क्यों इस्लाम-ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले दलित भी ‘दलित’ ही हैं

इस्लाम और ईसाई धर्म को मानने वाले दलितों के संवैधानिक अधिकारों के मसले पर बहुजन राजनीति के भीतर ‘साम्प्रदायिकता’ ने दबे पांव गहराई तक घुसपैठ की है। यह 2024 के चुनाव से पहले सतह पर नजर आ सकती है, इसकी आशंका व्यक्त की जा रही है। 

मुस्लिम दलित और ईसाई का मसला

पहले हम यह समझते हैं कि मुस्लिम दलित और ईसाई का यह मसला क्या है? दलितों को संविधान में अनुसूचित जाति के रुप में कई विशेष अधिकार दिए गए हैं क्योंकि इतिहास में उन्हें आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखकर उन्हें पिछड़ेपन का शिकार बनाया गया है। मानव  संघर्ष के इतिहास में दलितों के समानता और सम्मान की जिंदगी जीने के लिए संघर्ष के अलग पाठ है। समानता और सम्मान के लिए बहुतेरे रास्ते तैयार हुए।

डॉ. भीम राव आम्बेडकर ने अपने जीवन के अंतिम काल में बौद्ध धर्म को स्वीकार किया। इसी तरह बड़ी तादाद में दलितों ने सिख धर्म को अपनाया। जहां भी उन्हें बराबरी और सम्मान की उम्मीद दिखी,वे वर्ण व्यवस्था के धार्मिक घेरे से बाहर निकलें। इसी क्रम में बड़ी तादाद में दलितों ने ईसाई और इस्लाम धर्म को भी स्वीकार किया। लेकिन 1950 के एक विशेष आदेश  के तहत उन दलितों को संवैधानिक अधिकारों से बाहर कर दिया गया जिन्होने ईसाई और इस्लाम धर्म को स्वीकार किया था। जबकि संविधान का दर्शन दलितों को धर्म के आधार पर बांटने की इजाजत नहीं देता है।

लेकिन भारत की संसदीय राजनीति के लिहाज से प्रभावकारी स्थिति में नहीं होने के कारण मुस्लिम और ईसाई दलितों के मसले से राजनीतिक पार्टियां दूर होने की तरफ बढ़ गई। कुछ नेता कभी कभार बोलते रहे हैं। लेकिन दलित इस मसले को उठाते रहे और 1980 के बाद बहुजन राजनीति के नये सिरे से संगठित होने के बाद यह मसला फिर सतह पर आया। और लगभग बीस वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम और ईसाई होने के नाते दलितों को संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने के आदेश को चुनौती दी गई।      

सुप्रीम कोर्ट और सरकार का रुख  

इस्लाम और ईसाई धर्म को मामने वाले दलितों को अनुसूचित जाति के संवैधानिक अधिकारों से वंचित करने के सरकार की अधिसूचना के खिलाफ 19 वर्षों से सुप्रीम कोर्ट में कई मुकदमें दर्ज है। सुप्रीम कोर्ट में उन मुकदमों की सुनवाई लंबित पड़ी है। नए मुख्य न्यायाधीश के आने के बाद जब पहली बार इस पर सुनवाई की गई तो केन्द्र सरकार ने इसे टाल देने के लिए कहा। केन्द्र सरकार ने कहा कि सरकार ने एक नया आयोग बना दिया है और वह आयोग यह सिफारिश करेगा कि मुस्लिम और ईसाई दलितों को अनुसूचित जाति का संवैधानिक अधिकार मिलना चाहिए या नहीं।लिहाजा सुप्रीम कोर्ट उस आयोग की रिपोर्ट आने का इंतजार करें।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इस नये आयोग की रिपोर्ट का क्यों इंतजार करना चाहिए? यह बाध्यता सुप्रीम कोर्ट के सामने नहीं है। क्योंकि इससे पहले केन्द्र सरकार ने न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया था और उस आयोग ने इस मसले पर अपनी सिफारिशें दे दी है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी द्वारा नियंत्रित केन्द्र सरकार ने रंगनाथ मिश्रा आयोग के बारे में यह कह दिया कि उसकी रिपोर्ट बंद कमरे में तैयार की गई है और वह आगे की तरफ सोचने वाली नहीं है।

केन्द्र सरकार ने जो नया आयोग बनाया है उसकी अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन कर रहे हैं और उसके तीन सदस्यों में प्रो. सुषमा यादव और रवीन्द्र कुमार जैन है। चर्चित न्यायाधीश बी आर कृष्ण अय्यर ने के जी बालाकृष्णन मुख्य न्यायाधीश  बनने के बाद उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि दलित होने  होने के कारण अपनी अपेक्षाओं को लेकर लेख लिखा था। न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन ने कहा है कि 2024 में उनके आयोग की रिपोर्ट आने की संभावना है। 

बहुजन राजनीति के भीतर दलितों को धर्म के आधार पर देखने का साम्प्रदायिक नजरिया 

एक ही सवाल यहां बातचीत के लिए सबसे ज्यादा जरुरी लगता है कि आखिर इन वर्षों में क्या बदला? इसका जबाव इस उदाहरण में पढ़ा जा सकता है कि दलितों को धर्म के आधार पर संवैधानिक अधिकारों से अलग करने के खिलाफ इन वर्षो के दौरान जो अभियान चलते रहे हैं उनमें भाग लेने वाले कई बहुजन दर्शन के राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं के सोच में फर्क आ गया है। जो सभी धर्मों को मानने वाले व नहीं मानने वाले दलितों को एक मानते थे जैसा कि डा. आम्बेडकर, महात्मा गांधी, राममनोहर लोहिया आदि भी मानते रहे हैं, वे अब धर्म के आधार पर दलितों के बीच भेद की प्रचार सामग्री तैयार करने में सक्रिय हो गए हैं। बहुजन दर्शन के भीतर साम्प्रदायिकता की जगह बनाने की साजिश के शिकार हो गए हैं।

