महिलाओं ने किया मणिपुर का निर्माण, उन्हें ही करनी होगी शान्ति की पहल

ऐतिहासिक तौर देखा जाए तो उत्तर पूर्वी राज्यों की महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा अधिक संवेदनशील व संघर्षशील हैं। और, जहां तक मणिपुर की बात है तो सभी जानते हैं कि अंग्रेज़ों के विरुद्ध उनकी लड़ाई नुपी लान (महिलाओं का युद्ध) दो बार निर्णायक साबित हुई थी। पहली बार 1904 में महिलाओं ने हज़ारों की संख्या में एकत्र होकर बर्तानवी सरकार द्वारा मणिपुरी पुरुषों (17-60 वर्ष) पर लादे गए अवैतनिक बलात मज़दूरी का जमकर विरोध किया और आदेश को वापस करवाया था।

दूसरी बार, 1939 में जब नुपी लान शुरू हुआ तो वह ब्रिटिश एजेन्ट, मणिपुर महाराजा और मारवाड़ी व्यापारियों द्वारा चावल निर्यात के विरुद्ध था, जिसके कारण मणिपुर में भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई थी। इस संघर्ष को चलते हुए 3 महीने हो चुके थे जब द्वितीय विश्व युद्ध के कारण वह समाप्त हुआ। पर इस लम्बे संघर्ष के दौरान कई महिलाओं ने अपनी जानें गंवाई थीं।

इतिहासकारों का मानना है कि क्योंकि मणिपुरी महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा कृषि कार्य में लगा था और बाज़ार पर उनका ही कब्ज़ा था, इसलिए उनके राइस मिलों को बन्द करवाने और बाज़ार बाॅयकाॅट संघर्ष के चलते मणिपुर में आर्थिक और राजनीतिक सुधार संभव हो सके, इसलिए कहा जाता है कि मणिपुर का निर्माण महिलाओं ने ही किया था। आज वे क्यों उसी मणिपुर को आग के हवाले कर रही हैं? पुनः उनके समक्ष मणिपुर में शान्ति स्थापित करने की चुनौती है, क्योंकि 3 महीने लम्बे गृहयुद्ध में औरतें और बच्चे ही सबसे अधिक तबाह हो रहे हैं। और सत्ताधारियों का कुछ नहीं जाता।

सामाजिक आंदोलन से राजनीतिक संघर्ष की ओर

1970 के दशक में पुनः मणिपुरी महिलाओं ने शराब और नशीली दवाओं की संस्कृति पर हमला बोलकर ‘निशा बंदियों’ का खिताब जीता। वे किरोसिन लैंप और लालटेन लेकर रात को निकलतीं और शराब के भट्ठियां और दुकानों को जलातीं और पीने वालों को सज़ा देतीं। बाद में इन महिलाओं ने मशाल धारण किया और इन्हें ‘मीरा पाइबी’ के नाम से जाना जाने लगा। ये ज्यादातर मैतेई समुदाय से थीं। मीरा के मायने है बांस की लाठी जो जलती रहती है। ये सामाजिक लड़ाई थी।

बाद में मणिपुर में नागा विद्रोहियों द्वारा स्वतंत्र होने की मांग उठी तो आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट 58 लाया गया। सितम्बर 1981 में पूरे मणिपुर को आफस्पा के अंतर्गत लाया गया। मणिपुर विद्रोहियों और सेना के बीच संघर्ष में फंसा गया और निर्दोष लोगों के यहां बिना वारंट छापे और गिरफ्तारियां होने लगीं। नाबालिग लड़कों को उठाया गया और लड़कियों के साथ यौन हिंसा हुई। मीरा पाइबी सैनिकों की रेड, अत्याचार और गिरफ्तारियों को रोकने के लिये गांव-गांव मशाल लेकर रात्रि-पहरा देतीं। वे मानवाधिकारों की रक्षक और शान्ति की दूत बन गई थीं।

1980 में आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट इस राज्य में लागू हो चुका था और कई सैनिक ऑपरेशन हो रहे थे। जब सेना की कार्रवाई उग्र हुई, ये महिलाएं धरने, घेराव, प्रदर्शन, बंद, रैली और अपने साथियों को छुड़ाने जैसी गतिविधियों में लग गईं। मीरा पाइबी माताओं ने सेना द्वारा थंगजाम मनोरमा के बलात्कार और हत्या के विरुद्ध असम राइफल्स के हेडक्वाटर्स पर निर्वस्त्र होकर जो प्रदर्शन किया था उसने देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया था।

