समान नागरिक संहिता: एकरूपता से नहीं भेदभाव खत्म करने से होगा महिला सशक्तिकरण

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हमारे देश में भरपूर अन्न पैदा होने के बावजूद करोड़ों लोग भूखे रहने के लिए मज़बूर हैं। देश के 224.3 मिलियन लोग यानि भारत की आबादी का 16 प्रतिशत अल्पपोषित है, प्रजनन आयु की 53 प्रतिशत महिलाएं भी एनीमिया से पीड़ित हैं। 17.3 प्रतिशत से अधिक बच्चे चाइल्ड वेस्टिंग से पीड़ित हैं, और 30.9 प्रतिशत से अधिक बच्चे अविकसित हैं। बेरोजगारी चरम पर है। जरूरत है भूख के मोर्चे पर बड़े कदम उठाने की लेकिन देश की सरकार के लिए भूख प्राथमिकता नहीं है। इसके खिलाफ युद्ध छेड़ने की जगह भाजपा सरकार की प्राथमिकता ‘समान नागरिक संहिता’ है। 

गजब ही सरकार है। आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि हम ‘समान नागरिक संहिता’ पर सरकार द्वारा छेड़ी गई ताजा बहस को केवल असल मुद्दों से भटकाने भर का प्रयास नहीं मानते हैं और न ही यह मानते हैं कि यह केवल कोरी चर्चा के लिए लाया गया है और भाजपा को इसे लागू करने की चुनौती देनी होगी। दरअसल ऐसा करने से तो भाजपा को इसे लागू करने का औचित्य मिल जाता है। शुरू में ही स्पष्ट करना जरूरी है कि भाजपा की ‘समान नागरिक संहिता’ की देश को कोई जरूरत नहीं है और इसे लोकतांत्रिक विरोध से हराया जाना चाहिए। 

भाजपा का यह प्रयास बहुत ही सोचा समझा है। यह तो सबको विदित है कि ‘समान नागरिक संहिता’ भाजपा और इसके पैतृक संगठन आरएसएस के कोर एजेंडे का हिस्सा है। इसके कोर में होने का आधार वैचारिक है। आरएसएस जिस हिन्दू राष्ट्र की कामना करता है जिसका आधार एक देश, एक धर्म, एक भाषा आदि है उसके लिए तो ‘समान नागरिक संहिता’ लाज़मी है। अभी जो प्रयास हो रहे हैं इसका मकसद इस एजेंडे के जरिए साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के रथ पर सवार होकर अगले आम चुनाव को जीतना भी है।

यह प्राथमिक एजेंडा निर्धारित करके भाजपा अपने कट्टर हिंदुत्व के समर्थकों को विश्वास दिलाना चाहती है, तो वहीं मुसलमानों को ‘उनकी सही जगह दिखाने (सेट करने)’ के सन्देश को भी आगे बढ़ाना चाहती है। इसके लिए प्रयोग किया जा रहा है विधि आयोग का। पिछले विधि आयोग जो कि इसी भाजपा सरकार ने गठित किया था ने आरएसएस की इच्छा के अनुकूल सिफारिश नहीं की थी। उल्टा इसकी शिफारिशों ने भाजपा के अभियान पर गहरी चोट पहुंचाई थी।

देश के 21वें विधि आयोग ने वर्ष 2018 में “पारिवारिक कानून में सुधार” पर परामर्श पत्र में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “इस वक़्त सभी समुदायों के अलग अलग पारिवारिक कानूनों के स्थान पर एक संहिता बनाना न तो जरूरी है न वांछित।” पिछले विधि आयोग ने इस मुद्दे पर विस्तार से अध्ययन किया, जिसमें जनता की भागीदारी सुनिश्चित की थी। यह एक बेहतरीन रिपोर्ट है जो इस पूरी चर्चा को सही तरीके से परिभाषित करती है।

वर्तमान प्रचार अभियान में भाजपा यह दर्शाने की कोशिश कर रही है कि पारिवारिक कानून में एकरूपता लाने से महिलाओं से भेदभाव का समाधान हो जाएगा और बराबरी हो जाएगी। प्रचार का केंद्र है एक धर्म (इस्लाम) का बहुसंख्यक धर्म के परिवार के कानूनों से भिन्नता। उस मुद्दे को बड़े ही सटीक शब्दों में 21वें विधि आयोग ने स्पष्ट किया था और भाजपा के पूरे प्रचार का गुब्बार निकाल दिया था।

