राजनीति के भंवर में उलझी चीतों की मौत: चीता संरक्षण परियोजना प्रयोग या प्रयोगशाला?

2 अगस्त, 2023 को जब अखबारों में 9वें चीते की मौत की खबर आई, तो इस खबर से एक गंभीर सवाल उठा कि चीतों की मौत क्यों हो रही है? वन विभाग के अधिकारियों ने कुछ तात्कालिक कारण बताए और शेष के लिए पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आने के बाद सूचित करने का वादा किया। लेकिन एक के बाद एक हो रही चीतों की मौत से सवाल उठ रहे हैं कि इनकी मौत के पीछे कारण क्या हैं। जो कारण बताये गये हैं, उसे हम क्रमशः नीचे दे रहे हैं। 

26 मार्च, 2023: किडनी की समस्या से हुई पहली मौत। इस चीते का नाम साशा था। यह मादा थी। वन विभाग के अनुसार 15 अगस्त, 2022 में नामीबिया में इसका ब्लड टेस्ट हुआ था जिसमें गड़बड़ी पाई गई थी। यह गड़बड़ी किडनी खराबी में बदल गई। इस तरह 20 में से एक चीते की मौत हो गई। इस बुरी खबर के साथ एक अच्छी खबर 27 मार्च, 2023 को एक मादा चीता ज्वाला द्वारा चार शावकों के जन्म देने के साथ आई। अब कुल चीतों की संख्या 23 हो गई।

23 अप्रैल, 2023: हार्ट अटैक से एक नर चीते की मौत। अधिकारियों के अनुसार हृदय में खून का बहाव रुक जाने से चीते की मौत हो गई।

9 मई, 2023: मादा चीता दक्षा के बाड़े में एक नर चीता को प्रजनन के उद्देश्य से छोड़ा गया। दोनों चीतों के बीच हिंसक झड़प होने और दक्षा के घायल होने से उसकी मौत हो गई।

23 मई 2023: मादा चीता ज्वाला के एक शावक की मौत हो गई। अधिकारियों के अनुसार शावक जंगल की परिस्थितियों में रहे रहे हैं और कूनो नेशनल पार्क के श्योपुर में भीषण गर्मी पड़ रही है। तापमान 46 से 47 डिग्री सेल्सियस है। गर्म हवा और लू के चलते डिहाईड्रेशन और कमजोरी इस मौत का एक कारण हो सकता है। अब कुल चीतों की संख्या 20 रह गई।

25 मई, 2023: ज्वाला के दो और शावकों की मौत हो गई। ये शावक विशेषज्ञों की देखरेख में थे। मौत का कारण उपरोक्त ही बताया गया।

11 जुलाई, 2023: तेजस नाम के नर चीते की मौत। उसके गर्दन पर घाव था और यह अनुमान लगाया गया कि मौत आपसी संघर्ष के कारण हुई।

14 जुलाई, 2023: नर चीता सूरज की मौत हुई। कारण उपरोक्त ही बताया गया और यह जोड़ा गया कि तेजस और सूरज के बीच हुई हिंसक झड़प से यह भी घायल हो गया था।

2 अगस्त, 2023: एक और चीते की मौत।

इसके बाद अब कुल 14 चीते बचे हैं। इसमें से 7 नर, 6 मादा और एक शावक है। कूनों नेशनल पार्क के अधिकारियों की ओर से बयान दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि ये सारे चीते स्वस्थ हैं, वो कूनों नेशनल पार्क में ही रहेंगे। इन्हें नामीबिया से आये विशेषज्ञों और चिकित्सकों की निगरानी में रखा जा रहा है। 

यहां यह जान लेना ठीक रहेगा कि भारत में चीता प्रजाति विलुप्त हो चुकी है। एशिया में पाये जानी वाली प्रजाति सिर्फ ईरान में बची हुई है। अफ्रीका में एक दूसरी प्रजाति बची हुई है। भारत में मनमोहन सिंह की सरकार के समय चीता परियोजना को लेकर कुछ योजनाएं बनी थीं। इसके साथ ही गिर के कुछ शेरों को नये इलाकों में बसाने की योजना भी बनी थी। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल, 2013 में अपनी स्वीकृति वाला निर्णय भी दे दिया था। कूनो नेशनल पार्क को इसी हिसाब से विकसित भी किया जा रहा था।

