Special Report: बीएचयू के राजाराम हॉस्टल में दलित छात्र के साथ मारपीट और अश्लील हरकत, कुलपति खामोश !

केस-एक

31 दिसंबर 2024: काशी हिंदू विश्वविद्यालय के राजाराम हॉस्टल में देर रात एक दलित छात्र के साथ मारपीट की गई। बंधक बनाकर उसके साथ अश्लील हरकत की गई। पीड़ित छात्र का आरोप है कि विश्वविद्यालय के राजाराम हॉस्टल में कुछ मनबढ़ छात्रों ने उसके साथ मारपीट की। साथ ही उसके साथ जबरिया यौन संबंध बनाने का प्रयास किया गया। काफी जद्दोजहद के बाद पीड़ित छात्र की रिपोर्ट लंका थाना में दर्ज हो सकी।

केस-दो

22 मई 2023: एक दलित महिला असिस्टेंट प्रोफेसर के साथ यौन शोषण और उत्पीड़न किया गया। विरोध करने पर उसके साथ मारपीट की गई। बीएचयू की इस महिला प्रोफेसर ने आरोप लगाया था कि उसके विभाग की ही दो असिस्टेंट प्रोफेसर और दो छात्रों ने उस पर यौन हमला बोला। घटना की विभागीय जांच के बाद 27 अगस्त 2023 को लंका थाना पुलिस ने एफआईआर दर्ज की। इस मामले में दोषी शिक्षकों और छात्रों के खिलाफ आज तक कोई कार्रवाई नहीं की गई।

केस-तीन

26 दिसंबर 2022: बीएचयू में एक दलित छात्र के साथ सवर्ण जाति के एक छात्र का कथित तौर पर पैर नहीं छूने पर उसके साथ मारपीट की। इस छात्र की बेइज्जती की गई। पीड़ित छात्र ने लंका थाने में इसकी शिकायत की, लेकिन मामला दर्ज नहीं हुआ। अंत में थाने के घेराव के बाद पुलिस ने मुकदमा तो दर्ज कर लिया, लेकिन उसके बाद कार्रवाई आगे नहीं बढ़ पाई।

केस-चार

23 अप्रैल 2022: स्नातक द्वितीय वर्ष के छात्र अमन के साथ सवर्ण छात्रों ने मधुबन चौराहे के पास मारपीट और गाली-गलौज की। बाद में जबरिया गाड़ी से उसका अपहरण किया गया। बाद में बिरला छात्रावास ‘अ’ के कमरा संख्या 121 में फिर उसके साथ बुरी तरह मारपीट की गई। मनबढ़ छात्रों ने कट्टा तानते हुए उसे जान से मारने और पढ़ाई छुड़वाने की धमकी। घटना को अंजाम देने वाले ज्यादातर आरोपी छात्र सवर्ण तबके के थे। इस मामले में भी पुलिस, बीएचयू के कुलपति और प्राक्टर से लिखित शिकायत, मगर कोई एक्शन नहीं हुआ।

केस-पांच

22 अप्रैल 2022: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर में सवर्ण छात्रों द्वारा स्नातक द्वितीय वर्ष के जनवादी विचारधारा वाले छात्र योगेश के साथ मारपीट, गाली-गलौज, धमकी और अपशब्दों का प्रयोग। लाइब्रेरी से पढ़कर निकलते समय वारदात हुई। इस मामले में स्नातक द्वितीय वर्ष के छात्र श्वेतम उपाध्याय और कमल नयन पर जुल्म-ज्यादती के आरोप लगे। बनारस की लंका पुलिस से लिखित शिकायत, मगर कार्रवाई कुछ भी नहीं हुई।

