हथियार खरीद कर अरब मुल्कों ने इजराइल को ही किया है मजबूत

फिलिस्तीन-इजराइल संघर्ष की गुत्थी इतनी उलझी हुई है कि उसे सुलझाने की अब तक की सभी कोशिशें नाकाम साबित हुई हैं। इसी गुत्थी का एक सिरा इजराइल और अरब मुल्कों की परंपरागत दुश्मनी-दोस्ती में भी नजर आती है, जो लाखों फिलिस्तीनियों की कब्र पर अब्राहम समझौते के रूप में हाल के दिनों में तेजी से परवान चढ़ रही थी। लेकिन सबसे हैरतअंगेज तथ्य अब यह निकलकर आ रहा है कि न सिर्फ ये मुल्क, अमेरिका के हुक्म की तामील बजा रहे थे, बल्कि चुपके-चुपके इजराइल के साथ हथियारों, सैन्य साजो-सामान और गुप्तचरी के औजार भी खरीद रहे थे।

जाहिर है, ये हथियार उन्हें इजराइल के ही खिलाफ तो चलाने के लिए नहीं मिल रहे थे, बल्कि अपने-अपने मुल्क में बढ़ते असंतोष या अन्य मुल्कों के साथ तनाव में निपटने के लिए इस्तेमाल करने के लिए दिए जा रहे थे। लेकिन इसी के साथ ये देश इजराइल को भी ताकतवर बनाते जा रहे थे, जिसका इस्तेमाल अब उसके द्वारा गाजा पट्टी में किया जा रहा है। इस बारे में जानने से पहले, चलिए इजराइल की अर्थव्यस्था और हथियारों के निर्यात के बारे में कुछ बुनियादी जानकारी से रूबरू हो लेते हैं।

रायटर्स की एक खबर के मुताबिक 2022 के अंत तक इजराइल का कुल निर्यात 160 अरब डॉलर पहुंच जाने की उम्मीद थी। वर्ष 2021 तक आधिकारिक आंकड़े 144 बिलियन डॉलर के थे, इजराइल से वस्तुओं की खरीद बिक्री में सबसे बड़ा साझीदार यूरोपीय संघ के देश क्रमश: 38%, संयुक्त राज्य अमेरिका 35% और 24% कारोबार एशियाई मुल्क के देशों के द्वारा किया जाता है। हाल के वर्षों में इजराइल हथियारों के निर्माण में भी काफी तेजी से उभरा है। हथियारों एवं जासूसी उपकरणों के निर्माण की दिशा में उसने उल्लेखनीय प्रगति की है।

14 जून 2023 की द टाइम्स ऑफ़ इजराइल की खबर के मुताबिक 2022 में इजराइली हथियारों की बिक्री में रिकॉर्ड तेजी आई है, और पिछले एक दशक में इसका निर्यात दोगुना हो चुका है। इजराइली मंत्रालय से सम्बद्ध संस्थान, सिबत (International Defense Cooperation Directorate) के हवाले से अखबार ने बताया है कि 2021 में 11.4 बिलियन डॉलर निर्यात के मुकाबले 2022 में हथियारों का निर्यात 12.5 बिलियन डॉलर हो चुका है।

यानि कुल निर्यात (160 बिलियन डॉलर) में 12.5 बिलियन डॉलर अकेले हथियारों की बिक्री से इजराइल को हासिल हो रहे हैं। इसे समझने के लिए यदि हम भारत के साथ इसकी तुलना करें तो समझना आसान होगा। केंद्रीय वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने वर्ष 2021-22 में भारत के कुल निर्यात के बारे में जानकारी देते बताया था कि भारत ने 21-22 में 750 बिलियन डॉलर का रिकॉर्ड निर्यात किया है।