21वें विधि आयोग के शब्दों में, “प्रचलित व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लॉ) के विभिन्न पहलू महिलाओं को वंचित करते हैं। इस आयोग का मानना ​​है कि (महिला) असमानता की जड़ में (परिवार कानूनों में) अंतर नहीं बल्कि भेदभाव है।” इस अंतर को समझना बहुत महत्वपूर्ण है। आप सभी धर्मो और समुदायों के परिवार कानूनों में एकरूपता ला दें लेकिन अगर उनमें भेदभाव ख़त्म नहीं होगा तो महिला सशक्तिकरण और समानता सुनिश्चित नहीं होगी।

विधि आयोग आगे कहता है,”इसलिए इस आयोग ने ‘समान नागरिक संहिता’ जो इस स्तर पर न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय है, करने के बजाय ऐसे कानूनों पर काम किया जाए जो भेदभावपूर्ण हैं। अधिकांश देश अब अंतर को पहचानने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, और अंतर का अस्तित्व मात्र भेदभाव नहीं दर्शाता, बल्कि एक मजबूत लोकतंत्र का द्योतक है।”

जब पिछले विधि आयोग ने इतने खूबसूरत और साफ़ शब्दों में ‘समान अचार संहिता’ पर अपनी राय दी थी तो मोदी सरकार को फिर से इस पर चर्चा छेड़ने की क्या जरुरत है। दरअसल विधि आयोग का तो केवल प्रयोग किया जा रहा है। योजना तो बन चुकी है। प्रधान मंत्री पूरे चुनावी अंदाज में ‘समान अचार संहिता’ पर प्रचार कर रहे हैं और ऐसा करते हुए केवल मुसलमानों को लक्षित कर रहे हैं।

विधि आयोग को तो केवल अपनी भूमिका निभानी है और इसके लिए अनुकूल सिफारिशें देनी हैं ताकि मोदी सरकार को इसके लिए वैधानिक औचित्य मिल जाए। किसी प्रतिकूल स्तिथि आने पर गलती का पूरा ठीकरा विधि आयोग पर फोड़ा जाये और फ़कीर साफ़ बच निकले। विधि आयोग सबसे राय तो मांग रहा है लेकिन उसके आंख और कान पहले से ही बंद प्रतीत होते हैं। 

चलिए विधि आयोग तो जो कहेगा वह कहेगा परन्तु भाजपा पूरे प्रचार में है और ऐसा दिखाने की कोशिश कर रही है कि केवल एक धर्म के लोगों पर इसका प्रभाव पड़ेगा। भाजपा नेताओं सहित प्रधानमंत्री के भाषणों से यही निष्कर्ष निकलता है कि इससे महिला सशक्तिकरण होगा और मुस्लिम समुदाय अपने धर्म की महिलओं की बेहतरी के खिलाफ हैं। यह बिलकुल निराधार लेकिन राजनीतिक और वैचारिक उद्देश्य से प्रेरित प्रचार है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है और कोई भी सोचने वाला इंसान समझ जायेगा कि इसका क्या लक्ष्य है। लक्ष्य है मुसलमानों को बदनाम करना और उन पर बहुसंख्यक पारिवारिक कानून थोपना। 

जैसा कि विधि आयोग ने कहा कि भेदभाव असल कारण है न कि कानूनों में अंतर। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश के सभी धर्मो के निजी कानूनों के जनवादीकारण की जरूरत है। ऐसे ज्यादातर कानून महिलाओं से भेदभाव करते हैं और उनके खिलाफ हैं। हिन्दू कोड बिल के जरिये हिन्दू महिलाओं के लिए बड़े बदलाव किए गए हैं। अभी भी कई सुधारों की जरूरत भी है। प्रश्न है यह करेगा कौन। क्या ‘समान नागिरक संहिता’ इसका उत्तर है? नहीं वह होगा इन समुदायों के अंदर से जनवादी सुधारों से न कि बाहर से थोपने से।

