वन्य जीव संरक्षण की खामियों से हो रही इंसान और जीवों के बीच हिंसक झड़प और मौतें

अप्रैल से जून 2023 के बीच के इन तीन महीनों में केवल उड़ीसा में हाथियों के हमलों से 57 लोगों की मौत हुई है। 2022 में 38 लोगों की मौत इस तरह के हमलों में हुई थी। ‘वाइल्ड लाइफ सोसायटी ऑफ उड़ीसा’ के अनुसार इस साल के खत्म होते-होते इस तरह की मौतों की संख्या 146 से ऊपर जाने वाली है। उड़ीसा में पिछले चार सालों में मौतों की संख्या 100 से ऊपर जाने लगी है। ‘वाइल्ड लाइफ सोसायटी ऑफ उड़ीसा’ ने अपने आंकड़ों में बताया है कि जिन 57 लोगों की मौत हुई है उसमें से 14 लोग आम के बाग में मारे गये और 7 सात लोग हाथियों ने जब गांव पर हमला किया तब मारे गये। अन्य कारणों में जंगल से लकड़ी बीनने, महुआ बीनने, फसल की सुरक्षा करने जैसे कामों को अंजाम देते समय हाथियों के हमलों में मारे गये।

‘वाइल्ड लाइफ सोसायटी’ के अनुसार हाथियों का यह बढ़ता हमला संसाधनों पर कब्जा बढ़ाने के साथ जुड़ा हुआ है। जंगलों में खदानों और पत्थर तोड़ने की मशीनों, रात में ट्रकों और ट्रैक्टरों के लगातार चलते रहने से हाथियों के सामने आवास की समस्या खड़ी हो रही है, साथ ही हाथियों के लिए जंगलों में भोजन की उपलब्धता में गिरावट बढ़ रही है। ऐसे में हाथी भोजन की तलाश में गांवों की फसलों और बागानों की ओर बढ़ रहे हैं। इस तरह इंसान के साथ टकराहटों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी देखी जा रही है।

हल्द्वानी के हेमंत गौनिया ने सूचना के अधिकार के तहत जंगली जानवरों और इंसानों के बीच होने वाली टकराहटों से हुई मौतों और घायलों की सूचना उत्तराखंड सरकार से मांगी थी। उन्हें 2022 तक आंकड़े मिले। 2012 से 2021 के बीच हर साल 50 से अधिक लोग वन्य जीवों के हमलों मे मारे जा रहे थे। 2021 में 82 लोग मारे गये थे। 2000 से 2022 के बीच कुल 1054 लोगों की मौत वन्य जीवों के हमलों में हुई और 5112 लोग घायल हुए। इसमें से 500 लोग तेंदुए के हमले में मारे गये और 207 लोग हाथियों के हमलों के शिकार हुए।

उपरोक्त दो दशक की अवधि में 172 शेर भी मारे गये, जिसमें 6 मामले जानवरों की तस्करी से जुड़े हुए थे जबकि 17 दुर्घटना के शिकार होने से मारे गये थे। 32 मौतें शेरों की आपसी भिड़ंत की वजह से हुईं। 81 प्राकृतिक कारणों से और 26 ऐसी मौतें थीं जिसके बारे में पता ही नहीं चल सका। जनवरी-जून, 2023 के बीच 16 शेरों की भी मौत हुई, लेकिन इनके कारणों के बारे में स्पष्ट बताने के बजाय वन विभाग के अधिकारी कारणों की तलाश में लगे हुए रहे। जानवरों के आंकड़ों से पता चलता है कि जैसे-जैसे उनकी संख्या बढ़ रही है, उनके मौत की संख्या के साथ-साथ उनकी इंसान के साथ हुई भिड़ंत में इंसानों की मौत की संख्या में भी वृद्धि हो रही है।

यदि भाजपा की केंद्रीय सरकार द्वारा बहुप्रचारित चीता संरक्षण और विकास की योजना को देखें, तो वहां भी एक के बाद एक मौतों का सिलसिला दिखा और यह एक राष्ट्रीय बहस का मुद्दा भी बना। मौत के कारणों में बीमारी से लेकर चीतों की आपसी भिड़ंत से हुई गंभीर चोटें थीं। इसमें न्यायालय ने हस्तक्षेप किया तब उसके सामने चीतों की प्रवृत्ति, रिहाइश और उससे होने वाली समस्याओं के बारे में कुछ बातें लोगों के सामने आई।

चीतों के लिए जितने बड़े इलाके की जरूरत होती है, जो उनकी नियमित जिंदगी के जरूरी है, की कमी के उजागर होने पर जज महोदय ने सलाह के तौर सिर्फ इतना ही कहा कि इन्हें राजस्थान के संरक्षित वन क्षेत्र में स्थानान्तरित करने में क्या दिक्कत है? यह सवाल से ज्यादा हिदायत से भरा हुआ था। 

