सामान नागरिक संहिता कानून का असली मक़सद क्या है

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जैसे-जैसे 2024 का आम चुनाव निकट आ रहा है, वैसे-वैसे केन्द्र सरकार हिन्दू-मुस्लिम के बीच नफ़रत फैलाकर वोटों के ध्रुवीकरण का हर संभव प्रयास कर रही है। जिसमें चाहे 2024 में चुनाव के समय तक राममंदिर के बन जाने की बात हो या फिर एक देश एक कानून के नारे के तहत समान नागरिक संहिता लाने की बात है। हालांकि समान नागरिक संहिता आरएसएस और उसके परिवार का एक राजनीतिक नारा रहा है, लेकिन इतने सालों में वह कभी इस तरह की संहिता का कोई मसौदा नहीं ला पाई है।

केवल मुस्लिम समुदाय को डराने और बदनाम करने के लिए संहिता के नारे का इस्तेमाल किया गया है। अब जबकि सरकार की सत्ता के कुछ ही महीने बचे हैं, तो ठीक चुनाव से पहले ही यूसीसी लाने की बात कर रही है, लेकिन किसके लिए? वास्तव में इस कानून के तहत जिस मुस्लिम समुदाय को घेरने की कोशिश की जा रही है, उसका इस पर विरोध सबसे कम है, क्योंकि इस्लाम में पहले ही से महिलाओं को समान अधिकार दिए गए हैं, मसलन उन्हें सम्पत्ति और कृषि की ज़मीनों पर पुरुषों के समान अधिकार हैं। तीन तलाक़ के विरोध का बिल पहले ही पास हो चुका है। पुरुषों के बहुविवाह की प्रथा भारतीय मुस्लिमों में करीब-करीब समाप्तप्राय है।

पर्सनल लॉ में महिला विरोधी रीति-रिवाज़ों और प्रथाओं को वे लोग पहले ही आम सहमति से समाप्त करने के पक्षधर हैं। असली समस्या तो भारत में सिखों, बौद्धों और जनजाति समाजों में प्रचलित अलग-अलग नागरिक संहिता कानून में है, यहाँ तक कि गोवा में हिन्दुओं के कुछ अलग नागरिक संहिता के कानून हैं। अभी हाल ही में नागालैण्ड सरकार के 12 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल ने गृहमंत्री अमित शाह से मुलाक़ात की और प्रस्तावित समान नागरिक संहिता को नागालैण्ड में लागू करने को लेकर चिंता व्यक्त की। बैठक के बाद ज़ारी एक प्रेस विज्ञप्ति में मुख्यमंत्री सहित प्रतिनिधिमंडल ने कहा,“अमित शाह ने स्पष्ट शब्दों में आश्वासन दिया है,कि इसमें कोई संदेह नहीं, कि केन्द्र 22वें विधि आयोग के दायरे से ईसाइयों और आदिवासी इलाकों को छूट देने पर विचार कर रही है।”

चूंकि गृहमंत्रालय ने इसका खंडन नहीं किया है, इसलिए माना जा सकता है कि यह सही है। यदि ईसाइयों और आदिवासियों को छूट दे दी जाएगी, तो कौन बचेगा? फिर प्रधानमंत्री के उस कथन का क्या होगा? जिसमें उन्होंने कहा था-“किसी भी देश में कानून की दोहरी प्रणाली नहीं हो सकती।इससे यह बात स्पष्ट रूप से निकलती है कि मोदी सरकार का इस कानून को लागू करवाने का एकमात्र उद्देश्य समाज में हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण पैदा करके अगले चुनाव में वोटों की फ़सल काटना है, जैसा एनआरसी के समय में हुआ था। इसका महिला अधिकारों से भी कुछ लेना-देना नहीं है।

इस संबंध में सरकार का यह भी दावा है, कि संविधान के नीति निर्देशक तत्व में समान नागरिक संहिता लागू करने की बात की गई है, इसलिए सरकार इसे लागू करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। यह बात सही है, संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 44 में यह लिखा है कि, भारत के सभी राज्य क्षेत्रों में नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास कर रहा है, लेकिन इसमें यह बात भी कही गई है, यह राज्य में रहनेवाले सभी नागरिकों, समुदायों तथा विभिन्न संस्कृतियों के लोगों की सहमति से इस दिशा की ओर बढ़ेगा।

संविधान में करीब 335 नीति निर्देशक तत्व हैं, इसका वर्णन संविधान के भाग चार में किया गया है। ये तत्व शासन व्यवस्था के मूल आधार हैं तथा ये सिद्धांत देश के लिए एक आचार संहिता हैं, इसमें सबको नि:शुल्क शिक्षा, स्वास्थ्य, सभी को समान अवसर, समान कार्य के लिए समान वेतन, शिक्षा-बेरोज़गारी-बुढ़ापा तथा अन्य मानवीय अभाव की दशाओं में राज्य से सहायता प्राप्त करने का अधिकार है। हमारे संविधान के नीति निर्देशक तत्वों से स्पष्ट रूप से इसकी व्यवस्था है।