वहीं हथियारों के निर्यात के क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों से रिकॉर्ड बढ़ोत्तरी के बावजूद भारत का निर्यात 2022-23 तक मात्र 1.91 बिलियन डॉलर (15,918 करोड़ रुपये) पहुंचा था। भारत का कुल निर्यात जहां इजराइल की तुलना में 5 गुना अधिक है, वहीं हथियारों की बिक्री में काफी पीछे हैं। उल्टा इजराइल को लेकर भारतीय विदेश नीति में भारी उलटबांसी के पीछे हथियारों और जासूसी उपकरणों पर निर्भरता एक बड़ी वजह बताई जा रही है। लेकिन असल विरोधाभास तो खाड़ी के उन मुस्लिम देशों को लेकर उभर रहा है, जिनसे विश्व आज गाजा पट्टी में बाड़े में घिरे फिलिस्तीनियों की रक्षा में उठ खड़े होने की उम्मीद कर रहा है।

हाल के वर्षों में इजराइल से हथियार खरीद के मामले में अरब मुल्कों ने नया रिकॉर्ड बनाया है। इजराइल द्वारा 2022 में 12.5 बिलियन डॉलर हथियारों की बिक्री में 24% हिस्से को इन्हीं अरब के देशों की मदद से हासिल किया गया। जानकारी मिल रही है कि इन देशों ने पिछले वर्ष इजराइल से करीब 3 बिलियन डॉलर मूल्य के हथियार ख़रीदे हैं। मध्य-पूर्व की खबरों पर पैनी नजर रखने वाली पत्रिका अल-मॉनिटर की खबर का दावा है कि अब्राहम समझौते के 3 वर्ष बाद संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और मोरक्को द्वारा 75 वर्षों के इतिहास में यह सबसे बड़ा सौदा शुरू हुआ था।

14 जून 2023 की अपनी रिपोर्ट में अखबार ने सितंबर 2021 में रॉयटर्स के हवाले से लिखा है कि इज़राइल संयुक्त अरब अमीरात को स्पाइडर पोर्टेबल हवाई रक्षा प्रणाली बेचने को लेकर सहमत हो गया है, जो इज़राइल स्थित राफेल कंपनी द्वारा निर्मित किया जाता है। दोनों देशों द्वारा पिछले मई माह में में मुक्त व्यापार क्षेत्र समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। इसके अलावा, इज़राइल के तत्कालीन रक्षा मंत्री बेनी गैंट्ज़ ने 2022 में बहरीन के दौरे के दौरान सुरक्षा सहयोग पर समझौता हस्ताक्षर हुए थे, लेकिन इसके बाद से दोनों देशों के बीच रक्षा सौदों पर बहुत कम जानकारी प्रकाशित हुई है।

इसके साथ ही, तत्कालीन रक्षा मंत्री बेनी गैंट्ज़ ने 2021 में मोरक्को का दौरा किया और यह पहली बार था, जब किसी अरब मुल्क के साथ इजराइल को सुरक्षा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर करने में सफलता हासिल हो पाई थी। इस समझौते में हथियार सौदों को बढ़ावा देने को लेकर प्रतिबद्धता भी शामिल थी। जुलाई 2022 में आई24 की एक रिपोर्ट के अनुसार, जब आईडीएफ चीफ ऑफ स्टाफ अवीव कोचावी ने रबात का दौरा किया था, तब इस बात का खुलासा हुआ था कि मोरक्को के साथ 22 मिलियन डॉलर के सौदे में इजराइली हारोप कामिकेज़ ड्रोन की खरीद को लेकर सहमति बन गई है।

यही नहीं अपनी रिपोर्ट में अल-मॉनिटर ने लिखा है कि मोरक्को में कार्यवाहक राजदूत शाई कोहेन ने खुलासा किया है कि प्रमुख इजरायली रक्षा प्रौद्योगिकी कंपनी एल्बिट सिस्टम्स मोरक्को में दो हथियार प्रतिष्ठान खोलेगी। इस घोषणा के पीछे इज़राइल द्वारा विवादित पश्चिमी सहारा क्षेत्र पर मोरक्को की संप्रभुता को मान्यता देने पर विचार किये जाने को वजह बताया गया है, हालाँकि कंपनी ने पूछे जाने पर इस रिपोर्ट की पुष्टि नहीं की है।

