फ्रांस में फिर भड़की हिंसा, पेरिस के बाहरी हिस्से में लगा कर्फ्यू

फ्रांस में पिछले 3 दिनों से हिंसा और आगजनी का आलम बना हुआ है। मंगलवार की सुबह एक 17 वर्षीय अल्जीरियाई मूल के युवक नाहेल की पुलिस द्वारा गोली मारकर हत्या की घटना के बाद से पेरिस में उबाल आ गया है। पुलिस का कहना है कि यह घटना तब हुई जब नाहेल पोलैंड की नेमप्लेट वाली कार को बस लेन में ड्राइव कर रहा था। हमने उसे रोकने की कोशिश की। लेकिन उसने गाड़ी नहीं रोकी। हमने उसे संभावित खतरा समझ गोली मार दी।

फ्रांस के विभिन्न शहरों में हिंसा, लूट और आगजनी की घटनाएं सामने आ रही हैं। सोशल मीडिया में फ्रांस की हिंसा से संबंधित खबरें बता रही हैं कि फ्रेंच सरकार हालात पर काबू पाने में अभी तक नाकामयाब रही है।

अभी खबर आ रही है कि राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन इस शुक्रवार दोपहर 1 बजे पेरिस में एक नए अंतर-मंत्रालयी संकट निवारण यूनिट की बैठक की अध्यक्षता कर रहे हैं। कल (गुरुवार) तीसरी रात लगातार हिंसा और आगजनी हुई है और इंटीरियर मिनिस्टर गेराल्ड डर्मैनिन के अनुसार इस सिलसिले में अब तक 667 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है।

कंजरवेटिव और धुर-दक्षिणपंथी नेताओं की ओर से सरकार से मांग की जा रही है कि जल्द से जल्द आपातकाल घोषित किया जाये। लेकिन प्रधानमंत्री एलिज़ाबेथ बोर्न और आंतरिक मंत्री गेराल्ड डर्मैनिन के अब तक के बयानों में कहा गया है कि वे अभी यह करने के पक्ष में नहीं हैं।

कंजरवेटिव लेस रिपब्लिकंस पार्टी के अध्यक्ष, एरिक सियोटी ने गुरुवार को आपातकाल लगाने की मांग की, और आज शुक्रवार को मरीन ले पेन की धुर दक्षिणपंथी राष्ट्रीय पार्टी रैली (रैसेम्बलमेंट नेशनल) ने भी इसकी मांग कर दी है। सांसद और पार्टी प्रवक्ता सेबेस्टियन चेनू ने कहा है कि पहले कुछ इलाकों में कर्फ्यू लगाना चाहिए, विशेष रूप से जहां पर हिंसा अपने चरम पर देखने को मिली थी। उन्होंने आरोप लगाया है कि प्रशासन हालात पर काबू कर पाने में विफल साबित हुआ है।

पेरिस के बाहरी हिस्से में कर्फ्यू लगा दिया गया है। यही वह इलाका है जहां बड़ी संख्या में प्रवासी समुदाय निवास करते हैं। रात के दौरान ट्राम और बस सेवा को बंद कर दिया गया है। प्रदर्शनकारियों ने बड़ी संख्या में कार और बसों को आग लगाकर पूरी तरह खाक कर दिया है।

2020 तक फ्रांस की आबादी लगभग 7 करोड़ थी। फ्रांस एक बहु-सांस्कृतिक समाज के रूप में दुनिया में विख्यात है। यहां पर 85% प्रतिशत आबादी यूरोपीय मूल के लोगों की है। यूरोप में सबसे अधिक अप्रवासी आबादी फ्रांस में रहती है। इसमें मुसलामानों की तादाद सबसे अधिक है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक फ्रांस में करीब 50 लाख मुस्लिम आबादी रह रही है। 60 लाख की संख्या में उत्तरी अफ्रीकी मूल के लोग फ्रांस में निवास करते हैं। 3.3% आबादी अश्वेतों की है, जबकि एशियाई मूल का प्रतिशत 1.7 है।

राहेल की मौत के बाद मुस्लिम समुदाय का गुस्सा उबाल पर है। पिछले कई वर्षों से फ्रांस में मुस्लिम धर्म एवं मान्यताओं को लेकर समय-समय पर सवाल उठाये जाते रहे हैं, जिससे यह तनाव बढ़ता गया है। 2015 में शार्ली एब्दो नामक एक पत्रिका द्वारा पैगंबर मोहम्मद पर कार्टून छापने पर फ़्रांस में भारी बवाल मचा था। इसके बाद से ही फ़्रांस में आम लोगों की सोच में एक बदलाव आने लगा था।

राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन का यह दूसरा कार्यकाल है, लेकिन फ़्रांस के हालात पर उनकी पकड़ लगातार कमजोर पड़ती जा रही है। यूरोप के अन्य देशों की तरह फ्रांस में भी दक्षिणपंथी प्रतिक्रयावादी उभार बढ़ रहा है। पिछला चुनाव भी इसी उभार को रोकने के लिए इमैनुएल मैक्रॉन के पक्ष में डेमोक्रेटिक एवं वामपंथी मतदाताओं के द्वारा किया गया। लेकिन राष्ट्रपति मैक्रॉन समय-समय पर अपनी छवि को बहुसंख्यक लोगों के अनुसार करते रहे हैं।

समाज में जारी यह तनाव फ्रांस के प्रशासनिक हिस्से को भी कहीं न कहीं प्रभावित करने में कामयाब रहा है। यूक्रेन-रूस संघर्ष के बाद महंगाई, पेंशन की उम्र को बढ़ाकर 64 किये जाने के फैसले ने पहले से फ्रांस को अस्थिर कर रखा है। यूरोप के लिए प्रवासी जहां बूढ़ी होती आबादी के लिए एक जरूरी हाथ बन चुके हैं, वहीं उनकी सांस्कृतिक, धार्मिक मान्यताएं और निरंतर क्षीण होता आर्थिक प्रभुत्व आज यूरोप की औपनिवेशिक विरासत को बुरी तरह से सता रहा है। इसे फ्रांस के एक तरफ अमेरिकी हुक्म को बजा फरमाने लेकिन रह-रहकर यूरोप की स्वतंत्र भूमिका की दावेदारी में देखा जा सकता है।

फ्रांस की फ़ुटबाल टीम में बहु-सांस्कृतिक विविधताओं की बेहतरीन तस्वीर नुमाया होती है, लेकिन साथ ही यह भी सच है कि चंद अश्वेत सितारों को छोड़ दें तो बहुसंख्य अप्रवासियों के लिए पेरिस के बाहरी क्षेत्र के घेटो ही सांस लेने के लिए उपलब्ध हैं। यदि यह हिंसा और अराजकता का माहौल जारी रहा, तो संभव है कि फ्रांस भी इटली, ग्रीस एवं अन्य यूरोपीय देशों की तरह धुर-दक्षिणपंथी, नव-नाजीवाद की आगोश में चला जाए। यह उदारवादी अर्थनीति के असली चेहरे की एक और झलक होगी, जिसमें गोरे और अश्वेत दोनों समुदाय इसका शिकार हो रहे हैं, लेकिन वैश्विक कॉर्पोरेट की लूट की हवस को नेस्तनाबूद करने के बजाय वे आपस में ही कट-मरने के लिए अभिशप्त हैं। 

(रविंद्र पटवाल जनचौक की संपादकीय टीम के सदस्य हैं।)

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