संघ परिवार (आरएसएस और सहमना संगठन जिनमें सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी भी शामिल है) की राजनीति की पहचान के लिए अभी भी संभवतः सांप्रदायिकता ही सबसे उपयुक्त शब्द है। आज के दौर में सांप्रदायिकता अपने उग्र और अक्सर हिंसक रूप में है। लेकिन उस समय की तुलना में यह सिर्फ रूप परिवर्तन है, जब सांप्रदायिकता को स्वीकृत बनाने के लिए यह परिवार मोटे तौर पर विभिन्न माध्यमों से प्रचार और दुष्प्रचार अभियान चलाने तक अपने को सीमित रखता था।
वैसे भी इतिहासकारों ने सांप्रदायिकता को समझने के लिए इसके विभिन्न चरणों की पहचान की है। अनुभव यह है कि अपनी सियासत के पहले दौर में सांप्रदायिक संगठन खुद को किसी एक समुदाय (जो मजहब या किसी ऐसे अन्य सामाजिक पहचान से जुड़ा हो सकता है) के हितों के प्रवक्ता या उसकी सेवा करने वाले संगठन के रूप में पेश करते हैं। दूसरे दौर में वे इन हितों और दूसरे समुदायों के हितों के बीच मौजूद कथित टकराव या अंतर्विरोधों पर जोर देने लगते हैं।
यानी वे बताते हैं कि किसी अन्य समुदाय/समुदायों के हित कैसे उनके समुदाय के खिलाफ जा रहे हैं। इन दो चरणों में जब ऐसे संगठनों को समुदाय विशेष की ठोस गोलबंदी में सफलता मिल जाती है, तब वे एलान करने लगते हैं कि दूसरे समुदाय/समुदायों और उनके समुदाय का साथ-साथ रहना संभव नहीं रह गया है। यानी दूसरा समुदाय अनिवार्य रूप से उनका दुश्मन है। अधिकांश मौकों पर सांप्रदायिक संगठन एक समय में किसी एक ही अन्य समुदाय को शत्रु के रूप में चिह्नित करते हैं।
यह रणनीति आजादी के पहले मुस्लिम लीग ने भी अपनाई थी। 1940 तक पाकिस्तान आंदोलन के लिए मुस्लिम समुदाय में एक ठोस समर्थन बन जाने का भरोसा जब लीग को हो गया, तब उसने चर्चित लाहौर प्रस्ताव पारित किया था। उसमें दावा किया गया कि हिंदू और मुसलमानों में इतना ज्यादा फर्क है कि वे साथ-साथ नहीं रह सकते। संघ परिवार के संगठन भी तब तक इस सोच को अपना चुके थे। मगर उस समय वे हिंदू समुदाय के एक ठोस हिस्से को इस एजेंडे पर गोलबंद नहीं कर सके थे। बहरहाल, उनका यह अभियान जारी रहा और 1990 आते-आते कामयाब होने लगा। आज कहा जा सकता है कि उन्होंने अपनी इस सांप्रदायिक सोच को भारत के राजकीय सिद्धांत के रूप में स्थापित कर दिया है।
तो इस क्रम में महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर एक दौर के बाद उनकी इस सोच को हिंदू समुदाय के एक बड़े हिस्से का समर्थन क्यों मिलने लगा? आखिर भारतीय समाज में कौन-सी ऐसी अंतःक्रियाएं हुईं, जिनकी वजह से भारत के शासक वर्ग का बड़ा हिस्सा इस सोच को समर्थन देने में अपना हित देखने लगा? यह तो निर्विवाद है कि आज संघ परिवार के राजनीतिक औजार यानी भाजपा की जो ताकत है, वह इसलिए है कि आधुनिक और पारंपरिक शासक वर्ग का उसे पूरा समर्थन मिला हुआ है?
