इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रों की आवाज कुचलने के लिए दमन की हदें पार कीं

इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्रों पर प्रशासन का दमन हदें पार कर रहा है। 17 अक्टूबर को प्रॉक्टर द्वारा छात्रनेता विवेक कुमार पर बर्बर हमले का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। प्रॉक्टर की लाठियों से लहू लुहान उनकी फोटो देखकर लोग स्तब्ध हैं। बताया जा रहा है कि दलित मूल के छात्र विवेक कुमार के प्रति प्रॉक्टर ने गाली गलौज और अपमानजनक शब्दों का भी प्रयोग किया। विवेक AISA इलाहाबाद इकाई के अध्यक्ष हैं।

इसके खिलाफ छात्रों में भारी आक्रोश है। उनकी विज्ञप्ति में कहा गया है, “विश्वविद्यालय के सामंती और दंभी चीफ प्रॉक्टर राकेश सिंह ने छात्रों के ऊपर बर्बर हमला किया जिसके खिलाफ प्रयागराज पुलिस प्रशासन ने कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की तथा छात्रों को 6 घंटे तक थाने में बैठाए रखा।” 

पूरे मामले को लेकर छात्र आज वहां छात्र संघ भवन पर प्रतिरोध सभा कर रहे हैं तथा BHU, लखनऊ विश्वविद्यालय समेत कई अन्य जगहों पर प्रतिवाद की खबरें हैं।

जाहिर है प्रॉक्टर का, जो प्रथमतः अध्यापक हैं, एक छात्र के साथ यह आपराधिक आचरण न सिर्फ शर्मनाक है, बल्कि अक्षम्य और दण्डनीय है।

विवेक कुमार को प्रशासन के इस वहशियाना दमन का सामना करना पड़ा क्योंकि वे अन्य छात्रों के साथ मिलकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के लोकप्रिय और जुझारू छात्रनेता मनीष कुमार को मनगढ़ंत आरोपों के आधार पर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा निलंबित किये जाने और परिसर में उनके प्रवेश पर रोक लगाए जाने के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे। मनीष राजनीति विज्ञान के शोधछात्र हैं तथा पढ़ने-लिखने वाले छात्रों के प्रगतिशील-लोकतान्त्रिक छात्र संगठन AISA के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं।

दरअसल यह परिसर में जारी दमन की अगली कड़ी है।

यह जानना shocking है कि मनीष के खिलाफ निलंबन और एंट्री बैन का यह extreme step प्रशासन ने इसलिए लिया है कि वे बकौल प्रॉक्टर “परिसर में छात्रों के बीच घूम घूम कर भ्रम और अराजकता फैलाने वाली तथ्यहीन सूचनाओं से युक्त पर्चा बांट रहे थे”।

वैसे तो यह जांच और शोध का विषय है कि प्रशासन का आरोप कितना सच या झूठ है। पर ऐसे panic reaction और कठोर दमनात्मक कदम का क्या औचित्य है?

आखिर पर्चा बांटना कब से अपराध की श्रेणी में आ गया?

अगर पर्चे में लिखी बातें इतनी ही तथ्यहीन हैं तो इसे छात्र स्वयं ही reject कर देंगे। जरूरी होने पर प्रशासन अपने convincing जवाब द्वारा, यदि उसके पास हो, उन्हें खारिज कर सकता है। क्या प्रशासन के तर्क और तथ्य इतने लचर हैं या उसकी साख इतनी कम है कि उसे यह डर है कि कोई छात्रनेता अपनी ‘तथ्यहीन’ बातों से छात्रों को बरगला ले जाएगा?

जाहिर है विश्वविद्यालय प्रशासन के तर्क हास्यास्पद हैं। यह academic betterment के लिए छात्रों की लोकतान्त्रिक अभिव्यक्ति को दबाने का बहाना मात्र है।

अकादमिक जगत से जुड़े सभी के लिए यह अत्यंत पीड़ादायी है कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय जिसका एक गौरवशाली अतीत रहा है, गुणवत्ता के पैमाने पर तेजी से पिछड़ता गया है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय का यह पराभव हाल के वर्षों में नई शिक्षानीति के नाम पर हो रहे बदलावों के फलस्वरूप भारत में सार्वजनिक शिक्षा के क्षेत्र में आ रही तेज गिरावट को समझने के लिए एक test केस है।

बेहतर होता कि विश्वविद्यालय प्रशासन छात्र-राजनीति पर दोषारोपण करने और छात्रों को बलि का बकरा बनाने की बजाय, पतन के असली कारणों की तलाश पर ध्यान केंद्रित करता और corrective measures लेता।