आदिवासियों की अपनी अलग संस्कृति है जिसके चलते उनके विवाह-शादी करने, शादी तोड़ने और सम्पति के अधिकार आदि के अलग नियम कानून हैं। इस बात को हमारा संविधान भी मानता है। अभी तक यह तो काफी साफ़ हो गया है कि ‘समान नागरिक संहिता’ का आदिवासी समुदायों को दिए गए संविधानिक अधिकारों पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। संविधान की छठी अनुसूची के तहत अनुच्छेद 244 जो त्रिपुरा, असम, मिजोरम और मेघालय के कुछ क्षेत्रों पर लागू होती है, विशेष रूप से इस अनुसूची के तहत गठित जिला और क्षेत्रीय परिषदों को राज्यपाल की सहमति से उन मामलों पर कानून बनाने का अधिकार देती है जिनमें पारिवारिक कानून जैसे विवाह, तलाक, संपत्ति अधिकार आदि शामिल हैं।

इसके आलावा पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में, पंचायत एक्सटेंशन टू शेड्यूल एरिया एक्ट (PESAA) के अधिनियमन के माध्यम से, ग्राम सभाओं को स्वशासन के माध्यम से प्रथागत और सामाजिक प्रथाओं की सुरक्षा के लिए कानूनी अधिकार दिए गए हैं। आदिवासी समुदायों के पारिवारिक कानून के सरक्षण के अधिकारों पर ‘समान नागरिक संहिता’ कैसे लागू होगी? इसका जवाब भाजपा के पास है ही नहीं। बहुत से आदिवासी संगठनों ने पहले ही खिलाफत शुरू कर दी है। इस विरोध के चलते जब भाजपा को अपने ‘समान नागरिक संहिता’ के आधारभूत सिद्धांत का बचाव करना मुश्किल हो गया तो अपने चिर परिचित अंदाज में भाजपा ने बीच का रास्ता अपनाया।

हालांकि इसके पीछे आने वाले संसदीय चुनाव में आदिवासी मतों की मजबूरी भी है। भाजपा ने आदिवासियों में अपने प्रचार से गहरी पैठ बना रखी है। वैचारिक तौर पर दलित विरोधी होने के बावजूद आदिवासियों के मत जीतने में भाजपा निपुण हो चुकी है। इसलिए भाजपा इस मुद्दे पर आदिवासियों को अपने खिलाफ नहीं करना चाहती है।

इसी कारण जब मेघालय का प्रतिनिधिमंडल गृहमंत्री से मिलने आया तो अमित शाह ने उन्हें आश्वासन दिया कि सरकार आदिवासियों को ‘समान नागरिक संहिता’ से बाहर रखने पर विचार कर रही है। जब आरएसएस से जुड़ी संस्था अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम ने आदिवासियों को ‘समान नागरिक संहिता’ (यूसीसी) के दायरे से बाहर रखने के सुझाव का समर्थन किया है तो बात साफ़ हो गई कि आदेश ऊपर से हैं।

इससे तो यही बात साफ़ होती है कि हमारे विविधता वाले देश में ‘समान नागरिक संहिता’ लागू करना न केवल गलत है बल्कि संभव भी नहीं है। केवल आदिवासी ही नहीं ईसाई और सिख धर्म के लोगों ने भी इसके खिलाफ विरोध दर्ज किया है। हिन्दू धर्म जो अपने आप में कई विविध जीवन प्रणाली समाए हुए है पर भी कैसे ‘समान नागरिक संहिता’ लागू होगी? यह एक बड़ा प्रश्न है। 

हमारे यहां उत्तर और दक्षिण भारत में शादी करने के अलग अलग तरीके हैं। कहीं सात फेरे लेकर शादी होती है तो कहीं केवल वरमाला पहनाकर। कहीं अपने अपने गोत्र में शादी की मनाही है तो कहीं इसकी अनुमति है। ‘समान नागरिक संहिता’ के तहत क्या आएगा? और हां अगर आदिवासियों को इससे बाहर कर दिया जायेगा तो यह किस पर लागू होगी। क्या यह केवल मुस्लिम समुदाय के लिए है?

