सिल्क्यारा-बारकोट सुरंग हादसा: केंद्रीय एजेंसियों के पास नहीं है आपदा प्रबंधन की विशेषज्ञता

नई दिल्ली। सिल्क्यारा-बारकोट सुरंग में 41 मजदूरों के फंसने और फिर 17 दिन की अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और राज्य की दर्जनों एजेंसियों की तमाम कोशिशों के बाद मजदूरों के बाहर निकालने की ‘असफल’ कवायद ने एक साथ भारतीय शासन, प्रशासन और आपदा प्रबंधन की विशेषज्ञता और तैयारी को बेपर्दा कर दिया। मजदूरों को सुरंग से बाहर निकालने में लगी तमाम सरकारी एजेंसियां तकनीकी रूप से अक्षम साबित हुईं, वहीं इस घटना ने यह भी साबित कर दिया कि उत्तराखंड जैसे जटिल भौगोलिक और पारिस्थितिकी तंत्र वाले राज्य में भी सरकार हर काम चलताऊ तरीके से कर रही है। उसे न तो पर्यावरण की रक्षा की चिंता है और न ही श्रम कानूनों का ध्यान है।

गौरतलब है कि 17 दिनों तक राज्य और केंद्र की एक दर्जन एजेंसियां, असंख्य क्षेत्रों के विशेषज्ञ एक ही पहेली को सुलझाने की कोशिश में लगे थे। 400 घंटों की कड़ी कवायद के बाद उत्तरकाशी सुरंग से 41 लोगों को बाहर निकाला गया। लेकिन इसका श्रेय झांसी से आए देशी पद्धति के कारीगरों- ‘रैट होल माइनर्स’ को जाता है। जिन्होंने अति आधुनिक मशीनों के फेल होने के बाद छीनी-हथौड़ी से मलबे को खोदकर मात्र डेढ़ दिनों में मजदूरों को बाहर निकालने को साकार कर दिया।

17 दिनों तक चले बचाव अभियान में कम से कम 652 सरकारी कर्मचारी तैनात किए गए थे। इनमें पुलिस विभाग से 189, स्वास्थ्य विभाग से 106, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस से 77, राष्ट्रीय आपदा मोचन बल से 62, राज्य आपदा मोचन बल से 39, जल संस्थान उत्तरकाशी से 46, विद्युत विभाग से 32 और सीमा सड़क संगठन से 38 अधिकारी, कर्मचारी और विशेषज्ञ शामिल थे। प्रधानमंत्री कार्यालय के पूर्व सलाहकार और उत्तराखंड पर्यटन विभाग के विशेष अधिकारी भास्कर खुल्बे के अनुसार, यदि इसमें स्वतंत्र श्रमिकों और निजी कंपनी के कर्मचारियों को शामिल किया जाए, तो ऑपरेशन में योगदान देने वालों की संख्या 1,000 को पार कर जाएगी।

चारधाम परियोजना में पर्यावरण और श्रम कानूनों का उल्लंघन

उत्तराखंड में ताबड़तोड़ विकास परियोजनाएं चल रही हैं। लेकिन चारधाम परियोजना ने तीर्थयात्रा मार्ग बनाने के नाम पर पहाड़ की पारिस्थितिकी तंत्र को तहस-नहस कर दिया है। निर्माणाधीन सिल्क्यारा-बारकोट सुरंग की दुर्घटना पहाड़ों में मानव निर्मित आपदाओं की सृजित कहानियों में से एक है। जो देश के सामने आ गयी है। लेकिन विकास के नाम पर वहां चल रहे कॉर्पोरेट लूट ने पूरे हिमालय अंचल को खतरनाक जोन में पहुंचा दिया है।

उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। यह केवल इस तथ्य के कारण नहीं है कि चार प्रमुख हिंदू तीर्थ स्थल यहां स्थित हैं, बल्कि इस वास्तविकता के कारण भी है कि यहां निवास करने वाली विभिन्न जातियों- समुदायों ने पूरे हिमालयी परिदृश्य को पवित्र माना है, उनका दृढ़ विश्वास है कि युवा और नाजुक हिमालयी पहाड़ों को नुकसान पहुंचाने से न केवल पर्वतवासियों के लिए, बल्कि समूचे मानव जाति के लिए विनाशकारी हो सकता है। हिमालय एक ऐसे भूगोल का प्रतिनिधित्व करता है जहां माना जाता है कि जंगलों, चोटियों, अल्पाइन घास के मैदानों, घाटियों और जल क्षेत्रों के माध्यम से पहाड़ के जटिल संरचना की रक्षा होती है। आधुनिक संसाधनों की भूखी “शिक्षित” आबादी के लिए, यह अंध विश्वास हो सकता है, लेकिन तथ्य यह है कि इस विश्वास प्रणाली से ही आज तक हिमालय क्षेत्र की रक्षा होती रही है, जिसे अब विकास धीरे-धीरे निगल रहा है।

