भारत का नीतिगत ढांचा असमानता पर केंद्रित नहीं: अभिजीत बनर्जी और एस्थर दुफ्लो

इंडियन एक्सप्रेस की ओर से उदित मिश्रा ने 2019 नोबल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी और एस्थर दुफ्लो से बातचीत की है, जिसका अनुवाद और संदर्भ इस रिपोर्ट में देने की कोशिश की गई है। वर्ष 2003 से द अब्दुल लतीफ़ जमील पावर्टी एक्शन लैब (J-Pal) के सह-संस्थापक रहे अभिजीत एवं एस्थर दुफ्लो (फ्रेंच-अमेरिकी) दंपत्ति ने पिछले 20 वर्षों में इस संस्था में दुनियाभर के 194 प्रोफेसरों और इतनी ही संख्या में अतिथि प्रोफेसरों के नेटवर्क को विकसित किया है।

जे-पल के डेटाबेस में आज तकरीबन 998 प्रोजेक्ट्स पूरे कर लेने का खजाना है, जिसे 84 देशों में लागू किया जा रहा है। इस उपक्रम की सफलता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दुनिया के करीब 45 करोड़ लोगों को इसका फायदा पहुंचा है।  

भारत में नीतिगत आधार पर सबसे बड़ी चुनौती शिक्षा और रोजगार के मुद्दे पर अपने जवाब में अभिजीत बनर्जी और एस्थर दुफ्लो ने एक-एक कर जवाब दिया है:-

प्रश्न: भारत में गरीबी को लेकर दो समानांतर विचार बने हुए हैं। एक मत यह है कि भारत में बेहद गरीबी की स्थिति को पूरी तरह से समाप्त किया जा चुका है। वहीं दूसरा मत है कि कोविड-19 महामारी के बाद देश में गरीबी बढ़ी है। इस बहस के तेज होने की एक बड़ी वजह यह भी है कि वर्ष 2011 के बाद से हमारे यहां गरीबी के आंकड़े मौजूद नहीं हैं। भारत में अत्यधिक निर्धनता के बारे में आपके विचार क्या हैं?

एस्थर दुफ्लो: आंकड़ों के अभाव में इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। यह कुछ ऐसा है कि इसके अभाव में ठीक-ठीक नीतिगत योजना का निर्धारण भी कर पाना कठिन है, क्योंकि किसी समस्या का हल खोजने के लिए यह पता चलना निहायत आवश्यक है कि क्या चल रहा है।

अभिजीत बनर्जी: यहां तक कि जो दूसरे आंकड़े भी उपलब्ध हैं, उनसे और भी अस्पष्टता बनती है। इसलिए भी आधिकारिक सर्वेक्षण की जरूरत बढ़ जाती है, जो विश्वसनीय होने के साथ साथ राजनीतिक हस्तक्षेप के बगैर हों। प्रत्येक देश में ऐसे आंकड़े उपयोगी हैं।

एस्थर दुफ्लो: भारत में लंबे समय से नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन, एनएसएस की शानदार परंपरा रही है। हमारे पास नियमित रूप से बेहद नियमित डेटा और साथ ही सतत सैंपलिंग का ढांचा मौजूद था।

प्रश्न: नीति आयोग और केंद्र सरकार के द्वारा बहुआयामी गरीबी सूचकांक को पूर्व के खपत आधारित आंकड़ों से स्थानापन्न कर आम बहस में इस्तेमाल करने को क्या आप बेहतर विकल्प कहेंगे? 

अभिजीत बनर्जी: अब चूंकि खपत के आंकड़े हमारे पास नहीं हैं, ऐसे में इसका इस्तेमाल बेहतर कहा जा सकता है। कम से कम इसके माध्यम से आप शिशु मृत्युदर, मातृत्व मृत्युदर इत्यादि के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं, जिसे नेशनल फॅमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) जैसी संस्था से विश्वसनीय तरीके से हासिल किया जा सकता है। इसलिए, एक प्रकार से जबतक हमारे पास खपत को लेकर विश्वसनीय और पारदर्शी आंकड़े उपलब्ध नहीं हो रहे हैं, तब तक इसे सही दिशा में कहा जा सकता है।

प्रश्न: भारत में अतिशय निर्धनता को खत्म करने के लिए डायरेक्ट कैश ट्रान्सफर और राशन वितरण जैसे माध्यमों से विकास की उम्मीद कर सम्पन्नता की उम्मीद देखी जा रही है। आपके J-pal के प्रयोग के आधार पर यह प्रयोग कहाँ तक सफल रहा?