इतिहास गवाह है कि बहुजन राजनीति का जब  उभार हुआ है उसके साथ साम्प्रदायिक राजनीति के उग्र होने का एक लंबा इतिहास है। ध्यान दें तो साम्प्रदायिक राजनीति के दो रास्ते होते हैं। पहला किसी धर्म के खिलाफ उग्रता को बढ़ाने का रास्ता और दूसरा बहुजन समाज के भीतर सोशल इंजीनियरिंग का रास्ता हैं। यहां सोशल इंजीनियरिंग का मतलब बहुजनों के बीच जातिवाद को बढ़ाने से होता है।

सोशल इंजीनयरिंग का काम बेहद सूक्ष्म तरीके से या किसी छोटे से सुराग के जरिये बहुजन घेरे में घुसने से शुरु होता है। दलितों को घर्म के आधार पर देखने का नजरिया बहुजन घेरे में भी दिखता है। न्यायाधीश बालाकृष्णन से कई ऐसे संगठनों ने मिलकर इस्लाम और ईसाई धर्म मानने वाले दलितों को अनुसूचित जाति के संवैधानिक अधिकारों से बाहर ही रखने की मांग की है। इनमे कई ऐसे सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता है जो कि साम्प्रदायिक राजनीति के घुसपैठ से पहले दलितों के बीच धार्मिक आधार पर भेदभाव करने का विरोध करते रहे हैं।

इन वर्षों में मेरा यह अनुभव रहा है कि बहुजनों के सामाजिक, राजनीतिक कार्यक्रमों के मुद्दों से ईसाई और इस्लाम धर्म को मानने वाले दलितों के अधिकार की आवाज का रुख बदला है और एक खामोशी सी बनती गई है। यह मैं सैकड़ों बैठकों के अनुभव के आधार पर दावा कर सकता हूं। यह विश्लेषण किया जा सकता है कि बहुजनों के कार्यक्रमों में किस तरह की धार्मिकता बढ़ती चली गई है और उसका इस मुद्दे से किस तरह का रिश्ता जुड़ा है।          

तर्क वहीं जहां साम्प्रदायिकता पहुंचती है  

ईसाई और इस्लाम धर्म को मानने वाले दलितों के बहाने दलितों के बीच साम्प्रदायिकता की पैठ जमाने के जो तर्क तैयार किए गए हैं, वे वैसे ही है जैसे कि साम्प्रदायिक राजनीति धर्म विशेष या धर्मों को एक दूसरे के विरुद्ध रखती है। एक धर्म के लोगों को उनके आर्थिक उपार्जन करने के अधिकारों से अलग किया जाए तो दूसरे धर्म को मानने वालों को उसका लाभ मिल सकता है। यह सीधा- सीधा हिसाब न्यायाधीश बालाकृष्णन से मुस्लिम और ईसाई दलितों को संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखने की मांग करने वाले भी दोहरा रहे हैं। न्यायाधीश बालाकृष्णन से एक प्रतिनिधिमंडल ने मिलने के बाद यह दावा किया कि मुस्लिम और ईसाई दलितों के लिए अनुसूचित जाति के संवैधानिक अधिकारों को बहाल करने से अन्य धर्मों के दलितों के हितों पर चोट पहुंच सकती है।         

डॉ. आम्बेडकर के नाम की आड़ में बुनियादी तर्क को निगल रहे हैं

यह बिल्कुल स्पष्ट है कि ईसाईयत को मानने वाले और इस्लामिक व्यक्ति को दलितों का संवैधानिक अधिकार देने की बात नहीं कर रहे हैं। बल्कि दलित को ईसाई और इस्लाम धर्म के आधार पर उसके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया गया है इसमे सुधार करने की मांग की जा रही है। जैसे लाखों दलित बौद्ध हो गए तो उन्हें बौद्ध होने के कारण दलितों के अधिकार से वंचित नहीं कर सकते। डॉ. आम्बेडकर ने हिन्दू धर्म को त्यागने का फैसला अपने नागरिक अधिकारों का इस्तेमाल कर किया। धर्म निजी मसला है उसमे परिवर्तन किया जा सकता है। लेकिन जाति जन्मजात होती है और उसे बदला नहीं जा सकता है।

दलितों का आरक्षण का आधार  उनके विरुद्ध छुआछूत और उन्हें  आर्थिक, शैक्षणिक और मानव अधिकारों से वंचित रखने के ढांचे से मुक्त कराने के तर्क से विकसित हुआ है। किसी अनुसूचित जाति के इस्लाम धर्म या ईसाई धर्म स्वीकार करने से अनुसूचित जाति के ऐतिहासिक उत्पीड़न और भेदभाव की पृष्ठभूमि समाप्त नहीं हो जाती है। इसीलिए तर्क यह है कि सुप्रीम कोर्ट में दलित यह मांग कर रहे हैं कि उन्हें दलित माना जाए। लेकिन एक नई साम्प्रदायिक राजनीति की भाषा इस रुप में अपनी ज़ड़ जमा रही है कि दलित को दलित नहीं मानकर उन्हें किसी धर्म विशेष का सदस्य मानने पर जोर दिया जा रहा है। जबकि दलित अधिकारों के संवैधनिक व्यवस्था का आधार किसी धर्म को मानने के कारण या नहीं मानने की वजह नहीं है। 

( अनिल चमड़िया वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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