समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड यानी यूसीसी) की चर्चा को चुनाव पूर्व गर्मा दिया गया है। वजीर ने शंखनाद किया है, प्यादे झुनझुना बजा रहे हैं। एक राष्ट्र में एक कानून क्यों नहीं, बताया जा रहा है। भाई, यह विसंगति, यह वेदना तो यहां के बहुसंख्यक मूल निवासी, हजारों साल से झेल रहे हैं। अपनी बहुओं को जमींदारों के घर भेजने को बाध्य होते रहे। केरल में जवान स्त्रियां स्तन उघार कर जीने को विवश की गईं। सार्वजनिक कुंओं या तालाबों में दलितों को पानी पीने नहीं दिया गया। सुबह और शाम, सड़क पर निकलने से रोका गया जिससे उनकी लम्बी परछांई, ब्राह्मणों को छू न ले। बंधुआ मजूरी, जूठन खाने की विवशता और मल ढोने की मजबूरी तो संविधान लागू होने के बाद, दशकों तक चली है?
आज समान नागरिक संहिता की बात ऐसे की जा रही है, गोया यह सामाजिक ऊंच-नीच की खाइयां ढाही जाने वाली हों? राजा और रंक एक साथ खाने-पीने, बैठने जा रहे हों? कहा जा रहा है कि समान नागरिक संहिता, सामाजिक मामलों से संबंधित है और विवाह, तलाक, भरण-पोषण, विरासत आदि पर लागू होगा तो फिर विभिन्न धर्मों की विभिन्न प्रथाओं, विधानों का क्या होगा? क्या धर्म आधारित परम्पराओं, प्रथाओं को समाप्त किया जाने वाला है? अगर ऐसा हो रहा हो तो फिर कोई विवाद नहीं पर हम यहां, एक धर्म के आधिपत्य और उसके साथ सत्ता सहयोग की संस्कृति को देख रहे हैं। पूरा प्रशासनिक तंत्र उसमें संलिप्त देखा जा रहा है। ऐसे में दूसरे धर्मावलम्बियों के मन में संदेह तो पैदा होगा ही।
जिस देश का सम्पूर्ण अतीत विविधतापूर्ण रहा है, वहां समान सिविल कोड की बात, मजाक के सिवा क्या है? किस बात की समानता? इसका स्वरूप क्या होगा, अभी स्पष्ट नहीं है मगर मुनादी बजाई जाने लगी है गोया बड़ा क्रांतिकारी काम हो? अगर यह इतना आसान काम होता तो संविधान निर्माण करने वाले विद्वान इसे छोड़ न दिए होते।
हजारों सालों का इतिहास, हिन्दू सत्ताएं, इस बात की गवाह हैं कि यहां का समाज विविध संस्कृतियों, समुदायों, सत्ताओं, भाषाओं और मौसमों का रहा है। प्रकृति ने इस भू-भाग को समान नहीं बनाया है। यहां के मूल निवासी काले और नाटे हैं तो थोड़े से दूसरे समुदाय वाले गोरे और लम्बे भी। नाक नक्श भी उनके अलग हैं। आज जिन्हें हम भारतीय नागरिक कहते हैं, उन सभी के चेहरे-मोहरे, लम्बाई और पहनावों में भिन्नता है और हजारों सालों से रही है, आगे भी हजारों साल तक रहेगी, चाहे जैसा भी सख्त कानून लागू कर दिया जाए। तब फिर प्रधानमंत्री ने ‘एक देश, एक कानून’ की बात अकारण तो नहीं शुरू की है? इसके पीछे कोई मंशा जरूर होगी? और दरअसल यह मंशा ही इस मामले में विचार और आशंका का मूल बिन्दु है।
हम देख रहे हैं कि भाजपा सरकार की हर नीतियां केवल ब्राह्मणवादी सर्वोच्चता को स्थापित करने यानी ब्राह्मणवादी सत्ता के निर्माण की ओर बढ़ रही हैं। इसलिए सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि समान नागरिक संहिता उसी की दिशा में बढ़ाया गया एक कदम है। नोबेल पुरस्कार और भारत रत्न विजेता, अमर्त्य सेन इस कानून को बनाने की जल्दबाजी को, हिन्दू राष्ट्र की भूमिका में पाते हैं और बताते हैं कि यह हिन्दू राष्ट्र के लिए ही धोखा साबित होगा। यह केवल कुछ लोगों के दुरुपयोग का कानून बनकर रह जायेगा। अल्पसंख्यकों और मूल निवासियों का आखेट करेगा।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि सांस्कृतिक विविधता इस देश के संविधान निर्माताओं के सामने एक बड़ी चुनौती थी और उन चुनौतियों से निबटने के लिए उन्होंने संविधान में जो भूलभूत प्राविधान किए वे इस बात को ध्यान में रखकर किए कि विविध संस्कृतियों और जनजातियों की परम्पराओं में सुधार, धीरे-धीरे, उनकी इच्छा से, शिक्षा और आर्थिक विकास के द्वारा होगा। शिक्षा के प्रसार की वजह से मुस्लिमों या दूसरे धर्मावलम्बियों में चार-चार शादियों की प्रथा अपने आप खत्म होने लगी है। इसके लिए कोई कानून नहीं लाना पड़ा है।
