आखिर मणिपुर में निशाने पर क्यों हैं महिलाएं?

मणिपुर तीन महीने से जल रहा है। आगजनी, अपहरण, बलात्कार और अंततः गोली मार देना यह आम बात हो गयी है। चार मई की हिंसा की वारदात और दो महिलाओं को निर्वस्त्र घुमाए जाने की घटना का वीडियो वायरल होते ही देशभर के लोगों में आक्रोश और गुस्सा फूट पड़ा। दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद आदि अनेक शहरों में महिला संगठनों, लेखकों और बुद्धिजीवियों ने नारे लगाए और प्रदर्शन किया। प्रधानमंत्री की लम्बी चुप्पी और मुख्यमंत्री के झूठ में लिपटे संवेदनहीन वाक्यों ने वहां के नागरिकों और महिलाओं को सदमे में डाल रखा था। अब जाकर कुछ कदम उठाए जा रहे हैं लेकिन उनके घाव भर पाएंगे यह कहना मुश्किल है।

इन भीषण घटनाओं ने बहुत से सवाल उठाए हैं। मैंने महसूस किया कि मणिपुर में स्त्री को खिलौने की तरह वस्त्रहीन कर तमाशा करने की घटना को लेकर कुछ बुद्धिजीवी महिलाओं के बीच कोई खलबली नहीं है। उनका कहना था कि- ‘वहां पर इस तरह की घटनाओं का होना कोई बड़ी बात नहीं है। मणिपुर के मंत्री ने खुद ही कहा है कि ऐसे सौ से अधिक मामलों के एफआईआर दर्ज हो चुके हैं। कुकी और मैतेयी दोनों समुदाय के लोग कुछ मुद्दों को लेकर लड़ रहे हैं। चीन की सीमा होने के नाते भी वहां यही सब होता है।’

आज के दौर में इस तरह की चुनी हुई उदासीनता निराशा पैदा करती है। राहत इंदौरी का शेर याद आता है कि- ‘लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में, यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।’ जब भी कोई मानवीय मूल्य टूटता है तो उसकी गूंज दूर तक और देर तक सुनाई देती है। हलांकि एक दूसरे के खून की प्यासी अस्मिताओं की टकराहटें, उनके व्यवहार, उनकी आकांक्षाएं व भावनाओं को समझना थोड़ा कठिन है; लेकिन कानून व्यवस्था से इतना बेखौफ हो जाना और महिलाओं से इतनी बेरहमी से पेश आना कुछ और ही कहानी कहता है।

आज जबकि देश की प्रगति में महिलाओं का बड़ा योगदान है। खेतीबारी से लेकर वायुयान उड़ाने और सभी आर्थिक, राजनीतिक पदों को संभालने का काम वे कुशलता से कर रही हैं। लेकिन आज भी जगह-जगह पर उनकी देह युद्ध का मैदान बनी हुई है। मणिपुर का सैनिक कहता है कि मैंने शत्रुओं से देश की रक्षा तो की, लेकिन अपनी पत्नी को दंगाइयों से नहीं बचा सका। महिलाओं के खिलाफ अपराध, हिंसा, और बलात्कार की घटनाएं कानून व्यवस्था की विफलता और जातीय एवं सामाजिक सोच की विकृति के कारण होती हैं।

ये बातें कहीं न कहीं स्त्री के दोयम दर्जे की होने और पुरुष सत्ता के वर्चस्व के कारण हैं। जहां योनि पर राजनीति होती है। जो आनंद प्रजनन का स्रोत है वही वीभत्स अमानवीय क्रियाओं का स्थान बन जाता है। उस पर तुर्रा ये कि वह इज्जत है। इस प्रकार एक जाति दूसरे जाति की इज्जत का सत्यानाश करती है। महिलाओं के खिलाफ नृशन्स घटनाएं इसी मनोवृति की परिचायक हैं। चाहे वह युद्ध हो, धार्मिक दंगे या जातीय हिंसा, सबमें यही दिखाई देता है।

गुजरात 2002 में मुसलमानों के खिलाफ व्यापक जनसंहार को अंजाम दिया गया। यह सब सरकार की सरपरस्ती में हुआ। आश्चर्य इस बात का था कि विभाजन के समय जिन बर्बर घटनाओं से हम तौबा कर चुके थे, इन दंगों में फिर से वही घाव हरे हुए। कुछ हिन्दू महिलाओं ने अपने मर्दों को मुसलमान औरतों पर हिंसा-बलात्कार के लिए उकसाया और वे अपने घरों, छतों से तमाशा देखती रहीं। बिलकिस जैसी स्त्रियों को मरा हुआ समझ कर छोड़ दिया, जिससे वे बच गईं।