काशी हिन्दू विश्वद्यालय में हुई यह वो चंद वारदातें हैं जो बनारस कमिश्नरेट की लंका थाना पुलिस के रोजनामचे में चढ़ीं, लेकिन किसी मामले में दोषियों के खिलाफ कोई पुख्ता कार्रवाई नहीं हुई। ज्यादातर मामलों में पुलिस ने अभियुक्तों को न तो गिरफ्तार किया और न ही उनसे कोई पूछताछ की। बीएचयू कैंपस में ऐसी न जाने कितनी वारदातें होती हैं, जिनकी शिकायत लंका थाने तक पहुंच ही नहीं पाती हैं। दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के साथ मारपीट और उत्पीड़न के तमाम मामलों को बीएचयू प्रशासन खुद ही घोंट जाता है। 31 मार्च 2023 को दलित छात्र को बंधक बनाने, नंगा कर यौन उत्पीड़न का प्रयास और मारपीट के मामले ने एक बार फिर बीएचयू प्रशासन की कार्यप्रणाली पर गंभीर सवाल खड़ा किया है।

पीड़ित का आरोप है कि सवर्ण जाति के कुछ मनबढ़ छात्रों ने कमरे में बंदकर उसके साथ अश्लील हरकत की और उसे बुरी तरह मारा-पीटा। लंका थाना पुलिस ने इस मामले की रिपोर्ट तो दर्ज कर ली है, लेकिन इस मामले में अभियुक्त गिरफ्तार नहीं हो सका है। दलित छात्र का कहना है कि यदि दोषी छात्र को जल्द गिरफ्तार नहीं किया गया तो वह बीएचयू कैंपस छोड़ देगा। लंका थाना पुलिस ने इस मामले में जांच के बाद कार्रवाई की बात कही है। बीएचयू परिसर में पढ़ने वाले दलित छात्र सहमे हुए हैं और दबंगों से छिपकर अपनी जान बचाते फिर रहे हैं।

क्यों और कैसे हुई वारदात?

बीएचयू के राजाराम हॉस्टल में समाजशास्त्र से पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई कर रहे दलित छात्र ने जनचौक को बताया, “मैं गुजरात के अहमदाबाद का रहने वाला हूं। 31 मार्च 2024 की देर रात करीब 02:45 बजे एक लॉबी में अचानक बिजली गुल हो गई। हॉस्टल की बाकी लॉबी में बिजली थी। मैं कमरे में पढ़ाई कर रहा था। बिजली गुल होने से अंधेरा हो गया था। मैंने बाहर जाकर देखा तो एमसीबी गिरी हुई थी। उसे ऊपर उठाने के लिए जैसे ही झुका, इसी बीच एमपीएमआईआर कोर्स के एक छात्र ने मुझे पीछे से पकड़ लिया। वह हमारा लोवर जबरिया खोलने लगा तो मैंने विरोध किया। बाद में उसने मेरा सिर दीवार में लड़ा दिया और मैं वहीं पर गिर गया। फिर उसने मेरे साथ जबरन अप्राकृतिक सेक्स करने की कोशिश की। मैंने विरोध किया तो उसने मेरे साथ मारपीट और गाली-गलौच की। हमें जान से मारने की धमकी भी दी गई।”

बीएचयू के चीफ प्राक्टर को पूर्व में दिया गया एक पत्र

पीड़ित छात्र ने आगे कहा, “मैं किसी तरह वहां भागा। दबंग छात्र पीछा करते हुए मेरे कमरे तक आ गया। मां-बहन की गालियां देते हुए उसने जबरन हमारा लोवर खोल दिया। विरोध करने पर थप्पड़ों और मुक्कों से मारते हुए हमें घायल कर दिया। उसने हमारा फोन भी छीन लिया। करीब आधे घंटे तक हमारे साथ बदसलूकी की गई। मेरे चीखने-चिल्लाने की आवाज सुनकर कई और छात्र आ गए। उन्होंने घटना की जानकारी हॉस्टल के वार्डेन और प्रॉक्टोरियल बोर्ड को दी। प्रॉक्टोरियल बोर्ड की टीम ने सुबह चार बजे राजाराम हॉस्टल पहुंची और हमें छुड़ाया। वार्डेन और प्रॉक्टोरियल बोर्ड के सदस्य हमें ट्रॉमा सेंटर ले आए, जहां उन्होंने मेरा मेडिकल मुआयना और इलाज कराया। मैंने लिखित तहरीर दी।”

