चुनाव घोषणापत्र से कैसी छवि उभरी है कांग्रेस की?

बात की शुरुआत अगले चार जून को 18वीं लोकसभा चुनाव के संभावित नतीजों के बारे में विपक्ष के लिए सबसे बेहतर बन सकने वाली स्थिति की कल्पना के साथ करते हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हाल के कई बयानों में दावा किया है कि भारतीय जनता पार्टी 200 लोकसभा सीटों की संख्या पार नहीं कर पाएगी। तो मान लेते हैं कि भाजपा 190 सीटों के आसपास सिमट जाएगी। यानी 2019 की तुलना में उसे लगभग 110 सीटों का नुकसान होगा।

अब यह भी मान लेते हैं कि ये सभी सीटें विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया के खाते में चली जाएंगी। इस तरह ये गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच जाएगा। इस गठबंधन के अंदर कांग्रेस के सबसे बड़ा दल बने रहने का अनुमान तो आराम से लगाया ही जा सकता है। कुछ कांग्रेस समर्थकों ने इस पार्टी को 135 तक सीटें मिलने का दावा किया है। मान लेते हैं कि यह दावा भी सही साबित होगा।

इसके बावजूद कांग्रेस अपना एजेंडा अगली सरकार पर थोपने में सफल होगी, यह मानने की कोई वजह नहीं है। विपक्ष के लिए अभी जिस सबसे अच्छी स्थिति की कल्पना की गई है, उसे सच होने के लिए यह जरूरी है कि कम से कम दो पार्टियां- डीएमके और तृणमूल कांग्रेस मजबूत होकर अगले सदन में आएं। उसके लिए लेफ्ट पार्टियों की स्थिति में भी सुधार जरूरी है। साथ ही राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, शरद पवार की पार्टी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना को भी बेहतर प्रदर्शन करना होगा। ये दल कांग्रेस के एजेंडे को सहज स्वीकार कर लेंगे, इसकी संभावना न्यूनतम है।

इस नजरिए से देखें, तो पांच अप्रैल को जारी कांग्रेस का घोषणापत्र में किए गए वादों का बहुत महत्त्व नहीं दिखता। अधिक से अधिक इस घोषणापत्र को कांग्रेस के इरादे का इजहार माना जाएगा। बहरहाल, राजनीति में पार्टियों की क्या नीति और कार्यक्रम हैं, उनका क्या नजरिया है, यह भी खासा महत्त्वपूर्ण होता है। कोई पार्टी किस सोच को लेकर राजनीति में है, इसे जानना-समझना अहम होता है।

फिर कांग्रेस तो देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, जिसकी आज भी राष्ट्रीय उपस्थिति है। ऐसे में कांग्रेस घोषणापत्र में किए गए वायदों की साख लागू हो सकने के लिहाज से भले ज्यादा नहीं हो, फिर भी यह कहा जाएगा कि यह विचार और बहस का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।

वैसे कांग्रेस ने जो वादे किए हैं, उनकी साख बनाने की पार्टी ने खुद भी कोई गंभीर कोशिश नहीं की है। वरना, अपने घोषणापत्र में वह जरूर बताती कि जन-कल्याण संबंधी हर वादे को लागू करने पर क्या खर्च आएगा? साथ ही वह ये संसाधन कहां से जुटाएगी?

वित्त वर्ष 2024-25 के लिए पेश बजट में बताया गया था कि इस वर्ष अगर लिए जाने वाले कर्ज को छोड़ दिया जाए, तो सरकार की कुल आय 30.80 लाख करोड़ रुपये रहेगी। इसमें टैक्स का हिस्सा 26.02 लाख करोड़ रुपये होगा। बजट के मुताबिक कुल खर्च 47.66 लाख करोड़ रहने का अनुमान है। बताया गया कि आय से ज्यादा होने वाले खर्च की एक सीमा तक भरपाई कर्ज से होगी। उसके बाद राजकोषीय घाटा 5.1 प्रतिशत रह जाएगा।

तो यह भारत की कुल बजटीय सूरत है। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में अनेक ऐसे वायदे किए हैं, जिनका बजटीय प्रभाव होगा। कांग्रेस ने यह नहीं बताया है कि स्वामीनाथन फॉर्मूले के तहत एमएसपी लागू करने, किसानों का कर्ज माफ करने, एक लाख रुपये भत्ते के साथ एक साल की अनिवार्य अप्रेंटिसशिप की व्यवस्था करने, 30 लाख खाली सरकारी पदों को भरने, अग्निवीर स्कीम को बंद कर सेना में स्थायी नियुक्ति करने, गरीब महिलाओं को एक लाख रुपये सालाना देने, मातृत्व लाभ सभी महिलाओं को देने, स्वास्थ्य पर जीडीपी के चार फीसदी के बराबर खर्च करने, वगैरह… वगैरह… जैसे वायदों को लागू करने का बजटीय प्रभाव क्या होगा।