आदिवासियों में शादी और पैतृक सम्पत्ति की अलग प्रथा रही है। आज उत्तर-पूर्व के आदिवासी नेता सवाल उठा रहे हैं कि जब संविधान की धारा 371 के अंतर्गत नागालैंड के मामले में विशेष प्राविधान है, धारा 371-जी द्वारा मिजोरम के लिए विशेष प्राविधान है और संविधान के छठे शेड्यूल में असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा के स्वशासी जिला काउंसिलों के गठन का प्राविधान है, फिर इस यूसीसी का क्या होगा? यूसीसी इन सभी संवैधानिक प्राविधानों का उल्लंघन करेगी? सर्वोच्च न्यायालय ने भी समय-समय पर विविध परंपराओं और संस्कृतियों को ध्यान में रखते हुए कानून की व्याख्या की है।
अप्रैल 2022 में सर्वोच्च न्यायालय, गुवाहाटी हाई कोर्ट की उस टिप्पणी से सहमत हुआ था, जिसमें कहा गया था कि, मिजो आदिवासियों की परंम्परा के अनुसार, संपत्ति का उत्तराधिकार, इस बात पर निर्भर करता है कि किसी व्यक्ति ने मृतक के बुढ़ापे में उसकी देखरेख की थी या नहीं? बोड़ो आदिवासी समुदाय में भी कुछ इसी तरह की प्रथा कायम रही है। ऐसे में देश के व्यापक आदिवासी आबादी की परम्पराओं, प्रथाओं उनकी संस्कृतियों को क्या एक झटके से खत्म किया जा सकता है? धार्मिक रूप से भी आदिवासी समुदाय, हिन्दू समुदाय से भिन्न रहा है। हम बराबर उनके आंतरिक और सामाजिक मामलों में हस्तक्षेप करते हुए, प्रताड़ित करते रहे हैं।
ऐसे में यूसीसी कानून से एक बार फिर, आदिवासी समुदाय के अस्तित्व के सामने संकट पैदा करेगा। इसी आशंका से उनके अंदर विरोध की आवाजें उठने लगी हैं और सरकार के कान खड़े हो गए हैं। तभी तो उन्हें आश्वासन दिया जा रहा है कि आदिवासियों के परम्परागत परम्पराओं और संस्कृतियों को नहीं छुआ जायेगा। तो क्या समान नागरिक संहिता केवल धर्म-विशेष के लोगों का आखेट करने के हथियार के रूप में इस्तेमाल होगा?
इस देश के नक्शे का स्वरूप अंग्रेजी सत्ता के बाद सामने आया है, और अब भी आजाद कश्मीर, और उत्तर-पूर्व के कुछ भू-भाग विवादित बने हुए हैं। पाकिस्तान और चीन से विवाद के केन्द्र में भी, देश के नक्शे की मान्यता और उसकी हिफाजत का प्रश्न मुख्य है। ऐसे में जब संविधान ने यहां के नागरिकों को कुछ मौलिक अधिकार दिए हैं और कुछ अधिकारों को लागू करने के लिए नीति निर्देशक तत्वों का प्राविधान किया है, जिन्हें हम अब तक पूरी तरह लागू नहीं कर पाए हैं, तब विभिन्न धर्मों के अंदर खदबदाहट पैदा करने की क्या जरूरत है? क्या यह सही नहीं लगता कि समान नागरिक संहिता के बहाने देश में नफरत पैदा करने और हिन्दुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने का मामला है।
पूर्व भाजपा नेता और पूर्व उप राष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का एक आलेख ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित हुआ है जिसमें वह ‘इकॉनोमी और जेंडर जस्टिस’ के लिए यूसीसी की अनिवार्यता की बात करते हैं तो एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री और ईसाई समुदाय के नेता, के. जे. आल्फोन्स को भी इसकी वकालत के लिए उतारा गया है और उन्होंने यूसीसी के समर्थन में ‘द इण्डियन एक्सप्रेस’ में एक लेख लिख दिया है। यह सारी तैयारी यूसीसी के लिए जनसमर्थन जुटाने के लिए की जा रही है।
