अमेरिका और उसके लठैत इजराइल को फिलिस्तीन में मिलेगी शिकस्त

तथाकथित सभ्य दुनिया के बूचड़खाने में एक कौम का सरेआम कत्ल हो रहा है। दुनिया में लोकतंत्र, मानवाधिकार, आज़ादी व आधुनिक सभ्यता के झंडाबरदार इस कत्लेआम में अपनी-अपनी भूमिका निभाने के लिए आतुर दिखाई दे रहे हैं। औद्योगिक क्रांति के गर्भ से पैदा हुई पूंजीवादी सभ्यता ‌(आधुनिक लोकतन्त्र) ने मानव सभ्यता के इतिहास में जिस तरह की बर्बरता, खून-खराबा, नस्लीय नृजातीय और सभ्यतागत संस्कृतियों का संहार और सफाया किया है, वैसा शाहंशाहित युग में बर्बर से बर्बर बादशाह, चक्रवर्ती सम्राट भी कर पाने में अक्षम रहे हैं।

जनसंहार का यह सिलसिला 21वीं सदी के तीसरे दशक में भी बदस्तूर जारी है। औद्योगिक क्रांति के रथ पर सवार नई  दुनिया के मालिक जब विश्व बाजार की खोज पर निकले तो धरती पर औपनिवेशिक गुलामी का आगाज हुआ। इस गुलामी के खिलाफ कालांतर में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष को दुनिया के इतिहास में दर्ज किया जाने लगा। मुसलसल 20वीं सदी तक चले उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों ने गुलाम मुल्कों की जनता के लिए स्वतंत्रता के नए दरवाजे खोले।

20 वीं शदी के मध्य तक आते-आते दुनिया में स्वतंत्रता संघर्ष की तूफानी लहरें उठने लगीं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बदले वैश्विक समीकरणों से सुदूर दुर्गम इलाकों तक जनगण में समानता, स्वतंत्रता, आजादी, बंधुत्व के मूल्य तेजी से पहुंचे। जिससे गुलामी की बेड़ियां झनझना कर टूटने लगीं। जिस कारण औपनिवेशिक शासकों को गुलाम बनाए गए मुल्कों से अपनी प्रत्यक्ष सत्ता को समेटना पड़ा।

इस दौर तक आते-आते औद्योगिक पूंजी का युग समाप्त हो गया था और वित्तीय पूंजी का नव साम्राज्यवादी युग शुरू हुआ। इसलिए वित्तीय शहंशाहों (कॉरपोरेटों) को प्रत्यक्ष उपनिवेश कायम रखने की जरूरत नहीं रही।

इस मंजिल में दुनिया में औपनिवेशिक सत्ता के औजार बदल गये। प्रत्यक्ष नियंत्रण की जगह तकनीक पूंजी और युद्ध के हथियारों के निर्यात‌ ने ले ली। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व का एकछत्र मालिक बना अमेरिका ने पिछले 75 वर्षों में न जाने कितने देशों, सभ्यताओं को रौद डाला है।

अगर हम 21वीं सदी के सिर्फ 22 वर्षों को ही देखें तो अमेरिका के नेतृत्व में विश्व साम्राज्यवादी गिरोह ने प्रत्यक्ष युद्धों द्वारा अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, लीबिया, मिस्र, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और यूरोप तक में कई देशों और इलाकों को तबाह किया है।

अमेरिकी लॉबी ने विश्व पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए अनेकों अमानवीय तौर तरीकों का इस्तेमाल किया। असहमत देशों पर व्यापार प्रतिबंधों द्वारा उनके आर्थिक ढांचे को तहस-नहस कर अंत में उन्हें घुटने पर रेंगने के लिए मजबूर किया गया। प्रतिबंधों की अमेरिकी रणनीति से दुनिया के अनेक गरीब मुल्कों में लाखों बच्चों, महिलाओं और नागरिकों को कुपोषण, बीमारी और भूख से असमय मरने के लिए मजबूर होना पड़ा है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व में समाजवादी ब्लॉक के अभ्युदय और दुनिया में उठ रही समाजवादी क्रांतियों की लहरों से भयभीत अमेरिका ने नव-स्वतंत्र देश में धार्मिक उन्माद को आगे बढ़ाने के लिए हर संभव सहायता दी। जायेनिस्ट, कट्टरपंथी, ईसाईतय के झंडा वरदार और इस्लामी जेहादी उग्रवाद का जन्म अमेरिकी विश्व रणनीति के तहत ही हुआ।