लंका के थाने के प्रभारी शिवाकांत मिश्रा के मुताबिक, “पीड़ित छात्र की रिपोर्ट दर्ज कर ली गई। बीएचयू के राजाराम हॉस्टल में रहने वाले बाकी छात्रों का बयान दर्ज किया जा रहा है। आरोपित छात्र को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस लगातार दबिश दे रही है। उसे जल्द ही गिरफ्तार कर लिया जाएगा।”

निशाने पर महिला प्रोफेसर भी

इससे पहले बीएचयू में कार्यरत एक महिला असिस्टेंट प्रोफेसर ने शिकायत दर्ज कराई थी कि उनके विभाग के दो शिक्षकों और दो छात्रों ने मिलकर उसके साथ मारपीट और छेड़छाड़ की। साथ ही उसे अपमानित किया। यह प्रोफेसर भी दलित समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। लंका थाना पुलिस ने उनकी शिकायत दर्ज तो की, लेकिन बाद में सारे आरोपों को वह घोंट गई। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल 22 मई 2023 को यह वारदात हुई थी, लेकिन पुलिस ने 27 अगस्त तक मामला दर्ज नहीं किया। काफी बवाल होने पर शुरुआती जांच के बाद दो सहायक प्रोफेसरों सहित चार आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया।

शिकायतकर्ता प्रोफेसर एक वरिष्ठ फैकल्टी सदस्य हैं। उनका आरोप था कि उनके विभाग के दो सहकर्मी रोजाना उसे निर्वस्त्र कर विश्वविद्यालय में घुमाने की बात किया करते थे। उन्होंने पुलिस को दी गई शिकायत में कहा था, “वारदात के दिन एक प्रोफेसर मेरे कमरे में आया और कहने लगा कि वह मुझे मेरे पद से हटावा देगा और मुझे मार डालेगा। मैं अपने चेंबर से बाहर आ गई और फिर दूसरे आरोपी ने विभाग का दरवाजा बंद कर दिया। उनमें से एक ने मुझे पकड़ लिया और मेरे कपड़े फाड़कर मेरे साथ गलत हरकत करने की कोशिश की। दूसरे ने इसे रिकॉर्ड कर लिया। बाकी लोगों ने मुझे लात और घूंसे मारे। मेरे चिल्लाने पर कुछ लोग आए और मुझे बचाया। मैं इस शिकायत के साथ घटना की सीसीटीवी फुटेज भी दे रही हूं।”

“मुझे इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि मैं दलित हूं। पूरा मामला मेरे द्वारा एक व्यक्ति को उनके पद से हटाने से मना कर देने को लेकर है। वे मुझ पर दबाव डाल रहे थे और मैंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। फिर उन्होंने ये सब किया। मैंने थाने और बीएचयू के अफसरों के यहां शिकायत दर्ज कराई। मानव संसाधन विकास मंत्रालय, एससी और एसटी आयोग और मुख्यमंत्री कार्यालय को शिकायत भेजने के बाद चारो आरोपितों के खिलाफ आईपीसी की धारा 323 (जानबूझकर चोट पहुंचाना), 342 (गलत तरीके से कैद करना), 354-बी (महिला को निर्वस्त्र करने के इरादे से हमला या आपराधिक बल का इस्तेमाल), 504 (उकसाने के इरादे से जानबूझकर अपमान करना), 506 (आपराधिक धमकी) और एससी और एसटी (अत्याचार निवारण) अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के तहत एफआईआर दर्ज की गई।”

अचरज की बात यह है कि इस सनसनीखेज मामले में भी लंका थाना पुलिस ने अभियुक्तों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। जांच के नाम पर लीपापोती करने के बाद लंका थाना पुलिस ने इस मामले को दबा दिया। साथ ही बीएचयू प्रशासन इस सनसनीखेज मामले को पूरी तरह घोंट गया।