लेकिन 2014 में केंद्र की सरकार बदल गई। गुजरात के गिर के शेर गुजरात में ही रह गये और उसकी जगह अफ्रीका से चीतों को लाकर वहां बसाने की तैयारी शुरू हो गई। सर्वोच्च न्यायालय इस संदर्भ में नकारात्मक निर्णय दे चुका था। लेकिन, एक बार फिर से  न्यायिक प्रक्रिया शुरू हुई और ‘उचित देखभाल और निगरानी में’ चीता परियोजना को लागू करने का निर्णय ले लिया गया। 

17 सितम्बर, 2023 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने जन्मदिन पर नामीबिया से लाये गये 8 चीतों को कूनो नेशनल पार्क में छोड़ा। 18 फरवरी, 2023 को अफ्रीका से 12 और चीतों को यहां छोड़ा गया। बहु-प्रचारित इस परियोजना को प्रधानमंत्री का कद बढ़ाने में भी खूब इस्तेमाल किया गया और भाजपा के मंत्री और सांसद से लेकर मीडिया तक इन चीतों की खूबियों को मोदी के कल्ट से जोड़कर दिखाया गया।

शायद, उन्हें नहीं पता था कि नई परिस्थितियों में इन चीतों की जिंदगी कितनी अस्थिर और कमजोर साबित होने लगेगी। आज इन मरते चीतों के साथ चुप्पी का माहौल बन गया है और पर्यावरण और वन विभाग के अधिकारी, कर्मचारी और चिकित्सक इन्हें संरक्षित और विकसित करने के प्रयासों में लगे हुए हैं।

31 जुलाई, 2023 को सर्वोच्च न्यायालय में केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय और राष्ट्रीय बाघ प्राधिकरण ने अपने हलफनामे में बताया था कि, ‘कूनों में लाए गये चीतों का लगातार चेकअप किया जा रहा है। यहां अब तक 8 चीतों, जिसमें 5 वयस्क और 3 शावक हैं; में से किसी की भी मौत शिकार, जहर देने, एक्सीडेंड होने या करंट लगने जैसे अप्राकृतिक कारणों से नहीं हुई है।’ इस तरह, ये हुई मौतें प्राकृतिक हैं।

अब यदि ऊपर दी गई मौत की सूची का विवरण देखें, तो घायल होना, गर्दन पर घाव होना, गर्मी जैसे कारण दिखते हैं। इसमें घाव होने का एक कारण गर्दन में पहनाई गई रेडियो काॅलर बेल्ट है। इस सदंर्भ में, नामीबिया के विशेषज्ञों ने चेताया था कि बारिश में ये बेल्ट घाव बनने का कारण बन सकते हैं। सबसे बड़ी वजह गर्मी बताई गई है।

पर्यावरणविद् संजय कबीर बताते हैं कि ‘अफ्रीका में जून-अगस्त के बीच जाड़े का मौसम होता है। इससे निपटने के लिए वहां पाये जाने वाले चीतों में अतिरिक्त बाल, जिसे समूर कहा जाता है, उग आते हैं। यह चीते भारत में आने के बाद यहां के मौसम के अनुकूल नहीं हुए हैं। उनका बायोलाॅजिकल क्लाॅक अफ्रीका के अनुसार है। ऐसे में, जब भारत में उमस भरी प्रचंड गर्मी पड़ रही हो, तो ये जाड़ों को रोकने वाले बाल चीतों के स्वास्थ्य के लिए घातक साबित होंगे। संभव है, चीतों की मौत का एक बड़ा कारण यह भी हो।’

इस संदर्भ में, पीटीआई की ओर जारी विज्ञप्ति में विशेषज्ञों की राय बताई गई है कि बाल का मोटा आवरण, परजीवियों का बड़ा दबाव और नमी की वजह से कीड़ों का हमला चमड़ी पर हुए घाव की समस्या को कई गुना बढ़ा दे रहे हैं। घाव से बना संक्रमण चीतों के बैठने के दौरान रीढ़ की तरफ बढ़ता जाता है।

इस विज्ञप्ति में एक अधिकारी का वक्तव्य उद्धृत किया गया है जिसमें वह बताता है कि जिन चीतों के बाल की मोटाई कम है, वे इस तरह की समस्या से कम जूझ रहे हैं। ऐसे में यह एक प्राकृतिक चुनाव की स्थिति है। जो भारत की प्राकृतिक परिस्थिति से जूझ सकेंगे, वही बचेंगे। और, यह ‘विकास की समयावधि’ में दिखेगा।