2013 में केदारनाथ बाढ़, जोशीमठ में घरों और होटलों के साथ-साथ नरसिंह मंदिर में दरारें आदि पहाड़ के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन और बेतरतीब निर्माण के कारण ही सामने आई हैं। हालांकि, आज दिल्ली के सिंहासन पर बैठे लोग उत्तराखंड के चार धाम को राष्ट्रीय स्तर पर वोट पाने में मददगार मान रहे हैं और पहाड़ को कॉर्पोरेट के लिए दूध देने वाली गाय के रूप में देखते हैं, पहाड़ के लोग नई दिल्ली में अपने भाग्य निर्माताओं से अधिक सहानुभूति और समझ की अपेक्षा करते हैं, जो इस क्षेत्र में हर आपदा के लिए किसी न किसी रूप में जिम्मेवार हैं।

हिमालयी समुदायों को पता है कि उत्तराखंड अब देश की बहु-लेन राजमार्गों, रेल नेटवर्क, हेलीपैड और चार धाम यात्रा के लिए बनने वाला राजमार्ग उनके ऊपर थोपा गया विकास है, जो सदियों के पारिस्थितिक संतुलन को छिन्न-भिन्न कर स्थानीय समुदायों को आने वाली सदियों तक आपदा के अंधी सुरंग में डाल दिया है।

दीपावली के दिन भी चल रहा था सुरंग निर्माण का कार्य

होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस, 15 अगस्त और 26 जनवरी को देश भर में अवकाश होता है। इस दिन सरकारी, गैर सरकारी और घरेलू काम को बंद कर लोग त्योहार मनाते हैं। लेकिन नए भारत में 41 मजदूरों से सुरंग के अंदर काम लिया जा रहा था। यह सरासर अमानवीय और श्रम कानूनों का उल्लंघन है। आश्चर्य की बात यह है कि श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाने में भारत सरकार का राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय ही लगा हुआ है।

केंद्रीय एजेंसियों के पास नहीं है आपदा प्रबंधन की विशेषज्ञता

12 नवंबर को सिल्क्यारा-बारकोट सुरंग धसने और उसमें 41 मजदूरों के फंसने के बाद से ही बचाव के लिए कई देशी-विदेशी एजेंसियों को वहां लगाया गया। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, केंद्रीय मंत्री सड़क एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी और राज्य मंत्री जनरल (सेवानिवृत्त) वीके सिंह उन लोगों में शामिल थे जिन्होंने स्थिति का जायजा लेने के लिए घटनास्थल का दौरा किया। प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के उप सचिव मंगेश घिल्डियाल से लेकर प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव डॉ. पीके मिश्रा हर छोटे या बड़े विकास पर नज़र रख रहे थे।

इनमें एनडीआरएफ, एसडीआरएफ, बीआरओ, राष्ट्रीय राजमार्ग और बुनियादी ढांचा विकास निगम लिमिटेड, नवयुग, तेल और प्राकृतिक गैस निगम, टेहरी हाइड्रो विकास निगम, सतलुज जल विद्युत निगम, रेल विकास निगम लिमिटेड, ट्रेंचलेस इंजीनियरिंग वर्क्स, केंद्र और राज्य सरकार के साथ-साथ सेना और वायु सेना के अधिकारी और विशेषज्ञ शामिल थे। फिर अनगिनत अनाम नायक थे- पुलिसकर्मी जो चौबीसों घंटे पहरा देते थे; बचावकर्मियों के लिए नियमित भोजन तैयार करने वाले रसोइये; ड्राइवर जिन्होंने पर उपकरण पहुंचे, यह सुनिश्चित करने के लिए ओवरटाइम काम किया।

बचावकर्मी फंसे मजदूरों तक पहुंचने के लिए एक साथ पांच योजनाओं पर काम कर रहे थे। प्रत्येक को अलग-अलग एजेंसियों द्वारा नियंत्रित किया जा रहा था, जिनमें अलग-अलग कौशल और रणनीति के विशेषज्ञ शामिल थे। लेकिन हर विशेषज्ञ की रणनीति फ्लॉप साबित हुई। और अंत में रैट होल माइनर्स (जो देश में कानूनन प्रतिबंधित है) को लगाया गया, और तब जाकर सफलता मिली। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या देश की तमाम एजेंसियां और आपदा प्रबंधन विभाग सिर्फ हाथी के दांत हैं, जो सिर्फ दिखाने के लिए हैं?

(प्रदीप सिंह जनचौक के राजनीतिक संपादक हैं।)

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