उपयोगकर्ताओं पर बढ़ते निरंकुश हमलों के साथ कार्यकर्ताओं को लगता है कि सूचना अधिकार (आरटीआई) आज जितना संकुचित कभी नहीं रहा, कानूनों और नीतियों द्वारा योजनाबद्ध तरीके से इसका दायरा लगातार संकीर्ण किया जा रहा है।
यूं तो आरटीआई अधिनियम इस साल वयस्क हो गया लेकिन 18 साल का होने पर किसी व्यक्ति को जहां मताधिकार मिलते हैं, उसके बरक्स सूचना अधिकार की सच्चाई बेहद अलग है। इस साल बहुत नुकसानदायक और प्रतिगामी संशोधन अधिनियम में हुए हैं, जबकि सूचना आयुक्तों के पद रिक्त हैं, प्रतिकूल अदालती आदेश आ रहे हैं और ‘सकारात्मक आदेशों’ पर पारदर्शिता-केंद्रित सूचना आयुक्तों के अभाव में अमल नहीं हो पाता।
कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) की इकट्ठा जानकारी के अनुसार केवल इस साल दो मौतों और तीन हमलों, धमकियों और प्रताड़ना के मामले सामने आए हैं। अधिनियम बनने की बाद से अब तक 106 उपयोगकर्ता मारे जा चुके हैं और 488 पर हमले हुए हैं, प्रताड़ित किया गया है या धमकाया गया है। जो मारे गए हैं उन्हें न्याय नहीं ही मिला है उन चंद मामलों को छोड़कर जो हाई प्रोफाइल नहीं थे या जिनमें लोग संबद्ध नहीं थे।
आरटीआई उपयोगकर्ताओं की हत्याओं और प्रताड़ना के अलावा कानूनों और नीतियों के कारण भी आरटीआई अधिनियम का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है।
इस साल सबसे ताज़ा और नुकसानदायक संशोधन डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट (डीपीडीपी) में कर आरटीआई अधिनियम की धारा 8(1)(जे) हटा दी गई जिससे सूचना तक पहुंच के मामले में नागरिकों को जनप्रतिनिधियों के बराबर लाया गया था। धारा व्यक्ति की निजता की भी रक्षा करती थी और सब निजी जानकारी नहीं दी जाती थी। संशोधन के बाद अब कोई भी निजी जानकारी दिए जाने से इनकार किया जा सकता है।
नागरिकों के सूचना अधिकार के क्षेत्र में कार्य करने वाले संगठन नेशनल कैम्पेन फॉर पीपल्स राइट टु इनफार्मेशन (एनसीपीआरआई) की सह संयोजक अंजली भारद्वाज कहती हैं- “धारा 8 (1)(जे) संशोधित की गई है और अब कानून कहता है कि सभी सूचनाएं जो निजी हैं, नहीं दी जाएंगी। पहले इस धारा में एक सुविचारित प्रावधान था जो लोगों की निजता को भी बचाता था और व्यक्ति के सूचना के अधिकार को भी संतुलित करता था। अब बहुत सारी निजी जानकारी, कर्ज डुबाने वालों के नाम, राजनीतिक पार्टी की फन्डिंग या लाभार्थियों के बारे में जानकारी अब यह संशोधन दिखाकर देने से माना किया जायेगा।”
सूचना अधिकार कार्यकर्ता भास्कर प्रभु के अनुसार सूचना अधिकार के लिए मुहिम का एक आधार पारदर्शिता और खासकर लाभार्थी योजनाओं से भ्रष्टाचार हटाना था। लोग, खासकर पिछड़े और वंचित, सूचना अधिकार का इस्तेमाल कर जानकारी प्राप्त करने लगे थे और जमीन पर बदलाव दिखने लगा था।
प्रभु कहते हैं, “जब सरकारें घिरने लगीं तो वह संशोधनों की बात करने लगीं। ताज़ा संशोधन पिछड़े लोगों से जानकारी को दूर ले जाएगा और लाभकारी जानकारी यह कहकर नहीं दी जाएगी कि यह निजी जानकारी है।” प्रभु की संस्था माहिती अधिकार मंच मुंबई और महाराष्ट्र में सूचना अधिकार का प्रचार-प्रसार करती है।
सूचना अधिकार कार्यकर्ता आरोप लगाते हैं कि कुछ राज्यों में आयुक्तों ने डीपीडीपी के हवाले से जानकारी देने से मना करना शुरू भी कर दिया है, जबकि यह पूरी तरह से लागू होना बाकी है।
यह रवैयाकारी परिवर्तन ही है जो उनके लिए ज्यादा चिंताजनक है जबकि पहले भी ऐसे मौके थे जब कानून और अदालती आदेश के बावजूद नागरिकों को जानकारी नहीं मिल पाती थी। उदाहरण कर्ज डुबाने वालों की जानकारी मांगने के मामले का है।