वैसे अब प्रत्यक्ष लाभ ट्रांसफर करने ऐसे वादे किसी पार्टी विशेष की खासियत नहीं रह गए हैं। यह एमजीआर-जयललिता मॉडल अब देश भर में प्रचलित हो चुका है। इसलिए कांग्रेस ने बढ़-चढ़ कर ऐसे वादे किए हैं, तो उनसे उसकी कोई खास पहचान बन सकने की आशा नहीं है। बल्कि इसका सिर्फ यह अर्थ है कि सस्ती लोकप्रियता जुटाने की इस होड़ में वह अपनी पूरी ताकत से शामिल हो गई है।

पार्टी ने इन वादों को कल्याण (welfare) की अपनी धारणा के तहत घोषणापत्र में जगह दी है। पार्टी ने अपनी आर्थिक सोच को तीन शब्दों से परिभाषित किया हैः Wealth (धन निर्माण), Work (काम के अवसर पैदा करना), और Welfare (जन-कल्याण)। इस रूप में देखा जाए, तो कहा जाएगा कि कांग्रेस नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था की सोच से बाहर नहीं निकल पाई है। सोच यह है कि पूंजी को नियंत्रणविहीन रखते हुए मुक्त बाजार की नीति के जरिए धन निर्मित करने दिया जाए- यानी उत्पादन एवं वितरण तथा वित्तीय बाजारों में सरकार का न्यूनतम हस्तक्षेप हो। समझ यह है कि ऐसा होने पर निवेशक रोजगार के अवसर पैदा करेंगे, जिससे समाज में खुशहाली आएगी। उससे सरकार का राजस्व बढ़ेगा, जिससे वह जन कल्याण की योजनाओं को लागू कर पाएगी।

मगर साढ़े तीन दशकों का अनुभव यह है कि नव-उदारवादी नीतियों से धन तो खूब पैदा होता है- साथ ही पैदा होने वाले धन का संकेद्रण भी पूंजी और संपत्ति के मालिक तबकों के हाथ में होता है, लेकिन उससे रोजगार के अवसर नहीं बढ़ते। बल्कि इसमें काफी धन तो श्रमिकों की कीमत पर पैदा होता है। अभी हाल ही में आई अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट में यह बात दो टूक कही गई है कि साल 2000 के बाद से भारत में हुई आर्थिक वृद्धि रोजगार-विहीन रही है। इस रिपोर्ट ने पुष्टि की है कि Jobless Growth की धारणा तथ्यों पर आधारित है। (Jobless growth a reality, employment trails GVA by wide margin – Jobs and Career News । The Financial Express)। यानी वेल्थ क्रिएशन और वर्क अपॉर्चुनिटी के बीच अनिवार्य संबंध मानने सोच बेबुनियाद है।

जहां तक वेलफेयर यानी कल्याण की बात है, तो यूपीए के शासनकाल में कांग्रेस ने इसी सोच के साथ आगे बढ़ने की कोशिश की थी। लेकिन तब तक तमाम नियंत्रणों से मुक्त होकर देश के कारपोरेट घराने इतने शक्तिशाली हो चुके थे कि उन्हें धन संचय की राह में कोई रुकावट बर्दाश्त नहीं थी। उन्हें यह मंजूर नहीं था कि सरकार एक स्वतंत्र एजेंसी के रूप में काम करते हुए आदिवासियों के लिए वन अधिकार कानून, किसानों के लिए नया भूमि अधिग्रहण कानून, खाद्य सुरक्षा कानून, सूचना का अधिकार कानून, आदि जैसे उपायों को लागू करे। नतीजा उनके विद्रोह के रूप में हुआ, जो अन्ना आंदोलन के रूप में सामने आया। इस आंदोलन के जरिए यूपीए सरकार की साख को खत्म करते हुए कॉरपोरेट घरानों ने अपनी पसंद के नेता और पार्टी को 2014 के चुनाव में प्रायोजित किया। वह परिघटना उसके बाद से और मजबूत ही हुई है।

