महाराष्ट्र की राजनीति में हाल के वर्षों के घटनाक्रम को देखते हुए भाजपा भले ही अपने रणनीतिक चातुर्य का दंभ भरे, और बहुत संभव है कि वह यह भी मान बैठी हो कि पार्टी की सफलता की राह को प्रशस्त करने के लिए महाराष्ट्र में पहले से मौजूद प्रतिस्पर्धी राजनीतिक वातावरण को ध्वस्त करने में ही उसका हित होने जा रहा है। लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति में जारी इस भारी उठापटक के चलते राज्य एक विचित्र सामाजिक एवं राजनीतिक संकट में घिर चुका है।
भाजपा के लिए, विभिन्न राज्यों में मौजूद उसके सहयोगी दल उसकी स्वंय की सफलता के लिए पायदान के तौर पर इस्तेमाल किये जाते रहे हैं, लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के उदय के बाद से तो नए आक्रामक तेवरों से लैस भाजपा ने राज्य में अपनी साझीदार पार्टी की सहयोगी भूमिका के तौर पर खुद को सीमित रखने से कत्तई इंकार कर दिया था।
लोकसभा की 48 सीटें और चहुंओर राजनीतिक अराजकता के माहौल की वजह से इस लोकसभा चुनाव के दौरान देश में अगर सबसे अधिक दिलचस्पी किसी राज्य के चुनावी घटनाक्रम और चुनाव परिणाम पर लगी हुई है, तो वह राज्य महाराष्ट्र है। पिछले दो लोकसभा चुनावों में भाजपा और शिवसेना का महाराष्ट्र पर पूरा दबदबा बना हुआ था। 2014 में दोनों पार्टियों को संयुक्त रूप से 48 प्रतिशत वोट हासिल हुए थे, जबकि 2019 में यह आंकड़ा पचास प्रतिशत पार कर गया था।
ऐसा राजनीतिक प्रभुत्व राज्य में मौजूद किसी भी राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के ढांचे को पूरी तरह से बदल डालने में सक्षम था। लेकिन लोकसभा की जीत ने इन दोनों पार्टियों की राज्य-स्तरीय महत्वाकांक्षाओं को भी सतह पर ला दिया। 1995 में पहली बार महाराष्ट्र में सत्ता का स्वाद चखने के बाद, भाजपा और शिवसेना दोनों ही इस बात से दुखी थे कि 1999 के बाद से महाराष्ट्र विधानसभा की सत्ता उनके लिए छलावा साबित हुई है। लेकिन जब 2014 और दोबारा 2019 में यह मौका आया, तो दोनों दलों की यही मंशा रही कि एक-दूसरे की कीमत पर वे इस मौके को ज्यादा से ज्यादा अपने पक्ष में भुना सकें।
जहां तक भाजपा का प्रश्न है, उसके लिए तो राज्यों की साझीदार पार्टियां अक्सर सीढ़ी से अधिक महत्व की नहीं रही हैं। लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आने के बाद तो नए आक्रामक तेवर अपना चुकी भाजपा के लिए अपने राज्य साझीदार दल के सहयोगी की भूमिका निभाने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था। वहीं दूसरी तरफ, शिवसेना के लिए दोनों संसदीय चुनावों में मिली अप्रत्याशित सफलता ने उसे आश्वस्त कर दिया था कि महाराष्ट्र में भाजपा को हावी होने देने के बजाय वह स्वंय नेतृत्वकारी भूमिका में बने रहने की हकदार है।
वर्ष 2019 में दोनों दलों के बीच गठबंधन टूटने की खबर ने राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरीं, लेकिन सच तो यह है कि 2014 की लोकसभा जीत के बाद से ही दोनों पार्टियां एक-दूसरे के साथ सहज महसूस नहीं कर रही थीं। 2014 के विधानसभा चुनाव के दौरान दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा, लेकिन चुनाव के बाद एक बार फिर समझौता कर लिया। इस प्रकार, कह सकते हैं कि महाराष्ट्र में प्रतिस्पर्धी राजनीति के स्वरुप में अस्थिरता की शुरुआत राज्य की राजनीति में 2014 से भाजपा के सबसे प्रमुख खिलाड़ी के रूप में अचानक से उदय के साथ शुरू हो गई थी।