बेअसर रहे आंदोलन-प्रदर्शन

22 अप्रैल 2022 को हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर में सवर्ण छात्रों द्वारा स्नातक द्वितीय वर्ष के दलित छात्र योगेश के साथ मारपीट, गाली-गलौज, धमकी और मारपीट की गई। बाद में भगत सिंह छात्र मोर्चा के सचिव अनुपम कुमार के नेतृत्व में 25 अप्रैल 2022 को चीफ प्रॉक्टर दफ्तर पर न सिर्फ विरोध प्रदर्शन किया, बल्कि उन्हें ज्ञापन सौंपा था। इस मामले को भी विश्वविद्यालय प्रशासन हजम कर गया। भगत सिंह छात्र मोर्चा से जुड़े स्टूडेंट्स का आरोप था कि दलित छात्रों के साथ मारपीट का सिलसिला बंद नहीं हुआ है। अपराधी, उदंड और लंपट छात्रों का गैंग लगातार दलित और प्रगतिशील स्टूडेंट्स के साथ मारपीट और बदसलूकी करने से बाज नहीं आ रहा है।

आल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के बीएचयू के सह संयोजक रोशन पांडेय ‘जनचौक’ से कहते हैं, “बीएचयू में दलित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय के स्टूडेंट्स का पढ़ाई कर पाना आसान नहीं है। ढेरों पुख्ता सबूत देने के बावजूद सवर्ण जाति के उदंड छात्रों के खिलाफ किसी मामले में कभी कोई पुख्ता कार्रवाई नहीं हुई। बीएचयू परिसर में अराजकता का माहौल है। मनबढ़ छात्र किसी भी स्टूडेंट को पीट दे रहे हैं। बीएचयू प्रशासन का यह रुख अपराधी और लंपट छात्रों को शह देने वाला है। लंपट छात्रों की गुंडागर्दी से बीएचयू कैंपस का माहौल खराब हो रहा है।”

“उदंड छात्रों के खिलाफ कार्रवाई के लिए आइसा कई मर्तबा कुलपति को शिकायती पत्र दे चुका है। इसके बावजूद अपराधी छात्रों के खिलाफ किसी मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई। बीएचयू प्रशासन ने कैंपस का माहौल स्वस्थ, शांतिमय, पठन-पाठन के लायक और भयमुक्त बनाने के लिए आज तक कोई सार्थक प्रयास नहीं किया। यहां दो सवर्ण जातियों के कुछ शिक्षक जानबूझकर उडंद छात्रों को उत्पात करने के लिए भड़काते हैं। बीएचयू परिसर का माहौल बिगाड़ने और ऐलानिया तौर पर गुंडागर्दी करने वाले छात्रों पर एक्शन नहीं होने की वजह से एक के बाद एक नई और बड़ी वारदातें हो रही हैं।”

रोशन कहते हैं, “भारतीय समाज को जन्म आधारित ऊंच-नीच वाली जातियों में बांटा गया है। बीएएचयू में इस व्यवस्था को बहुत ज्यादा खाद-पानी दिया जा रहा है। इस वर्ण व्यवस्था को खत्म किए बगैर बराबरी का समाज नहीं बनाया जा सकता है। आइसा वर्ण व्यवस्था के खिलाफ लगातार मुहिम चला रहा है। दूसरी ओर, सवर्ण छात्रों का एक बड़ा तबका सोची-समझी रणनीति के तहत दलित और आदिवासी समुदाय के छात्रों का उत्पीड़न कर रहा है। मारपीट, अपहरण और धमकी की तहरीर देने और कई मामलों में मुकदमा दर्ज होने के बावजूद कभी कोई दंडित नहीं हो सका। राजाराम छात्रावास में दलित छात्र के साथ हुई घटना के मामले में बीएचयू प्रशासन भी चुप्पी भी कई गंभीर सवालों को जन्म देती है। इनका ढीला रवैया लंपट और अपराधी प्रवृत्ति के छात्रों को संरक्षण दे रहा है। इसमें कई ऐसे छात्र हैं जो विभिन्न छात्रावासों में अवैध तरीके से रह रहे हैं।”