अमेरिका ने अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए दुनिया में शांति-अमन‌ कायम करने के सभी प्रयासों को ध्वस्त करते हुए विश्व को दो स्थाई तनाव ग्रस्त शिविर में बांट दिया। इसे शीत युद्ध का काल कहा गया। जिससे विश्व में हथियारों की होड़ शुरू हुई। जिस कारण अमेरिकी इकोनॉमी “वॉर इकोनॉमी” में बदल गई।

अमेरिका में सैन्य औद्योगिक कांम्पलेक्स विकसित हुआ। जिसने अमेरिकी राजनीति, अर्थव्यवस्था और लोकतंत्रिक संस्थाओं को अपने नियंत्रण में ले लिया (जैसे आज भारत में कॉरपोरेट घरानों ने किया है)। इस अमेरिकी कॉकस के साम्राज्य का विस्तार विश्व भर में हुआ। साम्राज्यवादी व्यवस्था युद्ध आधारित अर्थव्यवस्था है, जो युद्ध के बिना जिंदा नहीं रह सकती।

एक सुचिंतित रणनीति के तहत साम्यवादी ‘दानवों’ से सुरक्षा के नाम पर क्षेत्रीय सैनिक संधियों के जाल बिछाए गए। जिसमें सबसे बदनाम नाटो गिरोह है। इसके अलावा सीटों, सेंटो आदि सैन्य गठजोड़ खड़े किए गये। नव स्वतंत्र देश को दबाव डालकर इन संधियों में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया। जो देश साम्राज्यवादी संधियों में शामिल होने से इनकार करते रहे उनको शत्रु देश माना गया। बदले हुए नए दौर में आर्थिक संधियों के द्वारा विकासशील देशों को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश हो रही है। इसलिए नए-नए तरह के आर्थिक क्षेत्रीय संगठनों का निर्माण जारी है। जैसे क्वाड जी-7, जी-20 आदि।

इसके साथ ही समाजवाद के खिलाफ व्यापक प्रचार युद्ध द्वारा धर्मभीरू पिछड़े देशों की जनता में नए तरह का धार्मिक उन्माद और ध्रुवीकरण शुरू हुआ। समाजवाद को एक दानवी व्यवस्था के रूप में प्रचारित करने के लिए खरबों डॉलर नव स्वतंत्र देश में उड़ेले दिए गए। इसके लिए हजारों संस्थाएं खड़ी की गईं। पिछड़े और विकासशील देशों में दलाल शासकों और संस्थाओं के अदृश्य जाल बिछाए गए। (यहां ध्यान देने की जरूरत है कि आचार्य रजनीश से लेकर डिवाइन लाइट मिशन और श्रीश्री जैसे धर्म गुरुओं सहित भारत के प्रत्येक बड़े धर्म गुरुओं के संस्थान अमेरिका में स्थित हैं)।

हालिया आजाद हुए मुल्कों के नेताओं में कुछ हद तक राष्ट्रवादी चरित्र होने के कारण अमेरिका के लिए अपना औपनिवेशिक वर्चस्व कायम करने में दिक्कतें हो रही थीं। इसलिए कई देशों में ऐसे नेतृत्व को सैनिक विद्रोहों या षड्यंत्रों द्वारा कुचल दिया गया। इंडोनेशिया में चुनी हुई वामपंथी सरकार को 1967 में सैन्य विद्रोह द्वारा अपदस्त कर 10 लाख से ज्यादा प्रगतिशील, वामपंथी कार्यकर्ताओं और जनप्रतिनिधियों की हत्या कर सैन्य तानाशाही कायम की गई।

1973 में यही घटना लैटिन अमेरिका के चिली में दोहराई गई। जहां चुनी हुई अलेन्दे की वामपंथी सरकार को सैनिक जुन्ता द्वारा पलट कर राष्ट्रपति अलंदे और महाकवि नोबेल पुरस्कार विजेता पाब्लो नेरुदा ‌सहित मंत्रिमंडल के अनेकों सदस्यों और हजारों वामपंथी कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई।

ऐसा ही तख्ता पलट का खेल अनेकों देशों ‘खासकर लैटिन अमेरिका, अफ्रीका, दक्षिण पूर्व और मध्य एशियाई’ देशों में देखने को आया। अरब देशों के शेखों, बादशाहों ने तो वामपंथी, प्रगतिशील, लोकतांत्रिक संस्थाओं और स्वतंत्र विचार वाले स्त्रियों-पुरुषों के नरसंहार के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। लोकतंत्र का झंडाबरदार अमेरिका इन जनसंघरों का नग्न रूप से समर्थन कर रहा था और ऐसी सरकारों को आर्थिक सैनिक सहयोग देने में पूरी ताकत लगा दिया था।