यह प्रक्रिया 2019 के विधानसभा चुनावों के बाद भी बदस्तूर जारी रही। भाजपा की “स्मार्ट पॉलिटिक्स” का ही नतीजा शिवसेना और एनसीपी में विभाजन के रूप में देखने को मिला, जिसके चलते फड़णवीस और भाजपा महाराष्ट्र की राजनीति में अपनी वापसी करा पाने में सक्षम रहे। इस प्रकार, 2019 के बाद के घटनाक्रम पर नजर डालें तो शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस सरकार के पतन के बाद के दौर में पार्टियों के विखंडन और पुनर्गठन की प्रकिया अभी भी लगातार जारी है, जो राज्य के सामजिक एवं राजनीतिक परिवेश को बुरी तरह से प्रभावित कर रही है।
सवाल उठता है कि राज्य में खुद को एकमात्र सबसे प्रभुत्वशाली दल बनाने की प्रकिया में कैसे इन घटनाक्रमों ने स्वंय भाजपा को नुकसान की स्थिति में ला दिया है? सबसे पहली वजह यह है कि 2022-23 की साजिशों के बाद भी भाजपा के हाथ मुख्यमंत्री पद नहीं लग सका है। लेकिन इसके समर्थक इसी तथ्य से संतुष्ट रह सकते हैं कि महाराष्ट्र में वर्तमान में “महायुती” के पीछे उन्हीं की पार्टी असली ताकत थी और अभी भी असल में वही शासन कर रही है।
इस बात में कोई शक नहीं कि डिप्टी सीएम होते हुए भी देवेन्द्र फडनवीस ही असल में सुपर सीएम हैं। भाजपा के लिए दूसरा फायदा यह हुआ है कि राज्य स्तर की दो-दो मजबूत पार्टियों को तोड़ने के बाद अब उसके लिए अपनी जीत की राह को आसान बनाने के लिए पॉलिटिकल स्पेस आसानी से उपलब्ध हो चुका है।
विभाजन के बाद, एनसीपी और शिवसेना में दो-दो गुट बन चुके हैं, और दोनों पहले की तुलना में कमजोर हो चुके हैं। महायुती में शामिल एनसीपी-शिवसेना गुट अपनी मूल पार्टी से आगे निकलने की प्रतिद्वंद्विता में बुरी तरह से उलझे हुए हैं, जिसके कारण उनमें भाजपा को चुनौती देने की सामर्थ्य नहीं बची। इस प्रकार, इस नयी सेटिंग में राज्य स्तरीय राजनीतिक पार्टियों के लिए अभी तक जो पॉलिटिकल स्पेस की गुंजाइश बनी हुई थी, पर भाजपा के काबिज होने के मकसद से पूरी तरह से मेल खाता है।
लेकिन जहां तक मौजूदा लोकसभा चुनावों का प्रश्न है, इस तथाकथित राजनीतिक चतुराई के बावजूद भाजपा को कुछ फायदा होता नजर नहीं आ रहा है। राज्य सरकार के भीतर पहले से ही भाजपा को सीमित हिस्सेदारी के साथ संतोष करना पड़ रहा है, और सत्ता में अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए उसे अपने कई मंत्री पद के उम्मीदवारों को मंत्रिपरिषद से बाहर रखने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
इसी तरह अब लोकसभा चुनाव में भी उसे अपने दोनों गठबंधन साझीदारों से टिकटों में निपटान करते समय अपने कई वफादार और धुरंधर उम्मीदवारों को निराश करने का जोखिम भी उठाना पड़ रहा है, जिनकी चाहत मोदी की लोकप्रियता पर सवार होकर दिल्ली में सांसद बनने की थी। यही वजह है कि महायुति के भीतर सीट बंटवारे की बेहद जटिल प्रक्रिया अभी भी जारी है।
ऐसा जान पड़ता है कि भाजपा को इस बार अधिकतम 30 सीटों पर चुनाव लड़ने से ही संतोष करना पड़े, जो 2019 की तुलना में पांच सीटें अधिक होंगी। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या इससे पार्टी को पिछली बार हासिल 23 सीटों से अधिक सीटें हासिल करने में मदद मिलने जा रही है? या, इस तीन पार्टियों के गठबंधन और इसके उपजे तनावों की वजह से अपेक्षाकृत कम प्रभावी परिणाम मिलने जा रहा है?
