तेलंगाना में कांग्रेस-बीआरएस की जंग: क्या अल्प बहुमत से KCR के ही सत्ता में आने की संभावना?  

तेलंगाना विधानसभा चुनाव के लिए मतदान 30 नवंबर 2023 के लिए निर्धारित है। राज्य में चुनावी अभियान पहले से ही जोर पकड़ चुका है। हालांकि, इस बार के चुनावी अभियान में जिस बात ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा है, वह है राज्य में कांग्रेस पार्टी के एक बार फिर से पुनर्जीवित होने की घटना।

लेकिन कांग्रेस के पुनर्जीवित होने का आधार क्या है? केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी होने के बावजूद यदि भाजपा के लिए पहले से भी अधिक सिमटते जाने के संकेत मिल रहे हैं और केसीआर के ‘तीसरे मोर्चे’ की कवायद और लोक-लुभावनवादी छवि होने के बावजूद यदि कांग्रेस के एक बार फिर से उठ खड़े होने के लिए आधार निर्मित हो रहा है, तो यह दिखाता है कि केसीआर शासन के खिलाफ कहीं न कहीं गुस्सा पनप रहा है।

यह तो साफ़ दिख रहा है कि के. चद्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) [पूर्व में तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस)] की सीटें पिछली बार की तुलना में कम होने जा रही हैं, लेकिन हैदराबाद में राजनीतिक पर्यवेक्षकों के बीच में इस बात को लेकर एक आम राय नहीं बन पा रही है कि क्या सीटों की संख्या इतनी नीचे जा भी सकती है कि बीआरएस को बहुमत हासिल कर पाने के आंकड़े से वंचित रह जाना पड़े।

इस बारे में जब ‘जनचौक’ की ओर से तेलंगाना में चर्चा की गई तो अधिकांश का मत था कि पूर्व की तुलना में बेहद कम एवं अल्प-बहुमत के साथ केसीआर के ही सत्ता में आने की संभावना नजर आ रही है। 

2018 में तेलंगाना चुनाव में बीआरएस ने विधानसभा की कुल 119 सीटों में से 88 पर जीत दर्ज की थी, और कुल वोटों में से उसके हिस्से में 47.4% वोट आये थे। 28.7% वोट के साथ कांग्रेस मात्र 19 सीटों पर ही जीत दर्ज कर सकी थी। इसका अर्थ हुआ कि केसीआर को सत्ता से बाहर करने के लिए कांग्रेस को केसीआर के वोट बैंक में से 10% से भी अधिक वोटों को अपने पक्ष में करना होगा।

चुनावी गुणा-भाग के लिहाज से देखें तो ऐसा कर पाना आमतौर पर बेहद कठिन है। अब तो चुनावी नतीजों से ही इस बात का पता चल पायेगा कि क्या वाकई सत्तारूढ़ केसीआर सरकार के खिलाफ लहर इतनी मजबूत थी कि उसके चलते इतने बड़े पैमाने पर वोटों में स्विंग देखने को मिला। 

ग्रामीण क्षेत्रों में केसीआर को समर्थन 

केसीआर के पक्ष में लोकप्रिय समर्थन के पीछे की मुख्य वजह ग्रामीण वर्गों के बीच उनको जारी मजबूत समर्थन है। इस समर्थन के पीछे तीन मुख्य वजहें हैं: पहली वजह यह केसीआर ही थे, जिन्होंने सबसे पहले किसानों को सीधे पैसे बांटने की शुरुआत की थी। इसमें राज्य में प्रत्येक कृषक परिवार को हर साल 10,000 रुपये की आर्थिक मदद की शुरुआत हुई, जो कि केंद्र की मोदी सरकार के अखिल भारतीय स्तर पर 6,000 रुपये सालाना मदद से काफी पहले शुरू हो चुकी थी।  

दूसरी वजह यह है कि केसीआर के शासनकाल के दौरान फसलों की सिंचाई के मामले में अभूतपूर्व विस्तार से किसानों में बेहद ख़ुशी है। 2014 में मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठने के बाद से ही, केसीआर सरकार ने पहले 8 वर्षों के भीतर ही राज्य में सिंचाई परियोजनाओं पर 1.61 लाख करोड़ रुपये खर्च किये हैं, जो किसी भी राज्य सरकार के लिए एक विलक्षण उपलब्धि कही जा सकती है।