सोची-समझी साज़िश

बीएचयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव कहते हैं, “बीएचयू के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय उदार हिन्दू थे। उन्होंने कैंपस में जगह-जगह से बिना जाति और धर्म देखे प्रतिभाशाली लोगों और विद्वानों को इकट्ठा किया। मकसद था कि बनारस से नए और आधुनिक भारत की ज्ञान गंगा बहाना। एक ओर जहां काशी नरेश ने विश्वविद्यालय की स्थापना में सहयोग दिया तो हैदराबाद के निजाम भी सहयोग में पीछे नहीं रहे। दलित और पिछड़े तबके के छात्रों के उत्थान को लेकर महामना की सोच महात्मा गांधी की तरह थी। दुर्भाग्य से बीएचयू अब ऐसे लोगों के शिकंजे में आ गया है जिनकी उत्पत्ति गोलवरकर के दर्शन को पढ़कर हुई है। जिसके चलते विश्वविद्यालय अपने मूल चरित्र और उद्देश्यों से भटक गया है। यही वजह है कि इस तरह की घटनाएं स्वतःस्फूर्त नहीं हैं। सोची-समझी साजिश के तरह की जा रही हैं।”

“भारत में क़ानून तो बहुत हैं, लेकिन समस्या सामाजिक मूल्यों की है। ऊंची जाति के लोग दलितों और पिछड़ों को मनुष्यों की तरह बराबरी का दर्जा देने के लिए तैयार नहीं हैं। इसमें परिवर्तन हो रहा है, लेकिन वो बहुत धीमा है। मीडिया, पुलिस महकमा, न्याय व्यवस्था सब जगह सोचने का तरीका अभी पूरी तरह बदला नहीं है। पुलिस स्टेशन पहली जगह है जहां कोई पीड़ित जाता है लेकिन कई बार वहां पर उसे बेरुखी मिलती है। न्याय पाना गरीबों के लिए हमेशा मुश्किल होता है। खासतौर पर वह तबका जो आर्थिक रूप से कमज़ोर है। बीएचयू में अगर जातिवादी ताकतें सिर उठा रही हैं तो यह गंभीर चिंता की बात है।”

अनिल यह भी कहते हैं, “शिक्षण संस्थाओं में छात्रसंघों को नेस्तनाबूद किए जाने की वजह से सत्ताएं अराजक हुई हैं। पहले छात्र संगठन ही छोटी-मोटी घटनाओं को अपने प्रयास से ही निपटा लेते थे और अब ऐसा नहीं हो रहा है। चिंता का विषय यह भी है कि सरकार और प्रशासन के स्तर पर मारपीट और यौन हिंसा की वारदातों को रोकने की बजाय आंख मूंद लिया गया है। छात्र संगठनों को फिर से जीवित करने और उन्हें मजबूती देने की जरूरत है। अगर ऐसा नहीं किया गया तो देश का जाना-माना काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ज्ञान की गंगा बहाने की बजाय अराजकता और अज्ञानता का अंधकार फैलाने का बड़ा अड्डा बन जाएगा।”