ये सवाल भाजपा के लिए बेहद अहम हैं, क्योंकि जब तक महाराष्ट्र (और बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना) में उसके प्रदर्शन में सुधार नहीं आता, तब तक उसके लिए अपने पिछले प्रदर्शन में सुधार की गुंजाईश तो दूर रही, पार्टी अपनी 303 सीट वाले प्रदर्शन को भी कायम नहीं रखने जा रही है। यही वह महत्वपूर्ण बिंदु है, जो भाजपा के राष्ट्रव्यापी गेमप्लान के लिए महाराष्ट्र को बेहद महत्वपूर्ण राज्य बना देता है।
फिलहाल भाजपा राज्य में एक के बाद एक दो राजनीतिक दलों में दो-फाड़ कर उन्हें अशक्त बनाने में अपने रणनीतिक कौशल का दंभ भर रही है, या वह यह भी मान बैठी हो है कि महाराष्ट्र में उसकी सफलता की राह को पहले से मौजूद प्रतिस्पर्धी पैटर्न को ध्वस्त कर पार पाया जा सकता है। लेकिन महाराष्ट्र में हाल के वर्षों में जो उठापटक जारी है, उसने असल में राज्य के सामाजिक एवं राजनीतिक तानेबाने को ही छिन्न-भिन्न कर दिया है। राजनीतिक तौर पर देखें तो, मौजूदा पल एक पहेली बन चुकी है। किसी भी पार्टी के विभिन्न क्षेत्रों या विभिन्न समुदायों के बीच आधार को लेकर पारंपरिक चुनावी गुणा-भाग का कोई महत्व नहीं रह गया है।
हकीकत तो यह है कि इसे पूर्ण विखंडन और तरलता के क्षण के तौर पर देखा जाना चाहिए, जो लंबा खिंच सकता है। चूंकि कांग्रेस और एनसीपी की तुलना में भाजपा कहीं अधिक सीटों पर चुनाव लड़ रही है, इसलिए उसे उम्मीद हो कि उसका प्रदर्शन अच्छा रहने वाला है, लेकिन यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि कौन सी सामाजिक ताकतें किस पार्टी का समर्थन करने जा रही हैं। वास्तव में, ज्यादा संभावना इसी बात की है कि अधिकांश सामाजिक शक्तियों में विखंडन देखने को मिलने जा रहा है। नतीजे के तौर पर महाराष्ट्र राज्य की राजनीति में नए सिरे से पुनर्गठन एक तल्ख हकीकत बन चुकी है।
हालांकि, स्थिर राजनीति के पैटर्न को छिन्न-भिन्न करने के लिए कथित स्मार्ट राजनीति के तीन महत्वपूर्ण आयाम हैं, जो इस चुनाव के बाद भी राज्य की राजनीति पर मंडराते रहने वाले हैं। इसका असर चुनावी राजनीति पर ही नहीं बल्कि वास्तव में प्रदेश की राजनीतिक अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताने-बाने पर भी पड़ने जा रहा है। पहला असर, राजकीय पुलिस सहित राज्य की नौकरशाही के घोर राजनीतिकरण और उसके मनोबल को गिराने में देखने को मिल रहा है।
दूसरा, निर्णय लेने की प्रक्रिया को किसी भी नीतिगत दृष्टिकोण से पूरी तरह से अलग कर देने की शुरुआत हो चुकी है। और तीसरा है, सामाजिक ताने-बाने का अस्थिर हो जाना। जहां एक तरफ, समाज में सांप्रदायिकरण खतरनाक तरीके से सिर उठा रहा है, वहीं दूसरी ओर भाजपा और उसके वर्तमान सहयोगियों ने मराठा आरक्षण के मुद्दे को बेरुखी के साथ हैंडल किया है, वह मराठों के साथ धोखा है, जिससे ओबीसी समुदाय हतोत्साहित है, जिसके पास राज्य के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की कूव्वत है।
यहां पर बड़ा सवाल यह है कि महाराष्ट्र को जिस उथलपुथल में डाल दिया गया है, क्या थोड़े से राजनीतिक लाभ को हासिल करने के लिए इस सामाजिक और नीतिगत मूल्य को चुकता करना वाजिब है? विभिन्न राजनीतिक दलों एवं धड़ों के द्वारा अपनी-अपनी पकड़ को मजबूत बनाये रखने की खातिर पहले से विषाक्त माहौल को बढ़ाने का ही काम किया जा रहा है, और राजनीति करने के नाम पर राजनीति के पतन में अपना योगदान देने का काम किया जा रहा है।
भाजपा के पास जितनी समझ है, वह उसके हिसाब से राज्य में इस खतरनाक खेल को खेल रही है। महाराष्ट्र का हालिया अनुभव इस बात की गवाही देता है कि यह जरुरी नहीं कि चतुर राजनीति के माध्यम से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा अथवा सामाजिक सद्भाव का वातावरण पैदा किया जा सके।
(सुहास पलीशकर का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस से साभार लिया गया है। अनुवाद रविंद्र पटवाल ने किया है।)