गडकरी को दूसरी बार भाजपा अध्यक्ष बनने से इस तरह रोका गया था!

कल आपने ढ़ा था– ”सीएजी का ईडी की तरह इस्तेमाल हो रहा है, निशाने पर हैं गडकरी’’

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बात 2012 के आखिरी दिनों की है। भाजपा अध्यक्ष के रूप में नितिन गडकरी का पहला कार्यकाल समाप्त होने वाला था। संघ का नेतृत्व चाहता था कि गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल भी मिले यानी 2014 का चुनाव भाजपा उन्हीं के नेतृत्व में ड़े संघ नेतृत्व की चाहत पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और उनके समर्थकों को मंजूर नहीं थी। गडकरी पहली बार भी आडवाणी की इच्छा के विपरीत पार्टी अध्यक्ष बने थे। हालांकि उस समय तक आडवाणी संघ की निगाह से उतर चुके थे, लेकिन पार्टी पर उनका दबदबा काफी हद तक बना हुआ था। संसद के दोनों सदनों में पार्टी और विपक्ष के नेता भी उनके भरोसेमंद थेलोकसभा में सुषमा स्वराज और राज्य सभा में अरुण जेटली।

संसदीय दल के अध्यक्ष आडवाणी खुद थे ही। यह पद खुद आडवाणी ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए सृजित करवाया था। सभी भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी उनके ही फरमाबरदार थे। उनकी प्रधानमंत्री बनने की हसरत भी खत्म नहीं हुई थी, लिहाजा वे अपने ही किसी विश्वस्त को पार्टी का अध्यक्ष बनवाना चाहते थे। उस समय अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के साथ ही वेंकैया नायडू और अनंत कुमार की गिनती भी आडवाणी के बेहद भरोसेमंद नेताओं में होती थी। भाजपा की केंद्रीय राजनीति में इन चारों नेताओं की मंडली को आडवाणी कीडी फोर कंपनीभी कहा जाता था। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे। राष्ट्रीय राजनीति में उनकी आमद नहीं हुई थी और भाजपा की अंदरुनी राजनीति में उन्हें भी आडवाणी खेमे का ही माना जाता था। वे भी अध्यक्ष के रूप में गडकरी को नापसंद करते थे।

उनकी नापसंदगी तो इस हद तक थी कि जब तक गडकरी अध्यक्ष रहे, उन्होंने पार्टी की कार्यसमिति और राष्ट्रीय परिषद की हर बैठक से दूरी बनाए रखी। कुल मिलाकर पूरा आडवाणी खेमा गडकरी को अध्यक्ष के रूप में दूसरा कार्यकाल देने के खिलाफ था, लेकिन संघ का खुल कर विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। अरुण जेटली उस समय राज्य सभा में विपक्ष के नेता हुआ करते थे और यूपीए सरकार में वित्त मंत्रालय संभाल रहे पी. चिदंबरम से उनकी गहरी दोस्ती जगजाहिर थी। भाजपा में अध्यक्ष पद के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी।

गडकरी दोबारा अध्यक्ष बनने के लिए नामांकन दाखिल कर चुके थे। चूंकि संघ नेतृत्व साफ तौर पर गडकरी के साथ था, लिहाजा पार्टी में किसी भी नेता में यह हिम्मत नहीं थी कि वह संघ नेतृत्व के खिलाफ ड़े होने या दिखने का दुस्साहस कर सके। यह लगभग तय हो चुका था कि गडकरी ही निर्विरोध दोबारा अध्यक्ष चुन लिए जाएंगे। लेकिन निर्वाचन की तारीख से चारपांच दिन पहले अचानक गडकरी के व्यावसायिक प्रतिष्ठानपूर्ति समूहसे जुड़ी कंपनियों के ठिकानों पर आयकर विभाग ने छापे मार दिए। छापे की कार्रवाई दो दिन तक चली। पूरा मामला मीडिया में छाया रहा।