उल्लेखनीय है कि साल 2015-16 में केंद्रीय विश्वविद्यालयों में दलितों के साथ जाति आधारित भेदभाव का सर्वे कराया गया था। उस समय सबसे ज्यादा शिकायतें काशी हिंदू विश्वविद्यालय में दर्ज की गई थीं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की रिपोर्ट में इस बात का जिक्र मौजूद है कि बीएचयू के बाद दलित स्टूडेंट्स के साथ ज्यादती की सर्वाधिक शिकायतें गुजरात विश्वविद्यालय में दर्ज की गई थीं। उस समय बीएचयू के तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर गिरीश चंद त्रिपाठी को सफाई देनी पड़ी थी कि बीएचयू में किसी के साथ जाति आधारित भेदभाव नहीं होता है। हालांकि यूजीसी की रिपोर्ट इस बात को तस्दीक करती है कि यूपी और गुजरात दोनों ही राज्यों में जाति आधारित भेदभाव की सबसे ज्यादा शिकायतें आई हैं। यूजीसी की रिपोर्ट कहती है कि साल 2015-16 में दलितों के साथ भेदभाव की 102 और आदिवासियों के साथ भेदभाव की 40 शिकायतें आईं थीं।

तेजी से बढ़ रहीं वारदातें

आंकड़े बताते हैं कि बीएचयू कैंपस में जातिवादी ताकतें तब से ज्यादा सिर उठा रही हैं जब से डबल इंजन की सरकार सत्ता में आई है। दिसंबर 2019 में बीएचयू के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में प्रोफेसर शांतिलाल साल्वी के ऊपर उस समय हमला किया गया था जब उन्होंने मुस्लिम शिक्षक डॉ. फिरोज की नियुक्ति के मामले में उनका समर्थन किया। संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में नियुक्त साहित्य विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉक्टर फिरोज का समर्थक बताकर आंदोलनरत छात्रों ने प्रदर्शन के दौरान प्रोफेसर शांतिलाल साल्वी को गाली देते हुए मारने के लिए दौड़ा लिया था।

उस समय वह किसी तरह से जान बचाकर वहां से भागे थे। बाद में वाराणसी पुलिस ने लंका थाने में इस मामले में प्रोफेसर कौशलेंद्र पाण्डेय, मुनीश कुमार मिश्र, शुभम के अवावा चार-पांच अज्ञात लोगों के खिलाफ पर धारा 147, 504, 323, 352 और एससी/एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज किया। यही नहीं, प्रो. साल्वी के हमलावरों की गिरफ्तारी की मांग को लेकर बीएचयू मेन गेट से आक्रोश मार्च निकाला गया और बाद में उस मामले में लंका थाना पुलिस ने लीपापोती कर दी।

बीएचयू कैंपस में छात्राओं के साथ छेड़छाड़ की घटनाएं भी आम हैं। साल 2018 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक दलित छात्रा के साथ पहले छेड़खानी फिर मारपीट की गई। छात्रा राजनीति विज्ञान विभाग में एमए प्रथम वर्ष की स्टूडेंट थी। आरोप था कि सहपाठी शिवानन्द सिंह परमार ने उसके साथ छेड़खानी की और जब छात्रा ने विरोध किया तो उसकी पिटाई कर दी। उस समय भी प्रगतिशील छात्राओं ने चीफ प्रॉक्टर से उत्पाती छात्र के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई तो आरोपित छात्र को सिर्फ चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। आरोपित छात्र ने दोबारा उसी छात्रा के साथ अश्लील हरकत और मारपीट की। काफी जद्दोजहद के बाद पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया, लेकिन इस मामले में भी पुलिस ने लीपापोती कर दी।

आंकड़े बताते हैं कि योगी के नेतृत्व वाली भाजपा ने साल 2017 में यूपी की कमान संभाली थी उस समय दलित उत्पीड़न की 11,444 घटनाए हुई थीं। अगले साल 2020 में यह संख्या बढ़कर 12,714 हो गई। 2020 महामारी का पहला साल था और देश भर में दर्ज अपराध आंशिक रूप से कम हो गए थे, क्योंकि विस्तारित लॉकडाउन के दौरान सामान्य जीवन रुक गया था। आंशिक रूप से घटनाएं इसलिए भी कम दर्ज़ हुई क्योंकि मामलों की रिपोर्टिंग भी कम हुई हो सकती हैं।