अभिजीत बनर्जी: तथ्य तो यही बताते हैं कि मनरेगा योजना ने काम किया है। ऐसे कई मूल्यांकनों में देखने को मिला है कि इससे गरीबी दूर हुई है। मैंने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को प्रत्यक्ष तौर पर तो नहीं देखा है, लेकिन पीडीएस ने भी गरीबी कम करने में मदद की है।

लेकिन पीएम आवास योजना या उज्ज्वला योजना जैसी लक्षित योजनाओं के बारे में ठोस रूप से कह पाना कठिन होगा क्योंकि इनके बारे में ठीक-ठीक नहीं पता है कि ये किसे हासिल हो रही हैं। यदि वे सच में गरीबी दूर करने को लेकर हैं, या राजनीतिक रूप से किसी स्थिति में घुसपैठ करने का प्रयास है, जहां पर बड़े पैमाने पर असमानता मौजूद है और लोगों में आक्रोश है।

प्रश्न: पिछले कुछ वर्षों के दौरान गरीबी कम करने की जगह असमानता का मुद्दा ज्यादा महत्वपूर्ण हो चला है। क्या आज असमानता का मुद्दा ज्यादा बड़ी चिंता का विषय बन गया है?

अभिजीत बनर्जी: एक चीज जो बेहद स्पष्ट है वह यह है कि हमारी राष्ट्रीय नीति असमानता पर केंद्रित नहीं है। इसको लेकर कोई वास्तविक बहस नहीं चल रही है। आंशिक रूप से यह एक बयान भर है, कि इस बारे में आपके क्या विचार हैं और असमानता पर बहस क्यों महत्वपूर्ण है? इसे सिद्धांत का स्वरूप देने की जरूरत है।

यह स्पष्ट नहीं है कि चीजें बेहतर हुई हैं अथवा बदतर हुई हैं, क्योंकि संभवतः अतीत में आर्थिक असमानता काफी सीमित स्तर पर बनी हुई थी, लेकिन सामाजिक असमानता तो जाति एवं वर्ग के रूप में बड़े पैमाने पर मौजूद रही है। संभवतः हिंसा और असमानता कुछ हद तक कम हुई है। राजनीतिक व्यवस्था पहले से अधिक उत्तरदायी हुई है।

यदि असमानता की मुख्य वजह ताकत का दुरूपयोग था, तो साफ़ तौर पर नहीं कहा जा सकता है कि चीजें पहले से बेहतर हुई हैं या इसके उलट हुआ है। विभिन्न माध्यमों के माध्यम से कहा जा सकता है कि सत्ता आज ग्रामीण भू-स्वामियों के हाथ से शहरी व्यवसायियों के हाथ में चली गई है।

लेकिन तब आपके पास बिल्कुल ही अलग सिद्धांत होना चाहिए। असमानता एक सामाजिक तंत्र है, जो सामाजिक गतिशीलता में कमी को दर्शाता है। पूर्व में सरकारी स्कूल भी अच्छे हुआ करते थे, और यदि आप गरीब घर के होनहार विद्यार्थी हुए तो भी आपके लिए अवसर की उपलब्धता मौजूद थी। लेकिन अब यह कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। इसे ठीक करने के लिए कुछ उपाय भी हुए हैं।

उदाहरण के लिए दिल्ली में स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार के बहादुराना प्रयास किये गये हैं। लेकिन तथ्य यह है कि आमतौर पर हर कोई सार्वजनिक स्कूलों से बाहर निकल रहा है। हकीकत यह है कि धनी लोगों के लिए कोई भी चीज को हासिल कर लेने पर सोचना नहीं पड़ता है, जिसका अर्थ है कि बाकियों को अनुचित प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है।

