गिरती साख के साथ सवालों और आरोपों से घिरी ईडी

वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद से जितने सवाल और विवाद प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को लेकर उठे हैं, उतने किसी भी बड़ी जांच एजेंसी को लेकर नहीं उठे हैं। इसका एक बड़ा कारण है ईडी का विपक्ष के नेताओं के प्रति किया जा रहा अभियान, छापे और इसके साथ ही बीजेपी के द्वारा ऑपरेशन लोटस के नाम से चलाए जा रहे, चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने और उन्हें गिराने में, सरकार या सत्तारूढ़ दल के एक टूल की तरह से काम करना। देश में किए जा रहे इस सरकार गिराऊ और पार्टी तोड़ू अभियान में यदि कोई जांच एजेंसी मुख्य भूमिका में है तो वह प्रवर्तन निदेशालय है।

ईडी, प्रिवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट के अंतर्गत कार्यवाही करने की शक्तियां रखती है और इसी मुख्य उद्देश्य से इसका गठन भी किया गया है। इस कानून के अंतर्गत ईडी को समन, गिरफ्तारी, तलाशी और जब्ती के वे अधिकार हैं, जो सीआरपीसी के अंतर्गत पुलिस की शक्तियां होती हैं, लेकिन ईडी पुलिस नहीं है। ईडी को अदालत ने पुलिस के समकक्ष नहीं माना है। ईडी द्वारा उपयोग में किए जाने वाले अधिकार और शक्तियों को बराबर हाइकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में चुनौती मिलती रही है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने तय किया है कि वह ईडी की विभिन्न शक्तियों और अधिकार के संबंध में दायर अनेक याचिकाओं पर पुनर्विचार करेगा। हालांकि साल 2022 में सुप्रीम कोर्ट इन पर विचार कर, इसे उचित मान चुका है। पर उसके बाद भी कुछ प्रावधानों पर अक्सर सवाल खड़े हुए कि, वे इस प्रकार के हैं जिनका दुरुपयोग हो सकता है और उनके दुरुपयोग के अनेक उदाहरण भी सामने आए हैं। हालांकि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुनर्विचार सुनवाई को टालने का भी आग्रह किया, पर सुप्रीम कोर्ट राजी नहीं हुआ और अब यह सुनवाई होने वाली है।

इसी बीच दिल्ली उच्च न्यायालय ने 19 अक्तूबर को एक फैसला सुनाया है कि “पीएमएलए की धारा 50 के तहत किसी व्यक्ति को समन जारी करने की प्रवर्तन निदेशालय की शक्ति में गिरफ्तारी की शक्ति शामिल नहीं है।”

दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस अनूप जयराम भंभानी ने कहा है कि, “गिरफ्तारी की शक्ति पीएमएलए की धारा 50 में ‘स्पष्ट रूप से अनुपस्थित’ है, जो ईडी अधिकारियों को किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार देती है, बशर्ते कि वे उसमें उल्लिखित शर्तों को पूरा करते हों।”

धन-शोधन निवारण अधिनियम यानी प्रिवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट (पीएमएलए) 2002 की धारा 50, समन, दस्तावेज पेश करने और साक्ष्य देने आदि के संबंध में प्राधिकारियों की शक्तियां का उल्लेख करता है। इसकी..

उपधारा (1)– के अनुसार ईडी निदेशक के पास धारा 13 के प्रयोजनों के लिए वही शक्तियां होंगी जो निम्नलिखित मामलों के संबंध में मुकदमे की सुनवाई करते समय सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के तहत एक सिविल अदालत में निहित हैं, अर्थात् :—

(ए) तलाशी सर्च और निरीक्षण;

(बी) बैंकिंग कंपनी या वित्तीय संस्थान या कंपनी के किसी भी अधिकारी सहित किसी भी व्यक्ति की उपस्थिति को लागू करना और शपथ पर उसकी जांच करना;

(सी) अभिलेखों के पेश करने के लिए बाध्य करना;

(डी) शपथ पत्रों पर साक्ष्य देने के लिए कहना,

(ई) गवाहों और दस्तावेजों की जांच के लिए कमीशन जारी करना; और

(एफ) कोई अन्य मामला जो निर्धारित किया जा सकता है।

उपधारा (2)- निदेशक, अतिरिक्त निदेशक, संयुक्त निदेशक, उप निदेशक या सहायक निदेशक को इस अधिनियम के तहत किसी भी जांच या कार्यवाही के दौरान साक्ष्य देने या कोई रिकॉर्ड पेश करने के लिए किसी भी व्यक्ति को बुलाने की शक्ति प्रदान करता है, जिसकी उपस्थिति वह जांच के लिए जरूरी समझती है।

