नई दिल्ली। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कहा है कि “जी-20 और वैश्विक स्तर पर होने वाले अन्य शिखर सम्मेलनों में प्रधानमंत्री के बयान उनकी हिप्पोक्रेसी को दर्शाते हैं। भारत के वनों और जैव विविधता संरक्षण को नष्ट करके, और आदिवासियों एवं वनों में रहने वाले अन्य समुदायों के अधिकारों को कमज़ोर करके, वह पर्यावरण, क्लाइमेट एक्शन और समानता की बात करते हैं, लेकिन वैश्विक स्तर की उनकी बातें (Global Talk) और देश में उनके द्वारा उठाए जाने वाले कदम (Local Walk) बिलकुल विपरीत हैं।”
कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने एक बयान जारी कर कहा कि “वर्ष 2014 में दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में छात्रों के साथ बातचीत के दौरान प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘क्लाइमेट नहीं बदला है, हम बदल गए हैं’। स्वघोषित विश्वगुरु हिप्पोक्रेसी के मामले में बहुत आगे निकल चुके हैं। प्रधानमंत्री ने पर्यावरण के महत्व को लेकर जी-20 शिखर सम्मेलन का इस्तेमाल बड़े, खोखले बयान देने के लिए किया है।”
कांग्रेस महासचिव ने कहा कि “जी-20 पर्यावरण और जलवायु स्थिरता बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा था, ‘हम जैव विविधता संरक्षण, सुरक्षा, पुनर्स्थापन और संवर्धन पर कार्रवाई करने में लगातार आगे रहे हैं। धरती माता की सुरक्षा और देखभाल हमारी मौलिक ज़िम्मेदारी है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘जलवायु के लिए चलाए जा रहे अभियान को अंत्योदय का पालन करना चाहिए…यानि हमें समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान और विकास को सुनिश्चित करना होगा।’ लेकिन सच तो यह है कि मोदी सरकार बड़े पैमाने पर भारत के पर्यावरण संरक्षण को तहस-नहस कर रही है। साथ ही वनों पर निर्भर सबसे कमज़ोर समुदायों के अधिकारों को छीन रही है।”
जयराम रमेश ने कहा कि “जैव विविधता संरक्षण के प्रधानमंत्री के दावों के विपरीत, 2023 का जैविक विविधता (संशोधन) अधिनियम, 2002 के मूल कानून को बेहद कमज़ोर करता है। 2023 अधिनियम में किसी भी तरह के आपराधिक प्रावधान को हटा दिया गया है। इससे जैव विविधता को नष्ट करने और बायोपाइरेसी में संलिप्त लोग आसानी से बच निकलेंगे। राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA)- जो पहले शक्तिशाली था और अपने हिसाब से निर्णय लेने में सक्षम था- को पूरी तरह से पर्यावरण मंत्रालय के नियंत्रण में कर दिया गया है।”
उन्होंने कहा कि “अदालतों द्वारा बाध्य जुर्माने के प्रावधान के बजाय, नया अधिनियम सरकारी अधिकारियों को दंड देने का प्रभारी बनाता है। लाभ-साझाकरण (Benefit-Sharing) प्रावधानों में विभिन्न तरह की छूट दी गई है। इससे उन लोगों को नुक़सान होगा जो जैव विविधता का पारंपरिक ज्ञान रखते है। वहीं जो इसका व्यावसायिक रूप से दोहन करते हैं, उन्हें फ़ायदा होगा। यह अधिनियम मोदी सरकार को पूरे देश में जैव विविधता के विनाश को जारी रखने में सक्षम बनाता है।”
कांग्रेस महासचिव ने कहा कि “इसके अलावा, समानता पर जोर देने के दावों को वन (संरक्षण) संशोधन अधिनियम 2023 पूरी तरह से खोखला साबित करता है। यह अधिनियम देश के आदिवासियों और वनों में रहने वाले अन्य समुदायों के लिए विनाशकारी होगा, क्योंकि यह 2006 के वन अधिकार अधिनियम को कमज़ोर करता है। यह स्थानीय समुदायों की सहमति के प्रावधानों और बड़े क्षेत्रों में वन मंजूरी की आवश्यकताओं को ख़त्म करता है। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने 2022 में इस पर आपत्ति जताई थी।”