आश्चर्य की बात यह है, कि सरकार इन महत्वपूर्ण नीति निर्देशक तत्वों की दिशा में आगे बढ़ने की जगह पर केवल इसमें से समान नागरिक संहिता को लागू करने की बात कर रही है। भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा की स्थिति बहुत ख़राब है। 2022 के आंकड़े के अनुसार भारत में प्रति 1000 लोगों पर अस्पतालों में 1.4 बिस्तर है, 1445 लोगों पर एक डॉक्टर है, 1000 लोगों पर 1.7 नर्सें हैं।

हमारे देश में स्वास्थ्य व्यवस्था की कितनी बुरी दशा है, इसका प्रमाण हमें कोरोना महामारी के दौरान देखने को मिला। जब लाखों लोग अस्पतालों में भर्ती न होने के कारण और ऑक्सीजन की कमी से मौत के शिकार बन गए। गांव के हालात तो और भी बदतर हैं, वहां प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में दवाओं और डॉक्टरों की अनुपलब्धता के कारण लोग मामूली बीमारियों से भी मौत के शिकार हो जाते हैं। अनेक हैजा और टीबी जैसे संक्रामक रोग ; जो दुनिया भर में समाप्त हो गए हैं, उससे प्रतिवर्ष लाखों लोग मरते हैं।

स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण ने इन हालातों को और भी गंभीर बना दिया है। इसी तरह सबको नि:शुल्क शिक्षा देने का नीति निर्देशक तत्वों में किया गया वादा भी हवा-हवाई बनकर रह गया है। प्राथमिक स्कूलों में जाने वाले बच्चों ; विशेषकर बालिकाओं की संख्या में भारी गिरावट आ रही है। शिक्षा का सम्पूर्ण निजीकरण होने के कारण जिनके पास पैसा है, वहीं बेहतर शिक्षा हासिल कर पा रहे हैं। सरकारी तथा प्राइवेट इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों में फीस के नाम पर लाखों रुपये वसूले जा रहे हैं, जो सामान्य मध्यवर्ग के लिए भी देना आसान नहीं है।

फलस्वरूप बड़े पैमाने पर आम घरों के बच्चे शिक्षा से वंचित हो रहे हैं, इस कारण से भयानक रूप से बेरोज़गारी बढ़ रही है। बेरोज़गारी को लेकर डाटा तैयार करने वाली निजी संस्था सेंटर फॉर मॉनेटरिंग इण्डियन एकनॉमी के मुताबिक जून 2023 में बेरोज़गारी की दर 8.45 फीसदी तक जा पहुँची है, जबकि मई में यह आंकड़ा 7.68 प्रतिशत तक था। वास्तव में यह दर इससे भी कहीं ज़्यादा है, क्योंकि इसमें घरों में काम करने वाली स्त्रियों को सम्मिलित नहीं किया गया है। बेरोज़गारी बढ़ने से वृद्धों और बच्चों के आज के हालात बहुत ही ख़राब हैं, क्योंकि सरकार ने कर्मचारियों को रिटायरमेंट बाद दिया जाने वाला पेंशन भी समाप्त कर दिया है।

अगर देश में प्रति व्यक्ति आय देखें तो यह दुनिया के सबसे निर्धनतम देश बुरुंडी की प्रति व्यक्ति आय के बराबर है। 73 प्रतिशत भारतीयों की आय दुनिया के चौथे निर्धनतम देश मेडागास्कर के प्रति व्यक्ति आय के बराबर बैठती है, यानी तीन-चौथाई भारत दुनिया के निर्धनतम चार से पाँच देशों में शुमार है। दूसरी तरफ 0.5 प्रतिशत अमीरों की प्रति व्यक्ति आय दुनिया के सबसे धनी चंद देशों के टॉप 10 प्रतिशत के बराबर है। भारत का बाज़ार ऊपरी 5 से 10 प्रतिशत लोगों का भी है, बाकी सभी किसी तरह जीवन जी रहे हैं। भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 2020 में 94 स्थान पर था, वहीं 2021 में इस स्थान से फिसलकर 101 स्थान पर  पहुँचा था। अब 2022 में यह 107 नम्बर पर पहुँच गया। (आईएमएफ तथा विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार)

कंसर्न वर्ल्ड वाइड और वेल्ट हंगर हिल्फे द्वारा प्रकाशित ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2023 के अनुसार भारत में भुखमरी की स्थिति गंभीर है। वास्तव में भारत की स्थिति पाकिस्तान और नेपाल से भी बदतर है। इसके अलावा प्रेस की आज़ादी से लेकर हैप्पीनेस इंडेक्स तक में भारत की स्थिति लगातार बिगड़ रही है। मोदी काल में तो हालात बिलकुल गर्त में पहुँच गए हैं। ये कुछ थोड़े से आंकड़े यह बताते हैं कि, संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में जनता से किए गए वादों को पूरा करने के लिए सरकार कितनी गंभीर है? वास्तव में पिछली सरकारों के कार्यकालों से भी आज स्थितियाँ लगातार बद से बदतर होती जा रही हैं। इन आंकड़ों से यह बात सहज ही समझ में आ जाती है, कि सरकार की नीति निर्देशक तत्वों से केवल समान नागरिक संहिता की बात उठाने तथा उसे लागू करने की कवायद के पीछे असली मंशा क्या है? यह किसी को समझाने की अब ज़रूरत नहीं रह गई है।

(स्वदेश कुमार सिन्हा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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