यह ‘विकास की समयावधि’ कितनी होगी, स्पष्ट नहीं है। पीटीआई की विज्ञप्ति में 2011-2022 के बीच 364 स्थान परिवर्तन के केस के अध्ययन के हवाले से बताया गया है कि चीतों के संरक्षण और विकास में पर्यावरण और परिस्थितिकी एक बड़ी बाधा नहीं है।  हालांकि इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि उपरोक्त आंकड़ों में री-लोकेशन का क्षेत्र क्या था? पर्यावरण और मौसम में पिछले 5 हजार सालों में जो क्षेत्रीय विविधता बनी, वो कमोबेश स्थिरता बनाये हुए है। लेकिन इसके पीछे के समय में जाने पर इसमें हुए बदलाव बेहद  गुणात्मक और घातक थे। इसमें बहुत से जानवर ही नहीं, मनुष्य के करीब माने जाने वाली प्रजातियां भी लुप्त हो गईं।

मसलन हिमालय अपने शुरुआती दिनों में एक उष्ण-कटिबंधीय प्रदेश था, बाद में बारिश और हिम शीत का प्रभाव बढ़ने से जंगलों में कमी, नदियों के प्रवाह में बदलाव, मौसम में तीव्र परिवर्तन और ऊंचे शिखरों पर बर्फ जम जाने से जीवों की बहुत सी प्रजातियां खत्म हो गईं और बहुत सारी मैदानों में अनुकूल मौसम वाले इलाकों में बढ़ती गईं। यह एक प्राकृतिक अवस्था थी, जिसमें सैकड़ों साल लगे हैं। अनुकूलन की प्राकृतिक प्रक्रिया जीव के विकास की अवस्थाओं के साथ जुड़ा हुआ है।

ऐसे में, जीवों के संदर्भ में सबसे उपयुक्त स्थानान्तरण पर्यावरण के अनुकूल परिस्थितियों में रह रहे जानवरों का हो सकता है। यह स्थानान्तरण भी बेहद सतर्कता और लंबे अध्ययन और छोटे प्रयोगों के साथ करना ठीक रहता। इंडियन एक्सप्रेस की 3 अगस्त, 2023 की संपादकीय ऐसे प्रयासों का एक संदर्भ पेश किया है। इसके अनुसार 1952 में भारतीय चीतों के खत्म हो जाने की घोषणा कर दी गई। 1970 में इंदिरा गांधी ने ईरान के पर्शियन चीतों को भारत के शेरों के बदले लाने पर एक खुली बातचीत की शुरुआत किया। लेकिन यह मसला आगे नहीं बढ़ सका।

2009 में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार ने एक बार फिर इस दिशा में प्रयास किया। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, ‘विदेशी प्रजाति को लाने के पहले खूब विस्तार से वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए’। लेकिन, 2020 में अपने पूर्व निर्णय में कुछ सुधार कर चीता परियोजना को ट्रायल के आधार पर मंजूरी दे दी।

संपादकीय में बताया गया है कि चीता परियोजना पर दशकों से काम कर रहे वाई.वी. झाला जैसे वन्य जीव विज्ञानी, जिनके तत्वाधान में ये चीते नामीबिया से लाये गये, उन्हें सरकार के नये चीता टास्क फोर्स में जगह ही नहीं दी गई। दक्षिण अफ्रीका के वैज्ञानिको का आरोप है कि इस कार्यक्रम के प्रबंधकों का वैज्ञानिक ज्ञान ‘या तो थोड़ी या कोई जानकारी नहीं’ है और ये विदेशी विशेषज्ञ महज सुझावकर्ता में बदल गये हैं।

निश्चित रूप से साल भर भी अभी पूरा नहीं हुआ है और 40 प्रतिशत चीतों की मौत एक चिंता की बात है। नामीबिया के अधिकारी सुझाव दे रहे हैं कि विशेषज्ञों के साथ उचित संपर्क बनाकर रखा जाए। सर्वोच्च न्यायालय कह रहा है कि इसे नाक का सवाल न  बनाया जाये। और, इन चीतों को अन्य उपयुक्त स्थानों में स्थानान्तरित किया जा सकता है।

यहां कुछ ऐसे सवाल हैं, जो मीडिया रिपोर्ट में अनुत्तरित रह जा रहे हैं। पहला, वन अधिकारियों ने जिन ‘प्राकृतिक’ कारणों को चिन्हित किया है, उसमें घाव और बीमारियां हैं। ये इवोल्यूशन से अधिक देखभाल की जरूरत की मांग करता है। दूसरा, इवोल्यूशन से जुड़ा मसला, जिस पर वन अधिकारियों ने कम या गौण माना है। लेकिन, ऐसा लगता है कि यह पहले वाले कारण में सक्रिय भूमिका निभा रहा है।

