जलपोतों पर हाउथी हमलों से बिगड़ रहा भू-राजनीतिक समीकरण, अमेरिकी प्रयासों से कई देशों ने बनाई दूरी

नई दिल्ली। यमन के हाउथी विद्रोहियों ने कुछ ही दिनों के भीतर भारत के तेल वाहक जलपोतों पर हमलों और एक पर कब्जा जमा लेने की कोशिशों की घटना ने भारत में इस नाम को लेकर थोड़ी चर्चा होने लगी है। इसके बारे में थोड़ी इतिहासपरक ढंग से कुछ बातें भी अखबारों ने लिखी हैं। आमतौर पर इसे व्रिदोही की श्रेणी में रखा जाता है, लेकिन जैसा कि प्रत्येक हथियारबंद संगठन को मनमाने तरीके से आतंकवाद की श्रेणी में डाल दिया जाता है, इन्हें भी कुछ जगहों पर आतंकवादी ही बताया गया है।

भारत का इस संगठन से साबका अभी हाल के दिनों में हुआ है। तो जाहिर है इस पर उपयुक्त दृष्टिकोण क्या रखा जाये, तय करना बाकी है। लेकिन, भारत ने अपने जलपोतों की रक्षा के लिए जरूर अपनी नौसेना को तैनात और सक्रिय किया है।

हाउथी विद्रोहियों ने सिर्फ भारत के जलपोतों पर ही नहीं, पाकिस्तान के जलपोतों पर भी हमला किया है। और, उन्होंने लाल सागर से गुजरने वाले जलपोतों पर 100 से अधिक हमलों को अंजाम दिया है। इन्होंने इन हमलों को इजरायल द्वारा गाजा पर किये गये हमलों के खिलाफ एक कार्रवाई बताया है। उनके अनुसार जो भी जलपोत इजराइल के समर्थन में जाएगा, वे उस पर हमला करेंगे। लेकिन, जो हमले हुए हैं वे उनके इस कथन पर ठीक नहीं उतर रहे हैं।

यदि आप दुनिया के नक्शे पर यमन की उपस्थिति देखेंगे, तो यह सऊदी अरब के ठीक नीचे लाल सागर के अरब सागर में मिलने के मुहाने पर स्थित दिखेगा। भू-मध्यसागर और लाल सागर को जोड़ने वाली स्वेज नहर ने विश्व व्यापार में एक क्रांतिकारी असर डाला। इसने न सिर्फ जिब्राल्टर होते हुए पूरे अफ्रीका का चक्कर लगाकर जाने की दूरी को कम कर दिया, साथ ही इसने मध्य-एशिया को व्यापार के रास्ते से जोड़कर एक नये भू-राजनीतिक समीकरण को भी बनाया।

यह समीकरण बनाने में अमेरिका ने मिस्र से लेकर मध्य एशिया के कई देशों पर हमला किया और अपनी शर्तों को मानने के लिए मजबूर किया। इसने कभी भी इस पर से नियंत्रण को खोने नहीं दिया और मध्य एशिया में विविध तरीके से हस्तक्षेप का रास्ता अख्तियार किये रहा। इस संदर्भ में इजरायल की उपस्थिति की व्याख्या की जा सकती है जो मिस्र के दूसरी ओर उपस्थित है और इसकी सीमाएं मिस्र के अतिरिक्त जार्डन, सीरिया, लेबनान से मिलती हैं।

ये वे इलाके हैं जहां मिस्र और टर्की को छोड़कर अधिकांश देशों में पिछले 20 से 25 सालों से गृहयुद्ध की स्थिति, तख्ता पलट और अमेरिकी समर्थित गुटों की कब्जेदारी का इतिहास देखा जा सकता है। ये वही क्षेत्र हैं जहां की भू-राजनीतिक अवस्थिति पर अमेरिका, यूरोप और रूस अपना नियंत्रण बनाये रखने के लिए हथियारबंद हस्तक्षेप करने में लगे हुए हैं। खासकर, अमेरिका इराक से बढ़ते हुए इस पूरे मध्य-एशियाई देशों पर युद्ध थोपे हुए है।

हाउथी के उत्थान के कई स्रोत बताये जाते हैं। सबसे अधिक मत यही मानते हैं कि यह अमेरिका के समर्थन से पैदा हुआ। ठीक उसी तरह से जैसे अफगानिस्तान में तालिबान के उभार में अमेरिका का ही हाथ माना जाता है। लेकिन, आज के समय में धर्म का रंग देते हुए इसके उभार के पीछे ईरान का हाथ माना जा रहा है। लेकिन, यदि हम मध्य-एशिया के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकट का विश्लेषण करें, तो इन दो कारणों के अलावा स्थानीय कारक ज्यादा महत्वपूर्ण लगेंगे।

जिस तरह से भारत जैसे एशियाई देशों में विकास का अर्थ एक ऊपरी छोटे से हिस्से का अपार संपत्ति का दोहन और संग्रहण रहा है और अधिकांश आबादी जीने भर की कमाई कर पा रही है, इससे बहुत अलग स्थिति इन देशों की नहीं रही है। खेती और पेट्रो डॉलर के बीच के संबंधों में खेती और छोटे उद्यमों में लगे लोग बर्बादी की स्थिति में ठेल दिये गये हैं।

