मानसून में देरी और खरीफ पर सरकार की सब्सिडीः हकीकत कुछ, फसाना कुछ

6 जून, 2023 को कैबिनेट ने खरीफ की फसलों पर पिछले साल के मुकाबले समर्थन मूल्य बढ़ाने का फैसला लिया है। समर्थन मूल्य में यह बढ़ोत्तरी 5 से 10 प्रतिशत तक की है। यह घोषणा उस समय की गई है, जब मानसून एक हफ्ते से अधिक की देरी कर चुका है। पश्चिमी विक्षोभ और अलनीनो के भारत पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर पर्यावरणविद और खेती विशेषज्ञ लगातार चिंता व्यक्त कर रहे हैं, खासकर किसानी पर पड़ने वाले प्रभावों पर काफी कुछ कहा जा रहा है।

भारत में किसानी पर मौसम की मार एक निर्णायक तत्व बना हुआ है। फसल उत्पादन समयावधि में 10 से 15 दिन का मौसमी असर उत्पादन की क्षमता को काफी प्रभावित करता है। रबि की फसल पर फरवरी के अंत और मार्च के शुरूआती हफ्तों में अचानक बढ़े हुए तापमान और इसके साथ ही पश्चिमी विक्षोभ से होने वाली बारिश, ओला और तेज हवाओं ने किसानों का काफी नुकसान किया। खरीफ की फसल के संदर्भ में मानसून के अनियमित और देर से आने और होने की खबर काफी चिंतित करने वाली है। ऐसे में फसलों की खरीद समर्थन मूल्यों में वृद्धि किसानों को फसल उगाई के लिए जरूरत ही प्रेरित करेगी। लेकिन मौसम की वजह लागत में वृद्धि, उससे होने वाली वित्तिय जोखिम आदि को समर्थन मूल्य में की गई वृद्धि कितनी सहायक होगी, यह हमें आने वाले समय में ही पता चल सकेगा। 

समर्थन मूल्य में हुई वृद्धि के आंकड़ों को देखें, तो इसमें मूंग, तिल और कपास (बड़ी) पर दस प्रतिशत और मूंगफली, छोटी कपास पर लगभग 9 प्रतिशत की वृद्धि दिखाई देती है। धान, बाजरा, ज्वार, अरहर, सूरजमुखी, उड़द आदि पर लगभग 6 प्रतिशत की वृद्धि है। फसलों को पानी की जरूरत के अनुसार देखें, तो ऊपर की तीन फसलों को पानी की जरूरत बनी रहती है, लेकिन फसल में पानी का ठहराव नहीं रहना चाहिए। एक साथ खूब बारिश होने, बारिश न होने की समयावधि बढ़ने से इन फसलों के बीमार होने और पानी की कमी से उत्पादन कम होने का खतरा बढ़ जाता है।

बारिश की कमी के दौरान कपास खेत की उत्पादकता और नमी के क्षरण को बढ़ा देता है, जिससे खेत के बंजर होने की संभावना भी बढ़ जाती है। लेकिन, बाजार में तिलहन और मूंगफली के तेल की मांग तेज होने की वजह से इनके उत्पादन पर दबाव बढ़ा है। सब्सिडी की घोषणा बाजार की मांग के अनुरूप खेती पर जोर देने के साथ मिलता हुआ दिखता है। बाजार में न उतर पाने की स्थिति में सारा जोखिम किसानों के कंधे पर ही पड़ना है। पिछले 20 सालों के किसानी के आंकड़ों में इन जोखिमों से होने वाले नुकसान से हम अच्छी तरह से परिचित हैं। खासकर, कपास उत्पादक किसानों की आत्महत्या का डराने वाला आंकड़ा साल दर साल छपता ही आ रहा है, और यह एक नियमित खबर बन चुका है।

इस सब्सिडी घोषणा में जो चिंतनीय बात है, वह कम बारिश में होने वाली फसलों पर दिये जाने वाला समर्थन मूल्य है। ज्वार, बाजरा, मक्का, सूरजमुखी, अरहर, उड़द जैसी फसलें हैं। इन फसलों को पानी की कम जरूरत होती हैं, जबकि इनमें पोषण की क्षमता काफी है। सबसे कम सब्सिडी वृद्धि अरहर, सूरजमुखी और उड़द पर 5.30 से 6 प्रतिशत है। एक तरफ सरकार दलहन के मामले में आत्मनिर्भर होने का दावा कर रही है और उत्पादन के लक्ष्य के काफी करीब पहुंच चुकी है, वहीं इस मौसम में इस पर सबसे कम समर्थन मूल्य में वृद्धि की घोषणा काफी चौंकाने वाला है। उत्तर भारत के भोजन में अरहर की दाल का प्रयोग सबसे अधिक होता है। अरहर उत्पादन की समयावधि अन्य दलहनों के मुकाबले लंबा है, लेकिन यह कम बारिश में अच्छी फसल देने के उपयुक्त है। उत्तर-प्रदेश, बिहार, हरियाणा और पंजाब के कुछ इलाकों में अरहर का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता था।