इस अल्प अवधि में ही तेलंगाना में 2014-15 के कुल सिंचित कृषि भूमि 62.48 लाख एकड़ की तुलना में 2022-23 तक 135 लाख एकड़ भूमि को सिंचित क्षेत्र में शामिल कर लिया गया था। इसका अर्थ है 1 करोड़ से भी अधिक किसानों की आय में दोगुनी या तीन गुनी बढ़ोतरी करने में राज्य सरकार सफल रही। इसे यह भी पता चलता है कि बीआरएस के पीछे मजबूत कुलक (ग्रामीण धनी किसान) एकजुट खड़ा है।

तीसरी वजह है बड़े पैमाने पर पीने के पानी की योजना में निवेश के चलते ग्रामीण महिलाओं को भारी राहत पहुंची है। इस सूखी धरती पर, पहले उन्हें थोड़े से पानी के लिए भी पैदल चलकर लंबी दूरी तय करनी पड़ती थी। लेकिन अब उन्हें अपने घर के पास ही नल से पानी उपलब्ध है। इसकी वजह से केसीआर को बड़ा राजनीतिक लाभ हुआ है। ऐसे अनेकों आदिवासी बस्तियां एवं दलितों की रिहाइश हैं, जिन्हें पहली बार नल वाला पानी देखने को नसीब हुआ है, और इस एक चीज ने आदिवासी मतदाताओं के बीच में केसीआर के प्रति जबर्दस्त समर्थन को सुनिश्चित किया है। 

आदिवासी मतदाताओं पर किसका असर?

राज्य में आदिवासियों की संख्या तकरीबन 10% के आसपास है, जो चुनावी दृष्टि से अहम है। हालांकि आदिवासी आबादी प्रदेश के कुछ जिलों और पॉकेट्स में ही केंद्रित है, लेकिन इसी वजह से कई निर्वाचन क्षेत्रों में उनका वोट निर्णायक हो जाता है। उदाहरण के लिए, महबूबाबाद जिले की कुल आबादी में आदिवासियों की संख्या 37.8% हिस्से का प्रतिनिधित्व करती है। इसी प्रकार, नवनिर्मित भद्राद्री-कोठागुदम में वे 36.7 प्रतिशत, आदिलाबाद में 31.7%, मुलुगु में 29.3% और कोमारन-भीम जिले में 25.9% आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं।  

इसके अलावा, 12 विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं, जबकि 7-8 अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में भी चुनावी दृष्टि से एसटी आबादी निर्णायक साबित हो सकती है।

पूर्व में तेलंगाना में अनुसूचित जनजाति के लिए 6% आरक्षण की व्यवस्था थी। केसीआर सरकार ने 16 अप्रैल 2017 को तेलंगाना विधानसभा में एक विधेयक पारित कराकर इसे बढ़ाकर 10% कर दिया है। आदिवासियों के केसीआर के पक्ष में खड़े होने की यह एक प्रमुख वजह है। इसके अलावा, बस्तर और कांकेर में जिस तरह माओवादियों का प्रभुत्व है, उसी तरह यहां भी एससी एवं एसटी प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में माओवादियों का केसीआर के साथ गुप्त समझौता होने के कारण केसीआर के पक्ष में वोट पड़ते हैं।

राज्य में अनुसूचित जाति के लिए 20 सीटें आरक्षित हैं। इसके साथ ही कुछ अतिरिक्त पॉकेट में भी दलित आबादी बड़ी संख्या में होने के कारण करीब 30 सीटों पर दलित वोट चुनावी परिणाम को निर्णायक बना देते हैं। हालांकि तेलंगाना में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति समुदाय की ओर से किसी एक राजनीतिक पार्टी के पक्ष में एकतरफा मतदान नहीं किया जाता, और यहां मतदाता राजनीतिक रूप से बंटा हुआ है, फिर भी केसीआर ने आदिवासियों के बीच में बड़ा जनाधार बना रखा है, जबकि दलितों के बीच में उन्हें इसकी तुलना में कुछ कम समर्थन हासिल है।

दलित वोट

2014 में तेलंगाना में ‘समग्र कुटुंब सर्वेक्षण’ के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में अनुसूचित जाति कुल आबादी का 17.53% है, लेकिन सभी जिलों में यह समान रूप से नहीं है। मन्चरिअल में वे आबादी के 24.72% हिस्से, नगरकुरनूल में 21.32% और जनगांव में 21.15% हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन जिलों के विधानसभा क्षेत्रों में जीत के लिए दलित मतदाताओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। तेलंगाना के 33 जिलों में से 9 जिलों में दलित आबादी 20% से भी अधिक संख्या में है, जो इस बात को रेखांकित करता है कि राज्य में क्यों दलित भी एक प्रमुख राजनीतिक ताकत हैं।