यहां आधुनिक शासक वर्ग से मतलब देश के कॉरपोरेट और क्रमशः इजारेदारी (monopoly) का रूप लेती गई पूंजीवादी व्यवस्था से है। परंपरागत शासक वर्ग का मतलब सामंती अवशेषों और सवर्ण जातियों से है, जिनका दबदबा सदियों तक भारतीय समाज पर कायम रहा था।
स्वतंत्रता आंदोलन के उपनिवेशवाद-विरोधी चरित्र और उस दौरान मजबूत हुई समाज सुधार की प्रवृत्तियों ने पारंपरिक शासक वर्ग की पकड़ को आजादी के बाद के आरंभिक दशकों में कमजोर किया। उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन के परिणामस्वरूप आजादी के बाद स्थापित हुई संवैधानिक राज्य-व्यवस्था पर आधुनिक शासक वर्ग अपना संपूर्ण शिकंजा कसने में उन आरंभिक दशकों में नाकाम रहा था। अगर इस पृष्ठभूमि को हम ध्यान में रखें, तो यह देख सकते हैं कि 1990 आते-आते इन दोनों बिंदुओं पर समाज की अंतःक्रियाओं में एक भारी बदलाव हुआ।
अनुसूचित जाति/ जनजातियों के लिए आरक्षण के खिलाफ सवर्ण जातियों में वैर भाव आरंभ से मौजूद था। 1980-90 दशक में ओबीसी उभार और मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल ने उनके इस वैर भाव को एक उग्र या यहां तक कि हिंसक प्रतिक्रिया में तब्दील कर दिया। उधर इस समय तक कांग्रेस सहित लगभग तमाम गैर-भाजपा राजनीतिक पार्टियों/ताकतों की सियासत पर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की उपनिवेशवाद-विरोधी विरासत का प्रभाव मद्धम पड़ चुका था। बल्कि तब कांग्रेस मुक्त बाजार की नीति की पैरोकार हो गई। इस तरह उसने साम्राज्यवाद विरोध की रही-सही भावना से भी खुद को अलग कर लिया। अपने को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले अन्य दलों ने भी बिना किसी आलोचनात्मक समीक्षा के इन कथित नई आर्थिक नीतियों को गले लगा लिया।
इस समय तक सोवियत संघ का विघटन भी हो चुका था। उससे कम्युनिस्ट पार्टियों को जो वैचारिक और मनोवैज्ञानिक झटका लगा, उसके बीच उनमें भी राजनीतिक दिशा में आ रहे इस बदलाव का ठोस विश्लेषण और विकल्प जनता के सामने रखने की प्रखरता नहीं बची थी। नतीजतन, अगर स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद बनी संवैधानिक व्यवस्था को अगर एक सीमित भारतीय अर्थ में क्रांति कहें, तो कहा जा सकता है कि प्रति-क्रांति की जमीन तैयार हो गई।
गौरतबल यह है कि दुनिया भर में इसी दौर में नव-उदारवादी नीतियों का बेलगाम प्रसार हुआ है, और उन सभी जगहों पर इसी दौर में धुर-दक्षिणपंथी, नस्लवादी, आव्रजक विरोधी, और अन्य संकीर्ण सोच से प्रेरित ताकतें मजबूत होती चली गई हैं। भारत में यही वो दौर है, जिसमें भाजपा का ऐसा उदय हुआ, जिसने आज उसे और उसकी सांप्रदायिक विचारधारा को देश की प्रमुख धुरी बना दिया है।
तो प्रश्न यह है कि क्या आज जो हम देख रहे हैं, वह सिर्फ सांप्रदायिक सोच को जन स्वीकृति मिल जाना भर है? या इस सोच के पक्ष में निर्णायक चुनावी जन समर्थन इसलिए बना है, क्योंकि परदे के पीछे मौजूद किन्हीं ताकतों ने इस सोच को अपनी रणनीति बना लिया?