उपनिवेशवाद के जुए से आजाद हुए नव स्वतंत्र देश के नेतृत्व में शुरुआती दौर में (कमजोर ही सही) राष्ट्रवादी नजरिया प्रधान था। लेकिन उनके मध्यवर्गीय चरित्र में अंतर निहित कमजोरियों ने अंतत उन्हें अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने समर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया। इसलिए इनकी वर्गीय कमजोरी को पकड़ते हुए अमेरिका ने उन देशों में सीआईए ‌और अन्य संस्थाओं तथा आर्थिक मदद द्वारा सरकारों में एजेंटों की श्रृंखला खड़ी की। अंततः इन देशों की सरकारों को अमेरिकी जाल में फंसाकर विश्व पूंजीवाद के प्यादे में बदल दिया।

इस तरह समाजवादी ब्लॉक को घेरने में अमेरिकी खेमे को सफलता मिली। आखिर में समाजिक विकास की एक खास मंजिल पर सोवियत संघ के विघटन ने अमेरिका को विश्व का एक छत्र बादशाह बना दिया। इसके बाद बनी एक ध्रुवीय दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने प्रभुत्व बनाए रखने और विश्व में संसाधनों की लूट के लिए जो तांडव मचाया और नरसंहार किया वह मानव सभ्यता के इतिहास का क्ररतम दौर कहा जाएगा। 

लोकतंत्र, मानवाधिकार मनुष्य के जीवन और व्यक्ति स्वातंत्र्य की गारंटी की वकालत करने वाले तथाकथित लोकतांत्रिक दुनिया का दानवी चेहरा विश्व के अरबों जन गण ने देखा है।

1945 के बाद ही दुनिया के बंटवारे का जो खाका अमेरिका सहित साम्राज्यवादी मुल्कों ने तैयार कर लिया था। उसमें मिस्र की खाड़ी यानी पश्चिम मद्धेशिया तथा कोरिया प्रायद्वीप, चीन ताइवान के साथ भारत का विभाजन ऐसे ही क्षेत्र हैं। जो विश्व शांति के लिए आज तक स्थाई खतरा बने हुए हैं। 

कोरिया, चीन और भारतीय भू क्षेत्र में‌ शक्तियों का संतुलन लगभग समान है। इसलिए यहां स्थाई तनाव होते हुए भी टकरावों की संभावनाएं न्यूनतम रहती हैं। इन क्षेत्रों के निवासियों के एक ही मूल के होने के कारण उनमें आपसी लगाव और अनेक आंतरिक संबंध हैं। जिस कारण यहां के अमेरिका नियंत्रित दलाल शासक अमेरिकी हितों की पूर्ति हेतु अमेरिका द्वारा उकसाने के बावजूद भी एक सीमा से बाहर नहीं जाते और खुले युद्ध से बचने की कोशिश करते हैं।

लेकिन फिलिस्तीनी क्षेत्र में यूरोप से लाकर यहूदियों को बसाया गया है। जो उस भू क्षेत्र के मूल निवासी नहीं हैं। इसलिए फिलिस्तीन और यहूदियों के बीच टकराव को अमेरिका ने स्थाई तत्व में बदल दिया है। जिसके द्वारा वह विशाल अरब जगत पर अपना नियंत्रण कायम करने में कामयाब हुआ।

कच्चे तेल ‌का भारी भंडार अरब क्षेत्र में है। इसलिए अमेरिका के लिए इस क्षेत्र में अपना नियंत्रण कायम करने के लिए अगर लाखों फिलिस्तीनी जनता की बलि देनी पड़े तो वह इससे पीछे नहीं हटेगा। इस उद्देश्य से इजराइल अमेरिका के लिए स्थानीय लठैत है। जिसे आगे कर अमेरिका अपने आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक लक्ष्यों को साधने की कोशिश करता है।

यहां यह याद रख लेना चाहिए कि दुनिया में द्वि-राष्ट्रवाद का सिद्धांत साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी ताकतों ‌की विश्व रणनीति का अंग है। जिसके द्वारा एक दौर में उन्होंने चीन, कोरिया, भारत, वियतनाम, जर्मनी और फिलिस्तीन जैसे इलाकों में अपने राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक हितों को पूरा करने के लिए प्रयोग किया है। आज भी अधिकांश देश बिछाये गए इस साम्राज्यवादी जाल में उलझे हुए है।