इराॅम शर्मिला ने भी आफस्पा कानून को हटवाने के लिए 14 वर्ष भूख हड़ताल की थी, जो भारत के इतिहास में बेमिसाल है। आज भी महिलाएं शान्ति की गुहार लगा रही हैं, पर अलग अलग होकर। वे चाहती हैं कि शान्ति स्थापित हो, क्योंकि फसाद का सबसे बुरा असर महिलाओं के जीवन पर पड़ रहा है। पर विभाजन की राजनीति इस खतरनाक स्तर तक पहुंच गई है कि मणिपुर के खूबसूरत प्रदेश में खून की नदियां बह रही हैं। इस तांडव में मैतेई और कुकी/ज़ो महिलाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या अब प्रदेश सालों तक अशान्त रहेगा? क्या महिलाएं अपने सामने मणिपुर को बर्बाद होते देखती रहेंगी? फिलहाल कुछ कहना मुश्किल है।

मणिपुर में राजनीतिक प्रश्न हैं अनेक

मणिपुर में नागा समस्या से लेकर कुकी/ज़ो जनजाति के साथ भेदभाव के आंतरिक सवाल तो हैं ही। इसके अलावा भारत के संविधान के अनुच्छेद 2 और 3 में भी संशोधन की मांग उठ रही है। 2020 में सिविल सोसाइटी संगठनों की समन्वय समिति ने यह मांग की है और कहा कि वे केवल ‘विशेष श्रेणी’ के दर्जे से संतुष्ट नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक स्वयत्तता चाहते हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री को सौंपे गए ज्ञापन में कहा है कि ‘केंद्र-राज्य संबंधों को नया आकार देने के लिए एक नई रूपरेखा तैयार करने की जरूरत है, न केवल आधुनिक चुनौतियों का सामना करने के लिए, बल्कि अपने नागरिकों की आहत भावनाओं को शांत करने के लिए भी।’

पर विद्रोही गुटों का कहना है कि जब 1949 में महाराजा बोधचंद्रा को जबरन भारत के साथ विलय की संधि पर हस्ताक्षर करवाया गया था, और लगातार राज्य के साथ सौतेला व्यवहार हुआ है, तो मणिपुर को आत्मनिणर्य का अधिकार मिलना चाहिये और वे भारत का हिस्सा न रहना चाहें तो उससे अलग होने की ओर भी बढ़ सकते हैं। यह उनका हक है।

मणिपुर में आरक्षण के सवाल ने ‘आग में घी’ का काम किया

मणिपुर में काफी समय से मैतेई समुदाय के लोग रहते हैं और उनकी जनसंख्या 53 प्रतिशत है। बाकी, नागा 24 प्रतिशत हैं और कुकी/ज़ो जनजातियां 16 प्रतिशत हैं। इसके अलावा बंगाली, मारवाड़ी, तमिल और नेपाली भी हैं। कुकी/ज़ो समुदाय अनुसूचित जनजाति में आते हैं और अधिकतर पहाड़ी इलाकों में रहते हैं जबकि मैतेई समुदाय को इस श्रेणी में नहीं रखा गया है और वह घाटी में रहता है। मैतेई समुदाय की ओर से जब अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की मांग उठी है, तब से कुकी जनजाति आंदोलित है।

मणिपुर उच्च न्यायालय के आदेश में राज्य सरकार को मेइती को अनुसूचित जनजाति (एसटी) सूची में शामिल करने के सवाल पर केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय को एक सिफारिश प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया था। इसने आग में घी का काम कर दिया। आदिवासी संगठन आटसुम ने इस मांग के विरोध में प्रदर्शन किया। तभी से मैतेयी समुदाय की ओर से तेवर सख्त हो गये और आदिवासियों के साथ भीषण जंग छिड़ गई। कुकी जनजाति अधिकतर इसाई हैं। 250 चर्च तोड़े/जलाए गए हैं, यहां तक कि मैतेई बहुल इलाकों में भी। यानि धार्मिक उन्माद भी फैल रहा है और मैतेई इसाई भी बक्शे नहीं जाएंगे।

आदिवासियों के घर जलाए गए और यहां तक खबरें आ रही हैं कि उनकी औरतों और बेटियों के साथ बलात्कार हुए हैं। इसकी पुष्टि होना बाकी है। आज की तारीख में 150 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, 50,000 लोग बेघर हैं, और जो 300 शिविरों में रहने को मजबूर हैं। घाटी से आदिवासियों को खदेड़ दिया गया है, मणिपुर की राज्यपाल के लगातार भड़काऊ बयान आ रहे हैं, ऑर्गनाइज़र पत्रिका लिख रहा है कि अदिवासियों का मार्च चर्च और विद्रोहियों की शह के कारण हिंसक हुआ।