इन दोनों ही परिस्थितियों से निपटने के लिए चीतों की निकट से देखभाल जरूरी है। पर्यावरणविद् संजय कबीर बातचीत में बताते हैं कि “शुरू के समय में जब चीते भारत लाये गये थे, उनकी देखभाल का काम बहुत करीब से किया गया और उन्हें चार किमी के दायरे वाले बाड़े में रखा गया था। उस समय ये मौतें नहीं देखी गईं।’ यह टिप्पणी निश्चित ही एक बेहद छोटी अवधि से हासिल अनुभव पर आधारित है, लेकिन जो रिपोर्ट और विशेषज्ञों की जो राय आ रही है उसमें यह टिप्पणी उपयुक्त लगती है।

लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यही है कि एक लुप्त होती प्रजाति को बचाने के लिए और भारत में इसे संरक्षित और विकसित करने के लिए भारत सरकार एशियाटिक चीतों की प्रजाति जो ईरान में पाई जाती है, उससे हटकर अफ्रीकी चीतों को यहां बसाने के निर्णय तक कैसे पहुंच गई? और, सर्वोच्च न्यायालय का अपेक्स कोर्ट अपने निर्णयों में बदलाव लाकर ‘प्रयोग’ के आधार पर इसे लागू करने की अनुमति तक कैसे और किन कारणों से पहुंच गया? जब गिर के शेर भारत के अंदर ही किसी और राज्य के जीव संरक्षण और  विकास की परियोजना का हिस्सा नहीं बन पा रहे हैं, तो अफ्रीका से ले आकर चीतों के संरक्षण और विकास की परियोजना किस तरह से बनी और लागू कर दी गई?

यह परियोजना निश्चित ही एक राजनीतिक निर्णय है और इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने शर्तों के साथ अपनी स्वीकृति दी है। निश्चित ही यह प्रयोग के स्तर पर है। लेकिन, जिस तरह से इसका प्रचार किया गया, वह जीव संरक्षण और विकास के ‘प्रयोग’ से अधिक एक  राजनीतिक प्रयोग में बदलता हुआ अधिक दिखा। इसे बिम्ब की तरह प्रयोग किया गया और कल्ट में बदलने का प्रयास हुआ। इस ‘प्रयोग’ से भारत की सर्वोच्च संस्थाएं जुड़ी हुई हैं और इसमें हमारा जीवों के प्रति विश्व दृष्टिकोण जुड़ा हुआ है।

यह महज एक जानवर की रोजमर्रा सी होने वाली मौत नहीं है। यह एक संप्रभु देश के निर्णय, दृष्टिकोण और उन प्रयासों के साथ जुड़ गया है जिसमें हम वन, जीव संरक्षण और विकास का दावा कर रहे हैं। इसमें हम एक दूसरे देश के साथ ही नहीं जुड़े हुए हैं, साथ ही उन विश्व के विशेषज्ञों के साथ भी जुड़े हुए हैं, जो हमारे देश की जैव विविधता को बनाये रखने, विकसित करने के प्रयासों में लगे हुए हैं। ये चीते ‘प्रयोगशाला के जानवर’ नहीं हैं। ये अब हमारी सर्वोच्च संस्थाओं के निर्णय के मानदंड में बदल गये हैं। इनका मरना इन निर्णयों पर गंभीर सवाल उठाता है।

पर्यावरणविद् संजय कबीर के शब्दों में, ‘महत्वाकांक्षा ही काफी नहीं होती। इसके लिए हमारी परिस्थिति, हमारे प्रयोग, हमारी तैयारी और सबसे अधिक खुला दिल और दिमाग होना चाहिए। खासकर, जीवों के संदर्भ में वैज्ञानिक चिंतन और उतनी संवेदना की जरूरत होती है। सिर्फ प्रोजेक्ट बना लेना काफी नहीं होता है। इसे जमीन पर उतारना हमारी पूर्व की तैयारियों, अनुभवों, आपसी सहयोग, वैज्ञानिक पद्धति और सबसे अधिक एक ईमानदार सोच पर ही निर्भर करता है। ऐसा लगता है कि इसमें कहीं कमी रह गई है।’

(अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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