उन्होंने कहा कि “पूर्वोत्तर के जनजातीय समुदाय विशेष रूप से असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, क्योंकि यह अधिनियम देश की सीमाओं के 100 किमी के भीतर की भूमि को संरक्षण कानूनों के दायरे से छूट देता है। एनडीए की सरकार होने के बावजूद, मिज़ोरम ने इस अधिनियम के विरोध में विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित किया है। नागालैंड भी शायद ऐसा करने वाला है। नया कानून भारत के 25% वन क्षेत्र को संरक्षण के दायरे से हटा देता है, जो कि 1996 के TN गोदावर्मन बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले का स्पष्ट उल्लंघन है। इससे केवल मोदी सरकार के लिए जंगलों का दोहन करने और उन्हें कुछ चुनिंदा पूंजीपति मित्रों को सौंपने का राह आसान होता है।
कांग्रेस महासचिव ने कहा कि पर्यावरण संरक्षण को तहस-नहस करने का काम यहीं नहीं रुकता है:
● विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, COVID-19 महामारी की आड़ में मोदी सरकार ने पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के नियमों में 39 संशोधन पारित किया। पर्यावरण संरक्षण में ढील देने के लिए अवैध परिवर्तन किए गए- प्रदूषण नियंत्रण के उपायों को हटा दिया गया, उल्लंघनों के लिए दंड कम कर दिया गया, आपराधिक मुक़द्दमे हटा दिए गए, और पब्लिक नोटिस आवश्यकताओं को समाप्त कर दिया गया।
● सुप्रीम कोर्ट की केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति (CEC) को अब मोदी सरकार ने अपने अधीन कर लिया है। CEC 2002 से सुप्रीम कोर्ट के नियंत्रण में काम कर रहा है, ताकि वह अपने पर्यावरणीय निर्णयों को लागू करने पर न्यायालय को रिपोर्ट कर सके और पर्यावरण संरक्षण के लिए सिफारिशें कर सके। इस महत्वपूर्ण बॉडी में अब पूरी तरह से पर्यावरण मंत्रालय द्वारा नियुक्ति की जाएगी। इसका नियंत्रन और इसकी फंडिंग भी पर्यावरण मंत्रालय करेगा। ऐसा होने की वजह से CEC सरकार के आदेशों के कारण पर्यावरण को जो क्षति पहुंचेगी, उसकी जांच करने में असमर्थ होगा।
● नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) को 2014 के बाद से लगातार कमज़ोर किया गया है। वर्षों से इसमें रिक्तियां यूं ही छोड़ दी गई। वर्ष 2018 में यह 70% तक पहुंच गई और चेन्नई NGT बेंच को बंद कर दिया गया। इसके बाद मद्रास हाईकोर्ट को 2019 में कदम उठाना पड़ा और केंद्र सरकार को रिक्तियों को भरने का निर्देश देना पड़ा। प्रमुख पदों पर वैज्ञानिक विशेषज्ञों की बजाय नौकरशाहों को नियुक्त किया जा रहा है।
जयराम रमेश ने कहा कि “ये सब जो किया गया, उनके कारण स्पष्ट हैं- प्रधानमंत्री के मित्रों की नज़रें भारत के समृद्ध और जैव विविधता से भरे वनों के दोहन पर हैं। वे पाम (ऑयल) के बागान लगाने के लिए पूर्वोत्तर के समृद्ध जैव विविधता वाले वनों को साफ़ करना चाहते हैं। साथ ही खनन के लिए मध्य भारत की पहाड़ियों और वनों- जिनमें आदिवासी समुदायों के पवित्र वन भी शामिल हैं- को काटना चाहते हैं।”
, यह लोग देश को नाश करने वाले है