एनसीआरबी डेटा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत दर्ज किए गए अपराधों और अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ हुए अपराधों के खिलाफ बने विशेष कानूनों के तहत दर्ज़ किए गए मुकदमों का विवरण उपलब्ध कराता है। दलितों के खिलाफ किए गए कई हिंसक अपराधों में यूपी में भाजपा के शासन के पहले चार वर्षों में लगातार वृद्धि देखी गई है। राजस्थान के डंगावास में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा (2015), रोहित वेमुला (2016), तमिलनाडु में 17 साल की लड़की का गैंगरेप और हत्या (2016), तेज़ म्यूज़िक के चलते सहारनपुर हिंसा (2017), भीमा कोरेगांव (2018) और डॉक्टर पायल तड़वी की आत्महत्या (2019) के मामलों की पूरे देश में चर्चा हुई, लेकिन सिलसिला फिर भी रुका नहीं।

ये कानून किस काम के

भारत के संविधान में दलितों और पिछड़े तबके के लोगों की सुरक्षा के लिए अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 मौजूद है। ऐसे मामलों के तेज़ी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों का गठन भी किया जाता है। इसी तरह अस्पृश्यता पर रोक लगाने के लिए अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 बनाया गया था जिसे बाद में बदलकर नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम कर दिया गया। इसके तहत छुआछूत के प्रयोग एवं उसे बढ़ावा देने वाले मामलों में दंड का प्रावधान है।

वरिष्ठ पत्रकार शिवदास कहते हैं, “पहले दलितों और पिछड़ों पर हिंसक हमले नहीं होते थे। प्रगतिशील सोच के लोगों ने जब से वर्ण व्यवस्था का विरोध करना शुरू किया है तब से हिंसक वारदातें बढ़ी हैं। कुछ मामले तो मीडिया और राजनीतिक पार्टियों के हस्तक्षेप के कारण सबकी नज़र में आ जाते हैं, लेकिन कई तो पुलिस थानों में दर्ज़ भी नहीं हो पाते। जैसे-जैसे पिछड़ों और दलितों की तरक्की हो रही है वैसे-वैसे उन पर हमले बढ़ रहे हैं। यह क़ानूनी नहीं, सामाजिक समस्या है। बीएचयू में दलित, पिछड़े और आदिवासियों के अलावा अल्पसंख्यों को जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है। जातीय गोलबंदी और संरक्षण मिलता है। दलितों पर बहुत घटनाएं हुई हैं।

“लंका थाने में छेड़खानी की घटनाएं बड़े पैमाने पर होती हैं। खास जातियों के लोग ही लंका थाने पर तैनात किए जाते हैं। विश्वविद्यालय में उच्च और निर्णायक पदों पर भी वही काबिज हैं। इस वजह से ऐसी घटनाएं नहीं रुक रही हैं। भाजपा सरकार निजीकरण लाकर आरक्षण की व्यवस्था ख़त्म करके इस असमानता, जातिवाद व छुआछूत को और बढ़ा रही है। मौजूदा सरकार में नौकरशाहों के बीच डर ख़त्म हुआ है। जब अपने देश के नेताओं को गरीबों की चिंता नहीं होगी तो वह नौकरशाही पर दबाव कैसे बनाएंगे?”

बीएचयू के छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष प्रदीप कुमार कहते हैं, “बीएचयू में दलित और पिछड़ी जातियों के स्टूडेंट्स के साथ मारपीट व यौन हिंसा की वारदातें काफी निराश और चिंतित करती हैं। ये सिर्फ आम घटनाएं नहीं, बल्कि वैचारिक, सामाजिक, लैंगिक आज़ादी पर हमले को शिनाख्त करती हैं। इसकी कई वजहें हैं। एक तो देश भर में पिछले कुछ सालों से जिस तरह का कट्टर, बुद्धि-विरोधी और समाज को पीछे लौटा ले जानेवाला माहौल बना है, उससे बीएचयू अछूता नहीं है। इस विश्वविद्यालय की सामाजिक संरचना शुरुआत से सामंती सोच के ढांचे में बंधी रही है। बीएचयू कैंपस में हमेशा से दबंग और ऊंची जातियों का दबदबा रहा है।”