उपधारा (3)- के अनुसार, “इस प्रकार बुलाए गए सभी व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से या अधिकृत एजेंटों के माध्यम से उपस्थित होने के लिए बाध्य होंगे, जैसा कि ऐसा अधिकारी निर्देश दे सकता है, और किसी भी विषय पर सच्चाई बताने के लिए बाध्य होंगे, जिसके संबंध में उनकी जांच की जा रही है या बयान दे रहे हैं और ऐसे दस्तावेज़ पेश करेंगे, जैसी आवश्यकता हो सकती है।

उपधारा (4)- उप-धारा (2) और (3) के तहत प्रत्येक कार्यवाही को भारतीय दंड संहिता, 1860 (1860 का 45) की धारा 193 और धारा 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही माना जाएगा।

उपधारा (5)- केंद्र सरकार द्वारा इस संबंध में बनाए गए किसी भी नियम के अधीन, उप-धारा (2) में निर्दिष्ट कोई भी अधिकारी अपने समक्ष प्रस्तुत किए गए किसी भी रिकॉर्ड को ऐसी अवधि के लिए जब्त कर सकता है और अपनी हिरासत में रख सकता है, जब तक वह उचित समझे। इस अधिनियम के तहत कार्यवाही- बशर्ते कि कोई सहायक निदेशक या उप निदेशक-

(ए) ऐसा करने के कारणों को दर्ज किए बिना किसी भी रिकॉर्ड को जब्त कर लेगा; या

(बी) निदेशक की पूर्व मंजूरी प्राप्त किए बिना ऐसे किसी भी रिकॉर्ड को तीन महीने से अधिक की अवधि के लिए अपनी हिरासत में रखेगा।

दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस एजे भंभानी ने अपने फैसले में ईडी की धारा 50 के अंतर्गत प्रदत्त शक्तियों को और स्पष्टता के साथ व्याख्यायित करते हुए कहा, “पीएमएलए की धारा 50 के अंतर्गत किसी व्यक्ति को समन जारी करने और दस्तावेजों के पेश करने और बयान दर्ज करने की आवश्यकता की शक्ति, जो एक सिविल अदालत की शक्तियों के समान है, लेकिन किसी को गिरफ्तार करने की धारा 19 के तहत शक्ति से अलग है।”

अदालत ने आगे कहा, “हालांकि पीएमएलए की धारा 19 ईडी के नामित अधिकारियों को किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार देती है, जो उस प्रावधान में उल्लिखित शर्तों को पूरा करने के अधीन है, लेकिन यह स्पष्ट है कि, गिरफ्तारी की शक्ति धारा 50 में नहीं है और न ही यह धारा 50 के तहत जारी किए गए समन का स्वाभाविक परिणाम है या, इसका कोई मतलब है।”

अदालत का कहना है कि, “धारा 50, किसी व्यक्ति को समन करने, दस्तावेज मांगने, साक्ष्य प्रस्तुत करने तक ही सीमित है, न कि, ऐसा न करने पर गिरफ्तारी की शक्ति देती है।”

जस्टिस भंभानी ने कहा कि, “पीएमएलए की धारा 19 और 50, दो अलग अलग और विशिष्ट प्रावधान हैं और एक के अंतर्गत दी गई शक्तियों के प्रयोग को इस आशंका पर नहीं रोका जा सकता है कि, इससे दूसरे के अंतर्गत शक्तियों का प्रयोग हो सकता है।”

आगे उक्त फैसले के अनुसार, “अगर इसकी अनुमति दी जाती है, तो पीएमएलए की धारा 50 के तहत दस्तावेज पेश करने या शपथ पर बयान देने के लिए बुलाया गया कोई भी व्यक्ति, केवल यह आशंका व्यक्त करते हुए ऐसे समन का विरोध कर सकता है कि, उसे ईडी के हाथों गिरफ्तारी का सामना करना पड़ सकता है।”

अब एक नजर, पीएमएलए की धारा 19 पर। पीएमएलए की धारा 19(1) निदेशक, उप निदेशक या सहायक निदेशक जैसे अधिकृत अधिकारियों को पीएमएलए के तहत अपराध करने के संदिग्ध व्यक्तियों को गिरफ्तार करने की शक्ति देती है यदि उनके पास यह मानने का पर्याप्त कारण है कि व्यक्ति ने अपराध किया है। लेकिन, गिरफ्तारी के कारणों को लिखित रूप में दर्ज किया जाना चाहिए और एक बार गिरफ्तार होने के बाद, व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के आधार के बारे में सूचित किया जाना चाहिए।