इसलिए ताजा घोषणापत्र को इस बात की मिसाल माना जाएगा कि कांग्रेस ने तब के घटनाक्रमों से कोई सबक नहीं लिया है। इसके विपरीत वह आज भी नव-उदारवादी नीतियों के प्रति अपनी निष्ठा जताकर धनिक वर्ग का समर्थन हासिल करने की होड़ में जुटी हुई है। इसमें उसका सफल हो पाना फिलहाल तो संभव नहीं दिखता, क्योंकि उन तबकों का हित साधने में भाजपा ने अपनी उपयोगिता और योग्यता कहीं बेहतर ढंग से साबित कर रखी है।

चूंकि अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में ऑफर करने के लिए कांग्रेस के पास कुछ नया नहीं है, इसलिए उसने अपनी अलग पहचान सामाजिक-सांस्कृतिक और नागरिक अधिकार संबंधी मुद्दों को लेकर बनाने की कोशिश की है। इसके दो आयाम हैः पहला तो यह कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल में नागरिक स्वतंत्रताओं के बढ़ते गए हनन से नाराज और परेशान लोगों को आकर्षित किया जाए। इस लिहाज से पार्टी ने जो कहा है, एक बड़े तबके में उसे एक मरहम के रूप में देखा गया है। धरम-करम, खान-पान, विवाह आदि में बाहरी दखल खत्म करने और सरकारी आतंक के भय से लोगों को मुक्त करने के वादों को इस श्रेणी में रखा जाएगा। लेकिन इस मोर्चे पर पार्टी कुछ सहमी हुई भी नजर आती है।

मसलन, कांग्रेस भाजपा सरकार के कार्यकाल में बनाए गए कठोर कानूनों को रद्द करने का दो टूक वादा करने से हिचक गई है। यूएपीए, अफ्सपा, पीएमएलए आदि जैसे कानूनों का उल्लेख इस सिलसिले में किया जा सकता है। साथ ही कांग्रेस ने अनुच्छेद 370 की वापसी और नागरिकता संशोधन कानून को रद्द करने जैसे मुद्दों पर चुप्पी साध ली है।

अगर विपक्ष के लिए सर्वोत्तम काल्पनिक स्थिति सचमुच साकार हो जाए, तो इन बिंदुओं पर कांग्रेस का डीएमके और सीपीएम जैसे गठबंधन सहयोगियों से टकराव भी खड़ा हो सकता है। इन दलों ने मोदी सरकार के उठाए उपरोक्त कदमों को वापस लेने और पुरानी स्थिति बहाल करने का स्पष्ट वादा किया है।

ऐसे में कांग्रेस के लिहाज से “रैडिकल” कदम सिर्फ आइडेंटिटी पॉलिटिक्स को गले लगाना भर नजर आता है। पार्टी ने जातीय जनगणना करवाने, सरकारी क्षेत्र में आरक्षण की 50 प्रतिशत की सीमा को खत्म करने और निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था करने का वादा किया है। मगर यह कहा जा सकता है कि इस होड़ में भी कांग्रेस बहुत से देर से शामिल हुई है। तब, जबकि इसके सारे लाभ दूसरी पार्टियां बटोर चुकी हैं। आज इस राजनीति को अपने भीतर समाहित कर भाजपा ने दूसरों के लिए इससे चुनावी लाभ प्राप्त करने बहुत कम संभावनाएं छोड़ी हुई हैं।

यह बात हमने आरंभ में कही कि राजनीतिक परिस्थितियां ऐसी हैं, जिसमें कांग्रेस के घोषणापत्र को अगली सरकार के मार्गदर्शक पत्र के रूप में देखने की गुंजाइश नहीं बनती। अतः यह कांग्रेस के इरादों और सोच का एक दस्तावेज भर है। लेकिन यहां भी इसे पढ़कर कोई उत्साह पैदा नहीं होता, क्योंकि इसमें ऐसी कोई नई सोच या पहल नजर नहीं आती, जिससे अब सियासी दायरे में वर्चस्व बना चुकी भाजपा और उसकी विचारधारा के विरुद्ध किसी बड़ी जन गोलबंदी का वैचारिक आधार उपलब्ध हो सके।

इसके बावजूद कुछ हलकों में इसे “युगांतकारी” या “रैडिकल” दस्तावेज कहा गया है, तो यही कहा जा सकता है कि जहां घोर सूखा पड़ा हो, वहां इक्का-दुक्का बादलों का आसमान में आ जाना भी लोगों को राहत देने लगता है। मोदी सरकार की ताप से उद्वेलित जन समूहों को ऐसा ही अहसास इस दस्तावेज से हुआ हो, तो इस बात को समझा जा सकता है!

(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं और दिल्ली में रहते हैं।)

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