इसी तरह 1990 के बाद मध्यवर्ग पर दबाव बढ़ता गया। युद्ध के हालातों ने स्थिति को और भी बदतर बनाया। धर्म के सहारे प्रतिरोध करने वाले नये संगठनों का उभार हुआ और कई बार इन्हें बनाया भी गया। ये संगठन राज्य के सामानान्तर चलने वाले छोटे राज्यों की तरह उभरकर आये। हमास और हाउथी इसी तरह के संगठन हैं।

खुद ईरान ने अपने यहां इसी तरह के संगठनों को संरक्षण दिया। इराक में प्रतिरोध में इसी तरह के कई संगठन बने। लेबनान, सीरिया, यमन तक हम इसका विस्तार देख सकते हैं। सामानान्तर सरकारों का सबसे अच्छा उदाहरण अफगानिस्तान रहा है, जिसमें अंततः तालिबान सफल रहा और आज वहां उसकी सरकार है।

भारत के जलपोतों पर हाउथी का हमला सिर्फ भारत को निशाने पर लेने के उद्देश्य से किया हुआ नहीं लगता है। लेकिन, निश्चय ही भारत ने हमास द्वारा इजरायल पर किये गये अचानक हमले के प्रति जिस रुख का इजहार किया और इजरायल को समर्थन दिया, उससे मध्य-एशिया में भारत की छवि का काफी नुकसान हुआ है। भारत आज भी हमास को आतंकवादी संगठन नहीं मानता है।

भारत की सबसे अधिक बुरी छवि तब उभरकर आई जब इसने संयुक्त राष्ट्र में इजरायल के हमलों की निंदा करने से मना कर दिया। इजरायल गाजा में जिस तरह से हमलावर हुआ है और अस्पतालों को रौंदते हुए बच्चों तक को मार डाला है, उसकी भारत की ओर से कड़ी आलोचना होनी चाहिए थी और युद्ध रोकने की दिशा में सक्रिय हस्तक्षेप होना चाहिए था। भारत ने इस संदर्भ में न सिर्फ इजरायल का पक्ष ले लिया, साथ ही एक कुचली जा रही राष्ट्रीयता की पक्षधरता को नकारने की हद तक गया।

दरअसल, भारत इजरायल से अधिक अमेरिका की मध्य-एशियाई रणनीति का समर्थन देने में लगा हुआ था। वह जी-20 में विश्व व्यापार के नये रास्ते के निर्माण के ख्वाब को तरजीह दे रहा था। वह इस बात को नजरअंदाज कर गया कि यह रास्ता इन्हीं मध्य-एशियाई देशों के सागर तटों से गुजरते हुए जाएगा। अब यदि यह रास्ता असुरक्षित होता है तो भारत के लिए कच्चे तेल का आयात करना महंगा हो जाएगा, इसमें से सबसे बड़ा कारण जलपोतों को लंबी दूरी तय करना और इससे जुड़े खर्चे होंगे।

हाउथी हमलों से लाल सागर के व्यापारिक रास्ते को बचाने के लिए अमरिका ने यूरोपीय और इससे लगे देशों को साथ आने के लिए कहा है। इस प्रस्ताव से स्पेन, इटली, सऊदी अरब ने खुद को अलग कर लिया है। शुरूआत में अमेरिका ने दावा किया कि इस रास्ते की सुरक्षा के लिए 20 देशों ने अपनी समहमति दे दी है लेकिन दरअसल सिर्फ 12 देशों ने ही साथ कार्रवाई करने पर सहमति जताई है।

इस रास्ते की असुरक्षा तात्कालिक तौर पर माल ढुलाई के खर्चों में वृद्धि के रूप में सामने आएगी और निश्चित ही आपूर्ति का खर्च बढ़ जाएगा। यूरोप और अमेरिका की पूंजी के हितों के साथ साथ यह भू-राजनीतिक अवस्थिति को भी प्रभावित करेगा।

आमतौर पर माना जाता है कि देशों की मान्य राज्य सरकारें ही अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक समीकरणों को बनाती और बिगाड़ती हैं और इसमें अमेरिका और यूरोपीय साम्राज्यवादी देश निर्णायक भूमिका निभाते हैं। पिछले 30 सालों में भू-राजनीतिक समीकरणों में विद्रोही संगठनों के हस्तक्षेप का अध्ययन आमतौर पर कम दिखता है और अधिकांशतः उन्हें एक बने बनाये ढर्रें की परिभाषा में व्याख्यायित किया जाता है।

भारत में इस बारे में, खासकर मध्य एशिया में उभरी राजनीति के बारे में कम ही बात होती है। खासकर, धार्मिक व्याख्या का नजरिया इन राजनीतिक उभारों को देखने और समझने को बाधित करता है। आमतौर पर भारतीय बुद्धिजीवियों, पत्रकारों का बड़ा हिस्सा मध्य एशिया की राजनीति को ‘आतंकवाद’ के नजरिये से ही देखता है। निश्चित ही यह हमें मध्य एशिया को समझदारी से दूर ले जाता है, साथ ही उसके प्रति सही रुख अपनाने से भी बाधित करता है।

(अंजनी कुमार स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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