बहुसंख्यक अनुसूचित समुदाय केसीआर के साथ है, लेकिन कांग्रेस के पास भी दलितों के बीच में कुछ आधार बचा हुआ है। मुख्यतया इसी पारंपरिक आधार के बल पर ही कांग्रेस एक बार फिर से तेलंगाना में पुनर्जीवित हो रही है। तेलंगाना राज्य आंदोलन में ब्राह्मण, रेड्डी और अन्य उच्च जातियों का प्रभुत्व रहा है, और इसी वजह से दलित इससे कुछ हद तक कटे रहे। लेकिन केसीआर ने अपनी लोकलुभावन योजनाओं के माध्यम से दलितों के अच्छे-खासे हिस्से को अपने पक्ष में करने में सफलता हासिल कर ली थी। इसके बावजूद, वे कांग्रेस की वापसी और पुनर्जीवन के लिए प्रमुख साधन बने हुए हैं।    

महंगाई भी एक वजह है जिसने एससी-एसटी समुदाय को नाराज किया हुआ है। हैदराबाद (जिसे साइबराबाद नाम से भी जाना जाता है) में आईटी एवं अन्य हाई-टेक उद्योगों की चकाचौंध के बावजूद दलितों के लिए सफाई कर्मी या चपरासी की नौकरी के सिवाय रोजगार के अवसर बेहद सीमित बने हुए हैं।

विख्यात लेखक कैरोल उपाध्याय ने आईटी इंडस्ट्री में कार्यरत श्रमिकों की जातिगत संरचना पर सर्वेक्षण किया था, जिसे (19 मई 2007 में ईपीडब्ल्यू द्वारा प्रकाशित किया गया था, और इसे यहां पर देखा जा सकता है। जो दर्शाता है कि सर्वेक्षण में शामिल भारतीय आईटी श्रमशक्ति में उच्च जातियों का प्रतिनिधित्व 71% तक बना हुआ है।

हालांकि केसीआर ने दलित बंधु स्कीम का शुभारंभ किया है, जो दलित युवाओं के बीच प्रमुख आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। इस योजना के तहत अपना व्यवसाय शुरू करने के लिए दलित व्यक्ति 10 लाख रुपये पाने का हकदार है। हालांकि, दलितों की करीब 55 लाख आबादी में से मात्र 38,000 दलितों को ही इस योजना का लाभ मिल सका है। इसलिए, कहा जा सकता है कि दलितों को स्थायी समर्थन सुनिश्चित करने के बजाय इस योजना ने उनके बीच में भ्रम को ही उत्पन्न करने का काम किया है। 

ग्रामीण तेलंगाना में दलितों के बीच में मुख्य समस्या भूमिहीन बने रहने की बनी हुई है। केसीआर सरकार ने कुछ दलित परिवारों को भूमि की खरीद के लिए 7 लाख रुपये देने की घोषणा की है, लेकिन इतनी मामूली रकम से सिर्फ एक एकड़ जमीन ही खरीदी जा सकती है, और वो भी कोई सिंचित भूमि नहीं बल्कि सूखी बंजर धरती का ही मालिकाना हासिल हो सकता है। इसलिए एक एकड़ खेती के लिए अयोग्य भूमि पर खेती करना आर्थिक तौर पर अव्यवहार्य ही नहीं बल्कि ऐसे परिवारों को ऋणग्रस्तता की स्थिति में डाल रहा है।

सरकार ने भी जमीन की प्रत्यक्ष खरीद कर दलित परिवारों के बीच में इसका वितरण करने का प्रयास किया है, लेकिन पिछले 9 वर्षों में तेलंगाना सरकार सिर्फ 17,097 एकड़ जमीन ही अधिग्रहित कर 6,998 दलित लाभार्थियों को वितरित कर पाई है। एक ऐसे राज्य में जहां पर दलितों की आबादी 55 लाख के आसपास है, को बेहद मामूली और प्रतीकात्मक ही कहा जा सकता है।

माओवादियों एवं सीपीआई (एमएल) के विभिन्न धड़ों के द्वारा जितनी मात्रा में जमींदारों से जमीन छीनकर गरीब किसानों के बीच में वितरित किया गया था, उसकी तुलना में राज्य सरकार ने बेहद मामूली हिस्सा ही वितरित किया है। केसीआर सरकार ने भूमि वितरण के कार्यक्रम को बड़े ही धूमधाम के साथ शुरू किया था, लेकिन कुल जमा परिणाम यह है कि न तो इससे माओवादी प्रभाव क्षेत्र में कोई असर पड़ा है और न ही दलितों की माली हालत में कोई गुणात्मक बदलाव लाया जा सका है। 