हमारी शिक्षा-दीक्षा जिस रूप में हुई है, उसके बीच हम में से अधिकांश लोग कई भ्रमों के साथ जीते हैं। मसलन, एक भ्रम यह कि चुनावी राजनीति ही असल लोकतंत्र है और 26 जनवरी 1950 को जो संविधान लागू हुआ, वह समय निरपेक्ष एक ऐसा आदर्श और अंतिम दस्तावेज हो, जिसकी कोई आलोचना या समीक्षा की जरूरत नहीं है। इन भ्रमों के कारण हम अक्सर अपने लोकतंत्र और संविधान दोनों के वर्गीय चरित्र पर वस्तुगत समझ बना पाने से वंचित रह जाते हैं। नतीजा होता है कि हमारी निगाह घटनाक्रमों के पीछे के सूत्रधारों तक नहीं पहुंच पाती।
मशहूर अमेरिकी अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गॉलब्रेथ ने टीवी न्यूज के चरित्र की व्याख्या करते हुए कहा था कि राजनीति को एक खेल में तब्दील कर देना टीवी मीडिया की सबसे अवांछित उपलब्धियों (dubious distinctions) में से एक है। टीवी एंकर/रिपोर्टर हांफते हुए यह बताने में जुटे रहते हैं कि यह खेल कैसे खेला जा रहा है, लेकिन यह खेल असल में है क्या, इस बारे में अक्सर वे चुप ही रहते हैं। असल में यह बात शासक वर्ग संचालित पूरे मीडिया के लिए भी कही जाती है। इस मीडिया इको-सिस्टम ने राजनीति की एक ऐसी समझ समाज पर थोप रखी है कि अधिकांश लोग भी ‘खेल कैसे खेला जा रहा है’ उससे आगे नहीं सोच पाते। यानी उनकी दृष्टि उस हद तक नहीं पहुंचती है, जिससे वे देख सकें कि ये खेल आखिर है क्या और उसका सूत्रधार और संचालक कौन है?
कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने 1848 में प्रकाशित कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में लिखा था- ‘आधुनिक राज्य की कार्यपालिका (यानी सरकार) समग्र बुर्जुआ की ओर से राजकीय मामलों का प्रबंधन करने वाली एक समिति ही है।’ यह समिति पूंजीवादी तबके के अंदरूनी टकरावों के बीच तालमेल बनाती है। इस रूप में राज्य के संचालन को सहज बनाने के लिए राज्य के संचालकों का चुनाव आम जन के वोट से करने की प्रणाली को प्रचलित किया गया। इसे ही लोकतंत्र बताया और कहा गया है।
सोवियत संघ के दौर में पेश आ रही चुनौतियों के बीच इस लोकतांत्रिक राज्य ने कल्याणकारी स्वरूप भी अपनाया। लेकिन 1990 आते-आते सोवियत संघ का खौफ खत्म हो गया, तो कल्याणकारी बजट भी नव-उदारवाद की भेंट चढ़ने लगे। पूंजीवादी राज्य-व्यवस्थाएं अपने सोवियत-पूर्व के काल में लौट गईं, जब उनका मकसद मेहनतकश वर्ग द्वारा पैदा अतिरिक्त मूल्य (surplus value) के शोषण को सहज बनाना था। आम दिनों में ऐसी राज्य-व्यवस्थाएं यह काम अधिकतम आम सहमति बनाते हुए करती हैं, लेकिन जब इसमें अड़चनें आने लगती हैं, तो वह इसके लिए हिंसक रास्ता अपना लेती हैं। इसीलिए बहुत से विद्वानों ने फासीवाद/नाजीवाद को rule by violence (हिंसा के जरिए शासन) के रूप में समझा है।
सोवियत संघ के बाद के काल में कई देशों में rule by violence चलन लौटता दिखा है। इसके लिए पूरे लगभग ‘लोकतांत्रिक विश्व में’ शासक वर्ग को ऐसी राजनीतिक ताकतों की जरूरत अधिक महसूस हुई है, जो आम जन को ऐसे सवालों और एजेंडे पर भटका सकें, जिनका संबंध उनकी रोजमर्रा के स्तर पर बढ़ रही परेशानियों से ना हो। जिन परंपरागत शासक वर्गों की पकड़ कमजोर हो रही थी, उन्हें भी ऐसी सियासी ताकत सबसे मुफीद महसूस हुई, तो यह लाजिमी ही है।
आज भारतीय जनता पार्टी की सत्ता और जन-समर्थन का आधार क्या है? बेशक, उसे गरीब और दलित-पिछड़े समूहों के बहुत बड़े हिस्से का वोट हासिल होता है। लेकिन प्रश्न है कि ऐसा क्यों होता है? अगर उन समूहों के दिमाग पर भी भाजपा ने कब्जा जमा रखा है, तो क्या इसका बड़ा कारण उसके पास अकूत धन की उपलब्धता और मीडिया का एकतरफा सपोर्ट नहीं है?
