मोदी सरकार द्वारा 26 जुलाई को लोकसभा में पेश वन संरक्षण एवं संवर्धन अधिनियम, 2023 आधे घंटे के भीतर बिना किसी चर्चा के ध्वनि मत से पारित करा लिया गया। 1980 वन संरक्षण अधिनियम (एफसीए) में संशोधन करने के लिए यह विधेयक पेश किया गया था। सदन में विपक्षी दल के सांसद मणिपुर पर चर्चा की मांग को लेकर तख्तियां लहराते रहे, वहीं सत्तापक्ष हां, हां के साथ ध्वनिमत से एक महत्वपूर्ण रणनीतिक विधेयक को पारित कराने में कामयाब रहा।
लोकसभाध्यक्ष ओम बिड़ला सदन में उपस्थित नहीं थे, विपक्षी दलों के अविश्वास प्रस्ताव को मंजूरी दी जा चुकी थी। विपक्ष के अविश्वास के बीच एक ऐसे कानून को पारित करना जिसका संबंध देश के सबसे वंचित और अब तक संरक्षित आदिवासियों, जनजातियों, संरक्षित वनों और सीमाई क्षेत्रों से जुड़ा है, इसे विडंबना ही कहा जा सकता है।
यह डेथ ऑफ ट्रेजड़ी, जब देश पूर्वोत्तर के एक राज्य के 80 दिनों से जलने की घटना से क्षुब्ध है और जनजातीय आबादी की बेटियों के साथ बलात्कार और हत्या के मामले को देश की संसद के पटल पर बहस के लिए टकटकी लगाये देख रहा है, ठीक उसी दौरान उनके पैरों के नीचे की जमीन पर बेहद चलताऊ ढंग से देश के नीति-निर्माता नया कानून तैयार कर रहे हैं।
ओम बिड़ला की अनुपस्थिति में सदन की जिम्मेदारी सांसद राजेंद्र अग्रवाल के जिम्मे थी, जो असल में इस विधेयक पर गठित संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के अध्यक्ष भी थे। सरकार की ओर से मंत्री भूपेन्द्र यादव ने सदन को जानकारी दी कि जेपीसी ने इस बिल पर व्यापक चर्चा कराई, सभी पक्षों से गहन चर्चा की और सरकार द्वारा पेश विधेयक को हूबहू अपनी स्वीकृति दे दी। लेकिन सही बात तो यह है कि जेपीसी में शामिल कुल 31 सदस्यों में से, 6 विपक्षी सासंदों ने अपनी आपत्तियां दर्ज कराई थीं।
केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने विधेयक के समर्थन में तर्क पेश किये, जिसमें उन्होंने सरकार द्वारा निर्धारित 3 लक्ष्यों, जिनका संबंध अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के साथ राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान शामिल है, का जिक्र करते हुए दावा किया कि इनमें से 2 लक्ष्यों को हासिल कर लिया गया है। तीसरे लक्ष्य 2.5 से 3.0 बिलियन टन CO2 समकक्ष का अतिरिक्त कार्बन सिंक को इस बिल से हासिल किया जा सकेगा। कानून में संशोधन कर बायो-डाइवर्सिटी को हासिल करने के लिए लाया जा रहा है। पहले यह राज्यों की सूची में था फिर राष्ट्रीय सूची में लाया गया अब समवर्ती सूची में लाया गया है।
लेकिन बिल में जो कहा जा रहा है, और असल में क्रियान्वयन होना है, वह सर्वथा विपरीत है। लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत को 2070 तक जीरो कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश के रूप में स्थापित करना है, ग्लोबल वार्मिंग से विश्व को बचाने के लिए देश के भीतर प्राकृतिक वनों, हिमालयी क्षेत्रों और जल-जंगल-जमीन की जैव-विविधता का नष्ट करने के बजाय संवर्धन करना है। लेकिन सरकार इस बिल के माध्यम से एक ही झटके में सभी क़ानूनी बाधाओं, पेसा कानून और करोड़ों आदिवासियों को हासिल संविधान प्रदत्त अधिकारों को धता बताते हुए अपने रणनीतिक एवं कॉर्पोरेट हितों को बेखटके आगे बढ़ सकती है।