इसलिए सामाजिक गतिशीलता के माध्यमों तक पहुंच बनाने की चाह रखते ही आपको एक अलग प्रकार की असमानता का सामना करना पड़ता है। धनी लोग अपने बच्चों पर इस हद तक जाकर निवेश कर सकने की काबिलियत रखते हैं, जो बाकियों के लिए कल्पनातीत है।  

इसके अलावा भी गैर-बराबरी के स्वरूप हैं, जिनके बारे में हम बात नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए गरीब बच्चों के पास खेलने की जगह या हरा-भरा वातावरण उपलब्ध नहीं है। लोग कैसे बड़े होते हैं या उनकी मनोदशा पर इन सब बातों का दूरगामी प्रभाव पड़ता है.

इसलिए सबसे पहले हमें साफ-साफ़ इस बारे में बोलना पड़ेगा: असमानता को लेकर वह कौन सी चीज है जो हमारी परेशानी का कारण बनी हुई है? सामाजिक गतिशीलता के लिहाज से स्कूल सबसे अहम हैं, इसके बावजूद जो सबसे अच्छे प्राइवेट स्कूल हैं, वे महंगे और महंगे होते जा रहे हैं, जो धनिकों के विशेसाधिकार को बनाये रखने के लिए मददगार साबित हो रही है, जो कि राष्ट्रीय हित के विपरीत है।

प्रश्न: शिक्षा के प्रश्न पर दो प्रमुख चिंताएं- परिणामों में सुधार एवं रोजगार के लिए अयोग्यता बनी हुई है। भारत में इस बारे में नीतिगत परिदृश्य को आप कैसे देखते हैं?

दुफ्लो: शैक्षणिक परिणामों में सुधार की गति बेहद धीमी बनी हुई है। विशेषकर जब हमारे भीतर यह बात पैठ चुकी है कि प्राथमिक शिक्षा के लिए यह राकेट साइंस नहीं है। जबकि असल बात है बुनियादी शिक्षा पर पूरी तरह से फोकस करने की, और तब तक प्रयास करते रहने की जरूरत है जब तक हर बच्चा एक-एक बुनियादी चीजों को पूरी तरह से आत्मसात न कर ले।

सरकारी स्कूलों में इसे बड़े पैमाने पर साबित भी किया जा चुका है। इसे यूपी के कुछ बेहद खराब स्कूलों में भी संभव करके के दिखाया जा चुका है। इसलिए यह जानते हुए भी कि समाधान बेहद आसान है, समाधान को अपनाने की ओर उठने वाले कदम बेहद सुस्त हैं।

अभिजीत बनर्जी: माध्यमिक और वरिष्ठ-माध्यमिक शिक्षा के बारे में हमें ज्यादा जानकारी नहीं है। रोजगारपरकता को लेकर दो मुद्दे हैं।

पहला मुद्दा है, शिक्षाशास्त्र को अक्सर इस प्रकार से रूपांकित किया जाता है कि छात्रों की उत्सुकता का शमन कर दिया जाता है। उनके भीतर अपने तरीके से सोच-विचार करने या अपने तरीके से चीजों का समाधान तलाशने का दरवाजा बंद कर दिया जाता है। उगांडा में हमारे प्रयोग से यह तथ्य निकलकर आया था कि बच्चों को अगर खुद से सोचने के लिए प्रेरित किया जाये तो उसके बेहद आशातीत परिणाम मिलते हैं।

इस प्रयोग में बच्चों को ऐसे शिक्षाशास्त्र से परिचय कराया गया, जो उन्हें स्वंय से सोचने के लिए प्रोत्साहित करता था, जिसके परिणामस्वरूप बच्चों के परीक्षा में उत्तीर्ण होने का प्रतिशत 50 से बढ़कर 75 हो गया था। इसलिए, ऐसा शिक्षाशास्त्र जो टॉप-डाउन दृष्टिकोण के तहत बच्चों को स्वंय सोचने से दूर रखता है, नुकसान पहुंचा रहा है।