ये टकराव के इलाके अमेरिकी सैन्य औद्योगिक कांप्लेक्स के लिए‌ मुनाफे का स्रोत और अमेरिकी विश्व प्रभुत्व की रणनीति की प्रयोगशालाएं हैं। जिससे विश्व शांति के लिए खतरा हमेशा बना रहता है। अमेरिकी विभाजनकारी रणनीति गजा में  वीभत्स स्वरूप में दिखाई दे रही है। ये जलते हुए क्षेत्र इतिहास, संस्कृति और कौमों के आपसी टकराव से ज्यादा अमेरिकी युद्ध पिपासु लुटेरी कंपनियों के लूट के सुरक्षित केंद्र हैं।

स्वेज नहर के दाएं बाजू के इलाके यानी फिलिस्तीनियों के निवास स्थल को ज्वलनशील क्षेत्र में बदल दिया गया है। यह सिर्फ एक कौम के निवासियों के लिए जमीन का टुकड़ा भर नहीं है, बल्कि इजराइल एशिया और अफ्रीका पर नियंत्रण कायम करने के लिए पेंटागन की अग्रिम चौकी है। जिसकी ताकत पर अमेरिकी कंपनियां इस इलाके के तेल और प्राकृतिक गैस का दोहन करने में सक्षम हुई हैं।

साथ ही अमेरिकी कंपनियां प्रतिद्वंदी वैश्विक ताकतों को शिकस्त देकर अपनी विश्व प्रभुक्त की रणनीति को सुनिश्चित करती हैं। यही नहीं इजराइल के कंधे पर बंदूक रखकर अरब देशों पर अमेरिका अपना प्रभुत्व बरकरार रखे हुए है। इजराइल-फिलिस्तीन विवाद और अरब जगत के तेल पर नियंत्रण कर पिछले 75 वर्षों से अमेरिका वैश्विक आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक ताकत बना हुआ है।

यूएनओ के महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का यह कहना कि हमास का हमला शून्य में नहीं हुआ है। वस्तुत यह 75 वर्षों से इजराइल अमेरिकी प्रभुत्व की रणनीति का स्वाभाविक परिणाम है। जिसे बचाए रखने के लिए अमेरिका ब्रिटेन, जर्मनी,  फ्रांस तथा ईयूके अध्यक्ष इजराइल की तरफ दौड़ पड़े और वे इजराइली युद्ध अपराध के पक्ष में खड़े हैं। जहां आज फिलिस्तीन होलोकास्ट चल रहा है और पूरे कौम के विनष्ट हो जाने का खतरा है। हजारों बच्चे, महिलाएं इस अन्याय पूर्ण युद्ध की बलि चढ़ चुके हैं।

लेकिन व्हाइट हाउस में बैठा हुआ बादशाह, लंदन के सिंहासन पर बैठा हुआ प्रधानमंत्री तथा उसके नाटो सहयोगी इतने बड़े नरसंहार के अपराधी होने के बावजूद सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। लेकिन उन्हें नहीं पता है कि जनता की अपनी जिजीविषा की सीमा सत्ताधारियों के बंदूकों, टैंकों, बमबर्षक युद्धक विमानों द्वारा नहीं तय की जा सकती।

एक खुले कैदखाने में भोजन, दवा, पानी, बिजली और रोजगार से मरहूम 23 लाख फिलिस्तीनी जनता ने जिस साहस और जिजीविषा का परिचय दिया है। वह मनुष्यता के इतिहास की अमर गौरव गाथा है। इतिहास में जहां इजराइल द्वारा उन पर ढाए गए जुल्म, बर्बरता को घृणा के साथ देखा जाएगा। वहीं फिलिस्तीन के लुटे पिटे मारे गए नागरिकों की जिजीविषा को विश्व जन गण बड़े सम्मान के साथ याद रखेंगे।

अमेरिकी सैन्य औद्योगिक कांप्लेक्स की रणनीति को इसी फिलिस्तीनी इलाके में अंतत शिकस्त खाना होगा। विश्व जनगण में अमेरिका समर्थित इजराइली-जायनिस्टों द्वारा किए जा रहे फिलिस्तीन जनता के नरसंहार के खिलाफ उठ रहे जन तूफानों और धरती के करोड़ों इंसानों द्वारा फिलिस्तीनियों के पक्ष में खड़ा होने की बलवती हो रही प्रवृत्ति को देखकर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता हैं कि आने वाले समय में साम्राज्यवादी अमेरिका और उसके लठैत इजराइल को अवश्य ही शिकस्त खानी होगी।

(जयप्रकाश नारायण किसान नेता एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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