शहरी क्षेत्रों में सरकार विरोधी लहर

केसीआर सरकार के खिलाफ यदि कहीं थोड़ी-बहुत असंतोष का स्वर उठ रहा है, तो यह प्रमुखतया शहरी मतदाताओं के बीच में देखने को मिल रहा है। लेकिन यह परिघटना भी मुख्य रूप से वारंगल, करीमनगर और निज़ामाबाद जैसे छोटे शहरों में बनी हुई है। शहरी मतदातों में से विशेषकर छोटे शहरों के बीच में कुछ नाराजगी बनी हुई है। लेकिन इसकी वजह से सत्तारूढ़ दल के खिलाफ कोई मजबूत लहर खड़ी नहीं हो सकी है।

सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ मौजूदा चुनावी अभियान में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी भी एक प्रमुख कारक बनी हुई है।

लेकिन हैदराबाद में जिस प्रकार से आईटी एवं अन्य हाई टेक इंडस्ट्रीज का बड़े पैमाने पर विस्तार हुआ है, जिसका परिणाम है कि इसने बेंगलुरु तक को पछाड़ दिया है, की वजह से मध्य वर्ग केसीआर सरकार के पक्ष में है। लेकिन यहां पर मुश्किल यह है कि वह वोट देने के लिए घर से बाहर नहीं निकलता। निम्न वर्ग द्वारा बड़ी तादाद में मतदान किया जाता है, जो महंगाई की मार से बुरी तरह से पीड़ित है। कोविड-19 महामारी के प्रभाव को लेकर जमा गुस्सा भी आम लोगों में बना हुआ है।

प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद

तेलंगाना की राजनीति को प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद से भी परिभाषित किया जा सकता है। भले ही आंध्र प्रदेश और तेलंगाना विभाजन को हुए नौ वर्ष बीत चुके हैं, और दोनों स्वायत्त राज्यों के तौर पर स्वतंत्र रूप से कार्य कर रहे हैं, और एक राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी की दूसरे राज्य में मामूली उपस्थिति है, इसके बावजूद दोनों राज्यों की सत्ताधारी पार्टियों के बीच में प्रतिस्पर्धा आज भी जिंदा है। किसी एक राज्य में अगर कोई लोकलुभावन नीति लागू की जाती है तो झट से दूसरे राज्य में इसी प्रकार के उपायों के लिए मांग जोरशोर से उठने लगती है।

आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी ने लोकलुभावनवाद को एक नई ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया है, तो तेलंगाना में केसीआर साबित करना चाहते हैं कि वे भी किसी से कम नहीं हैं। यदि जगन रेड्डी ने आंध्र प्रदेश में किसी भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति और ओबीसी छात्रा जो विदेश में जाकर पढ़ना चाहती है, के लिए 20 लाख रुपये की सहायता राशि को मंजूरी दे रखी है, तो केसीआर ने भी तेलंगाना में इससे मिलती-जुलती योजना लागू की है।

2021 में जहां तेलंगाना में इस योजना से 3676 विद्यार्थियों को लाभ पहुंचा है, उसकी तुलना में आंध्र में यह संख्या काफी कम है, जहां इस वर्ष 27 जुलाई तक मात्र 357 विद्यार्थियों ने ही विदेशी शिक्षण संस्थाओं में फीस का भुगतान हासिल किया है। 

केसीआर द्वारा 15 अक्टूबर 2023 को जारी चुनावी घोषणापत्र में उनके लोकलुभावन नीतियों की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। बीपीएल परिवारों के लिए 400 रुपये में गैस सिलिंडर और वरिष्ठ नागरिकों, विधवाओं एवं विकलांगों के लिए प्रतिमाह पेंशन को 2000 रुपये से बढ़ाकर 6,000 रुपये करने और सभी के लिए 15 लाख रुपये की स्वास्थ्य बीमा योजना की घोषणा इसका एक नमूना है।

यहां तक कि लोकलुभावनवादी प्रतिस्पर्धा तेलंगाना के भीतर भी शुरू हो चुकी है। हालांकि कांग्रेस की ओर से औपचारिक तौर पर घोषणा पत्र आना शेष है, लेकिन उससे पहले ही सोनिया गांधी ने अपने चुनावी भाषण में महिलाओं को प्रति माह 2,500 रुपये की आर्थिक सहायता, 500 रुपये में एलपीजी सिलेंडर, तेलंगाना राज्य सड़क परिवहन निगम की बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त बस सेवा की घोषणा कर दी है।

तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने भी संकेत दिया है कि कांग्रेस की ओर से केसीआर द्वारा अब तक किसानों को प्रति वर्ष 10,000 रुपये की सहायता राशि को बढ़ाकर 15,000 रुपये किया जायेगा। इतना ही नहीं, पार्टी की ओर से यह भी वादा किया जा रहा है कि अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अल्पसंख्यक समुदाय की लड़कियों की शादी के मौके पर उन्हें 10 ग्राम सोना दिया जायेगा।

क्षेत्रवाद का चोंगा 

चूंकि केसीआर अलग तेलंगाना राज्य आंदोलन के प्रमुख नेतृत्वकारी शक्ति के बतौर रहे हैं, ऐसे में मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही उन्होंने क्षेत्रवाद के आवरण को ओढ़ रखा है। लेकिन वे कांग्रेस को क्षेत्रीय हितों से विरत एक अखिल भारतीय पार्टी के रूप में प्रोजेक्ट कर पाने में विफल रहे हैं। आखिरकार यह सोनिया गांधी ही थीं, जिन्होंने अलग तेलंगाना राज्य की मांग को मंजूरी दी थी, और इसी की वजह से उनके हाथ से आंध्र प्रदेश भी जाता रहा।

इसके विपरीत बीआरएस की ओर से भारत में एकात्म ढांचे को चुनौती देने वाले अलग विशिष्ट संघात्मक एजेंडे को लेकर आने में सफलता नहीं मिल सकी है। उनके पास डीएमके, ममता, पिन्यारी और केजरीवाल के साथ सिर्फ प्रतिस्पर्धी क्षेत्रवादी जुमलेबाजी बची है।

वहीं दूसरी तरफ, भाजपा का एजेंडा पूरी तरह से सांप्रदायिक बना हुआ है, जिसमें मुख्य तौर पर एआईएमआईएम को निशाने पर लेकर बीआरएस के साथ इसके समीकरण को साधने की कोशिश की जा रही है। तेलंगाना में बीआरएस और एआईएमआईएम ने अपनी चुनावी रणनीति को बिठा रखा है, जिसमें हिंदू वोटों में सेंधमारी करने के लिए लोकप्रिय हिंदू उम्मीदवार को चुनावी मैदान में उतारकर वोट काटने की तैयारी है, अन्यथा वे वोट भाजपा के पक्ष में जा सकते हैं।

उन निर्वाचन क्षेत्रों में जहां पर एआईएमआईएम चुनाव नहीं लड़ने जा रही है, वहां पर अपने मुस्लिम आधार में बीआरएस के पक्ष में मतदान करने की अपील की जायेगी। केसीआर के द्वारा भाजपा-विरोधी कड़ा रुख अपनाने की वजह से कांग्रेस के लिए तेलंगाना में मुस्लिम मतों पर एकाधिकार संभव नहीं है। ऐसे में मुस्लिम मतों में विभाजन होना है। दूसरी तरफ, भाजपा के सिर्फ सांप्रदायिक राजनीति पर जोर के परिणामस्वरूप उसकी भूमिका इस चुनाव में एक मामूली ताकत के रूप में रह गई है।

सही मायने में एक द्वि-ध्रुवीय मुकाबला

वैसे तो कहने के लिए तेलंगाना चुनावों को त्रिकोणीय मुकाबला कहा जा रहा है, लेकिन भाजपा के हाशिये पर चले जाने की वजह से सही मायने में यह चुनाव बीआरएस और कांग्रेस के बीच में सिमटकर द्वि-ध्रुवीय हो गया है। 25 अक्टूबर 2023 को एबीपी-सी वोटर के चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण में जारी निष्कर्षों के अनुसार, बीआरएस 43 से 55 सीट, कांग्रेस 48 से 60 सीट और भाजपा के पक्ष में 5 से 11 सीटों का पूर्वानुमान लगाया गया है।

यहां पर महत्वपूर्ण यह है कि कांग्रेस के पक्ष में 39% वोट का अनुमान लगाया जा रहा है, जबकि बीआरएस के मत प्रतिशत में बड़ी गिरावट के साथ उसे 37% वोट मिलते दिखाया गया है। फिलहाल शुरुआती रुझान में कांग्रेस को हल्की बढ़त मिलती दिख रही है। हालांकि, एक महीने तक चलने वाले चुनावी अभियान के बाद जाकर देखना होगा कि क्या इसमें कोई बदलाव होता है या नहीं। कुलमिलाकर इस बार के चुनाव में बेहद कांटे की टक्कर होने की उम्मीद है। 

(बी.सिवरामन स्वतंत्र शोधकर्ता हैं। [email protected] पर उनसे संपर्क किया जा सकता है।)

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