चिंताजनक तथ्य यह है कि भारत के पास मात्र 21% भूमि ही वन क्षेत्र के भीतर है। मात्र 12.37% भूमि को ही प्राकृतिक वन की श्रेणी में रखा जा सकता है, जबकि देश का लक्ष्य 33% वन आच्छादित क्षेत्र का है। इस अधिनियम के बाद 33% का लक्ष्य अपने आप में हास्यास्पद है। जैव-विविधता के लिहाज से भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और कोंकण क्षेत्र ही सर्वाधिक संपन्न कहे जा सकते हैं, लेकिन पूर्वोत्तर में पिछले दस वर्षों के दौरान करीब 4,000 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र में कमी आ चुकी है। संशोधित कानून में विशेष जोर अंतर्राष्ट्रीय सीमा से जुड़े सीमावर्ती राज्यों में 100 किमी के दायरे में आने वाले वन क्षेत्रों में देश की सुरक्षा के लिहाज से बुनियादी ढांचे को विकसित करने का मार्ग प्रशस्त करने से है।
देश के हिमालयी राज्यों में मानसून सीजन में बादल फटने, भू-स्खलन की घटनाएं किस कदर बढ़ी हैं, इसे देश देख रहा है। 2013 की केदारनाथ आपदा से कोई सबक नहीं लिया गया है। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में सड़क, रेल परियोजना, टनल निर्माण एवं बड़ी जल-विद्युत् परियोजनाओं का विनाशकारी परिणाम हर साल पिछले साल की तुलना में दुगुने वेग से सामने आ रहा है। उत्तर-पूर्व के राज्यों में जहां जैव-विविधता उत्तरी क्षेत्र से काफी अधिक है, भारत के जलवायु परिवर्तन की घटना को विषम ही बनायेगा।
इसके बचाव में पर्यावरण मंत्री का तर्क न सिर्फ हास्यास्पद है बल्कि निरा बचकाना है। वे तर्क देते हैं कि इस कानून के माध्यम से अब वनीकरण को निजी भूमि पर क्रियान्वयन संभव हो सकेगा। कोई बच्चा भी बता सकता है कि प्राकृतिक वन के लिए जिस प्रकार का इको-सिस्टम चाहिए होता है, उसे इंसान लाख कोशिशों के बावजूद निर्मित नहीं कर सकता। मंत्री जी जिसे निजी वन बता रहे हैं, वह पोपलर पेड़ हैं, जिसे 5-7 वर्ष में व्यावसायिक हितों के लिए काटा जाता है। निजी भूमि पर वनीकरण असल में खुद को मूर्ख बनाने से अधिक कुछ नहीं है।
मंत्री के अनुसार मौजूदा कानून की कुछ सीमाओं के कारण वामपंथी उग्रवाद से प्रभावित कुछ क्षेत्रों में आदिवासी विकास से अछूते रह गये हैं, जिसे दूर करने में यह बिल मील का पत्थर साबित होगा। इन क्षेत्रों के आदिवासी सड़क, स्कूल और स्वास्थ्य सुविधाओं का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन झारखंड राज्य में वनाधिकारों के लिए कार्यरत सामाजिक कार्यकर्ता संजय बासु मलिक बिल्कुल विपरीत तस्वीर पेश करते हैं। उनके अनुसार मौजूदा कानून के तहत अभी तक कोई भी परियोजना शुरू करने से पहले स्थानीय ग्राम सभा की अनुमति अनिवार्य थी। संशोधित कानून के लागू हो जाने के बाद पेसा और वनाधिकार कानून निष्क्रिय हो जायेंगे।
अब किसी परियोजना की शुरुआत से पहले पर्यावरणीय प्रभाव आकलन की जरूरत नहीं न रही। पर्यावरणीय प्रभाव आकलन के बावजूद उत्तराखंड में ‘आल वेदर रोड’ का क्या हाल है, इसे पिछले 15 दिनों से उत्तराखंड के लोग सोशल मीडिया में रोज साझा कर रहे हैं। अदालती आदेश और एनजीटी के निर्देशों के बावजूद मलबे का निस्तारण, जेसीबी और विस्फोटकों का इस्तेमाल कर पहाड़ों में टनल बनाने की प्रक्रिया ने अनगिनत क्रैक और पहाड़ों को छलनी कर डाला है।