रोजगारपरकता का एक अन्य पहलू उम्मीद भी कारक है। बहुत से युवाओं की आस की वजह उनके माता-पिता हैं, जिन्हें अपनी पीढ़ी में मिली शिक्षा से काफी कुछ मिल गया था, और वे नौकरी पाने में कामयाब रहे। उनके बच्चों को भी नौकरी की उम्मीद रहती है।

भारत में सरकारी नौकरी के प्रति आसक्ति भाव उल्टा प्रभाव डाल रही है। लोग अपने जीवन के 6-7 वर्ष काम करने के बजाय परीक्षाओं में बैठकर नौकरी पाने की आशा में ख्रर्च कर दे रहे हैं, और उसके बाद अन्य नौकरियों में भी विफलता हाथ लग रही है।

भारतीय श्रम शक्ति हिस्सेदारी के आंकड़े बेहद अजीबोगरीब हैं। अचानक से 30 वर्ष तक आते-आते सभी लोग रोजगारशुदा हैं। यह इस तथ्य को दर्शाता है कि सरकारी नौकरी के प्रति जूनून किस प्रकार हमारी उत्पादकता को गहरे स्तर तक प्रभावित कर रहा है। लोग दूसरे तरह की नौकरियों की चाह नहीं रखते। हमने ट्रेनिंग प्रोग्राम में इस तथ्य को देखा है। इसमें लोगों को प्रशिक्षित किया गया।

लेकिन फिर पाया कि लोगों ने जो प्रशिक्षण हासिल किया, उससे संबधित नौकरियों के प्रति उनकी उत्सुकता नहीं है। इसलिए रोजगारपरकता का मुद्दा सिर्फ कौशल से नहीं जुड़ा है, यह दृष्टिकोण का मसला है। और हमारी सामाजिक धारणा कुछ इस प्रकार की बन गई है, जिसमें दृष्टिकोण बड़े पैमाने पर विकृत हो चुके हैं।

प्रश्न: इस उम्मीद पालने के मुद्दे को कैसे हल किया जा सकता है?

अभिजीत बनर्जी: इसके दो पहलू हैं। एक, सरकार अपने दायरे में विस्तार देकर नौकरियों की संख्या को बढाये, भले ही उन्हें उन सेवा-शर्तों पर न रखे जितनी संख्या में उसे लोगों की दरकार है। उदाहरण के लिए चीन में, प्रत्येक गांव में ग्राम शासन के लिए तीन स्नातक स्तर के कर्मचारी हैं। ये लोग कुछ निश्चित कौशल और कुछ सीमा तक वैश्विक जानकारी रखने वाले लोग हैं।

इसलिए एक विचार यह भी है कि सरकार को संक्रमणकालीन तरीका भी अपनाना चाहिए, जिसमें आप एक नौकरी करते हैं और फिर उसे तभी जारी रखते हैं, जब आप पाते हैं कि यह आपके लिए सही है। इसे एक कार्यकाल की तरह लिया जा सकता है। इससे बड़ी संख्या में नौकरियां पैदा की जा सकती हैं।

हमें जमीन पर ज्यादा संख्या में लोगों की जरूरत है। मुझे नहीं लगता कि सरकार में पर्याप्त संख्या में लोग हैं। कई लोग कह सकते हैं कि हमारी सरकार में पर्याप्त लोग हैं, लेकिन हकीकत में सरकार के कामकाज के लिए संख्या कम है, जो किसी तरह चीजों को काबू में रखना चाहती है।

सरकार का आकार छोटा है लेकिन हाथ मजबूत हैं। इसलिए सरकार के आकार में बदलाव के लिए पुनर्विचार करने की जरूरत है। सरकार में ज्यादा संख्या में युवाओं को शामिल कर, उन्हें अपनी जिंदगी को शुरू करने के लिए एक मौका देकर बाद में कुछ और काम करने के लिए पद त्यागने से संभवतः मदद मिल सकती है।

प्रश्न: एनएफएचएस के आंकड़े दर्शाते हैं कि बड़ी संख्या में बच्चों की विकास अवरुद्ध है। इसके लिए क्या करना चाहिए?