बड़ा प्रश्न यह कि ‘समान नागरिक संहिता’ में होगा गया। हालांकि विधि आयोग ने कोई मसौदा तो पेश नहीं किया है लेकिन भाजपा के नेता भाषणों में बार बार गोवा का जिक्र करते हैं। चलिए यही देखा जाये कि गोवा की ‘समान नागरिक संहिता’ में क्या है। इसका आंकलन करने से ही पता चल जायेगा कि भाजपा के पिटारे में क्या है। गोवा के ‘समान नागरिक संहिता’ में कुछ क्षेत्रों में तो समान कानून लागू होते हैं लेकिन ज्यादातर क्षेत्रों में यह विभिन्न समुदायों के पारिवारिक कानूनों का मिला जुला रूप है। जाहिर है इनमें असमानता भी है। उदाहरण के लिए, प्रदेश के कैथोलिकों के लिए विवाह के प्रमाण के संबंध में अलग नियम हैं। इसी तरह चर्च में विवाह करने वालों को ‘समान नागरिक कानून’ के तहत तलाक के प्रावधानों से छूट है।

इससे ज्यादा हैरत वाला मामला यह है कि इस संहिता के अनुसार मुसलमान तो बहुविवाह नहीं कर सकते, लेकिन कुछ परिस्थितियों में, हिंदू पुरुषों को द्विविवाह की अनुमति है। यह प्रावधान गोवा कोड के एक अलग खंड के अंतर्गत है जिसे “द जेंटाइल हिंदू कस्टम्स एंड यूसेज कोड” कहा जाता है। इसमें शामिल प्रावधान महिलाओं के लिए अत्यधिक प्रतिगामी हैं। इसके अनुसार, अगर एक हिंदू पत्नी को 25 साल की उम्र तक पहला बच्चा पैदा नहीं होता या 30 साल की उम्र तक बेटे को जन्म नहीं देती तो हिंदू पुरुष को दूसरी शादी करने की छूट है।

इसी तरह यदि कोई हिंदू महिला व्यभिचार करती है तो यह तलाक का आधार है लेकिन यदि कोई हिंदू पुरुष ऐसा करता है तो यह तलाक का आधार नहीं है। पिछले काफी समय से गोवा में भाजपा की सरकार है, अगर भाजपा को महिलाओं की इतनी चिंता है तो अभी तक इन कानूनों में बदलाव क्यों नहीं किया। पर करती कैसे यह नियम तो उनके दण्ड संहिता के महाराज मनु और उनकी स्मृति के ही अनुरूप है जो महिला को दोयम दर्जे का ही मानती है। 

देश के प्रधानमंत्री ने भोपाल में कहा कि ‘एक घर में एक सदस्य के लिए एक कानून हो और दूसरे के लिए दूसरा तो घर चल पायेगा क्या? तो ऐसी दोहरी व्यवस्था से देश कैसे चल पाएगा? यह मोदी जी की भाषण कला की खासियत है कि वह जटिल मुद्दे को जनता में एकतरफा पेश करते हैं, आधा अधूरा बताते हुए, भावनात्मक अपील करते हैं। कोशिश यही होती है कि भ्रामक प्रतीकों के जरिये जनमत बनाया जाए। परिवार का उदाहरण देते हुए भी उन्होंने यही किया और इससे उनकी परिवार की रूढ़िवादी धारणा का भी पता चलता है। 

हमारा प्रश्न उनसे है कि आधुनिक भारत के लोकतान्त्रिक समाज के एक ही परिवार में एक सदस्य हिन्दू धर्म को मानने वाला और दूसरा इस्लाम या ईसाई धर्म को माने वाला हो सकता है। तो क्या मोदी जी के अनुसार जब इन सदस्यों की शादी होगी तो उनके फेरे ही लेने पड़ेंगे या इस्लाम और ईसाई धर्म के अनुसार भी शादी की रस्में वह कर सकते हैं। क्या इन सदस्यों को पूजा ही करनी पड़ेगी या वह नमाज़, प्रार्थना अथवा अरदास भी कर सकते हैं। अब इसे मोदी जी क्या अलग अलग नियम कहेंगे। असल बात यही है कि मोदी और उनके पैतृक संगठन आरएसएस के विचार को ऐसा बहुलतावादी संस्कृति वाला परिवार ही गवारा नहीं है। परिवार ही नहीं ऐसा बहुल संस्कृति वाला देश भी गवारा नहीं है। इसलिए सभी पर एकरूपता थोपने की कोशिश है। 