हिन्दू धर्म संहिता के रूप में मुनस्मृति हमारे सामने है, जिसे बाबा साहेब अम्बेडकर ने जलाने की जरूरत समझी थी। उसी संहिता की बात करें तो ‘इकॉनोमी और जेंडर समानता’ को मनुस्मृति खारिज करती है। वह तो साफ-साफ कहती है कि शूद्र के पास सम्पत्ति नहीं होनी चाहिए और हो भी तो, बलात छीन लेनी चाहिए। स्त्रियों के बारे में मनुस्मृति घोर असमानता की वकालत करती है? वह स्त्री स्वतंत्रता को खारिज करती है (देखें अध्याय 5/147, 148, 149, 150 )। यहां तक की उसे गुलाम की तरह रहने की इजाजत देती है (देखें अध्याय 5/ 154)। निम्न जातियों को उच्च जाति के कर्म करने की इजाजत नहीं देती है। (मनुस्मृति- देखें अध्याय 10/ 96)।
क्या ये सामाजिक प्राविधान, असमानता की पुष्टि करती है? अगर करती है तो क्या सबसे पहले इस किताब को प्रतिबंधित नहीं कर देना चाहिए? समानता की बात तो छोड़िए, यह किताब शूद्रों को इतना हीन मानती है कि तीन वर्णों की सेवा करने में उन्हें लगा देती है। ब्राह्मण की सेवा ही शूद्र का मुख्य कर्म है। (देखें अध्याय 10/123)। वह बताती है कि शूद्र को धन संचय नहीं करना चाहिए। इससे वह ब्राह्मणों को पीड़ा देता है।(देखें अध्याय 10/129)।
ब्राह्मण द्वारा शूद्र की हत्या कर देने पर वह बिलाव, नेवला, चाष, मेंढक, कुत्ता, गधा, उल्लू एवं काक की हत्या कर व्रत करने की तरह शिक्षा देती है। अब आप देख सकते हैं कि इस गैर बराबरी के समाज में, शूद्रों की हत्या छोटे-छोटे जीव जन्तुओं की हत्या के समान बना दिया गया है और आज भी यह ऐसी मानसिकता जारी है मगर बात समान नागरिक संहिता की हो रही है। हमारे जेलों में शूद्रों की सर्वाधिक संख्या अकारण नहीं है। तो जरूरी यह है कि सबसे पहले संविधान प्रदत्त समानता का अधिकार शूद्रों को मिले। हिन्दू-मुस्लिम विभाजन को खारिज करने वाले धर्मनिरपेक्ष संविधान के अनुसार मॉब-लिंचिंग बंद हो। किसी के खान-पान पर पाबंदी न लगे, मगर हो यही रहा है। लव-जेहाद का प्रोपेगैंडा हमारे सामने है। उत्तराखंड के पुरोला का मामला तो पूरी तरह से मुस्लिम समाज को टार्गेट कर, नफरत फैलाने की झूठी कहानी सामने लाता है।
शूद्रों और स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रखने की बात करने वाली मुनस्मृति जैसी हिन्दू संहिता को खत्म किए बिना समान नागरिक संहिता की बात करना बेमानी लगती है या इसके लागू करने की असल मंशा पर प्रश्न खड़ी करती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदू समाज की बुनियाद ही गैरबराबरी पर टिकी है। यहां समानता जैसी अवधारण कभी रही नहीं। संविधान लागू होने के बाद जमींदारी उन्मूलन कानून पास हुआ मगर उसका हुआ क्या? आज जो लोग समान नागरिक संहिता लागू करने की लामबंदी में ज्यादा हैं, वे ही इस देश की कुल भू-संपदा का सत्तर प्रतिशत अपने पास दाबे हुए हैं। दलितों के पास नाम मात्र की जमीन है। ज्यादातर भूमिहीन हैं। जमीन का समान वितरण देश में हुआ ही नहीं? ‘लैंड सीलिंग एक्ट’ का क्या हुआ, यह प्रश्न सामने है।
वर्ष 1942 में कुमारप्पन समिति ने बताया था कि जमींदारों के पास जितनी जमीनें थीं, वे उनकी आजीविका की आवश्यकता से तीन गुनी अधिक थीं।
वर्ष 1961-62 तक सभी राज्य सरकारों ने ‘लैंड सीलिंग एक्ट’ पारित किए लेकिन अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग सीमा तय हुईं। राज्यों में एकरूपता लाने के लिये वर्ष 1971 में एक नई भूमि सीमा नीति बनाई गई जो आज तक सफल न हो सकी है। ‘समान नागरिक संहिता’ से ज्यादा, जमीन का समान वितरण कर, गरीबी उन्मूलन के लिए काम करने की जरूरत है मगर राग तो दूसरा अलापा जा रहा है? बेशक सम्पत्ति का अधिकार, मूल अधिकार नहीं है मगर नीति निर्देशक तत्वों में इस बात का उल्लेख तो है कि आर्थिक असमानता दूर की जाए?