जैसे जैसे सिंचाई की व्यवस्था बढ़ी और फसलों के उत्पादन में विविधता आई, अरहर का उत्पादन इन इलाकों से क्रमशः कम और कुछ इलाकों से लुप्तप्राय सा हो गया। 2000 के बाद से दलहन पर दोहरे समर्थन मूल्य की नीति से अरहर उत्पादन की वापसी शुरू हुई। 2014-15 से 2022-23 तक कुल उत्पादन की गिरावट और उठान के योग में अरहर का उत्पादन बढ़ता हुआ दिखता है। हालांकि भारत के कुल दाल उत्पादन में चना और मसूर का योगदान अरहर के मुकाबले अधिक है। भारत द्वारा कुल दलहन आयात का आंकड़ा दिखाता है कि 2016-17 में 60 लाख 61 हजार टन दाल आयात हुआ था, वहीं 2022-23 में यह घटकर 20 लाख 52 हजार टन हो गया। 

इन आंकड़ों से यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि भारत के सभी लोगों को दाल की आपूर्ति जरूरत के अनुसार हो रही है। बहरहाल, हम यहां मौसम और फसल के पैटर्न पर असर डालने वाली सरकार की समर्थन मूल्य नीति के बारे में बात कर रहे हैं। दलहन की फसल कपास जैसी फसलों के विपरीत कम कीटनाशक, खाद और पानी की मांग करती हैं। ये खेत की नाइट्रोजन के स्तर को बढ़ाने, नमी को बनाये रखने का काम करती हैं जिससे खेत की जैव-विविधता में वृद्धि होती है और आगामी फसल की उत्पादकता बढ़ जाती है। यह घरेलू बाजार में दाल की मांग को पूरा करने में अच्छी भूमिका निभा सकती है।

ऐसे में, यह सवाल बनता है कि सरकार ने घरेलू बाजार के अनुरूप दाल उत्पादन को बढ़ाने वाली समर्थन मूल्य की नीति का पालन क्यों नहीं किया। इसके कई सारे जबाब हो सकते हैं। अनाज के भंडारण, वितरण और मूल्य निर्धारण में देशी-विदेशी कंपनियों की जकड़बंदी सबसे मुख्य कारण है। भारत में पोषण, खासकर प्रोटीन और आयरन की कमी से कुपोषण की भारी समस्या बनी हुई है। देश में 80 करोड़ लोग सरकार के अनाज वितरण कार्यक्रम के ‘लाभार्थी’ होने की स्थिति में चले गये हैं।

ऐसे में सरकार को अनाज उपलब्ध कराने वाली एजेंसी और बाजार में खाद्यान्न बेचने वाली कपंनियां एक गठजोड़ बनाकर चल रही हैं। सरकार की नीतियों पर उनका प्रभाव होना एक तय बात है। खासकर, किसानों से खरीद के समय में मूल्यों में गिरावट किसानों को बर्बाद करती ही हैं, उन्हें निजी कंपनियों पर निर्भर होने के लिए भी बाध्य करती हैं। इसी तरह से, बाजार में बिक्री पर सरकारी निगहबानी महज मुद्रास्फीति को एक सीमा से आगे न बढ़ने देने से अधिक नहीं रह गई है। जिसकी वजह से एक आम आदमी की कमाई का बड़ा हिस्सा खाद्य पदार्थों के हिस्से में खर्च हो जा रहा है।

यह आम आदमी भविष्य की बचत के लिए अपने हिस्से का भोजन ही कम करने लगता है। बाजार में अनाज की उपलब्धता और उपभोग का फर्क हमें देश के गिरते स्वास्थ्य में परिलक्षित होता है। गजब यह है कि यह गिरता स्वास्थ्य भी अब बाजार बन गया है और इसके लिए सरकार विदेशी एजेंसी के माध्यम से खाद्यान्न वितरण कार्यक्रम में पोषण युक्त अनाज बांटने की मुहिम को अब आगे बढ़ा रही है। खरीफ फसल के लिए घोषित समर्थन मूल्य किसानों के लिए कम बाजार के लिए अधिक दिख रहा है। यह समर्थन मूल्य किसानों को मौसम से बचाने के लिए कम बाजार में ठेल देने के लिए अधिक है।

( अंजनी कुमार पत्रकार हैं।)

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