जाहिर है कि लोगों को मुख्यमंत्री बिरेन सिंह की भूमिका पर संदेह है, और खबरें आ रही हैं कि पैरामिलिटरी व पुलिस हिंसा भड़काने में मैतेयी समुदाय की परोक्ष मदद कर रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग उठने लगी है और केंद्र की हिंसा रोकने में नाकामी पर गुस्सा है। मणिपुर के भीतर गृहयुद्ध जैसी स्थिति है, पर प्रधानमंत्री अब तक गए नहीं हैं, यह अश्चर्यजनक है। हालात इतने गंभीर हैं कि यूरोपियन यूनियन को आलोचना का प्रस्ताव तक पारित करना पड़ा है।

मणिपुर भू-राजनैतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण राज्य है। अब हिंसा से बचने के लिए शरणार्थी पड़ोसी राज्य मिज़ोरम में जा रहे हैं। वहां भी केंद्र के मदद के अभाव में आर्थिक संकट गहरा रहा है। संकट यह भी है कि म्यांमार बगल में है और चीन भी। बिना सभी प्रभावित पक्षों से बातचीत के, आग को कैसे बुझाया जा सकेगा? सैनिक रास्ते से अब तक उत्तर-पूर्व में कभी कोई समाधान निकला नहीं है।

मैतेई समुदाय कभी अनुसूचित जनजाति में शामिल नहीं होना चाहते थे

कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि प्रथम बैकवर्ड कास्ट कमीशन (काका कार्लेकर) ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को प्रश्न भेजे थे, तो मैतेयी समुदाय (जो अब बीसी और एससी आरक्षण प्राप्त हैं) ने अपने को सूची से बाहर रखना पसंद किया था। यह इसलिए कि वे आदिवासियों को निम्न मानते थे और उनको हेय दृष्टि से देखते थे। तब मामला क्या है? आरक्षण या कुछ और? यह बात भी कही जा रही है कि मामला जमीन से जुड़ा है।

मैतेई प्रचारित कर रहे हैं कि उन्हें यदि अनुसूचित जनजाति की सूची में रखा जाएगा तभी वे अपनी पुश्तैनी जमीन, अपनी परंपरा, संस्कृति और भाषा को बचा सकेंगे वरना बाहरी तत्वों द्वारा सब छिन जाएगा। इसलिए वे एनआरसी का समर्थन भी कर रहे हैं। कुकी/ज़ो जनजातियों के लिए इसके मायने होंगे उनका विशेष स्थान खत्म। इधर जंगलों को भी कुकी समुदाय से खाली कराया जा रहा है क्योंकि उन्हें ‘घुसपैठिया’ करार दिया जा रहा है। क्या यह उनके जीवन जीने के अधिकार का हनन नहीं है?

देश के महिला संगठनों की मांग

मणिपुर में शान्ति की बहाली को लेकर महिला संगठनों की ओर से कोई बड़ा प्रदर्शन अब तक नहीं हो सका है। परन्तु सहेली रिसोर्स सेंटर, एनएफआईडब्लू, पीयूसीएल सहित कुछ महिला संगठनों ने एक पेटिशन में मांग की है कि…

  • प्रधानमंत्री को बोलना चाहिए और मणिपुर की मौजूदा स्थिति पर जवाबदेही लेनी चाहिए।
  • तथ्यों को स्थापित करने, न्याय की जमीन तैयार करने और मणिपुर के समुदायों को अलग करने वाले गहरे घाव को भरने के लिए एक अदालत की निगरानी वाले ट्रिब्यूनल का गठन किया जाना चाहिए ताकि विभाजन और नफरत को कम किया जा सके।
  • राज्य और गैर-राज्य ऐक्टरों द्वारा यौन हिंसा के सभी मामलों के लिए एक फास्ट ट्रैक कोर्ट स्थापित किया जाना चाहिए, जैसा कि वर्मा आयोग ने सिफारिश की थी कि ‘‘संघर्ष वाले क्षेत्रों में यौन अपराधों के दोषी कर्मियों पर सामान्य आपराधिक कानून के तहत मुकदमा चलाया जाना चाहिए।’’
  • पलायन करने को मजबूर लोगों के लिए सरकार, राहत का प्रावधान और उनके गांवों में उनकी सुरक्षित वापसी की गारंटी; उनके घरों और जीवन का पुनर्निर्माण करे। उन लोगों के लिए अनुग्रह मुआवजे का प्रावधान हो जिन्होंने अपने प्रियजनों को खो दिया, हिंसा का सामना करना पड़ा और घर, अनाज, पशुधन आदि की हानि हुई है। वापसी, पुनर्वास और मुआवज़े की इस प्रक्रिया की देखरेख सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के एक पैनल द्वारा की जानी चाहिए जो इस क्षेत्र को करीब से जानते हैं, और जिन्हें उच्च न्यायालय या सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त किया गया हो।

महिला फैक्ट फाइंडिंग टीम पर राजद्रोह का मुकदमा क्यों?