2011 में मुख्य सूचना आयुक्त सैलेश गांधी ने आदेश दिया कि डिफॉल्टरों की जानकारी साझा की जाए। सुप्रीम कोर्ट ने उनके निर्णय को 2015 में भारतीय रिजर्व बैंक को निर्देश देते हुए बरकरार रखा। लेकिन, पारदर्शिता का सही मायने में पालन करते हुए ऋण बट्टे खाते में डालना, बैड लोन, उन्हें पास करने वालों की जानकारी समेत मौद्रिक लेन-देन पर प्रकाश डालने वाली समूची जानकारी नहीं दी जाती।
आरटीआई को वेंटिलेटर पर डाल दिया गया
पुणे के सूचना अधिकार कार्यकर्ता विवेक वेलनकर, जिनके सूचना अधिकार आवेदनों ने इस साल राष्ट्रीय बैंकों के कर्ज डुबाने वालों पर 2.05 लाख करोड़ के कर्ज का खुलासा किया, ने कहा, “कर्ज बट्टे खाते में डालने का काम बैंक कर रहे हैं पर आरटीआई के तहत इसकी सूचना नहीं दी जाती। यह विलफुल डीफॉल्टर भी हों यह जरूरी नहीं है। यदि आप कोई रकम बट्टे खाते में डाल रहे हैं तो इसका मतलब है कि रिकवरी की सारी उम्मीद खो चुके हैं।”
उन्होंने कहा कि, “बकाया वसूली के लिए फ्लैटों की नीलामी करते समय, उस व्यक्ति और गारंटर के नाम दिए जाते हैं। लेकिन वह जो ऋण बट्टे खाते में डाल रहे हैं, उनके बारे में विवरण नहीं देते। यदि यह विवरण उपलब्ध होता तो हमें यह भी पता लग सकता है कि किस निदेशक ने ऐसे बैड लोन पास किए और बट्टे खाते में डाले।”
उन्होंने कहा कि “दिन प्रति दिन वह ऐसी चीजें कर रहे हैं जो अधिनियम के प्रभाव को कम करती हैं और आरटीआई उपयोगकर्ताओं को प्रताड़ित किया जाता है और पारदर्शिता लागू कराने में विफलता हासिल होती है। उन्होंने आरटीआई को वेंटीलेटर पर डाल दिया है और उसे मरने भी नहीं दे रहे और बचा भी नहीं रहे। वह उसे मरने नहीं देंगे क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय दबाव है लेकिन आवेदकों को परेशान किया जाएगा और जानकारी नहीं दी जाएगी।”
आरटीआई उपयोगकर्ताओं की प्रताड़ना
आरटीआई कार्यकर्ताओं की प्रताड़ना, जन सूचना अधिकारियों द्वारा जानकारी न मुहैया कराने की घटनाएं बढ़ रही हैं जिसका प्रमुख कारण आयोगों में कार्य न होना या आयुक्तों का कड़ा रुख न अपनाना है। कार्यकर्ता कहते हैं कि “दुरुपयोग का बहाना बना कर जानकारी देने से मना किया जाता है और इसका कोई इलाज नहीं है क्योंकि आयोग खाली हैं और लंबित अपील व शिकायतें बढ़ती जा रही हैं।”
पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त सैलेश गांधी कहते हैं, “मैं यह नहीं कहता कि दुरुपुयोग नहीं होता है। ऐसे लोग हो सकते हैं जो आरटीआई का दुरुपयोग करते हों। लेकिन जैसा आरटीआई अधिनियम के खिलाफ नैरेटिव बनाया जा रहा है, मैंने वैसा किसी और अधिनियम के मामले में नहीं देखा। और भी कई ऐसे कानून हैं जिनका नियमित रूप से दुरुपयोग होता है लेकिन किसी ने उनके खिलाफ या उनके उपयोगकर्ताओं के खिलाफ ऐसा नैरेटिव नहीं बनाया। मैं इसके लिए अधिकारियों, अदालतों और मीडिया को भी जिम्मेदार मानता हूं।”
वह कहते हैं, “मैं दुरुपयोग या ब्लैकमेलिंग को सही नहीं ठहरा रहा लेकिन ज़ोर (बड़े) अपराधी को सज़ा देने पर नहीं है। निन्यानबे फीसदी मौकों पर फोकस की गई अनियमितता पर नहीं होता। मेरी राय में दुरुपयोग को कुछ ज्यादा ही तूल दिया जाता है।” उनके अनुसार सूचना अधिकार उपयोग की विश्वसनीयता कम करना जानकारी न देने का यानी पारदर्शिता न बरतने का बहाना बन जाता है। वह कहते हैं इस प्रवृत्ति ने जन सूचना अधिकारियों को जानकारी न देने की हिम्मत दी है।
सूचना की कीमत : जान
बुरी स्थिति में आरटीआई उपयोगकर्ताओं पर हमले भी होते हैं और हत्या तक कर दी जाती है। महाराष्ट्र में भूमि सौदों को बेनकाब करने की कोशिश में सतीश शेट्टी की 2010 में हत्या की गई थी और उनके भाई संदीप शेट्टी अब तक न्याय के लिए दर-दर भटक रहे हैं। पिछले महीने ही संदीप यह सुनिश्चित कर पाए कि मामला बंद नहीं कर दिया जाए।
