शैक्षणिक संस्थान बने दलित छात्रों के लिए कब्रगाह, जातीय उत्पीड़न की भेंट चढ़ा एक और छात्र

जयपुर। ग्रामीण भारत में सामाजिक-आर्थिक तौर पर पिछड़े तबकों से आने वाले परिवारों के पास शिक्षा के सहारे अपने परिवार की कठिनाइयों को कम करने के अलावा कोई बहुत अधिक विकल्प खुले नहीं होते। उसमें भी आर्थिक कारणों से अच्छे विद्यालय तक पहुंच ना होना, उनके विकल्प कम कर देता है। ऐसे में हर ज़िले में स्थापित जवाहर नवोदय विद्यालय उन चुनिंदा संस्थानों में बचता है जहां पर कम संसाधनों के बावजूद भी मानकीकृत शिक्षा प्राप्त की जा सकती है।

इसी सोच के साथ दलित परिवार में जन्मे, मज़दूर पिता के चार बच्चों में से एक सचिन कुलदीप ने चार साल पहले राजस्थान के पावटा में स्थित जवाहर नवोदय विद्यालय में दाख़िला लिया था।

आवासीय विद्यालय नवोदय में ही रहकर पढ़ रहे पन्द्रह वर्षीय सचिन के बारे में पिता बनवारी लाल भावुक होकर बताते हैं कि वो पढ़ने में मेधावी थे और जीवन के दूसरे आयामों में भी समझदार थे, लेकिन अचानक 23 अगस्त की सुबह उनके भाई सत्यपाल के पास पुलिस का फ़ोन आता है, जहां उनसे स्कूल पहुंचने के लिए कहा जाता है।

स्कूल पहुंचने के एक घंटे बाद उन्हें सचिन के आत्महत्या की सूचना मिलती है। बनवारी लाल बताते हैं कि घटना से एक दिन पहले फ़ोन पर हुई सचिन से बात में उसने अपने साथ दो शिक्षकों के द्वारा किए जा रहे जातिवादी बर्ताव के बारे में जानकारी दी थी, लेकिन वो मामला टाल गए।

सचिन के साथ हॉस्टल में रह रहे छात्रों से पूछताछ में मिली जानकारी के आधार पर रिश्तेदार सत्यपाल बताते हैं कि सचिन को पिछले कुछ दिनों से शिक्षकों द्वारा परेशान किया जा रहा था, उन्हें विद्यालय के दूसरे छात्रों के सामने अपमानित किया जा रहा था। घटना से एक दिन पहले आरोपी शिक्षक विवेक और राजकुमार खेल मैदान में सचिन को धमकाते हुए सुने गए थे।

सचिन ने वहां कहा कि मेरी गलती कि मैंने माफ़ी मांग ली है लेकिन आपने मुझे गालियां दी उसकी कोई माफ़ी नहीं मांगी है, इस बात पर ग़ुस्सा हो कर शिक्षक विवेक ने फिर से तीन बार वह गालियां दोहरायी और कहा जो करना है, जा कर ले, चाहे प्रिंसिपल के पास चाहे पुलिस के पास। उस रात सचिन ने खाना नहीं खाया, अगले दिन परीक्षा होने के कारण वह अपने सहपाठी मित्र के साथ मिलकर पढ़ाई कर रहा था, उसमें भी वो लगातार उसी घटना का ज़िक्र कर रहा था।

रात में उस मित्र के चले जाने के बाद, सचिन पड़ोस के हाउस के हॉस्टल में जाने को कह कर निकला लेकिन उस हॉस्टल में उसे किसी ने नहीं देखा। सुबह सफ़ाई करने आयी कर्मचारी ने सचिन को एक कक्ष के भीतर फंदे से लटके देखा, स्कूल वालों ने परागपुरा थाने को सूचना दी और उसके बाद पुलिस से सूचना परिवारजनों को मिली।

सचिन की आत्महत्या की खबर से आक्रोशित तुरंत न्याय और मुआवज़े की मांग को लेकर परिवारजनों और दलित संगठनों ने मिलकर प्रतिरोध दर्ज कराया। डेथ बॉडी के पोस्टमार्टम को रुकवाकर धरने पर बैठे आन्दोलनकारियों ने दूसरे दिन ज़िला प्रशासन के आश्वासन पर धरना समाप्त किया।

दोनों आरोपी शिक्षकों को निलंबित करने के बाद पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है, साथ ही जवाहर नवोदय विद्यालय संगठन ने भी आंतरिक कमेटी बिठा जांच शुरू कर दी है। भले ही प्रशासन द्वारा फ़ौरी तौर पर तुरंत कार्यवाही कर दी गई हो, लेकिन सचिन के परिवार के लिए न्याय का रास्ता अभी भी लम्बा और संघर्षों से भरा है।

यह प्रकरण भारतीय शिक्षण संस्थानों के भीतर जातीय उत्पीड़न का सामना करते हुए किसी छात्र के कथित आत्महत्या का पहला प्रकरण नहीं है, इसी साल 25 फ़रवरी को हैदराबाद के NALSAR में बोलते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी. वाय. चन्द्रचूड़ ने हाशिए के समाजों से आने वाले छात्रों की आत्महत्या पर गहरी चिंता जतायी थी।

इससे पहले IIT बॉम्बे से दलित छात्र दर्शन सोलंकी और IIT दिल्ली से दलित छात्र आयुष आश्ना के जातीय उत्पीड़न के कारण आत्महत्या की खबरें भी आ चुकी है। आत्महत्या तो जातीय उत्पीड़न से परेशान होने के बाद किसी भी व्यक्ति के द्वारा उठाया जाने वाला सबसे आख़िरी कदम होता है, इन आत्महत्याओं से हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि भारत के शिक्षण संस्थानों में रोज़मर्रा में दलित और दूसरे हाशिए के समुदायों के आम छात्रों को किस उत्पीड़न का समाना करना पड़ता होगा।

जनवरी 2016 में हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला की संस्थानिक हत्या और उसके बाद हुए आन्दोलनों के बावजूद भी भारत के शिक्षण संस्थानों के भीतर जाति को लेकर ना ही कोई सेंसेटाइजेशन के प्रयास हुए, ना ही शिक्षा की नई नीतियों में शिक्षकों की शक्ति पर कोई गम्भीर चिंतन हुआ हो।

ऐसे में बड़ी संख्या में हाशिए के समाजों से आए छात्र विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक रोज़मर्रा में जातीय उत्पीड़न, भेदभाव और उसके मानसिक प्रताड़ना के साथ जीने और कभी-कभी मरने तक को भी मजबूर हैं। इन सब प्रकरणों को अलग-अलग देखने के बजाय एक पैटर्न की तरह समझना होगा, क्योंकि सवाल सिर्फ एक-दो शिक्षकों को सजा दिलवाने तक सीमित नहीं है, ये सवाल हमारे शैक्षणिक ढांचे में व्यापक और मूलभूत परिवर्तन की ज़रूरत की तरफ़ इशारा करता है।

(विभांशु कल्ला स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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