत आता था।
  • 18-19वीं सदी में यूरोप में राष्ट्रवाद की भावना फैलने के साथ ही कुछ धनी-मानी यहूदी लोगों ने अपना भी एक देश बनाने की कोशिश शुरू की। लेकिन अंतर यह था कि जहां यूरोप में राष्ट्र को नस्ल, भाषा, समान संस्कृति और एक जैसे ऐतिहासिक अनुभव के आधार पर परिभाषित किया गया था, यहूदी समुदाय के लोगों ने इसे धर्म के आधार पर परिभाषित किया। अलग-अलग देशों में रहने वाले यहूदी वहां की भाषा और संस्कृति में ढले हुए थे, लेकिन यहूदीवादी (Zionist) आंदोलन के प्रणेताओं ने धर्म के आधार पर उन सबको एक राष्ट्र का हिस्सा बताया।
  • सवाल है कि क्या कोई समुदाय दो हजार साल के इतिहास को पलट कर किसी जमीन पर अपना दावा जता सकता है? अगर इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाए, तो इजराइल के समर्थक देशों- अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड को अपना अस्तित्व खत्म करना होगा, क्योंकि उन्होंने स्थानीय मूलवासियों का विनाश और उन्हें बेखल कर उनकी जमीन पर अपना देश बसाया हुआ है।
  • जाहिर है, राष्ट्र की परिभाषा और जमीन पर दावे- दोनों बिंदुओं पर Zionist राज्य की कल्पना घोर अतार्किक थी। इसके बावजूद 1880 के दशक में इसके लिए संगठित पहल शुरू की गई। Zionist आंदोलन के आरंभिक वर्षों- 1882-97 में विभिन्न देशों के यहूदी समुदायों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया।
  • तब 1897 में थियोडोर हर्जेल के नेतृत्व में Zionist कांग्रेस नाम के संगठन की स्थापना हुई। Zionist आंदोलन में हर्जेल का नाम बहुत महत्त्वपूर्ण है। यहूदीवादी राष्ट्र के विचार को प्रचारित करने में उनका बड़ा योगदान रहा। लेकिन व्यवहार में वे इस आंदोलन को ज्यादा कामयाबी नहीं दिला पाए।
  • हर्जेल के दौर में Zionist आंदोलन यहूदियों के लिए अपने एक घर की स्थापना की वकालत करता था। लेकिन बाद में जब हर्जेल की डायरी प्रकाशित हुई, तो उससे पता चला कि यह शब्द रणनीतिक कारणों से चुना गया था। हर्जेल ने लिखा था कि अगर अलग यहूदी राज्य (देश) की बात सामने रखी जाएंगी, तो उसके लिए विभिन्न देशों का समर्थन जुटाना कठिन होगा। स्पष्ट है, आरंभ से ही इस परियोजना में एक तरह का धोखा शामिल था।
  • प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) तक Zionist आंदोलन को कोई खास कामयाबी नहीं मिली थी। आंदोलन के नेता विभिन्न देशों में बसे धनी यहूदियों को फिलिस्तीनी इलाके में जाकर वहां जमीन खरीदने और वहीं बस जाने के लिए प्रेरित कर रहे थे। लेकिन प्रथम विश्व युद्ध तक वहां कुल आबादी में यहूदियों का प्रतिशत 8 से 9 प्रतिशत तक ही हो पाया था।
  • प्रथम विश्व युद्ध में ओटोमन साम्राज्य की हार और उसके बिखर जाने के बाद Zionist आंदोलन में तेजी आई। यहूदीवादी राज्य का गठन तब उस समय की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी ताकत ब्रिटेन की रणनीति का हिस्सा बन गया।
  • ओटोमन साम्राज्य के बिखरने के बाद पश्चिम एशिया के ज्यादातर इलाके ब्रिटिश प्रशासन (मैंडेट) में आ गए। ब्रिटेन की रणनीति तब वहां एक ऐसा देश बनवाने की हो गई, जो वहां उसके रणनीतिक हितों की पूर्ति करता रहे।