सतीश ने मुंबई पुणे हाइवे पर बड़ी ज़मीन खरीदी में अनियमितताओं का पर्दाफाश किया था। यह सरकारी ज़मीन थी और निजी पक्ष को ट्रांसफर की जा रही थी। उन्होंने प्राथमिकी दर्ज कराई।
पहले धमकियां मिलीं। फिर लालच। अंत में उन्हें मार दिया गया चूंकि मामले में हाई प्रोफाइल लोग शामिल थे। मामला लटकता रहा। पिछले महीने ही सुप्रीम कोर्ट ने उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज किया जिससे सीबीआई को मामला इस आधार पर बंद करने की अनुमति दी थी कि सुनवाई त्रुटिपूर्ण थी। संदीप कहते हैं, “यदि मामला सही से चले तो सीबीआई तक बेनकाब हो जाएगी।”
कार्यकर्ता कहते हैं कि जब धमकियां मिलने लगें और हमले होने लगें तो सूचना आयुक्तों को खुद आगे आकर ऐसे मामलों में दिलचस्पी दिखानी चाहिए।
सीएचआरआई निदेशक वेंकटेश नायक कहते हैं, “आयुक्तों को सरकार को तेज़ जांच के लिए दबाव डालना चाहिए।” लेकिन, उनके अनुसार, यह साल पिछले सालों जैसा ही बुरा बीता है। महत्वपूर्ण मामलों में और अपारदर्शिता होती है। सुप्रीम कोर्ट से गुहार न लगाई जाए तो सूचना आयुक्तों के पद नहीं भरे जाते। आयुक्तों की वार्षिक रिपोर्ट समय पर नहीं आती।
धमकियों और हमलों के बावजूद ज्यादा आरटीआई आवेदन
नायक कहते हैं कि सुकून वाली एक ही बात है कि नागरिक, कार्यकर्ता और मीडियाकर्मी आरटीआई का इस्तेमाल जारी रखे हुए हैं। वह कहते हैं, “दूसरी सुकून की बात है कि स्वत:स्फूर्त खुलासों पर ज़ोर दिया जा रहा है और सुप्रीम कोर्ट का आदेश कि आयुक्त इस पर नज़र रखें।” भारत में, 60 लाख आवेदन दाखिल किये जाते हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में काफी लोग इसका इस्तेमाल करते हैं। राजस्थान और कर्नाटक ने स्वत:स्फूर्त सूचना देने की प्रणाली बनाई है और कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि सत्ता बदलने पर भी यह सिलसिला बाधित नहीं होगा।
सूचना आयुक्तों की कमी
इस साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सूचना आयोग सुनिश्चित करें कि सरकारी अधिकारी स्वत:स्फूर्त खुलासों के निर्णय का पालन कर रहे हैं। लेकिन, कई स्थानों पर आयोग खुद ही रिक्त पदों के कारण काम नहीं कर रहे। केंद्रीय सूचना आयोग में एक मुख्य आयुक्त की नियुक्ति हाल में हुई और वहां एक और आयुक्त हैं जबकि लंबित अपील और शिकायतों की संख्या इस समय बीस हजार से ज्यादा है।
कई आयोगों में पूर्णकालिक मुख्य आयुक्त नहीं हैं। महाराष्ट्र, जहां देश में सर्वाधिक एक लाख से ज्यादा अपील और शिकायतें लंबित हैं, पूर्णकालिक मुख्य आयुक्त नहीं हैं। तेलंगाना और त्रिपुरा जैसे आयोगों में काम नहीं हो रहा।
प्रभु के अनुसार, “हर बार आयुक्तों की नियुक्ति के लिए अदालत जाना पड़ता है। जो आयुक्त नियुक्त किये जाते हैं पारदर्शिता समर्थक नहीं होते। सरकारी सेवा में रहते जिंदगी भर वह अपारदर्शी रहे होते हैं और फिर उन्हें आयुक्त बनाया जाता है। ऑनलाइन सुनवाइयों के मामले में भी आयोगों ने कोई कदम नहीं उठाया।”
कार्यकर्ताओं ने कोविड-19 महामारी के बाद अदालतों से अनुरोध किया था कि ऑनलाइन सुनवाइयों को स्थायी सुविधा बनाया जाए। लेकिन मामले खिंचते जाते हैं जब तक नागरिक परिवर्तन के लिए ज़ोर नहीं देते। भारद्वाज कहती हैं, “अंत में यह राजनीतिक इच्छा शक्ति पर ही है कि पारदर्शिता हो और बेहतर प्रशासन मुहैया कराया जाए। सूचना अधिकार पर चोट लोकतंत्र पर चोट है।”
(आशुतोष एम शुक्ला का लेख फ्री स्पीच कलेक्टिव से साभार। अनुवाद – महेश राजपूत)
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