दुफ्लो: इसके लिए हमारे पास कोई एक समाधान नहीं है, जो काम कर सके। कुछ न कुछ करके इसे हल करने की दिशा में प्रयास होना चाहिए। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में Je-pal के प्रयोग को एक आंगनवाडी में अंजाम दिया गया था, जिसमें एक व्यक्ति को पोषण पर केंद्रित रहने की जिम्मेदारी दी गई थी। इससे कुछ सकारात्मक परिणाम आये, लेकिन यह प्रयोग बेहद खर्चीला साबित हुआ, और इसे नहीं अपनाया जा सका।

अन्य देशों की तुलना में हम समाधान की दिशा में नहीं बढ़ पाए। अफ्रीका में कई देशों में, जहाँ बच्चों में विकास अवरुद्ध थी, काफी सकारात्मक परिणाम आये हैं।

अभिजीत बनर्जी: हमें पहले से मालूम था कि यह गरीबी की समस्या नहीं है, क्योंकि एनएफएचएस की कुछ श्रेणियों में कुपोषण की दर अफ्रीका के कुछ बेहद गरीब देशों की तुलना में भी काफी खराब बनी हुई है। अगर आप संख्या पर गौर करें तो भारत में प्रोटीन की खपत असाधारण स्तर पर कम है। हम सोचते हैं कि दाल में प्रोटीन की मात्रा पर्याप्त है, जबकि उससे बेहद कम मात्रा में प्रोटीन हासिल हो पाता है। लोग सही भोजन नहीं कर रहे हैं, इस तथ्य को भारत में कहना कई बार राजनीतिक रूप से टेढ़ी खीर साबित हो जाता है।

लेकिन यहां पर जागरूकता बेहद महत्पूर्ण हो जाता है। हमारे काम में, हमने बिहार में आयरन-फोर्टीफाइड नमक के प्रयोग पर जोर दिया, और यही वह चीज थी जिसे हमने कई अवसरों पर प्रयोग में लिया, जिसने काम किया। मीडिया को लोगों के सामने इस तथ्य को ले जाने की जरूरत है कि आप अपने बच्चों को सही चीजें नहीं खिला रहे हैं।

अंडे, दूध और मूंगफली के मक्खन में प्रोटीन है। प्रोटीन को हासिल करना कोई मुश्किल की बात नहीं है। शाकाहरी भी इसे आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन आपको वास्तव में प्रोटीन के बारे में विचार करने की आवश्यकता है कि यह वह चीज है जिसे आप अपने भोजन में कम मात्रा में ले रहे हैं।

प्रश्न: अक्सर कहा जाता है कि भारत सरकार अपने बजट में शिक्षा और स्वास्थ्य के लिए पर्याप्त धन का आवंटन नहीं करती है। क्या यह बड़ी चिंता का कारण है?

अभिजीत बनर्जी: जहां तक स्वास्थ्य के लिए बजट आवंटन का प्रश्न है, वैश्विक स्तर पर भारत निचले स्तर पर बना हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में हमारे प्रति व्यक्ति जीडीपी के हिसाब से हम औसत स्तर पर हैं। सवाल यह नहीं है कि शिक्षा पर हमने कुल कितना आवंटन किया, सवाल है इलीट संस्थान बनाम स्कूल के बीच में आवंटन की मात्रा को लेकर।

हमें सामाजिक गतिशीलता को ध्यान में रखते हुए संस्थानों के निर्माण के आइडिया को अपनाने की आवश्यकता है, क्योंकि आगे चलकर इनकी अनुपस्थिति एक बड़े संकट का बायस बनने जा रही है। अगर लोगों को लगेगा कि उन्हें पूरी तरह से पीछे छोड़ दिया गया है- कि उनके लिए सिर्फ बेहद खराब गुणवत्ता वाली नौकरियों की उपलब्धता है और अच्छी नौकरियों को कुछ अधिकार-संपन्न लोगों के लिए तय कर दिया गया है, तो अंततः सब कोशिश व्यर्थ रह जाने वाली है।

(भारत में शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र की दशा-दिशा पर 2019 नोबल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी और एस्थर दुफ्लो के साथ इंडियन एक्सप्रेस की वार्ता पर आधारित)

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