धारा 19 (2) के तहत, गिरफ्तारी के बाद, गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को आदेश की एक प्रति और संबंधित सामग्री को एक सीलबंद लिफाफे में निर्णायक प्राधिकारी को अग्रेषित करना होगा और ऐसे प्राधिकारी को निर्दिष्ट अवधि के लिए आदेश और सामग्री को संरक्षित करना होगा।

धारा 19(3) के तहत गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर विशेष अदालत, न्यायिक मजिस्ट्रेट या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाना चाहिए।

महत्वपूर्ण यह है कि, सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया कि उपरोक्त धाराओं के तहत आदेश का अनुपालन न करने पर गिरफ्तारी स्वयं ही समाप्त हो जाएगी। शीर्ष अदालत के अनुसार, “गिरफ्तारी करने के लिए, अधिकृत अधिकारी को अपने पास मौजूद सामग्रियों का आकलन और मूल्यांकन करना होता है। ऐसी सामग्रियों के माध्यम से, उससे यह विश्वास करने का कारण बनाने की उम्मीद की जाती है कि कोई व्यक्ति पीएमएलए, 2002 के तहत दंडनीय अपराध का दोषी है।

इसके बाद वह कारणों को दर्ज करने के अपने अनिवार्य कर्तव्य का पालन करते हुए गिरफ्तारी करने के लिए स्वतंत्र है।

उक्त कार्यवाही के बाद गिरफ्तार व्यक्ति को, गिरफ्तारी के आधार की जानकारी दी जानी चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो, पीएमएलए, 2002 की धारा 19(1) गिरफ्तारी ही निष्फल हो जाएगी।

न्यायालय ने यह भी माना कि, यह सुनिश्चित करना मजिस्ट्रेट का कर्तव्य है कि धारा 19 के तहत आदेश का विधिवत अनुपालन किया जाए।

हुआ यह था कि, आशीष मित्तल को 21 अगस्त को ईडी के सामने पेश होने के लिए समन जारी किया गया था। जिस तरह से ईडी गिरफ्तारियों और अन्य कारणों से विवादित हो रही थी और उसे लेकर एक यह भी धारणा बन रही थी, ईडी, प्रतिशोधात्मक कार्यवाही भी कर सकती है तो, आशीष मित्तल ने इस बात की आशंका जाहिर की, कि “उन्हें अवैध रूप से हिरासत में लिया जाएगा और फिर गिरफ्तार कर लिया जाएगा। उनको ईसीआईआर की प्रति भी नहीं दी गई थी।”

आशीष मित्तल ने एडुकॉम्प मामले में ईसीआईआर रद्द करने की मांग करते हुए हाईकोर्ट में याचिका दायर कर, मांग की थी कि, ईडी को उनकी निजी आजादी को बाधित करने के विरुद्ध कोई भी कठोर कदम उठाने से रोका जाए।” याचिका में उन्होंने कहा कि “उन्हें आशंका है कि उन्हें ईडी अवैध रूप से हिरासत में रखेगी या गिरफ्तार कर लेगी।”

ईडी ने याचिका पर आपत्ति जताते हुए यह तर्क दिया कि याचिका दायर करने का कारण “केवल पीएमएलए की धारा 50 के तहत जारी एक समन था। समन पर रोक लगाने या रद्द करने की मांग वाली रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं है।”

ईडी ने अदालत को बताया कि, “मित्तल का नाम सीबीआई की ओर से दर्ज एफआईआर या ईसीआईआर में नहीं है।”

यह मुकदमा, साल, 2020 में ईडी द्वारा दर्ज ईसीआईआर को रद्द करने की मांग करने वाली आशीष मित्तल नामक व्यक्ति की याचिका के संदर्भ में था।

जस्टिस भंभानी ने यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि यह समय पूर्व है। याचिकाकर्ता अग्रिम जमानत के लिए, अलग से याचिका दायर कर सकता है। अदालत ने धारा 19 और धारा 50 को अलग अलग दृष्टिकोण से परिभाषित किया है। कानून में धारा 50 के अंतर्गत ईडी को गिरफ्तारी की शक्तियां क्यों नहीं है, इसका भी औचित्य बताया है।