“साठ के दशक के बाद बीएचयू में दबंग जातिवादी गिरोहों और उनसे जुड़े ठेकेदार-अफ़सरों-छात्र नेताओं और अपराधियों का बोलबाला बढ़ता गया। छात्रावासों में अवैध क़ब्जे होने लगे। बीएचयू में दबंग उच्च जातियों के क़ब्जे के आधार पर पहचाना जाने लगा। इसी दौर में इस विश्वविद्यालय के संकायों में आसपास के ज़िलों और हिंदी पट्टी से आनेवाले शिक्षकों की संख्या बढ़ने लगी। नियुक्तियों में प्रतिभा और गुणवत्ता की अनदेखी की गई और जातिवाद, भाई-भतीजावाद और क्षेत्रवाद निर्णायक हो गए। इसके चलते शिक्षण व्यवस्था और उच्चस्तरीय शोध बेमानी होते चले गए गए।”

प्रदीप कहते हैं, “आज़ादी के दशकों बाद बीएचयू में दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यक और महिला शिक्षकों की संख्या आनुपातिक रूप से बहुत कम है। कुलपति के इर्द-गिर्द इकट्ठा शिक्षकों, अधिकारियों और कर्मचारियों जातिवादी व सामंती सोच वाली एक छोटी सी जमात बीएचयू कैंपस को चलाता है। अनुशासन के नाम पर कैंपस को अघोषित जेल में तब्दील कर दिया गया है। प्राक्टोरियल बोर्ड को अनाधिकारिक पुलिस में बदल दिया गया है और उसे असीमित ताक़त दे दी गई है। पिछले एक दशक में बीएचयू में जितने भी कुलपति आए, उनका व्यवहार शिक्षक कम, नौकरशाहों की तरह ज्यादा रहा। वो बीएचयू कैंपस को सामंती दबंगई और पितृसत्तात्मक अनुशासन के डंडे से हांकते रहे। छात्र-छात्राओं और उनकी मांगों, ज़रूरतों और आकांक्षाओं के प्रति उनके मन में तनिक भी संवेदनशीलता नहीं रही। बीएचयू में आज तक किसी महिला कुलपति की नियुक्ति नहीं हुई। बीएचयू में पिछले डेढ़-दो दशक में जितने कुलपति नियुक्त हुए, वे दो दबंग सामंती जातियों के थे”

“इधर हाल के सालों में बीएचयू के महिला छात्रावास के बेतुके, दकियानूसी और भेदभावपूर्ण नियमों ने छात्राओं की मुश्किलें बढ़ाई हैं। उन्हें दकियानूसी सामंती-पितृसत्ता की नई चहारदीवारी में क़ैद करने की कोशिश की गई। दलित, आदिवासी और पिछड़े तबके के छात्रों की आवाज़ दबाने के लिए अनुशासन की दुहाई दी जा रही है और ‘भारतीय संस्कृति’ के डंडे का इस्तेमाल किया जा रहा है। बीएचयू कैंपस में पिछले साल गैंगरेप की वारदात हुई, जिसमें सत्तारूढ़ दल बीजेपी से जुड़े पदाधिकारी शामिल थे। बीएचयू की छात्राएं कई मर्तबा यौन दुर्व्यवहार की घटनाओं के ख़िलाफ़ मुखर आवाज उठा चुकी हैं, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन हमेशा खामोशी की चादर ओढ़े रहा। जातिवादी अपराधी गिरोहों से जब तक बीएचयू मुक्त नहीं होगा, तब मारपीट और यौन हिंसा की वारदातों को नहीं रोका जा सकेगा। इस विश्वविद्यालय में एक अनुकूल संवेदनशील और समावेशी प्रशासन की ज़रूरत है।”

(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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