  • 1917 तक ओटोमन साम्राज्य बिखराव के करीब पहुंच चुका था। तभी ब्रिटेन के विदेश मंत्री आर्थर जेम्स बेलफॉर ने एक घोषणापत्र जारी किया, जिसमें ‘यहूदियों के लिए एक राष्ट्रीय घर’ बनाने की मांग को समर्थन दिया गया। बेलफॉर घोषणा को इजराइल की स्थापना की मुहिम में मील का पत्थर माना जाता है।
  • पहले से दूसरे विश्व युद्ध (1939-45) की अवधि में Zionist आंदोलन के लिए समर्थन बढ़ा। इसका एक बड़ा कारण जर्मनी में बनी स्थितियां थीं। हिटलर ने वहां यहूदियों को निशाने पर रखते हुए अपने नाजी प्रोजेक्ट को खड़ा किया। इस दौरान यहूदियों के नरसंहार और उन पर हुए अत्याचारों के कारण यहूदियों के प्रति दुनिया के अनेक हिस्सों में हमदर्दी पैदा हुई थी। इसका लाभ Zionist आंदोलन को मिला।
  • दूसरे विश्व युद्ध के बाद 27 नवंबर 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा (उस समय संयुक्त राष्ट्र में पश्चिमी देशों का पूरा वर्चस्व था) ने एक प्रस्ताव पारित कर फिलिस्तीन को अरबों और यहूदियों के क्षेत्र में विभाजित करने का आह्वान किया। इसी के परिणामस्वरूप इजराइल की स्थापना हो सकी।
  • इस प्रस्ताव के पारित होने के बाद अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था- ‘अरब प्रतिनिधियों के वाकआट से यह साफ संकेत मिल गया कि फिलिस्तीनी अरब आबादी महासभा के प्रस्ताव से सहमत नहीं है।’ साफ है, मजबूत देशों ने अपनी ताकत के जरिए यह प्रस्ताव अरब जगत पर थोपा था।
  • पहले विश्व युद्ध से चल रहे ब्रिटिश मैंडेट की अवधि 14 मई 1948 को खत्म हुई। उसी रोज यहूदी परिषद ने तेल अवीव में एक प्रस्ताव पारित कर इजराइल की स्थापना का एलान किया। उसी रात अमेरिका ने इजराइल को मान्यता दे दी। तीन दिन बाद सोवियत संघ ने भी उसे मान्यता प्रदान कर दी।
  • लेकिन अरब देशों ने इस घोषणा को स्वीकार नहीं किया। इस घोषणा के साथ ही पड़ोसी देशों के साथ इजराइल का युद्ध छिड़ गया, जिसमें इजराइल विजयी रहा। युद्ध में इजराइल ने उससे कहीं अधिक जमीन पर कब्जा कर लिया, जितना संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव में उसे देने का निर्णय लिया गया था।
  • इजराइल की स्थापना और उसके बाद हुए युद्ध को फिलिस्तीनी “अल-नकबा” यानी महाविनाश कहते हैं। हर साल इस रोज को वे शोक दिवस के रूप में मनाते हैं। 1948 के युद्ध के दौरान सात लाख फिलीस्तीनियों को विस्थापित कर दिया गया था।
  • इजराइल की स्थापना के बाद लाखों यहूदियों के वहां बसने का सिलसिला शुरू हो गया। उधर फिलिस्तीनी विस्थापित किए जाते रहे। इसका विरोध करने के लिए यासिर अराफात ने 1959 में फतह नाम के संगठन की स्थापना की। तब इस संगठन का मुख्यालय कुवैत में था।
  • 1964 में अराफात और दूसरे फिलिस्तीनी नेताओं ने मिल कर फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) की स्थापना की। फिलिस्तीनियों के अकेले प्रतिनिधि के रूप में अरब दुनिया के बाहर जिस देश ने पीएलओ को सबसे पहले मान्यता दी, वह भारत था।