एक तरफ वन और जीव संरक्षण की नीति के तहत हाथी, शेर, चीता और वन विविधता को संरक्षित और विकसित करने के लिए एक के बाद एक प्रोजेक्ट और नीतियां सामने आ रही हैं। वहीं दूसरी ओर खनिज, पत्थर, लकड़ी और विशाल कॉरपोरेट प्रोजक्ट के लिए भी इन्हीं इलाकों से जमीनों का अधिग्रहण हो रहा है। जंगल के इलाकों में अधिग्रहण के नियम और कानूनों को सरकार अपने हितों के अनुरूप ढ़ालती रहती है, जिसकी वजह से वहां रह रहे करोड़ों लोगों के लिए विस्थापन एक अनिवार्य नियम जैसा बन गया है। इस संदर्भ में खुद संसदीय समिति के तत्वाधान में बनी कमेटी की रिपोर्ट इसे अंग्रेजों से बड़ी जमीन की लूट के रूप में दर्ज किया था। जिससे करोड़ों लोग उजाड़ के शिकार हुए।

जंगलों में जानवरों के साथ रहते हुए, उनके साथ इंसान ने न सिर्फ जीना सीखा था, साथ ही उसे संरक्षित करना भी सीखा था। मानव विकास का इतिहास जंगल, जानवर और खेती के विकास के साथ अभिन्न तौर पर जुड़ा हुआ है। तमिलनाडु और कर्नाटक में सैकड़ों ऐसे आदिवासी समुदाय थे, जो हाथियों के साथ जुड़े हुए थे और आज भी इनमें से बचे रहे आदिवासी समुदाय के लोग ही हाथियों के संरक्षण में अहम भूमिका अदा कर रहे हैं। कॉरपोरेट लूट ने एक तरफ इन आदिवासी समुदाय को परम्परागत कृषि को छोड़कर आधुनिक खेती अपनाने की ओर बढ़ाया, वहीं दूसरी ओर जंगलों की लूट ने वन्य जीवों की भोजन संपदा को छीन लिया। सदियों से साथ रह रहे वन्य जीव और इंसान के बीच बढ़ती टकराहटें और मौतें इन्हीं नीतियों का नतीजा हैं।

विकास के नाम पर बनाये जा रहे वन्य जीव कॉरिडोर जानवरों की बढ़ती संख्या, और यदि वह स्थिर हो तब भी उनके रहने के अनुकूल नहीं बन पा रहा है। जानवरों की प्रवृत्ति को ध्यान में न रखकर इस तरह के कॉरिडोर को चिड़ियाघरों की तरह विकसित करने की मानसिकता की वजह से भोजन, रिहाइश, प्रजनन और बच्चों की देखभाल की समस्या पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसकी वजह से चाहे वह कुनों जंगल में नाइजीरिया से आये चीतों की आपसी भिड़ंत से हुई मौत हो, या कॉर्बेट पार्क में शेरों की आपसी भिडंत से होने वाली मौत हो, दोनों में एक ही समस्या दिखती है। इनके भोजन की समस्या इन्हें गांव के खेत में होने वाली उपज, बागान और उनके पालतू पशुओं तक ले जाती हैं, और इस तरह वे इंसानों पर हमले की तरफ बढ़ते हैं।

‘डाउन टू अर्थ’ की एक रिपोर्ट (2 जुलाई, 2023) के अनुसार गीरेश आचार की एक सूचना अधिकार से हासिल सूचना में कर्नाटक सरकार ने बताया है कि पिछले 43 सालों में हजारों एकड़ जंगल की जमीन अतिक्रमण में खत्म हो गई है। जंगल की कुल 204,229.762 एकड़ जमीन अतिक्रमण का शिकार हुई है जबकि अवैध तरीके सरकार ने 104,065.96 एकड़ जमीन ग्रांट किया है। सूचना के अधिकार के तहत सूचना हासिल करने वाले आचार के अनुसार कर्नाटक सरकार की कुल जंगल की  892,618 एकड़ जमीन का लगभग आधा हिस्सा (308,295 एकड़) नष्ट हो चुका है। जबकि कर्नाटक का वन विभाग 1980 से महज 130 चार्जशीट ही दाखिल कर सका है।

इस संदर्भ में कोई उपयुक्त कार्रवाई नहीं दिख रही है। इस रिपोर्ट में किन लोगों को जमीनें ग्रांट में दी गईं और किन लोगों ने अतिक्रमण किया, इसका विवरण नहीं है। लेकिन, इससे इतना जरूर साफ होता है, कि वन विभाग जंगल की जमीन से लेकर उसकी संपदा की लूट में इस या उस तरीके से शामिल जरूर रहता है। और, जब भी वन्यजीव संरक्षण का अभियान या नई परियोजना लागू होती है तब सारा ठीकरा सदियों से रह रहे आदिवासियों और अन्य निवासियों के सिर फोड़ दिया जाता है।

वन संरक्षण की इस तरह की नीतियां और कार्रवाइयों अंततः इंसानों को रौंदते हुए ही आगे बढ़ रही हैं। यह खतरनाक स्थिति है और पर्यावरण के बढ़ते संकट ने इसे इंसानों के लिए और भी खतरनाक बना रहा है। जरूरत है, इस संदर्भ में तुरंत ही जरूरी कदम उठाने की जिससे इंसान की जिंदगी सुरक्षित हो और वन्य जीवों को उचित जीवन का संरक्षण हासिल हो सके।

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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