सरकार इस बिल के माध्यम से अब देश के सीमावर्ती क्षेत्रों, एलएसी [चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा] और एलओसी [नियंत्रण रेखा, जम्मू और कश्मीर में भारत और पाकिस्तान के बीच की वास्तविक सीमा] से 100 किमी के दायरे में वन क्षेत्रों में छूट से सीमावर्ती क्षेत्रों के लिए महत्वपूर्ण सड़कों को विकसित करने की योजना पर अबाध गति से कार्य होगा। सरकार का मानना है कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए रणनीतिक बुनियादी ढांचे को विकसित करने में मदद मिलेगी।
सदन में पर्यावरण मंत्री ने कहा “1996 में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के कारण विसंगति पैदा हुई। फारेस्ट के दायरे में कई ऐसी भूमि आ गई, जहां पर सरकार के लिए कोई भी विकास का काम करना संभव नहीं रहा। जैसे यदि आदिवासी क्षेत्र में बालिका विद्यालय है, लेकिन उनके लिए शौचालय तक का निर्माण नहीं किया जा सकता। कानून में संशोधन से ऐसा करना अब संभव हो जायेगा। समाज के अंतिम छोर पर बैठे हमारे आदिवासी भाइयों के विकास के लिए सड़क, अस्पताल, स्कूल और सामान्य जीवन जीने के लिए इस बिल को लाया गया है। सीमावर्ती क्षेत्र में सड़कों का जाल बिछाना अति आवश्यक है। इसके माध्यम से एग्रो फॉरेस्ट्री को बढ़ावा दिया जायेगा।”
बिल के समर्थन में शिवसेना (शिंदे) गुट की सांसद भावना गवली ने क्या कहा, इससे ही समझा जा सकता है कि देश में अधिकांश माननीय सासंद वन संरक्षण/ग्लोबल वार्मिंग के महत्व के बारे में कितना जोर देना चाहते हैं, और उनके लिए फिर से निर्वाचित होने के लिए विकास (सड़क) कैसे पिछले 2-3 दशकों में सबसे पहली प्राथमिकता बनी हुई है। उन्होंने बिल के समर्थन में कहा, “ वन मंजूरी में देरी बड़े स्तर पर राज्य स्तर पर होती है। 2023 में करीब 51 सीमा सड़क परियोजनायें मंजूरी के लिए पेंडिंग हैं। इसमें से 29 परियोजनायें राज्यों में लंबित हैं। सड़क परियोजना के 2,235 आवेदनों में से 1,891 राज्य सरकार के अधिकारियों के पास लंबित है। यदि विकास चाहिए तो बदलाव जरुरी है। महाराष्ट्र में लाखों हेक्टेयर भूमि पर छोटे-छोटे पौधे हैं, जो वन नहीं है। यह सारी भूमि बेकार पड़ी है। यहां पर जनहित में कई परियोजनाएं लगाई जा सकती हैं। सोलर प्लांट लगा सकते हैं।”
जबकि अधिकांश पर्यावरणविद इस विधेयक को मूल रूप से खनन या जलविद्युत जैसे वन भूमि के औद्योगिक उपयोग को विनियमित करने के लिए अधिनियमित करने के तौर पर देख रहे हैं। अधिनियम बनने के लिए अब सिर्फ राज्यसभा में पारित करना रह गया है। यदि ऐसा हो गया तो किसी भी भूमि को संयुक्त संसदीय समिति के माध्यम से परिभाषित और उपयोग में लाना संभव हो जायेगा, जिसमें सरकार के सासंदों का बाहुल्य रहता है।