  • पीएलओ के प्रतिरोध और उसे अरब देशों के मिल रहे समर्थन की पृष्ठभूमि में 1967 का युद्ध हुआ। इस युद्ध में इजराइल के खिलाफ मिस्र, जॉर्डन और सीरिया शामिल हुए। लेकिन जीत पश्चिमी देशों से समर्थन से लड़े इजराइल की हुई। उसने युद्ध के दौरान इजराइल ने पूर्वी यरुशलन, पश्चिमी किनारे, गाजा, गोलान पहाड़ियों और सिनाई पर कब्जा जमा लिया।
  • 1973 में इजराइल और अरब देशों के बीच एक और युद्ध हुआ, जो लगभग तीन हफ्ते चला। इसके बाद अमेरिका ने मध्यस्थता की, जिसके तहत सितंबर 1978 में इजराइल और मिस्र के बीच कैंप डेविड समझौता हुआ। इस समझौते के तहत इजराइल ने सिनाई इलाका मिस्र को लौटा दिया। मिस्र तब इजराइल को मान्यता प्रदान कर दी।
  • इस बीच फिलिस्तीनियों को उनकी जमीन और अधिकारों से वंचित करने का सिलसिला जारी रहा। उसके विरोध में पीएलओ ने दिसंबर 1987 में इंतिफदा (आंदोलन) शुरू किया। यह लगभग छह साल तक चला।
  • इसी आंदोलन के परिणामस्वरूप इजराइल बातचीत की मेज पर आने को मजबूर हुआ। यह बातचीत अमेरिका और सोवियत संघ के समर्थन से आगे बढ़ी। मुख्य मध्यस्थता नॉर्वे ने की। नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में 1993 में एक समझौता हुआ, जिस पर इजराइल के प्रधानमंत्री यित्जाक राबिन और यासिर अराफात ने दस्तखत किए। इसमें फिलिस्तीनियों के लिए अलग देश बनाने पर इजराइल सहमत हुआ।
  • इस समझौते से यहूदी कट्टरपंथी भड़क गए। एक उग्रवादी ने 1995 में यित्जाक राबिन की हत्या कर दी। इसके साथ ही यह समझौता खटाई में पड़ गया। इजराइल ने इसकी शर्तों पर अमल नहीं किया।
  • नतीजतन, फिलिस्तीनियों ने 2000 में दूसरा इंतिफदा शुरू किया, जो 2005 तक चला। पहला इंतिफदा पूरी तरह अहिंसक था। लेकिन उसके दूसरे संस्करण में हिंसा की घटनाएं भी हुईं। इस पर इजराइली सैनिकों ने बर्बर कार्रवाइयां कीं, जिसमें लगभग पांच हजार फिलिस्तीनी मारे गए। दोनों तरफ से जारी तनाव के बीच इजराइल ने दिसंबर 2008 में ऑपरेशन कास्ट लीड की शुरुआत कर दी, जिसके तहत गाजा पर लंबी नाकेबंदी की गई।
  • तब से आज तक का इतिहास रह-रह कर हिंसा भड़कने, फिलिस्तीनी इलाकों पर नाकेबंदी, उनके इलाकों पर बमबारी, फिलिस्तीनियों को उनकी जमीन से बेदखल करने और कब्जा की गई जमीन पर नई इजराइली बस्तियां बसाने का रहा है।
  • इस पूरे दौर में अमेरिका का हाथ इजराइल की पीठ पर रहा है। 2018 से ट्रंप प्रशासन ने फिलिस्तीनी चिंताओं को दरकिनार करते हुए इजराइल को अरब देशों से मान्यता दिलवाने की मुहिम छेड़ दी। ट्रंप प्रशासन ने यरुशलम को इजराइल की राजधानी के रूप में मान्यता दे दी, जबकि ओस्लो समझौते में प्रावधान था कि पूर्वी यरुशलम फिलिस्तीन की राजधानी होगा। बाइडेन प्रशासन ने ट्रंप प्रशासन की नीतियों को जारी रखा है।
  • इसके बाद हाल में क्या हुआ, यह कहानी हम आपको बता चुके हैं।

क्या इजराइली अत्याचार की इस लंबी पृष्ठभूमि के बावजूद यह कहा जाएगा कि हमास ने अकारण हमला किया?

या यह कहना अधिक उचित होगा कि इजराइल का फिलिस्तीनियों की जमीन पर बनना और उसका वहां फैलते जाना ही वहां प्रतिरोध का सबसे बड़ा कारण है, जिसका एक रूप में 7 अक्टूबर 2023 को देखने को मिला?    

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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