भाजपा से सीधा सवाल तो यह है कि अगर उनको महिलाओं के अधिकारों की चिंता है, इसलिए ‘समान नागरिक संहिता’ ला रही है, लेकिन जो कानून पहले से ही हैं, जो सबके लिए समान हैं, भारतीय दंड संहिता है, उनको एकरूप/ समान रूप से लागू कौन करवाएगा। जाइए पहले देश की बलात्कार की पडितों के लिए समान कानून को सबके लिए समान रूप से लागू करवाइये। कहीं बिलकिस बानो के बलात्कार के आरोपियों को जेल से रिहा करना और कहीं आशा राम बापूओं की बेखौफ और बेरोकटोक पैरोल किस कानून के तहत है। वह कौन सा कानून है जो भाजपा सरकारों को दोषियों के पक्ष में खड़ा करता है।

उत्तर प्रदेश के हाथरस बलात्कार के केस में तो सबूत भी थे, पीड़िता की मृत्यु शय्या से बयान भी था और समान कानून भी था और दोषी छूट भी गए। कानून के अनुसार बलात्कार हुआ ही नहीं व केवल गैर इरादतन हत्या हुई है। भाजपा इसकी व्याख्या कैसे करेगी कि देश में एक समान दण्ड संहिता होने के बावजूद कार्रवाई और सजा पीड़ितों और दोषियों के धर्म और जाति देख कर क्यों। क्यों सरकार और सरमायेदार आरोपियों के साथ ही खड़े होते हैं। अगर आरएसएस को यूनिफार्म सिविल कोड लाना है तो आरएसएस के संगठन के ढांचे में एकरूपता लानी चाहिए जहां आज भी महिलाओं के लिए अलग संगठन है और कहने की जरूरत नहीं कि यह तथाकथित मर्दो के संगठन के सामने हर हैसियत में दोयम ही है। 

भाजपा का महिला उत्थान या सशक्तिकरण के दावे पर कोई सचेत और जागरूक इंसान तो विश्वास नहीं करेगा। आरएसएस और भाजपा के नारी प्रेम और महिला सशक्तिकरण को देश अच्छी तरह जानता है। यह वही आरएसएस है जो मनुस्मृति को देश की दंड संहिता बनाने के लिए लड़ रहा था। मनुस्मृति ही तो देश में महिला उत्पीड़न और जाति श्रेष्ठता के लिए जिम्मेदार मूल कारण है। 

चाहे महिला पहलवान रही हों, कठुआ रहा हो या कुलदीप सेंगर का बचाव रहा हो, भाजपा का काम बोलता है। बड़ी मुस्तैदी के साथ आरोपियों के साथ खड़ी रही है। यह इत्तेफाक नहीं है कि पिछले विधि आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशें फाइलों में दबी रह गईं हैं। संसद में महिला आरक्षण बिल एक लंबी प्रतीक्षा कर रहा है और शादी में बलात्कार (मैरिटल रेप) को भाजपा के नेता देश की संस्कृति के खिलाफ करार देते हुए इसे ख़ारिज करते हैं। 

वैसे जिन लोगों को आज मुस्लिम बेटियों की चिंता सत्ता रही है उन्हें नागा बेटियां कभी याद न आईं जहां भाजपा सरकार में है। नागालैंड में 2005 से स्थानीय निकायों के चुनाव नहीं हुए हैं। कारण है कि स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई पद आरक्षित हैं जिसका नागा समूह विरोध कर रहे हैं। तर्क है कि यह नागा प्रथागत कानून के खिलाफ है। लेकिन नागा महिलाओं के संगठनों की राय इससे इतर है और वह इस आरक्षण के पक्ष में हैं। सर्वोच्च न्यायालय में केस पर सुनवाई चल रही है। 

पिछली कुछ तारीखों में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को अपना पक्ष न रखने के लिए फटकार लगाई है। जब राज्य में नई सरकार बनी जिसमें बीजेपी भागीदार है और भाजपा का सदन में उपमुख्यमंत्री है तो सरकार ने एक प्रस्ताव से महिलाओं को स्थानीय निकायों में आरक्षण से महरूम कर दिया। यह कैसा पाखंड है भाजपा का। आज देश पर ‘समान नागरिक संहिता’ थोपने वाले लोग उसी विचारधारा के हैं जिन्होंने हिन्दू कोड बिल का पुरजोर विरोध किया था और डॉ. आंबेडकर से त्यागपत्र मांगा था। आंबेडकर जी इतने आहत हुए कि उन्होंने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