पश्चिम एशिया के एक अन्य समाचार पत्र द क्रैडल ने इजराइल-हमास जंग के बीच 20 अक्टूबर को इजराइल-अरब देशों के संबंधों की पड़ताल करते हुए इस बारे में अहम जानकरी दी है। पत्र के मुताबिक, अब्राहम समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले अरब देश इस समय इजरायली हाथियारों के आयात के मामले में एशिया-प्रशांत (30 प्रतिशत) और यूरोप (29 प्रतिशत) के बाद तीसरे सबसे बड़े समूह के रूप में उभरे हैं। यह साफ़ दिखाता है कि किस प्रकार ये अरब देश अज इज़राइल के सैन्य-औद्योगिक परिसर (मिलिट्री इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स) और इसकी अर्थव्यवस्था दोनों में प्रमुख योगदानकर्ता के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

गाजा में इजरायली हवाई हमले में जारी नरसंहार में 4,137 से अधिक फिलिस्तीनी नागरिकों के मारे जाने, जिनमें से अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं, जबकि 13,000 से अधिक अन्य लोग घायल हो चुके हैं, और इस संख्या में लगातार इजाफा ही हो रहा है, की पृष्ठभूमि में अरब मुल्कों की इजराइल के साथ आर्थिक मित्रता की पींगें बढ़ाना उनके वास्तविक चरित्र को उजागर करता है।

यही वजह है कि 7 अक्टूबर को इजराइल पर हमास के भीषण हमले के बाद से इजराइल द्वारा जवाबी हमले में गाजापट्टी भयानक एयर स्ट्राइक पर ईरान और कुछ हद तक सऊदी अरब को छोड़ बाकी के खाड़ी मुल्क बगलें झांक रहे थे। आज भी यदि उनकी ओर से हमलों और फिलिस्तीनियों की बर्बर हत्या को लेकर कोई विरोध का स्वर सुनाई पड़ रहा है, या मीटिंगों का दौर चल रहा है तो उसके पीछे की बड़ी वजह अपने-अपने मुल्कों में आम लोगों का गुस्सा है। उन्हें फिलिस्तीन के बजाय अपनी गद्दी की चिंता खाए जा रही है, जो इजराइल के रोज नित बढ़ते हमले से बढ़ता जा रहा है। एक दशक पूर्व अरब क्रांति की तुलना में इस बार करोड़ों-करोड़ आम नागरिकों को अपने हुक्मरानों, इजराइल और पश्चिमी देशों की असलियत साफ़-साफ़ नजर आ रही है।

दूसरी तरफ इजराइल पर हमास के हमले की तीव्रता और भयानक तबाही ने पहली बार इजरायली रक्षा तन्त्र से जुड़े तमाम तिलिस्म को ध्वस्त कर दिया है। यूरोपीय मुल्क, जो अमेरिका की पीछे हाथ बांधे खड़े हैं, के सामने अब यूक्रेन के बाद मध्य-पूर्व में युद्ध की स्थिति में परंपरागत इजराइल समर्थन और खजाने का मुंह खोलने की स्थिति आ चुकी है, जबकि ये देश पहले ही अमेरिकी भूराजनैतिक हितों की बलिवेदी पर अपनी अर्थव्यस्था की हालत पतली कर चुके हैं। ऐसे में यूरोप, अमेरिका सहित शेष दुनिया में फिलिस्तीन के बढ़ता जन-समर्थन यूरोप के मुल्कों को अपनी स्थिति पर पुनर्विचार करने के लिए बाध्य कर रहा है।

बड़ा सवाल है कि क्या फिलिस्तीनियों के लिए संप्रभु राज्य का सपना इतने हजारों लोगों की शहादत के बाद संपन्न हो सकेगा, जो अरब मुल्कों में भी राजतंत्र और तानाशाही हुकूमतों के खात्मे की संभावना के द्वार खोल सकता है? पश्चिमी एशिया में स्थायी शांति के लिए नागरिकों के लिए मुकम्मल आजादी और लोकतंत्र की बहाली ही एकमात्र समाधान है।

(रविंद्र पटवाल जनचौक संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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