इस धन के जरिए भाजपा अपने राजनीतिक अभियानों को आक्रामक ढंग से चलाने सक्षम बनी है। जबकि मेनस्ट्रीम मीडिया लगातार उसके नजरिए से मुद्दों को प्रचारित कर आम जन को कुछ और सोचने का मौका ही नहीं देता है। इसमें एक और पहलू संवैधानिक संस्थाओं का उसे मिल रहा समर्थन है। यह अनुभव सिद्ध तथ्य है कि इन संस्थानों और ऐसे अन्य संस्थानों पर भी हमेशा से आधुनिक और परंपरागत शासक वर्ग का नियंत्रण रहा है, जो इनके जरिए समाज में राजनीतिक सहित तमाम तरह का नैरेटिव सेट करते रहे हैं। आज उनकी पूरी ताकत भाजपा के पक्ष में लगी हुई है।
अब भाजपा अगर अपनी सरकार बनाने के बाद तमाम कदम कॉरपोरेट हितों में उठाती है और देश की तमाम संपत्तियां कुछ कॉरपोरेट घरानों को सौंपती चली गई है, तो क्या यह समझना कठिन है कि वह ऐसा क्यों करती है? इसी तरह आरक्षण समेत सामाजिक न्याय के तमाम उपायों को अगर उसने लगभग अप्रासंगिक बना दिया है, तो क्या इसमें कोई हैरत की बात है? आखिरकार शासक वर्गों ने जिस मकसद से उसे अपनाया है- उसे पूरा करते हुए ही वह राजनीति में ताकतवर बनी रह सकती है। इस तरह एक नई राजनीतिक-अर्थव्यवस्था (political economy) निर्मित हुई है, जिसमें सांप्रदायिकता और शासक वर्गों के हित एक दूसरे से जुड़ गए हैं।
समस्या यह है कि इस घटनाक्रम से असहमत ज्यादातर समूह इस घटनाक्रम को इस रूप में नहीं देख पाते। इन समूहों में बहुत से लोग ऐसे हैं, जिन्हें आज भी भाजपा या आरएसएस से ज्यादा गुरेज नहीं हैं। उन्हें लगता है कि “गुजरात से आए दो नेता” लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था को तहस-नहस कर रहे हैं। कुछ अन्य लोगों की निगाह में पूरा संघ परिवार आज के उग्र माहौल के लिए दोषी है। लेकिन उनकी नजर भी इस माहौल के लिए फंडिंग कर रहे और प्रचार की सुविधा दे रहे समूहों तक नहीं पहुंचती।
इसीलिए इन असहमत समूहों को, स्वाभाविक रूप से, ऐसा महसूस होता है कि किसी तरह “गुजरात से आए दो नेता” सत्ता से बेदखल हो जाएं, तो समाधान निकल आएगा। इसीलिए मोदी-शाह विरोधी हर राजनीतिक जोड़-जोड़ उन्हें समाधान का हिस्सा मालूम पड़ती है।
स्पष्टतः ‘खेल कैसे खेला जा रहा है’, वहीं तक नज़र और समझ को सीमित रखने का यह परिणाम है। अगर ‘खेल है क्या’, इसे नहीं समझा गया, तो ऐसी जोड़-तोड़ कभी कुछ समय के लिए कामयाब हो भी जाए, तो उससे सूरत नहीं बदलेगी। सूरत बदलने के लिए इस खेल के आधार को समझने और उसे बदलने का प्रयास करने की आवश्यकता है। उसके लिए राजनीति की समझ विस्तृत करने की जरूरत होगी।
चुनावी राजनीति से आज की हालत का एक अत्यंत सीमित हल ही निकल सकता है। जन गोलबंदी, दीर्घकालिक संघर्ष, और सड़क पर निरंतर अभियान के बिना संघ परिवार की सांप्रदायिकता का मुकाबला नहीं किया जा सकता। इसलिए दोहराव की कीमत पर भी यह कहना अनिवार्य है कि इस सांप्रदायिकता के पीछे पूंजी, प्रचार और पारंपरिक वर्चस्व की संस्थाओं की ताकत लगी हुई है। इस रूप में सांप्रदायिकता एक रणनीति है, जिसका मुकाबला करने की पहली शर्त उसके मूल स्वरूप को समझना है।
(सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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