हमारे देश में महिलाओं की स्थिति दोयम है। उनके जीवन में सुधर के लिए बड़े बदलावों की जरूरत है। सामान्य तौर पर सभी रूढ़िवादी धर्म महिलाओं की समानता और आज़ादी के खिलाफ ही होते हैं। इसलिए धार्मिक पारिवारिक कानून भी महिलाओं पर बंदिश लगाते हैं और पुरुषों को सम्पति में तरजीह देते हैं। इसलिए प्रथागत कानून/ कस्टमरी लॉस में सुधार होना लाज़मी और यह सुधार जल्द से जल्द होने चाहिए। परन्तु यह केंद्र के साम्प्रदायिक फासीवादी डंडे से नहीं होगा।

देश में दो तरह की पहल की जरूरत है, सामान्य कानून जो सबके लिए बराबर हैं परन्तु जिनका मकसद महिला हिंसा को रोकना है, को मज़बूती से लागू करना। कानून जैसे दहेज निषेध अधिनियम, बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 आदि सामान्य कानून हैं जो सभी समुदायों पर लागू होते हैं। इन कानूनों का मज़बूत करने और सख्ती से लागू करने की जरूरत है। 

ऐसे ही कुछ कानून जैसे सम्मान के नाम पर अपराधों और हत्याओं पर एक कानून, शादी में बलात्कार (मैरिटल रेप) और वैवाहिक संपत्ति के समान अधिकारों पर कानून आदि को संसद में पारित कर लागू करवाने की जरूरत है। परन्तु भाजपा सरकार इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसी के साथ जरूरत है सभी धर्मो के व्यक्तिगत कानूनों में सुधार। यह भी बहुत महत्वपूर्ण है।

जैसे ऊपर कहा गया है सभी धर्मो के व्यक्तिगत कानून (पर्सनल लॉ) महिलाओं को बराबरी का अधिकार नहीं देते। इसलिए बड़े स्तर पर इन कानूनों में सुधार की जरूरत है। इसके लिए सम्बंधित समुदाय की महिलाओं, परुषों और महिला आंदोलन से चर्चा के बाद समुदाय विशेष के अंदर से मुहीम चलनी चाहिए। इसी बाबत पिछले लॉ कमीशन ने कई बेहतरीन सुझाव दिए थे जिन पर भाजपा की केंद्र सरकार द्वारा चर्चा का भी कोई सवाल पैदा नहीं होता, इनको लागू करना तो दूर की बात है। 

हमारे देश की रूह विविधता में एकता है। जब विविधता है तो उसे स्वीकार करना चाहिए। अगर विविधता को नहीं मानेंगे तो एक देश नहीं रहेगा क्योंकि ऐसी स्तिथि में एक ही देश में समूह आज़ाद महसूस नहीं करेंगे। यह मानने का मतलब है लोगों के रहन-सहन और संस्कृति की विविधता को भी सम्मान देना। देश की कोशिश तो यह होनी चाहिए कि इस अपार विविधता वाली जनता के जीवन स्तर में एकरूपता लाना। उनकी आर्थिक और सामाजिक खाइयों को दूर करना और बराबरी लाना। इसके लिए संविधान और देश की दंड संहिता है, लेकिन इस धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों के पर्सनल लॉ (निजी कानून) उनकी निजता, उनकी धार्मिक मान्यताओं और संस्कृति से जुड़े हैं। उनमें एकरूपता कैसे होगी?

जब तक विविधता है तब तक इनमें कुछ फर्क तो रहेगा। जो लाज़मी सुधार होने हैं वह अंदर से होंगे। आरएसएस भाजपा की समस्या है कि उनकी वैचारिकी विविधता के ही खलाफ है। उनको तो श्रेष्ठता के आधार पर एकरूप राज्य की स्थापना करनी है जहां बहुसंख्यकों की संस्कृति सब पर थोपी जाये। यह देश को जोड़ता नहीं बल्कि अलगाव पैदा करता है। जो विविधता ताकत है उसे कमजोरी बना देता है। इसलिए हमें परिवार के निजी कानूनों में बड़े बदलाव लाने हैं ताकि समता मूलक समाज बने लेकिन इससे पहले आरएसएस/ भाजपा के ‘समान नागरिक संहिता’ रूपी देश की विविधता पर हमले को एकजुटता से हराना है।

(विक्रम सिंह, अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव हैं।)

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