“Speak up truth to the power”, एक ब्लैक ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रहा था। चालीस के आस-पास रहा होगा। बीच-बीच में वह मंडेला, महात्मा गांधी, क्राइस्ट के नाम भी लेता था। फिर चीखना शुरू करता, “stop torcher, don’t terrorise the poor, apply the wisdom, speak up truth to the power”
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री का स्थाई निवास कुछ गज के फासले पर था। दर्शकों और निवास के बीच सलाखें ज़रूर थीं। चार पांच पुलिसवाले भी थे। दो तीन पुलिस वाहन भी थे। लेकिन, इस स्ट्रीट के दृश्य को देख कर ऐसा आभास नहीं हो रहा था कि यूनाइटेड किंगडम का सर्वशक्तिशाली व्यक्ति का यह निवास स्थान है।

इस पत्रकार ने देखा निवास स्थान के सामने यातायात सामान्य रूप से चल रहा है। राहगीर खड़े हो कर ब्लैक का प्रतिरोध देख रहे हैं। कोई उसे रोक नहीं रहा है। सिपाही अनमने बने हुए हैं। वह चिल्लाता जा रहा है, सिपाही अपने काम में मगन है। प्रतिरोधी से उनका कोई सरोकार नहीं है। कोई आतंकी हमला हो सकता है, इसकी भी उन्हें आशंका नहीं है। ऐसा लगता है, प्रतिरोध लोकतंत्र की आत्मा है।
यह नजारा तभी का है, जब इसी समय सात समंदर पार भारत की राजधानी दिल्ली स्थित संसद के निचले सदन में प्रधानमंत्री मोदी जी विपक्ष पर दहाड़ रहे थे। अविश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए उसके परखच्चे उड़ाने की नाकाम कोशिश कर रहे थे। इधर यह ब्लैक राजसत्ता के शिखर प्रतीक के निवास के सामने प्रतिरोध की आवाज को बुलंद कर रहा था।

जब मेरी नजर भारत के प्रधानमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, नगर पार्षद पर जाती है तब राजसत्ता की सिरहन इस लेखक के पूरे अस्तित्व को दबोचने लगती है। तब असली लोकतंत्र और दिखावटी लोकतंत्र का अंतर समझ में आने लगता है। प्रधानमंत्री की यात्रा के लिए सड़कें खाली नहीं कराई जाती हैं। ट्रैफिक को रोका नहीं जाता है। अमेरिका सहित विकसित पूंजीवादी लोकतांत्रिक देशों में ऐसा नजारा आम है।
विशेषाधिकारों की श्रृंखला लोकतंत्र को कमजोर करती हैं। उसके हाथ पैरों की बेड़ियां बन जाती हैं। इसकी जीवंत मिसाल हैं भारत, पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के देश। इन देशों के शिखर नेता आए दिन चिल्लाते रहते हैं कि उनका जीवन खतरे में है। उन्हें धमकियां मिल रही हैं। लोकतंत्र संकट से गुजर रहा है।
लंदन में इस पत्रकार का पहला दिन इस अनुभव के साथ शुरू होता है। जब यह पत्रकार प्रसिद्ध वाटरलू स्टेशन से बाहर आया तो फुटपाथ पर एक भिखारी को धूप में लेटे देखा। 10 डाउनिंग स्ट्रीट से वापस वाटरलू स्टेशन लौटने तक तीन चार भिखारी नजर आए। सभी पचास के पार रहे होंगे। इसमें गोरे और काले, दोनों ही शामिल थे।
अगले दिन स्कॉटलैंड की राजधानी एडिनबर्ग पहुंचने पर भी स्टेशन के बाहर वृद्ध भिखारी के दर्शन हुए। अजीब इत्तफाक मिला। वैसे भिखारी और जगह भी दिखाई दिए। लेकिन भारत के भिखारियों के साथ इनकी तुलना करना नाइंसाफी होगी। तुलनात्मक दृष्टि से यहां का भिखारी हट्टा-कट्टा था। आप इन्हें निम्न मध्य वर्गीय भिखारी की श्रेणी में रख सकते हैं। जबकि भारत के भिखारियों को निम्न भिखारी वर्ग में रखा जा सकता है। गरीबी की सीमा तले की मानवता अदृश्य भिखारी से अधिक है नहीं।
इस लेखक की पहली लंदन यात्रा 1983 में थी। इसके बाद भी होती रहीं विशिष्ट व्यक्तियों के साथ। तब कोई भिखारी नजर नहीं आया था। तब भी ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट, पिकेडली स्क्वायर के चक्कर लगाए थे। ऑक्सफोर्ड, कैंब्रिज, हैरो कई जगह गया था। भिखारी ओझल रहे आंखों से। इस यात्रा में कोई वीवीआईपी तामझाम नहीं है। परिवार के साथ आम पर्यटक की हैसियत से यात्रा चल रही है। शायद एक यह वजह भिखारियों से मुठभेड़ की रही हो कि उस समय भी भिखारी रहे होगें, लेकिन वीवीआईपी प्रोटोकॉल तले दबे रहे होगें। तब नजरों के आकर्षण हुआ करते थे: राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, महारानी, पांच सितारा होटल, सरकारी रात्रिभोज व कॉकटेल पार्टी आदि। आज आम नागरिक बन कर लंदन पर्यटन किया जा रहा है।

लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि 1983 के बाद से वंचन प्रक्रिया तेज़ हुई है। भूमंडलीकरण का सफर बुलेट गति से चला है। विषमता बढ़ी है। निजीकरण की रफ्तार तेज हुई है। राज्य के संचालन में कॉरपोरेट पूंजी के हस्तक्षेप का विस्तार हुआ है। दुनिया में गहराती विषमता की शिनाख्त फ्रांसीसी अर्थशास्त्री थॉमस पिक्केटी के अध्ययन ’ द कैपिटल’ और ‘ऑक्सफॉम’ अध्ययन की जा सकती है। यह एक ठोस सत्य है जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसीलिए राजसत्ता से सत्य कहना ही आज़ का नागरिक धर्म है।
अगले साल इंग्लैंड में आम चुनाव होंगे। लम्बे अरसे से कंजर्वेटिव पार्टी सत्ता में है। इंग्लैंड के इतिहास में पहली दफा भारतीय मूल के व्यक्ति ऋषि सुनक बरतानिया देश के प्रधानमंत्री हैं। एक वक्त था जब पूर्व प्रधानमंत्री विंसेंट चर्चिल ने भारतीयों को स्वतंत्र शासन के काबिल नहीं माना था। गांधी जी की अर्ध नग्न फकीर कह कर उनका उपहास किया करते थे। आज की विडंबना यह है कि उनके ही देश के व्यक्ति के हाथों में चर्चिल के देश की बागडोर है। चर्चिल की आत्मा कितनी दुखी या खुश होगी, यह सवाल हमेशा अनुतरित ही रहेगा।लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि आम जनता सुनक सरकार और कंजर्वेटिव पार्टी से खुश नहीं है।
पिछले तीन दिनों का अनुभव ऐसा ही है। इसके दो तीन कारणों को मुख्य रूप से गिनाया जाता है, पहला, मुद्रास्फीति या महंगाई दूसरा, लम्बे समय से सत्तारूढ़ रहना, तीसरा, भ्रष्टाचार, और कोविड के दौरान कॉरपोरेट परिवारों की दौलत में बेशुमार इजाफा और सुनक की कमज़ोर शासन शैली।

समृद्ध वर्ग ही सत्तारूढ़ पार्टी का समर्थक माना जा रहा है। मध्य वर्ग छिटकता जा रहा है। अगले वर्ष लेबर पार्टी की सत्ता में आने की संभावना मानी जा रही है। आम लोगों के मुंह से अनायास ही लेबर पार्टी का नाम निकल पड़ता है। जरूरत पड़ने पर लिबरल पार्टी भी लेबर को अपना समर्थन दे सकती है। लेकिन, इतना तय है कि सुनक के लिए सत्ता वापसी आसान नहीं होगी। लेबर पार्टी की संभावना अधिक मानी जा रही है।
10 डाउनिंग स्ट्रीट पर ब्लैक के पंचम स्वर के प्रतिरोध में इस संभावना को देखा जा सकता है। भारत में राहुल गांधी ने भी ’निर्भय होकर सत्ता के सामने सत्य बोलने’ का नारा बुलंद कर रखा है। सत्य का परचम किधर लहराता है, यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन सत्य की विजय के आसार जरूर दिखाई दे रहे हैं।
(लंदन से वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी की रिपोर्ट।)