दरअसल पिछले सालों में छात्रों की लोकतान्त्रिक अभिव्यक्ति का जो सर्वप्रमुख मंच था छात्रसंघ, उसे परिसर में अपराधीकरण का स्रोत तथा पठन पाठन में बाधक बताकर खत्म कर दिया गया।

बहरहाल, छात्र राजनीति को सारे संकट का मूल बताने वालों को याद रखना चाहिए कि academically भी विश्वविद्यालय का स्वर्ण काल तभी रहा है जब परिसर में स्वस्थ लोकतान्त्रिक माहौल शिखर पर रहा है- छात्र राजनीति  और छात्रसंघ जिसका अभिन्न अंग रहे हैं। आज़ादी की लड़ाई से लेकर लोकतन्त्र को बचाने तक की लड़ाई में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति का इतिहास स्वर्णाक्षरों में लिखा है। वहां छात्र राजनीति सचमुच ही वृहत्तर राजनीति की नर्सरी रही है जिसने देश को जीवन के सभी क्षेत्रों में तमाम हस्तियों से लेकर देश को प्रधानमंत्री, मुख्यमन्त्री तक दिए हैं।

दरअसल, छात्रों की अभिव्यक्ति के सभी लोकतान्त्रिक मंचों को खत्म करके तथा सृजनात्मक गतिविधियों को बंद करके प्रशासन स्वयं अराजकता को निमंत्रण दे रहा है। बेशक छात्र-राजनीति की आड़ में सक्रिय आपराधिक प्रवृत्तियों से प्रशासन को सख्ती से निपटना चहिये लेकिन छात्रों की लोकतान्त्रिक गतिविधि से इसको demarcate किया जाना चाहिए क्योंकि छात्रों के बीच स्वस्थ लोकतान्त्रिक माहौल बहाल करके ही नकारात्मक प्रवृत्तियों से सबसे कारगर ढंग से निपटा जा सकता है।

इतिहास साक्षी है कि परिसर में स्वस्थ लोकतान्त्रिक माहौल और छात्रसंघ की सृजनात्मक गतिविधियों के दौर में स्वयं संगठित छात्र ही आपराधिक प्रवृत्तियों को पीछे धकेलते थे, साथ ही प्रशासन की नुकसानदेह शिक्षा व छात्र विरोधी कदमों और मनमानी पर भी रोक लगाते थे।

प्रशासन सचमुच विश्वविद्यालय के अकादमिक उन्नयन में interested हो तो उसे अराजकता और अपराधीकरण का बहाना बनाकर छात्रों की लोकतांत्रिक गतिविधियों पर रोक लगाने और छात्र हितों की आवाज बुलंद करने वाले छात्रनेताओं के दमन से बाज आना चाहिये।

आज सच्चाई यह है कि अपराधीकरण पर रोक तो महज बहाना है, उसके नाम पर प्रशासन की असली रुचि छात्र विरोधी शिक्षानीति के खिलाफ छात्रों के उभरते प्रतिवाद को कुचलने में है। आज जिस तरह शिक्षण संस्थानों पर अपने संसाधन स्वयं विकसित करने के लिए दबाव बनाया जा रहा है, ट्यूशन फीस से लेकर छात्रावास-शुल्क तक में अंधाधुंध वृद्धि की जा रही है तथा छात्रवृत्ति, लाइब्रेरी, लैबोरेटरी आदि शिक्षा के इंफ्रास्ट्रक्चर को ध्वस्त किया जा रहा है, परिसरों को एक खास विचारधारा के अभयारण्य में बदला जा रहा है, पाठ्यक्रम में बदलाव तथा राजनीतिक नियुक्तियों द्वारा पूरी शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद किया जा रहा है, स्वाभाविक रूप से उसके खिलाफ छात्रों में आक्रोश खदबदा रहा है। भयभीत सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन की सारी कवायद छात्र-आक्रोश के इसी विस्फोट को रोकने के लिए है।

बहरहाल सत्ता और उसके पिछलग्गू विश्वविद्यालय प्रशासन की दमन की यह रणनीति बैकफायर करने के लिए अभिशप्त है। छात्र संगठित लोकतान्त्रिक आंदोलन द्वारा इसका निर्णायक प्रतिरोध करेंगे, ताकि विश्वविद्यालय के academic rejuvenation का मार्ग प्रशस्त हो तथा विश्वविद्यालय के छात्र अकादमिक उत्कृष्टता की नई ऊंचाइयों को छू सकें और समाज एवं राष्ट्र की प्रगति में अपना सर्वोत्तम योगदान कर सकें।

(लाल बहादुर सिंह, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे हैं।)

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