आज देश की आधी से ज्यादा सम्पदा मात्र दस लोगों के पास है और आप ‘समान नागरिक संहिता’ पर लहालोट हो रहे हैं? समाज में आज भी ऊंच, नीच और छुआछूत का बोलबाला है। स्कूल के मटके से पानी पी लेने मात्र से शूद्र बालक की हत्या कर दी जाती है। अपनी बारात में घोड़ी पर बैठने के लिए दलित को पुलिस की शरण में जाना पड़ता है। संविधान इस छुआछूत या गैरबराबरी की इजाजत तो नहीं देता? फिर इसे क्यों नहीं आज तक लागू किया जा सका?
दरअसल ‘समान नागरिक संहिता’ के सहारे मुसलमानों को आखेट करने, धर्मांध और कट्टर लोगों को आकर्षित करने का खेल खेला जा रहा है। मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत फैला कर एक बार फिर वोट बटोरने का कुचक्र है यह। एक समान नीतियां बनानी हों तो पहले जाति खत्म की जाए। क्या संविधान जातिवाद को बरकरार रखने की इजाजत देता है? जिस हिन्दू समाज में छ: हजार से ज्यादा जातियां हों, वहां समानता की बात होगी भी तो कैसे?
जरूरी है समाज को आर्थिक रूप से समान बनाया जाए। सबको समान चिकित्सा सुविधा मिले। क्यों कोई मेदांता या अपोलो अस्पताल में लाखों का इलाज पाए और कोई खाली हाथ, सरकारी अस्पताल में कंपाउंडर से बुखार की गोली के लिए गिड़गिड़ाए?
एक समान शिक्षा व्यवस्था आज तक लागू नहीं हो पाई। कोई पैसे के बल पर कान्वेंट स्कूलों में पढ़ रहा है तो गरीब का बेटा, पढ़ाई के बदले मिड डे मील खाने सरकारी स्कूल में जा रहा है। आप एक देश, एक कानून की बात करते हैं तब महंगी फीस चुका कर अमीरों के बच्चे कांन्वेंट में क्यों पढ़ रहे हैं और शुल्क बढ़ाकर, गरीबों के बच्चों को बेहतर शिक्षा से क्यों वंचित किया जा रहा है?
ये लाखों की फीस वाले कॉलेज, गांव के गरीबों के लिए क्यों नहीं? अमीर और गरीब, सबको आगे बढ़ने का अवसर समान रूप से मिले, तब ‘समान नागरिक संहिता’ की बात हो। मंदिर ट्रस्टों या प्रबंधन में एक ही जाति के लोगों का बोलबाला तोड़ा जाए। ‘समान नागरिक संहिता’ के सहारे, पुजारी, पुरोहित और महंत आदि पदों पर शूद्रों की नियुक्तियां हों।
असल सवाल इस संहिता को लागू करने की मंशा का है। ‘समान नागरिक संहिता’ से समाज में समान अवसर नहीं मिलने जा रहा, सिर्फ विभाजन को चौड़ा किया जा रहा है। ऐसे विभाजित समाज में समान आचार संहिता का झुनझुना, न तो मुस्लिम समाज में तलाक मामले का कोई हल निकाल पायेगा और न समाज को जोड़ पायेगा। जीवन की बुनियादी चीजों के वितरण में समानता और सुरक्षा मिले तो जनता बिना कानून के समान तौर तरीकों से रहना शुरू कर देगी। गैरबराबरी को जिंदा रखते हुए, ‘समान नागरिक संहिता’ का, जनता के लिए कोई मतलब नहीं।
(सुभाष चन्द्र कुशवाहा इतिहासकार और साहित्यकार हैं।)
बेहतरीन लेख सर
भारतीय समाज की वास्तविक विषमताओं को प्रस्तुत किया गया है तथा पिछड़ों, दलितों व आदिवासी को कैसे राजनैतिक, प्राशासनिक, अच्छी स्वास्थ्य, अच्छी शिक्षा व जमीनो से दूर रखा गया है!! लेखक आदरणीय सुभाष चन्द्र कुशवाहा जी ने बहुत ही अच्छे तरीके से प्रस्तुत किया है।