मणिपुर की घटनाओं ने इन सभी नृशंसताओं को बहुत पीछे छोड़ दिया है। 18 साल की कुकी युवती रिपोर्ट लिखवाते हुए कहती है कि- ‘‘महिला समूह ने मुझे अगवा किया और पुरुषों को सौंप दिया।’’ ये महिला समूह ‘मीरा पैबी’ हैं (महिला मशालधारी)। एक समय में इस महिला समूह ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और जीत हासिल की। इसी कारण इन्हें ‘मदर्स ऑफ मणिपुर’ भी कहा गया।

लेकिन आज इनकी संवेदना कुंठित हो गई है। ये जातीय लड़ाई में कुकी औरतों पर हिंसा करने को कहती हैं। उनके रोने गिड़गिड़ाने का इन पर कोई असर नहीं पड़ता। बचाने आए उन औरतों के पिता और भाई को भी मार दिया जाता है। वे अपने मैतेई मर्दों से कहती हैं कि -‘इनका सामूहिक बलात्कार करो और मार डालो।’ इस दौरान वे स्वयं भी लात घूंसे चलाती हैं। 

महिला आयोग जिसका गठन ही महिलाओं की शिकायतें सुनने के लिए हुआ है लेकिन उन्होंने इन घटनाओं को तुरंत संज्ञान में नहीं लिया। सर्वोच्च पद पर बैठीं प्रथम महिला का हृदय विचलित नहीं हुआ। संसद में भी माननीय सदस्याओं पर मणिपुर की घटना का कोई असर नहीं पड़ा। वे लोग महिला पहलवानों के साथ भी हो रहे अत्याचारों पर खामोश थीं। पीटी उषा जैसे लोगों ने भी कुछ नहीं बोला। तो क्या स्त्रियां इतनी पॉलिश हो गयी हैं कि उनका गुस्सा, प्रेम, संवेदना और विरोध अपनी जाति, धर्म, वर्ग को देखकर होता है। अगर ऐसा है तो यह देश हित में नहीं है।

ऐसे समय में जबकि मणिपुर की घटनाओं ने सबको हिला दिया है। अन्य राज्यों में इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्तियों को रोकना कठिन हो जाएगा, वैसे ही जैसे निर्भया कांड के बाद उस तरह की घटनाओं को रोकना कठिन हो गया था। अभी पश्चिम बंगाल से मेरठ के किठौर से इसी तरह युवती को निर्वस्त्र किए जाने की खबरें आती हैं।

क्या ऐसा नहीं लगता कि मणिपुर में यदि सरकारी तंत्र चाह दे तो कुछ घंटों में शांति बहाल हो सकती है। जहां इतने मुठभेड़ होते हैं यदि पुलिस दंगाई भीड़ को काबू करने के लिए एक भी फायर करती तो शायद नग्न परेड की घटना होती ही नहीं। व्यवस्था मूक दर्शक है, पुलिस खुद ही महिलाओं को दंगाई भीड़ के हवाले कर देती है। ऐसे समय में महिलाओं का महिलाओं के प्रति चुना हुआ तटस्थ व्यवहार दुखी और निराश करता है।

इन्हीं दिनों ‘टेलीग्राफ’ में एक्टिविस्ट लेखक अरूंधती राॅय का बयान आया है, जिसका निहितार्थ है कि- “मेरा लिखना अकारथ ही रहा, कारण यह कि जिन बातों को मैं लिखती रही हूं उसका समाज पर कोई असर नहीं हुआ। हिंसा बढ़ती जा रही है, स्त्रियां धर्म और जाति देखकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती हैं।” उनका यह बयान पीड़ादायक है। ऐसे में जहां निराशा ही दिखाई देती हो, जीवंत रचनाकार इससे भी कहीं न कहीं उबरने का प्रयास करते हैं। पर यह बयान हमें इस मसले पर गहराई से सोचने पर मजबूर करता है।

(उषा राय कवि-कहानीकार हैं और लखनऊ में रहती हैं।)

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