समन और साक्ष्य प्रस्तुत करने का निर्देश ईडी धारा 50 पीएमएलए में किसी को भी, चाहे वह संदिग्ध हो या साक्षी हो, जारी कर सकती है पर इस बारे में इस धारा 50 के अंतर्गत गिरफ्तारी की कोई शक्ति न होने के कारण गिरफ्तार नहीं कर सकती है। ऐसा इसलिए है कि, गिरफ्तारी की आशंका से मुक्त होकर लोग ईडी को जांच कार्य में सहयोग करें।

अब एक दिलचस्प आंकड़ा देखें। राज्यसभा में दिए गए एक आंकड़े के अनुसार, साल 2004 और 2014 के बीच 112 जांचों की तुलना में, साल 2014-2022 के दौरान प्रवर्तन निदेशालय द्वारा की गई छापेमारी में लगभग 27 गुना वृद्धि हुई है और यह आंकड़ा, 3,010 है। 

वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने एक लिखित उत्तर में राज्यसभा को बताया कि पीएमएलए के तहत पुराने मामलों में लंबित जांच को निपटाने और नए मामलों में समयबद्ध तरीके से जांच पूरी करने के लिए तलाशी की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। यह भी कहा कि, “जिन मामलों में कई आरोपी हैं, उनकी जटिल जांच की आवश्यकता भी होती है, जिससे ऐसी कार्रवाइयों की संख्या में वृद्धि हो जाती है।”

धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए), साल 2002 में लाया गया था लेकिन यह कानून लागू हुआ, 1 जुलाई 2005 से। कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) 2004 और 2014 के बीच सत्ता में था, जबकि भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सत्ता में था। सरकार 2014 के मध्य से सत्ता में है।

शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी के एक सवाल के जवाब में सरकार ने पूछा था कि, “क्या 2014 से ईडी की छापेमारी लगभग 90 प्रतिशत बढ़ गई है और क्या ईडी के मामलों में छापेमारी-से-शिकायत अनुपात बढ़ गया है।”

इसके उत्तर में वित्त राज्यमंत्री पंकज चौधरी ने उपरोक्त जवाब सदन में दिया, “पीएमएलए के प्रशासन के पहले नौ वर्षों के दौरान छोटे मामलों की जांच, जिनकी संख्या 112 थी, की गई, जिसके परिणामस्वरूप 5,346.16 करोड़ रुपये की अपराधिक मामलों से हुई आय, जब्त की गई और 104 अभियोजन शिकायतें दर्ज की गईं।

साल, 2004-05 से 2013 तक की अवधि के आंकड़ों के अनुसार, “पुराने मामलों में लंबित जांच को निपटाने और पीएमएलए के तहत समयबद्ध तरीके से नए मामलों में जांच पूरी करने के लिए पिछले आठ वर्षों के दौरान 3,010 तफ्तीशें की गईं, जिसके परिणामस्वरूप लगभग 99,356 करोड़ रुपये की अपराध आय जब्त की गई। 888 मामलों में अभियोजन हुआ और 23 आरोपी व्यक्तियों/संस्थाओं को दोषी ठहराया गया तथा 869.31 करोड़ रुपये की अपराध आय जब्त की गई।

सवाल, न तो ईडी के गठन पर है और न ही पीएमएलए से जुड़े कानूनों पर है, बल्कि सवाल ईडी के साख पर है। जब किसी जांच एजेंसी पर राजनीतिक दृष्टिकोण और सत्तारूढ़ दल के दबाव में कार्यवाही करने, सरकार के राजनैतिक विरोधियों को निपटाने और सरकार के कृपापात्र लोगों, पूंजीपति घरानों के खिलाफ आरोपों पर कोई जांच न करके सारे आरोपों को बस्ता-ए-खामोशी में डाल दिया जाता है, और जांच एजेंसी का यह पक्षपात से भरा दृष्टिकोण साफ साफ दिखने लगता है तो उक्त जांच एजेंसी के हर कदम पर संदेह होने लगता है।

फिलहाल, ईडी के साथ यही हो रहा है। अपराध को रोकने के लिए बनाए गए कड़े कानूनों को बेहद सतर्कता और पारदर्शी निष्पक्षता से लागू करना जरूरी है, अन्यथा जांच एजेंसी की साख गिरने लगती है और जब किसी व्यक्ति या संस्था या जांच एजेंसी की साख खत्म होने लगती है तो, उसके अच्छे कदम और उपलब्धियों पर भी सवाल उठने लगते हैं। फिलहाल प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) देश की सबसे विवादित जांच एजेंसी बनती जा रही है। साख बचाने और बनाए रखने की जिम्मेदारी एजेंसी के प्रमुख और विभाग की है।

(विजय शंकर सिंह पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं।)

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