मणिपुर की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए महिलाओं की एक तीन-सदस्यीय टीम इम्फाल गई थी, जिसका नेतृत्व एनएफआईडब्लू की महासचिव ऐनी राजा कर रही थीं। अधिवक्ता दीक्षा द्विवेदी और निशा सिद्धु भी टीम में थीं और उन्होंने प्रेस को अपनी जांच रिपोर्ट जारी की है, जिसमें मणिपुर बवाल को ‘राज्य-प्रायोजित’ कहा गया। पर एक कायराना कार्रवाई के तहत मणिपुर पुलिस ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा ठोंक दिया है। अधिवक्ता दीक्षा द्विवेदी को शुक्रवार तक के लिए गिरफ्तारी पर स्टे मिला है पर ऐनी और सिद्धु के बारे में अब तक कोई जानकारी नहीं मिली है।

पीयूसीएल ने अपने लम्बे बयान में कहा है कि उन पर किये गए एफआईआर में कई अपराधिक मुकदमे 121 ए, 124ए, 153/153ए/153बी, 499, 504, 505(2) और धारा 34 भारतीय दंड संहिता लगाए गए हैं, जो निन्दनीय है, और इन्हें तत्काल खारिज किया जाना चाहिये। पीयूसीएल ने बयान में कहा-

“पीयूसीएल 8 जुलाई को मणिपुर पुलिस द्वारा इस तुच्छ एफआईआर के पंजीकरण को पुलिस द्वारा शक्ति के क्रूर, दुर्भावनापूर्ण और अचेतन दुरुपयोग के रूप में देखता है। पुलिस कानून का उपयोग उन नागरिकों को डराने और धमकाने के लिए आतंक के एक उपकरण के रूप में कर रही है जो संघर्ष के क्षेत्रों में व्यक्तिगत दौरे के माध्यम से सच्चाई का पता लगाना चाहते हैं, इसमें शामिल विभिन्न हितधारकों और पार्टियों से मिलना और अपने निष्कर्षों को चर्चा के लिए सार्वजनिक डोमेन में रखना चाहते हैं।’’

बयान में आगे कहा गया- “तथ्य खोजी पूछताछ, फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट प्रकाशित करना, लेख लिखना, प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित करना, मीडिया को साक्षात्कार देना आदि जैसे व्यापक रूप से स्वीकृत मानवाधिकार उपकरणों को अपराधीकरण करने के ऐसे कृत्य स्पष्ट रूप से भारतीय लोगों के संवैधानिक रूप से संरक्षित मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। (1) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (जिसमें सरकार से सवाल करने, असहमति जताने और जवाबदेही मांगने का अधिकार शामिल है) (2) आंदोलन की स्वतंत्रता (भारत में कहीं भी घूमने की), (3) सभा की स्वतंत्रता और अन्य अधिकार’’

पीयूसीएल ने केंद्र सरकार से सभी राज्यों और पुलिस को मानवाधिकार कार्य, अकादमिक लेखन और इसी तरह की गतिविधियों के लिए लोगों को अपराधी करार देने के कृत्यों के खिलाफ सलाह जारी करने का भी आह्वान किया है।

महिला संगठन न्याय और शान्ति के लिए करें पहल

सभी महिला संगठनों को इस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करनी चाहिये और संयुक्त आन्दोलन के जरिये मणिपुर में शान्ति के लिए काम करना चाहिये जिसके विभिन्न रूप हो सकते हैं- राहत कार्य, सही सूचना को लोगों तक पहुंचाना, उत्तर पूर्व और देश के विभिन्न शहरों में मौन जुलूस और कैंडल मार्च, राष्ट्रपति को हज़ारों हस्ताक्षरित पत्र भेजना और दिल्ली में मणिपुरी लोगों के बीच बातचीत की पहल, कन्वेंशन आदि। महिलाएं शान्ति के लिए पहल करेंगी तभी माहौल बदलेगा।

(कुमुदिनी पति, सामाजिक कार्यकर्ता हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ की उपाध्यक्ष रही हैं।)

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