वन (संरक्षण) संशोधन विधेयक 2023, जैसा कि पेश किया गया है, का संबंध उस भूमि से है जिसे 1927 के औपनिवेशिक युग के भारतीय वन अधिनियम के तहत वन के बतौर परिभाषित किया गया था, जिसमें वनों को ‘संरक्षित’ या ‘आरक्षित’, या सरकारी रिकॉर्ड के रूप में परिभाषित करने की प्रक्रियाएं शामिल थीं। 1980 एफसीए के प्रभाव में आने के बाद बनाया गया।
भारत में वनों की कोई विधायी परिभाषित परिभाषा नहीं है। देश का सर्वोच्च न्यायालय इस शब्द की शब्दकोश परिभाषा का उपयोग करता है, जिसमें कहा गया है कि सभी वन – चाहे नामित हों या नहीं – एफसीए के दायरे में आते हैं। इसे 1996 के गोदावर्मन फैसले में सबसे स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया गया था। इसमें कहा गया था: “वनों के संरक्षण के लिए वन संरक्षण अधिनियम, 1980 में अधिनियमित प्रावधान और उससे सम्बद्ध मामले स्वामित्व या वर्गीकरण के बावजूद सभी वनों पर स्पष्ट रूप से लागू होने चाहिए।”
नया बिल गोदावर्मन फैसले के बिल्कुल विपरीत दिशा में ले जाता है। इसका अर्थ हुआ कि निजी वन भूमि और भूमि का कोई भी टुकड़ा जो वन है – लेकिन यदि सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं है, तो वह एफसीए के तहत संरक्षित नहीं रह पायेगा। सबसे महत्वपूर्ण रेलवे ट्रैक, ट्रांसमिशन लाइनें और राजमार्ग की परियोजनाएं हैं, जिन्हें “राष्ट्रीय महत्व एवं राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित” बताकर वन संरक्षण जांच से बाहर कर दिया जायेगा, यदि वे भारत की सीमा के 100 किमी के भीतर आते हैं। ये छूट रक्षा परियोजनाओं, अर्धसैनिक शिविरों एवं सार्वजनिक उपयोगिता से जुड़ी परियोजनाओं पर भी लागू होंगी, जिनमें से सार्वजनिक उपयोगिता से सरकार का आशय क्या है, अभी भी अपरिभाषित है। संभवतः कॉर्पोरेट जगत के लिए इसका उपयोग किया जाना है।
नया विधेयक वन क्षेत्रों को पर्यटन क्षेत्र और चिड़ियाघर जैसी गतिविधियों के लिए भी खोल देता है। शोध से पता चलता है कि “ईकोटूरिज्म केंद्रों में वन हानि की दर गैर-इकोटूरिज्म क्षेत्रों की तुलना में अधिक पाई गई है।” हिमालयी क्षेत्र जो देश की सीमा से लगे हैं, उनमें से अधिकांश राज्यों की 100 किमी के भीतर के वनों में छेड़छाड़ का अर्थ है, करीब-करीब आधे हिस्से पर वहां के आम लोगों के अधिकारों में व्यापक हस्तक्षेप। इसी के साथ भारत की सीमावर्ती भूमि की जैव विविधता में वनस्पतियों और जीवों की स्थानिक प्रजातियों के साथ-साथ महान भारतीय बस्टर्ड, लाल पांडा, हिम तेंदुए, कश्मीर हिरण, तिब्बती मृग, मार्खोर और हूलॉक गिब्बन सहित लुप्तप्राय प्रजातियां शामिल हैं।
केंद्र सरकार की कथनी और करनी में यह अंतर का खामियाजा आने वाले दिनों में कई गुना जोरदार धमाके के रूप में पर्यावरण के भयावह विनाश में दिखेगा। पिछले वर्ष पाकिस्तान में इसे देखा गया और इस वर्ष भारत सहित अमेरिका, चीन और विभिन्न यूरोपीय देश इससे गुजर रहे हैं। विकास की अंधी दौड़ में आम नागरिक भी कब कॉर्पोरेट और क्रोनी पूंजी की जकड़ में अपना सबकुछ गंवा देगा, इसे समझने में शायद अभी कुछ और वक्त लगेगा। तब तक सरकारें विकास के सब्जबाग दिखाकर देशी-विदेशी कॉर्पोरेट घरानों के हितों में धड़ाधड़ फैसले लेते रहेंगे।
( रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)
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