आडवाणी खेमे ने मीडिया प्रबंधन के जरिए गडकरी पर इस्तीफे का दबाव बनाया। छापे की कार्रवाई में क्या मिला, इस बारे में आयकर विभाग की ओर से कोई जानकारी नहीं दी गई थी लेकिनसुपारी किलरकी भूमिका निभा रहे मीडिया के एक ड़े हिस्से ने गडकरी के खिलाफसूत्रोंके हवाले से खूब मनगढ़ंत खबरें चलाईं। टीवी चैनलों ने तो अपने स्टूडियो में एक तरह सेअदालतलगाकर गडकरी पर मुकदमा ही शुरू कर दिया था। अध्यक्ष के रूप में उनके दूसरी बार होने वाले निर्वाचन को नैतिकता की कसौटी पर कसा जाने लगा। मीडिया में यह सब तब तक चलता रहा, जब तक कि गडकरी अपना नामांकन वापस लेकर अध्यक्ष पद की दौड़ से हट नहीं गए। कहा जाता है और भाजपा में भी कई लोग दबे स्वर में स्वीकार करते हैं कि भाजपा के अंदरुनी सत्तासंघर्ष के चलते गडकरी के यहां आयकर के छापे की कार्रवाई के पीछे जेटली का ही दिमाग था और उन्होंने ही चिदंबरम से मिलकर इस ऑपरेशन को अंजाम दिलवाया था।

कहने की आवश्यकता नहीं कि उनकी इस योजना को आडवाणी और मोदी की सहमति भी हासिल थी। खुद गडकरी ने भी अपने यहां छापे की कार्रवाई को एक बड़ी राजनीतिक साजिश करार दिया था।जो भी हो, अपने दोस्त जेटली की खातिर गडकरी के यहां छापे डलवाने का चिदंबरम का फैसला सिर्फ भाजपा की बल्कि देश की राजनीति को भी प्रभावित करने वाला साबित हुआ। भाजपा के सारे अंदरुनी समीकरण उलटपुलट हो गए। आज कांग्रेस पार्टी, खुद चिदंबरम और उनका परिवार जिस संकट से गुजर रहा है, उसकी भी एक बड़ी वजह प्रकारांतर से वह फैसला ही था। गडकरी के मैदान से हटने पर अध्यक्ष के लिए नए नामों पर विचार शुरू हुआ। आडवाणी की ओर से सुषमा स्वराज और अरुण जेटली का नाम आगे बढ़ाया गया लेकिन संघ की ओर से दोनों नाम खारिज कर दिए गए।

आखिरकार राजनाथ सिंह के नाम पर आम सहमति बनी और वे एक बार फिर पार्टी अध्यक्ष चुन लिए गए। अध्यक्ष के रूप में राजनाथ सिंह के निर्वाचन की घोषणा के तीन दिन बाद आयकर विभाग की ओर से साफ किया गया कि गडकरी के यहां छापों की कार्रवाई में कुछ नहीं मिला। लेकिन इससे क्या होना था, आडवाणी खेमे का मकसद तो पूरा हो ही चुका था। गडकरी के हाथों से दूसरी बार अध्यक्ष बनने का मौका झटक कर जहां आडवाणी और उनके समर्थक राहत महसूस कर रहे थे, वहीं संघ नेतृत्व बुरी तरह आहत था। उसे यह अच्छी तरह अहसास हो चुका था कि गडकरी को छलपूर्वक दूसरी बार अध्यक्ष बनने से रोका गया है। संघ नेतृत्व को मात देने के बाद आडवाणी आश्वस्त हो गए थे कि 2014 के आम चुनाव में भी भाजपा और एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद की उनकी उम्मीदवारी में कोई अड़चन नहीं आएगी।

लेकिन इसी बीच उनके पट शिष्य माने जाने वाले नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षाएं भी अंगड़ाई लेकर दिल्ली की ओर देखने लगी थीं, जिसका ठीकठीक अंदाजा शायद आडवाणी को भी नहीं था। आडवाणी यह भी अंदाजा नहीं लगा पाए कि अध्यक्ष पद के चुनाव में गडकरी को ठिकाने लगाने में अहम भूमिका निभाने वाले उनके खास सिपहसालार अरुण जेटली कब पूरी तरह से मोदी के खैरख्वाह होकर उनकी पालकी के कहार बन गए। बारह वर्ष तक गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुएहिंदू हृदय सम्राटऔरविकास पुरुषकी छवि धारण कर चुके मोदी का संघ और कॉरपोरेट घरानों के समर्थन से राष्ट्रीय राजनीति में किस तरह अवतरण हुआ, यह एक अलग कहानी है, लेकिन इस कहानी की यह पूरी प्रस्तावना या पृष्ठभूमि और कोई याद रखे या रखे मगर गडकरी तो निश्चित ही नहीं भूले होंगे। अगर भूल भी गए होंगे तो सीएजी की रिपोर्ट ने उन्हें फिर याद दिला दी होगी। 

(अनिल जैन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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